Saturday, 4 December 2010

शिलालेख की प्राप्ति श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन


शिलालेख की प्राप्ति श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन
शिलालेख का प्रारम्भ 'ऊँ नम: शिवाय' से हुआ है। शिलालेख में अयोध्या, साकेत मण्डल में बने स्वर्ण कलशयुक्त मन्दिर और अयोध्या की सुनदरता का वर्णन है। शिलालेख में वर्णन है कि बलि और दशानन का मानमर्दन करने वाले किसी पराक्रमी का यह मन्दिर है। जाहिर सी बात है कि वह श्रीराम ही हैं और उन्‍हीं का यह जन्‍म स्‍थान था।



ढांचे की दीवारों पर जब हमला हुआ तो जर्जर हो चुकी पुरानी दीवारें भरभराकर गिर पड़ीं। दीवारें खोखली थीं। खोखली दीवारें मलबे से भरी थीं, दीवारों से निकलने वाले नक्काशीदार पत्थरों को कारसेवक उठा-उठाकर मंच के नीचे लाकर रखने लगे। इसी बीच एक शिलालेख वहां लाकर रखा गया। सुधा मलैया (भोपाल) की बहादुरी, पुरातत्ववेत्ता डॉ स्वराज प्रकाश गुप्ता की सूझबूझ और पत्रकार रामशंकर अग्निहोत्री एवं फैजाबाद निवासी युवा व्यवसायी अशोक चटर्जी की कुशलता के परिणामस्वरूप वह शिलापट समाज के सामने गया। कालान्तर में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर भारत सरकार के विशेषज्ञों ने इस शिलालेख का फोटो औरछाप ली, जो उच्च न्यायालय लखनऊ पीठ में सुरक्षित है। यह शिलालेख विशेषज्ञों ने पढ़ लिया है और यह स्थापित हो गया है कि 5 फीट लम्बे और 2.25 फीट चौड़े इस आयताकार शिलापट पर 20 पंक्तियों में 30 श्लोक उत्कीर्ण हैं, इनकी भाषा संस्कृत और लिपि नागरी है, जो 12वीं शताब्दी के गढ़वाल राजवंश के अभिलेखों में पाई जाती है। शिलालेख का प्रारम्भ 'ऊँ नम: शिवाय' से हुआ है। शिलालेख में अयोध्या, साकेत मण्डल में बने स्वर्ण कलशयुक्त मन्दिर और अयोध्या की सुनदरता का वर्णन है। शिलालेख में वर्णन है कि बलि और दशानन का मानमर्दन करने वाले किसी पराक्रमी का यह मन्दिर है। जाहिर सी बात है कि वह श्रीराम ही हैं और उन्‍हीं का यह जन्‍म स्‍थान था।
इसके अतिरिक्त लगभग 250 अन्य पुरावशेष उस ढांचे से प्राप्त हुये जो आज श्रीराम जन्मभूमि परिसर में भारत सरकार के नियंत्रण में रखें हैं। इनमें से अनेक पुरावशेष ठीक वैसे ही हैं जैसे समतलीकरण के दौरान 18 जून 1992 को प्राप्त हुए थे। पूजा के अधिकार को अदालत की मान्यता 8 दिसम्बर 1992 की प्रात:काल ब्रह्म मुहुर्त के पूर्व ही केन्द्रीय सुरक्षा बलों ने सम्पूर्ण श्रीराम जन्मभूमि परिसर अपने अधिकार में ले लिया, तब तक कारसेवक रात-दिन परिश्रम करके श्रीरामलला विराजमान के लिए एक अस्थायी कपड़े का मन्दिर का निर्माण कर चुके थे। रामलला के चारों ओर लकड़ी की बांस बल्लियाँ लगाकर कपड़े की छत और उसकी सुरक्षा के लिए चारों ओर इंटों की पक्की दीवार बना दी गई थी। इसी को आज Makeshift Structure कहते हैं। श्रीरामलला विराजमान की पूजा अर्चना तो 6 दिसम्बर की सायंकाल को ही प्रारम्भ हो चुकी थी।
सुरक्षा बल की देखरेख में भगवान की पूजा-अर्चना जारी रही परन्तु जनता का आना-जाना बन्द हो गया। इक्‍कीस दिसम्बर 1992 को लखनऊ के हरिशंकर जैन एडवोकेट ने हिन्दू अधिवक्ता संघ की ओर से उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के सम्मुख याचिका (5314/1992) दायर करके प्रार्थना की कि शासन को निर्देशित किया जाए कि 'वह श्रीरामलला विराजमान के दर्शन-पूजन-आरती-भोग में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित करे, आरती पूजा-भोग सम्पन्न करने के लिए पुजारियों को श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर में प्रवेश की अनुमति दी जाए, पूजा सम्बन्धी कर्मकाण्ड में बाधा डाली जाए, ढांचे के मलबे से प्राप्त ऐतिहासिक महत्व के पुरावशेषों की सुरक्षा एवं संक्षण किया जाए। न्यायमूर्ति हरिनाथ तिलहरी एवं न्यायमूर्ति एएन गुप्ता की खण्डपीठ ने 1 जनवरी 1993 को याचिका स्वीकार करते हुए, वादी के पक्ष में निर्णय दिया। जनता को दर्शन की आज्ञा पुन: प्राप्त हो गई।

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