Tuesday, 28 December 2010

अवतारवाद:: ::जब पृथ्वी का पाप-भार बढ़ जाता है, ईश्वर का अवतार होता है



भारतीय संस्कृति अवतारवाद में विश्वास करती है । जब पृथ्वी का पाप-भार बढ़ जाता है, ईश्वर का अवतारअवतार थे, श्रीरामचन्द्र जी बारह कला और श्रीकृष्ण सोलह कला के अवतार माने गए हैं । रावण में भी दस कलाएँ थीं, पर उसमें दस आसुरी प्रवृत्तियाँ भी विकसित थी । अतः उसकी प्रवृत्ति विपरीत दिशा में चलती रही और उससे लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक हुई ।
होता है और वह अपनी शक्ति और सार्मथ्य से संसार का भार हलका कर पुण्य की स्थापना करता है । हमारे पूर्व अद्भूत शक्ति सम्पन्न अवतारी महापुरुष हुए हैं और उन्होंने चकित करने वाले कार्य किये हैं । यदि हम यह मानें कि एक हार्स पावर (यह कला) हममें है, तो हमारे अवतारों की कलाओं का कुछ सापेक्षित महत्त्व हमारे सन्मुख आ सकता है । परशुराम तीन कला के
सगुण रूप में ईश्वर के साकार स्वरूप का नाम ही अवतार है । र्निगुण निराकार का ध्यान तो सम्भव नहीं है, पर सगुण रूप में आकर वह इस संसार के कार्यों में फिर क्रम और व्यवस्था उत्पन्न करते हैं । हमारा प्रत्येक अवतार सर्व व्यापक चेततना सत्ता का मूर्त रूप है । श्री सुदर्शनसिंह ने लिखा है-
''अवतार शरीर प्रभु का नित्य-विग्रह है । वह न मायिक है और न पाँच भौतिक । उसमें स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीरों का भेद भी नहीं होता । जैसे दीपक की ज्योति में विशुद्ध अग्नि है, दीपक की बत्ती की मोटाई केवल उस अग्नि क आकार का तटस्थ उपादान कारण है, ऐसे ही भगवान का श्री विग्रह शुद्ध सचिदानंदघन हैं । भक्त का भाव, भाव स्तर से उद्भूत है और भाव-बिस्तर नित्य धाम से । भगवान का नित्य-विग्रह कर्मजन्य नहीं है । जीवन की भाँति किसी कर्म का परिणाम नहीं है । वह स्वेच्छामय है, इसी प्रकार भगवानवतार कर्म भी आसक्ति की कामना या वासना के अवतार प्रेरित नहीं है, दिव्य लीला के रुप है । भगवान के अवतार के समय उनके शरीर का बाल्य-कौमारादि रूपों में परिवर्तन दीखता है, वह रूपों के आविर्भाव तथा तिरोभाव के कारण ।''


भगवान का अवतार नीति और धर्म की स्थापना के लिए होता रहा है । जब समाज में पापों, मिथ्याचारों, दूषितवृत्तियों, अन्याय का बाहुल्य को जाता है, तब किसी न किसी रूप में पाप-निवृत्ति के लिए भगवान का स्वरूप प्रकट होता है । वह एक असामान्य प्रतिभाली व्यक्ति के रूप में होता है । उसमें हर प्रकार की शक्ति भरी रहती थी । वह स्वार्थ, लिप्सा के मद को, पाप के पुञ्ज को अपने आत्म-बल से दूर कर देता है । दुराचार, छल कपट, धोखा, भय, अन्याय के वातावरण को दूर कर मनुष्य के हृदय में विराजमान देवत्व की स्थापना करता है ।


पिता ने अपने पुत्र को, परमात्मा ने आत्मा को, राजा ने राजकुमारों को इसलिए भेजा है कि मेरी सृष्टि की न्यायपूर्ण व्यवस्था रखों । सत्य, प्रेम, विवेक को फैलाकर इस वाटिका को सुरम्य बनाओ पाप, अन्याय और अत्याचार फैला दे । ऐसी अव्यवस्था और अन्याय के समय के लिए शरीर का तीसरा नेत्र सुरक्षित है । जब मनुष्य के शरीर में फोड़े उठते हैं और बढ़ने लगते हैं, तो निर्दय डाक्टर की तरह भगवान चाकू घुसेड़ कर मवाद को निकाल डालना भी जानते है । भले ही रोगी हाय-हाय करता रहे और बेदना से विहृल होकर हाथ-पाँव छटपटावे । तात्पर्य यह है कि ईश्वर अधिक दिन तक जगत में पाप की प्रवृत्ति नहीं देख सकते । कारण आत्मा की अखण्डता ऐसी है कि एक व्यक्ति पापों का फल अन्य व्यक्तियों को भी भोगना पड़ता है । इस प्रकार कुछ व्यक्तियों द्वारा फैलाये हुए पापों का फल सभी सृष्टि को परेशान कर देता है । शेष जीवित प्राणी अनीति के, अत्याचार और आपत्ति के राक्षस के कराल डाढ़ों में फँस जाते है । जगत पिता अपनी सान्त्वनापूर्ण भुजाएँ फैलाकर करुण नेत्रों से संदेश देते हुए मानों कह उठते हैं-
''पुत्रों! इस अत्याचारी को दण्ड देकर तो मैं दूर किए देता हूँ, पर भविष्य में कभी ऐस भूल मत करना । तुम्हें इस पृथ्वी पर, संसार में सत्य, प्रेम और न्याय के सुमधुर फल चखने के लिए भेजा गया है, न कि इस सुरम्य वाटिका में दुराचार, छल, कपट, धोखा, अन्याय की आग लागने के लिए । शैतान के पंजे से सावधान रहना । दण्ड सहकर तुम्हारे पास संस्कार निवृत्त हो गये हैं । अब अपने र्कत्तव्य धर्म को समझो । तुम भोग-विलास या काम-वासना रत कीड़े नहीं हो, पवित्र निष्कंलक सात्विक प्रवृत्ति का आत्मा हो, निर्विकार हो । इन्द्रिय लालसा के लिए कदम मत बनाना । पिछली भूलों का प्रायश्चित करो और नवीन सतयुग का निर्माण करो ।''

इस प्रकार हिन्दू अवतार का सत्य स्वरूप यह है कि आप दंडित हो । दुराचार, छल-कपट से मनुष्य बचते रहें । उन पर दंडित होने का आतंक छाया रहे । मनुष्यता शोधत होकर, अपने विकार छोड़कर र्कत्तव्य धर्म पर आरूढ़ होती रहे । प्रभु का न्याय, सत्य विवेक और प्रेम का संतुलन ठीक बना रहे । अवतार के बाद सतयुग का आरंभ होता है । निर्विकार आत्माओं को राज्य छा जाता है । दुराचार का वायुमण्डल समाप्त हो जाता है और उज्ज्वल भविष्य दृष्टिगत होने लगता है ।

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