Saturday, 15 January 2011

वास्तुशास्त्र में पूर्व,पश्चिम,उत्तर,दक्षिण तथा अग्रेय,नैऋत्य,वायव्य एवं ईशान्य-इन आठों ही दिशाओं-उपदिशाओं का महत्व है। वास्तुशास्त्र के आधार पर किसी को प्लॉट,बंगला,मकान या बड़ी इमारत बनानी हो या रहने के लिए जाना हो तो सर्वप्रथम उस जगह की दिशाओं को विचार करना आवश्यक है। प्लॉट,बंगला,इमारत या इमारत के अंदर के ब्लॉक का प्रवेशद्वार किस दिशा में है-इसका विचार करना चाहिए। पूर्व दिशा आमतौर पर सूर्योदयवाली मानी जाती है किंतु केवल सूर्योदय की दिशा को पूर्व दिशा न मानकर दिशाबोधक यंत्र के माध्यम से ही दिशा निश्चित करनी चाहिए। पृथ्वी सूर्य के इर्द-गिर्द घूमती रहने से उदित सूर्य की पूर्व दिशा में थोड़ा अंतर हो सकता है। किंतु चुंबकीय गुणोंवाले दिशाबोधक यंत्र के उपयोग से पूर्व,पश्चिम,उत्तर,दक्षिण के संबंध में अचूक अनुमान लगाया जा सकता है। विषुववृत्त की मूल कल्पना के अनुसार,पृथ्वी का दायरा बदलता रहता है और इसी कारण प्रोसीजर ऑफ दक्विनॉक्स की पद्धति का अध्ययनकरने कम्पस की रचना की गई। इसी कारण इस यंत्र द्वारा इंगित की गई दिशा मं सौ प्रतिशत ठीक होती है। जिस प्रकार मानव-जीवन में अंकों का महत्व है,उसी प्रकार यही बात दिशाओं के संबंध में भी लागू होती है। व्यक्ति पर होनेवाले या हो रहे अच्छे-बुरे प्रभाव को हम महसूस करते है। इसी पद्धति से सूर्य के इर्द-गिर्द के परिभ्रमण,उसका दिशाओं पर होनेवाले प्रभाव और सूर्य किरणों का व्यक्ति पर होनेवाला प्रभाव भी ध्यान में लेने की जरूरत है। विश्वविख्यात भविष्यवेत्ता कीरो ने अपनी पुस्तक कनसेपशन्स में उपरोक्त बात की पुष्टि की है। हिंदू संस्कृति के उपासक ऋषि-मुनियों ने भी इस बात का उल्लेख किया है। उनकी हजारों वर्ष पहले लिखी बातों को पढ़कर और उन्हें सत्य सिद्ध होता देखकर आज हमें अचंभा होता है। उपरोक्त सभी बातों का एक ही निष्कर्ष निकलता है कि व्यक्ति के जीवन में दिशाओं का अत्यधिक महत्व है। वह किस दिशा में बने मकान में रहता है? जिस घर में वह रहता है उस मकान का दरवाजा किस दिशा में है? उसके मकान की आंतरिक साज-सज्जा कैसी है? इस बातों से उस व्यक्ति की संपन्नता या विपन्नता का पता आसानी से लग जाता है। इसी तरह मकान में कौन-कौन से परिवर्तन किए जाएं कि रहनेवालों का भला हो सके और जो बुरा हो रहा है या होनेवाला है उस पर रोक लगे। प्रमुख रूप से दिशाओं की विस्तृत जानकारी पुस्तक में हम आपको अन्यत्र देंगे। पूर्व,पश्चिम,उत्तर एवं दक्षिण मुख्य दिशाएं हैं। आग्रेय,नैऋत्य,वायव्य एवं ईशान्य- ये चार उपदिशाएं है। हर दिशा एवं उपदिशा के अपने खास गुण-दोष हैं। इन गुण-दोषों के अनुसार फल मिलते रहते हैं। हर दिशा का एक स्वामी या देवता माना गया है। पूर्व:- पूर्व दिशा को प्राची भी कहा जाता है। इस दिशा का स्वामी इंद्र है। इंद्र को देवों का राजा और हर कार्य में दक्ष माना गया है तथा वेदों में भी स्थान दिया गया है। शत्रुओं का नाश करनेवाला यह बहुरूपिया इंद्र ब्रह्मदेव के मुंह से उत्पन्न हुआ है। यह अपनी मर्जी से किसी भी आकार या रूप में प्रकट हो सकता है। वर्षा का देवता भी इंद्र ही है। यही कारण है कि जब वर्षा नहीं होती तब मानव इंद्र से प्रार्थना करते है। मरूत का मतलब है हवा,यह हवा उसकी सहायक होती है। धन,धान्य,पशु,इत्यादि की वृद्धि के लिए इंद्रोपासना की परम आवश्यकता है। इंद्र का निवास स्वर्ग में है। उसकी राजधानी अमरावती है और वाहन ऐरावत नामक हाथी है। उसके घोड़े का नाम उच्च्श्रवा और शस्त्र वज्र है। सूर्य,अग्रि,इंद्र,जयन्त,ईश,पर्जन्य,सत्य,भूप एवं आकाश आदि देवताओं को निवास पूर्व दिशा में है। पश्चिम:- पश्चिम का अर्थ है बाद में। व्यावहारिक भाषा में कहा जाए तो उदय होने के बाद जिस जगह उसकी अस्त होता है वह दिशा। इस दिशा में कोई भी कार्य आगे नहीं बढ़ पाता,पनप नहीं पाता। इस दिशा का स्वामी वरूण है। इस दिशा पर अगस्त्य ऋषि का प्रभाव है। निवास समुद्र है। पानी परी इनका प्रभाव रहता है। उत्तर:- इस दिशा का स्वामी या देवता है। कुबेर का अर्थ है-आनेवाली या होनेवाली घटना पर नियंत्रण एवं हमेशा बढ़ोतरी करनेवाला। संस्कृत में कुत्सित वेट शरीरं यस्यस: कहा गया है। इसके पास ऐश्वर्य का भंडार तथा अकूत धन रहता है। यक्ष एवं किन्नरों का यह राज है। रूद्र इसका मित्र है। कैलाश पर्वत पर इसका निवास है इसके तीन पैर,आठ हाथ और एक आंख की जगह पीले रंग का बिंदु है। इसका ग्रह बुध है,हर महीने के कृष्णपक्ष में इसका प्रभाव अधिक होता है। कुबेर,दिती,आदिती,शैल,नाग एवं भल्लाट आदि देवताओं का निवास इसके पास होता है। दक्षिण:- इस दिशा का स्वामी या देवता यम है। यह सूर्यपूत्र है। विष्णु इसके शत्रु है। भरणी नक्षत्र इसके लिए महत्वपूर्ण है। इस नक्षत्र का प्रभाव आश्विन एवं कार्तिक मास के अंतिम 8-8 दिन अधिक रहता है। मानव जीवन को क्षीण बनानेवाली यह दिशा है। दक्षिण दिशा का स्वामी यह होने से दक्षिण दिशा सभी शुभ कार्यों के लिए वज्र्य मानी गई है। यम,गंधर्व,मृग,पूषा,वितथ और क्षत आदि देवताओं का निवास दक्षिण दिशा में रहता है। अग्रेय:- पूर्व एवं दक्षिण के मध्य के कोण को आग्रेय कहा गया है। इस दिशा का स्वामी अग्रि है,इसीलिए अपने नाम अनुसार यह अग्रेय कहलाती है। महर्षि व्यास द्वारा लिखे गए अठारह पुराणों में वशिष्ठ ऋषि द्वारा कथित 14,500 श�ोकों का जिसमें अंतर्भाव है,उसी को अग्रिपुराण की संज्ञा प्राप्त है। ऋगवेद की कई ऋचाओं के अनुसार अग्रि और इंद्र जुड़वां भाई हैं। यद्यपि अग्रि अमर है,फिर भी मानव का घर उसका अतिथि गृह है। सभी समारोहों का अधिपत्य इसी के पास है। अग्रि सबका त्राता और संरक्षक है। अग्रि भक्तिभाव और पुजा-अर्चना करनेवाले मानव की भावना को आकाश में बसे उसके ईश्वर तक पहुंचाता है। इस कल्पना में वाईब्रेशन थ्योरी कार्यरत रहती है। अग्रि का अस्तित्व आकाश में सूर्य भगवान के कारण,वातावरण में बिजली के कारण और पृथ्वी पर ज्योति या ज्वाला के कारण रहता है। अग्रि प्राणिमात्र की सभी बातों से परिचित है और वह सभी पर कृपा करती है। अग्रि उपासक व्यक्तिआर्थिक दृष्टि से सुदृढ़ और दीर्घायु होता है। अग्रि में आहुति देनेवाले मनुष्य की चिंता स्वयं अग्रि करती है। यज्ञ-याग,होम-हवन करनेवाले मानव को अग्रि सुख-शांति,संतान एवं समृद्धि प्रदान करती है। यह बात ऋगवेद में स्पष्ट की गई है। इसीलिए सुबह-शाम सूर्योदय एवं सूर्यास्त के कुछ क्षण पहले अग्रिहोत्र करने का प्रावधान है। इस संदर्भ मे निम्र श�ोक का उद्धरण यहां प्रासंगिक है: सप्तहस्तचतु: शंृग सप्तजिव्हि द्विशीर्षक: त्रियात् प्रसन्न-वदन: सुखीसीन: शुचिस्मित: स्वाहां तु दक्षिणं पाश्र्वे देवो वामें स्वधांतथा बिभ्रद दक्षिणहस्तैस्तु शक्तिमननं सृचं श्रृवं तोमरं व्यंजनं वामैघतपात्रे च धारयन् आत्माभिमुखमासोनं एवं रूपो हुताशन: कराली धमिनो श्वेता लोहिता नोललोहिता सुवर्णा पद्मरागाइति विभावसों: सप्तजिव्हानामानि पोजा श्वेतो आरशा घूमा तोक्ष्णा स्फुलिंगिनो ज्वलिनो ज्वालिनी इति कुशाना: नव शक्तय: महाभारत मे अनुशासन पर्व में पेड़ में अग्रि के अस्तित्व की बात कही गई है। कोई भी मकान बनाते समय उसका पहला स्तंभ या रसोईघर की जगह हमेशा आग्रेय दिशा में ही होनी चाहिए। यह वास्तुषास्त्र का पहला और महत्वपूर्ण नियम है। हर महीने का पहला दिन अग्रि तत्व स्वरूप होता है। नैऋत्य:- दक्षिण एवं पश्चिम के मध्य का कोण नैऋत्य है। इस दिशा की स्वामिनी या देवता नैऋति है। इसका मूलार्थ है-पुन:-पुन: होना-चाहे वह मनुष्य का जन्म हो या कोई अन्य घटना। नैऋति से तात्पर्य है कि उचित समय पर उचित बात या घटना न हो तो उसका पुनर्निर्माण कभी नहीं होता। ऐसी दिशा में अगर मकान बनाया जाए तो गड्ढे खोदने पड़ते हैं,इसका अर्थ यह है कि इस दिशा में मकान बनने पर निरंतर उसका क्षरण होता रहेगा। नैऋत: यानी असुर या क्रुर कर्म करनेवाला व्यक्ति। ऋगवेद में इस संदर्भ निम्र श�ोक है: भयमप्रथो द्वेगादाचरंव्युनैऋतो दधे:। इस दिशा का गुणधर्म नाश करना है,बुरे काम करना है। मकान की नेऋत्य दिशा कभी खाली नहीं रखनी चाहिए और न ही भूखंड के नैऋत्य में कोई गड्ढा ही खोदना चाहिए। यह दिशा असुर,क्रूर कर्म करनेवाली शक्ति यास भूत-पिशाच की दिशा है। इसलिए यह दिशा कभी भी खाली या रिक्त न रखें। भूखंड में अशुभ एवं कष्टकारी बातों का संचय न हो इसलिए इस दिशा में गड्ढा खोदना निषेध है। किसी कारणवश गड्ढा खोदना पड़े तो उससे अच्छे फल देेनेवाले वृक्ष लगाएं या फिर वह गड्ढा बंद करवा दें। वायव्य:- उत्तर तथा पूर्व दिशा के मध्य कोण को वायव्य की संज्ञा दी गई है। इस दिशा का स्वामी या देवता वायु है। प्राण,अपान,समान,व्यान ओर उदान-इन पांच प्रकार के वायु की आवश्यकात मनुष्य जीवन के लिए अपरिहार्य है। हनुमान या भीम इसके प्रतीक स्वरूप हैं। अठारह पुराणों में वायुपुराण नामक एक अलग पुराण है। वायु यानी हनुमान का पूजन या भक्ति उपासना करनेवाले को, उसके जीवन में अविलंब फल प्राप्त होते हैं-यह अनुभव सिद्ध बात है। ईशान्य:- उत्तर और पूर्व दिशा के मध्य का कोण ईशान्य कहलाता है। इस दिशा का स्वामी या देवता स्वयं ईश्वर है। श्री भगवान शंकर इस दिशा के अधिपति हैं इसका अस्त्र पाशुपत है। आद्र्रा नक्षत्र इसका द्योतक प्रतीक है। सेमल का वृक्ष इस दिशा में शुभ माना जाता है। इस दिशा के देवता का ध्यान स्मरण करने से मनुष्य में कई गुण उत्पन्न होते हैं। सभी प्रकार की दैवी शक्तियां इस दिशा को पवित्र रखने से प्राप्त होती हैं। इस दिशा में मकान बनाने से उसमें रहनेवालों को धन-यश-संपत्ति एवं सभी प्रकार की श्रेष्ठता प्राप्त होती है। ईशान्य दिशा में सूर्य की जो किरणें फैलती हैं उन्हे अल्ट्रा वायलेट रेज कहा जाता है। इन किरणों को मनुष्य के उपचारार्थ काम में लाया जाता है। इसी कारण ऋषि-मुनियों ने इस अदृश्य शक्ति को कई नामों से संबोधित किया है। इस दिशा को कई नाम और प्रतीक दिए गए हैं यथा-नीलकंठ,अत्युग्रु,शशिखर,नागेंद्रहार,त्रिनयन,अतिंद्रिय,गंगाधर,नागेंद्रकाय,सहस्राक्षर,सुक्ष्म,ज्वल-त्रिशूल,शंकर,वज्रदंष्ट्र,अनंत,गंडमल। इन नामें का गहराई से अध्ययन करने पर उनके गुणधर्म और परिणामों की जानकारी प्राप्त होती है।

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