Friday, 21 January 2011

मेरे लिए यही संबोधन था उस व्यक्ति का फेसबुक पर कश्मीर पर चर्चा के दौरान.You the Indian dog

मेरे लिए यही संबोधन था उस व्यक्ति का फेसबुक पर कश्मीर पर चर्चा के दौरान.You the Indian dog 

You the Indian dog, मेरे लिए यही संबोधन था उस व्यक्ति का फेसबुक पर कश्मीर पर चर्चा के दौरान. मई हैरान था, जहाँ तक मुझे पता था, ये कहने वाला एक हिन्दुस्तानी( कश्मीरी) था. बात चल रही थी कश्मीर में उछाले जा रहे पत्थरों की तभी एकायक इस विमर्ष में जगह बना ली इस्लाम ने. मैं अकेला था इस बात को कहने वाला कि कश्मीर समस्या का हल पत्थरों से नहीं हो सकता और कई थे इस मत के पोषक की अब तो इस जन्नत को पत्थरों के सहारे ही बचाया जा सकता है...
कश्मीर के हालात पर मुझ जैसे किसी नौसिखिया पत्रकार को कुछ भी लिखने का अधिकार बुद्धजीवियों की और से नहीं दिया गया है लेकिन मै ये दुस्साहस कर रहा हूँ. भारत का कोई भी नागरिक कश्मीर को अपने दिल में रखता है. देश का आम नागरिक जो किसी पार्टी विशेष से सरोकार नहीं रखता हो या कश्मीर के प्रति किसी प्रकार की दुर्भावना से ग्रसित न हो(रखने को कई लोग तो बिहार के प्रति भी दुर्भावना रखते हैं) वो यही कहेगा की कश्मीर हमारे देश का ताज है. आज आखिर ऐसा क्या हो गया की लगभग एक अरब जनता की भावना पर घाटी के कुछ लाख लोगों के पत्थर भारी पड़ गए.
सन १९४७ में मिली आज़ादी के बाद से ही कश्मीर एक ऐसी समस्या के रूप में हमारे सामने आया है जिसका पूर्ण रूप से हल किसी पार्टी के पास नहीं है या शायद कोई हल निकालना भी नहीं चाहता. स्वतंत्र के बाद राज्यों का विलय हो रहा था. इसकी कमान सरदार पटेल के जिम्मे थी लेकिन कश्मीर को नेहरु अपने हाथ में रखना चाहते थे. लिहाजा पटेल यहाँ कुछ नहीं कर सके. नेहरु ने हरि सिंह से खुद ही बातचीत की. हरि सिंह कश्मीर को आज़ाद करवाना चाह रहे थे. उन्होंने नेहरु की बात नहीं सुनी. इसी बीच पकिस्तान के पख्तून कबीले के लोगों को आगे कर पाकिस्तानी हुक्मरानों ने कश्मीर पर हमला बोल दिया. हरि सिंह भाग कर नेहरु के पास आये और भारत कि सहायता मांगी. इसी समय नेहरु ने हरि सिंह से कश्मीर के भारत में विलय के इकरारनामे पर दस्तखत करवा लिए. बस यहीं से कश्मीर भारत का हिस्सा हो गया. राजनीतिक रूप से कश्मीर भले ही भारत का अंग हो गया लेकिन भावनात्मक रूप से अभी तक नहीं हो पाया है. कभी पाकिस्तान के सुर में सुर मिलाने वाले शेख अब्दुल्लाह ने दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में अपने लिए समर्थन कि हवा बहा रख थी. उसी का नतीजा था कि कश्मीर में धारा ३७० भी लगवा दी. कश्मीर का अलग संविधान हो गया. देश कि संसद का कोई भी कानून वहां सीधे लागू नहीं हो सकता. शेख अब्दुल्लाह अमर हो गए और लगा कि कश्मीर कि आवाम अब विकास के रथ पर सवार हो जाएगी.
इस दौरान देश में एक पूरी पीढ़ी कश्मीर में इंसान और बंदूकों के रिश्तों को परिभाषित करते प्रौढ़ हो गयी. पीछे मुड़ कर देखा तो कश्मीर में चिनार के पेड़ों से ज्यादा सड़कों पर पत्थर और आवाम में असंतोष नज़र आया. आखिर क्या वजह थी इसकी?
अपने हक की आवाज़ उठाते- उठाते कश्मीर के लोगों को पत्थर उठाने पड़ गए. देश का सबसे युवा मुख्यमंत्री जिस प्रदेश के पास हो वो सूबा एक लाइलाज बिमारी से तड़प रहा है. जबरदस्त असंतोष की भावना ने महज डेढ़ साल पुरानी उमर अब्दुलाह सरकार की आफत बुला दी है. पिछले कुछ दिनों में कश्मीर में हुए सुरक्षा बलों और नागरिकों के बीच संघर्ष में ६० लोग मारे जा चुके हैं. समस्या जस की तस बनी हुयी है. उमर अब्दुलाह दिल्ली के चक्कर लगा रहें हैं. इसी बीच प्रधानमन्त्री के आये एक बयान ने नया पेंच फंसा दिया. मनमोहन सिंह कश्मीर कि स्वायतता की बात का समर्थन कर रहें हैं. लेकिन अगर संविधान विशेषज्ञों की मानी जाये तो कश्मीर पहले से ही स्वायत है. संविधान की धारा ३७० इस बात की दुहाई देती है. इसके अलावा भी कश्मीर को केंद्र की ओर से बहुत कुछ मिलता है. इतना मिलता है जितना देश के किसी राज्य के निवासियों को नहीं मिलता. लेकिन इसके बावजूद कश्मीर में सड़कों पर पत्थर क्यों नज़र आते हैं?
कश्मीर में भले ही भारत सरकार सबसे अधिक आर्थिक योगदान देती है लेकिन वहां के लोगों को इसका फायदा नहीं मिलता. क्योंकि वहां भ्रष्टाचार चरम पर है. केंद्र सरकार की दी धनराशि क्या बेहद कम हिस्सा वहां के नागरिकों को मिलता है. राज्य सरकार के मंत्री इस धनराशि का बड़ा भाग अपने लाभ पर खर्च करते हैं. जो कुछ बच जाता है उससे केंद्र सरकार के नौकरशाह उड़नखटोले में बैठ कर कश्मीर की वादियों की सैर करते हैं, दिल्ली ले जाने के लिए सेव और पश्मीना शाल पैक कराते हैं. इसके साथ ही यह कोशिश करते हैं कि कश्मीर के साथ जुदा 'समस्या' शब्द हटने ना पाए. कश्मीर हमेशा के लिए एक समस्या के तौर पर बना रहे.
अगर वास्तविकता में केंद्र सरकार ये चाहती है कि कश्मीर का मसला हल हो तो उसे इस बात के प्रमाण देने होंगे कि उसके पास इसे लेकर एक ठोस राजनीतिक योजना है. जो सहायता कश्मीर के नागरिकों को दी जा रही है उसका समुचित हिस्सा उन तक पहुँच रहा है. इसके अलावा सरकार को ये भी कोशिश करनी चाहिए कि पडोसी मुल्क की भीख पर पलने वाले कुछ अलगाव वादियों के इशारे पर हाथों में पत्थर उठाये युवा कश्मीर को वहीँ के बुजुर्ग इस काम से रोक ले. वरना ये पत्थर एक दिन इतने अधिक हो जायेंगे जो घाटी की ओर जाने वाले हर रास्ते को बंद कर देंगे और हम इस ओर खड़े होकर सुनेंगे you indian dog.

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