Sunday, 16 January 2011

तीर्थ- भारत की सांस्कृतिक एकात्मता के प्रतीक

 

 भारत की सांस्कृतिक एकात्मता के प्रतीक :: :: तीर्थ                     

विषय प्रवेश- 
अनन्त काल से भारत को सांस्कृतिक ऐक्य प्रदान करने में तीर्थों व तीर्थयात्राओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। भिन्न-भिन्न राजाओं द्वारा शासित अनेकों राज्यों में विभाजित रहते हुए व अनेक साम्प्रदायिक समूहों की उपस्थिति के उपरान्त भी तीर्थस्थल सामूहिक श्रद्धा के केन्द्र रहे हैं व तीर्थपर्यटन हिन्दु समाज के जीवन का अभिन्न अंग रहा है। प्रकृति प्रदत्त नदी तट, संगम, कूप, तड़ाग, वन-वृक्ष, पर्वत आदि के तीर्थों के रूप में विकसित व पूजित होने के कारण नैसर्गिक पर्यावरण निष्ठा आधुनिक पर्यवरण चिन्ता से कहीं अधिक श्रेष्ठ व सुदृढ़ रही है। विभिन्न पर्वों-उत्सवों के अवसर पर तीर्थ स्थलों सामाजिक सौहार्द का जो वातावरण दृष्टिगोचर होता है वह हमारी सामाजिक समरसता को एक दृढ़ आधार प्रदान करने में सक्षम है। जाति-वर्ण, सम्पन्नता-विपन्नता का भेद-भाव भूल कर सभी तीर्थ यात्री पुण्यार्जन हेतु एक जैसा व्यवहार करते प्रतीत होते हैं। पवित्र नदियों व सरोवरों में बिना किसी भेद-भाव सभी का एक ही जल में स्नान करना सम्पूर्ण हिन्दु समाज को एक सूत्र में पिरो देता है। अत: तीर्थ- तीर्थयात्रा व तीर्थ पर्यटन का मूल्यांकन वर्तमान भार्तीय समाज के साम्प्रदायिक विघटन व पर्यावरण असुरक्षा भय के निराकरण में एक सुदृढ़ व सकारात्मक दिशा प्रदान कर सकता है।
तीर्थ शब्द का अर्थ-ऋगवेद में तीर्थ शब्द कहीं मार्ग के अर्थ में, कहीं नदी के उथले स्थान के रूप में व कहीं पवित्र स्थान के रूप में प्रयुक्त हुआ है। तैत्तिरीयोपनिषद् संहिता व वाजसनेयी संहिता में तीर्थों की पवित्रता का वर्णन है।
जल रूप तीर्थ-
 ऋगवेद में जलों, सामान्य रूप से सभी नदियों की ओर श्रद्धा के साथ संकेत किया गया है। तैत्तिरीयोपनिषद संहिता ने उद्घोष किया है कि सभी देवता जल में केन्द्रित हैं। अथर्ववेद में जलों को शुद्ध एवं पवित्र करने वाला कहा गया है। ऋगवेद में सरस्वती नदी की देवी के रूप में स्तुति की गई है- "अम्बितमे नदीतमे देवितमे सरस्वती”। ब्राह्मणग्रन्थों व श्रौतसूत्रों में सरस्वती के तट पर होने वाले सारस्वत सत्रों का उल्लेख है। कूर्मपुराण का कथन है कि गंगा सभी नदियों में पवित्र है। पद्मपुराण के अनुसार सभी नदियां चाहे वे ग्रामों से या वनों से होकर जाती हों, पवित्र हैं और जहां नदियों के तट का कोई तीर्थ नाम न हो उसे विष्णुतीर्थ कहना चाहिये। इस कारण भारत की विभिन्न नदियों के तटों ने तीर्थ का रूप ले लिया। नदी जल की प्रचुरता व शुद्धता के स्थान विशेष रूप से हिन्दु समाज की श्रद्धा के केन्द्र बने। भारत में प्रत्येक १२ वर्ष के उपरान्त ४ विभिन्न नदियों के तटों पर होने वाले कुम्भ पर्वों का पौराणिक वांग्मय में अत्यधिक महत्व है। इन कुम्भ पर्वों पर भारत के प्राय सभी अँचलों से व विदेशों से भी श्रद्धालु परम्परागत रीति से नदी जल में स्नान कर पुण्यार्जन करते है। प्रत्येक मकर संक्रान्ति पर गंगा नदी के समुद्र में विसर्जित होने वाले गंगासागर तीर्थ का स्नान समुद्र जल के प्रति भी हमारी श्रद्धा का द्योतक है।
पर्वत- 
ऋगवेद में पर्वत को इन्द्र का संयुक्त देवता कहा गया है। कूर्मपुराण के अनुसार हिमालय के सभी भाग पुनीत हैं। कालिदास ने कुमारसम्भव में हिमालय को देवतात्मा कहा है।
वन- 
ऋगवेद में विशाल वन (अरण्यानी) को देवता के रूप में सम्बोधित किया गया है। वामनपुराण (३४/३-५) ने कुरुक्षेत्र के सात वनों को पुण्यप्रद व पापहारी कहा है। ये सात वन हैं- काम्यकवन, अदितिवन, व्यासवन, फलकीवन, सूर्यवन, मधुवन एवम् पुण्यशीतवन। पीपल, तुलसी, वट जैसे वृक्ष देव-वृक्ष हैं और लोक-जीवन में उनकी पूजा-मान्यता प्रचलित है। वृक्ष पूजा का पूरा विधि-विधान है और उसके अध्ययन से जातीय स्मृतियों को पढ़ा जा सकता है।
वन, पर्वत एवम् जल का समन्वित एक महत्वपूर्ण तीर्थ व्रज है। व्रजप्रदेश केवल भगवान् कृष्ण की क्रीड़ास्थली होने से ही नहीं अपितु प्राकृतिक सम्पन्नता व बौद्धों व जैन सम्प्रदाय के प्रसार का केन्द्र रहा है। ब्रज शब्द संस्कृत धातु ब्रज से बना है, जिसका अर्थ गतिशीलता से है। जहां गाय चरती हैं और विचरण करती हैं वह स्थान भी ब्रज कहा गया है। अमरकोश के लेखक ने ब्रज के तीन अर्थ प्रस्तुत किये हैं- गोष्ठ (गायों का बाड़ा) मार्ग और वृंद (झुण्ड) ।संस्कृत के वृज शब्द से ही हिन्दी का ब्रज शब्द बना है वैदिक संहिताओं तथा रामायण, महाभारत आदि संस्कृत के प्राचीन धर्मग्रंथों में ब्रज शब्द गोशाला, गो-स्थान, गोचर भूमि के अर्थों में भी प्रयुक्त हुआ है। ॠगवेद में यह शब्द गोशाला अथवा गायों के खिरक के रुप में वर्णित है। यजुर्वेद में गायों के चरने के स्थान को ब्रज और गोशाला को गोष्ठ कहा गया है। शुक्लयजुर्वेद में सुन्दर सींगों वाली गायों के विचरण स्थान से ब्रज का संकेत मिलता है। अथर्ववेद में गोशालाओं से सम्बधित पूरा सूक्त ही प्रस्तुत है। हरिवंश तथा भागवतपुराणों में यह शब्द गोप बस्ती के रुप में प्रयुक्त हुआ है। स्कंदपुराण में महर्षि शांण्डिल्य ने ब्रज शब्द का व्यापक अर्थ बतलाते हुए इसे व्यापक ब्रह्म का रुप कहा है। अत: यह शब्द ब्रज की आध्यात्मिकता से सम्बधित है। राधा-कृष्णोपासक भक्तों ने अपनी उपासना और मानसी ध्यान के लिये व्रज के एक आध्यात्मिक स्वरुप की भी कल्पना की है। उन कल्पना-शील भक्तों में इस महिमांडित दिव्य ब्रज के गोलोक का प्रतीक माना गया है।
कहा भी है- "व्रजन्ति गावो यस्मिन्निति व्रजः ॥ ”
चार धाम और ब्रज- भारत वर्ष के चारों कोनों पर स्थित चार पवित्र धाम भी सप्त महापुरियों की भाँति अपना अनुपम महत्व रखते हैं। इनमें से उत्तर, पूर्व और पश्चिम के तीन - बदरीनाथ, जगन्नाथ और द्वारिका - श्री कृष्ण के धाम होने से ब्रज अर्थात मथुरा मण्डल से धनिष्ठ सम्बध रखते हैं। केवल दक्षिण का चौथा धाम रामेश्वर ही श्री राम के सेतु-बंध की स्मृतिमें निर्मित हुआ है।
ब्रज भक्तो की भावना के अनुसार वैसे इन चारों धामों के मूल स्रोत ब्रज में ही माने जाते हैं। यहाँ के आदिवदरी नामक स्थान में बदरीनाथ और अलकनंदा आदि उत्तर के तीर्थ हैं, राधा कुंड के निकट गिरिराज की सधन कुँजों में पूर्व के जगन्नाथ विराजमान हैं कोसी के अंचल में पश्चिम के द्वारिकाधीश तथा कामबन में दक्षिण के रामेश्वर की विद्यमानता है। इस प्रकार चारों धामों के कारण भी ब्रज की अपूर्व महिमा मानी गयी है। ब्रज क्षेत्र की मुख्य नगरी मथुरा संसार के प्राचीन नगरों में से एक है। भगवान कृष्ण की जन्मभूमि होने से इस नगरी का महत्व द्वापरयुग से ही अत्यन्त सर्वोपरि रहा है। भगवान कृष्ण के प्राचीन जन्मस्थान मन्दिर कटड़ा केशवदेव का मुग़ल शासक औरंगज़ेब द्वारा विध्वंस कर उस पर एक ईदगाह का निर्माण कराया गया जो आज भी उस स्थान पर खड़ी है, किन्तु साथ में नवीन श्रीकृष्ण जन्मस्थान मन्दिर विश्व भर के हिन्दु श्रद्धालुओं के लिये मुख्य तीर्थस्थल है। यह यमुना के उत्तरी तट पर दिल्ली से १४५ किलो मीटर और आगरा से ५८ किलो मीटर दूर है।
इसके नाम के विषय में अनेकों प्रकार से व्याख्या की जाती है। कुछ लोग इस शब्द की उत्पत्ति मधु यानि शहद से मानते हैं तो कुछ लोग दैत्यराज मधु के नाम से। भाषा विज्ञान के अनुसार ये सभी व्याख्याएं सत्यापित नहीं है। साहित्यिक संदर्भ में यह स्थान अनेकों नामों से चर्चित है जैसे- मधुबन, मधुपत्तन, मधुपुरी।
तीर्थ महात्मय-
 महाभारत व पुराणों में तीर्थों की महिमा का विषद वर्णन आया है। महाभारत वनपर्व (८२/९-१२) व अनुशासनपर्व (१०८/३-४) में तीर्थयात्रा से पूर्ण पुण्य प्राप्ति के लिये उच्च नैतिक एवम् आध्यात्मिक गुणों पर बल दिया गया है। स्कन्दपुराण (काशीखण्ड- ६/३) में दृढ़्तापूर्वक कहा गया है- ‘जिसका शरीर जल में सिक्त है, उसे केवल इतने से ही स्नान किया हुआ नहीं कह सकते; जो इन्द्रियसंयम से सिक्त है, जो पुनीत है, सभी प्रकार के दोषों से मुक्त एवम् कलंकरहित है केवल वही स्नात कहा जा सकता है।’ यही बात महाभारत अनुशासनपर्व (१०८/९) में भी कही गई है। दूसरी और विष्णुधर्मित्तरपुराण (३/२७३/७) ने स्पष्ट कहा है कि जब तीर्थयात्रा की जाती है तो पापी के पाप कटते हैं, सज्जन की धर्मवृद्धि होती है; सभी वर्णों व आश्रमों के लोगों को तीर्थ का फल प्राप्त होता है। पद्मपुराण ने तीर्थों के अर्थ व परिधि को विस्तार देते हुए घोषणा की है- “जहाँ अग्निहोत्र एवं श्राद्ध होता है, मन्दिर, वह घर जहाँ वैदिक अध्ययन होता है, गोशाला, वाटिकायें जहाँ अश्वत्थ वृक्ष है, जहाँ पुराण-पाठ होता है व जहाँ गुरू अथवा पतिव्रता स्त्री रहती हो, ये सभी स्थान तीर्थ के समान ही पवित्र हैं।
संख्या- मत्स्यपुराण के अनुसार ३५ कोटि तीर्थ हैं जो अकाश अन्तरिक्ष व भूमि में पाये जाते हैं और सभी गंगा में अवस्थित माने जाते हैं। वामनपुराण ने ३५ कोटि लिड्ग माने हैं। ब्रह्मपुराण ने लगभग ५२० तीर्थों का संकलन किय है। महाभारत भीष्मपर्व में लगभग १६० नदियों का उल्लेख है। गरुड़पुराण व पद्मपुराण में क्रमश: २०० व १०८ तीर्थों के नाम आये हैं।
वैदिक साहित्य को छोड़कर महाभारत एवं पुराणों में लगभग ४०,००० श्लोक तीर्थों उपतीर्थों व उनसे सम्बन्धित किंवदन्तियों के विषय में ही प्रणीत हैं। महाभारत वनपर्व एवम् शल्यपर्व में ३९०० के लगभग केवल तीर्थयात्रा सम्बन्धी श्लोक हैं। ब्रह्मपुराण मे ६७०० श्लोक तीर्थों के विषय में हैं; पद्मपुराण के प्रथम ५ खण्डों के ३१००० श्लोकों में ४००० श्लोक तीर्थ सम्बन्धी हैं; वराहपुराण में ९६१४ श्लोकों में से ३१८२ श्लोक तीर्थसम्बन्धित हैं, इसमें भी १४०० श्लोक केवल मथुरा के विषय में हैं; मत्स्यपुराण के १४००२ श्लोकों में १२०० श्लोक तीर्थ से सम्बन्धित हैं।
हिन्दु तीर्थों के विषय में जिन अत्यन्त महत्वपूर्ण तीर्थों पर मतैक्य है उनमें चार धाम- उत्तर में बद्रीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम, पूर्व में जगन्नाथपुरी व पश्चिम में द्वारिका प्रमुख हैं। इन चार धामों का भारत भूमि की चारों दिशाओं में होना पूरे भारतवर्ष को सांस्कृतिक एकता के सूत्र में बांधते हैं। ये चारों धाम तीर्थयात्री को जहां पूरे भारत का भ्रमण कराते हैं, वही सम्पूर्ण राष्ट्र के प्रति तीर्थयात्री के मन में एकात्मता का भाव जाग्रत करते हैं।
इसी प्रकार भारत की चारों दिशाओं में आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार शांकरपीठों का भारत की भोगोलिक सांस्कृतिक एकता की स्थापना में विशेष महत्व है। उत्तर में ज्योतिर्पीठ, दक्षिण में श्रृंगेरीपीठ, पूर्व में गोवर्धनपीठ व पश्चिम में शारदापीठ के नाम से विख्यात ये चार शांकरपीठ आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित परम्परा व अपनी मर्यादाओं के प्रति आद्योपान्त समर्पित है व समस्त विश्व के हिन्दुओं की श्रद्धा का केन्द्र है। शंकराचार्य हिन्दुओं के सर्वोच्च प्रेरणा स्रोत माने जाते हैं। अत: शंकराचार्यों अथवा शांकरपीठों का दर्शन भी तीर्थ से कम नहीं है।
सात पुरियों में अयोध्या, मथुरा, माया (हरिद्वार), काशी (वाराणसी), काँची, अवन्तिका (उज्जयनी) व द्वारिका का भी तीर्थ स्थानों की श्रेणी में विशेष स्थान है।
सात नदियॊं में गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिन्धु व कावेरी भी प्राय सम्पूर्ण भारत की जलदायिनी सम्पदा का चित्र उपस्थित करती हैं व हिन्दु समाज की प्रकृति व पर्यावरण के प्रति धारणा से अवगत कराती हैं। ये सभी नदियाँ व इनके तट तीर्थ ही हैं।
इन्के अतिरिक्त द्वादश ज्योतिर्लिंगों व ५२ शक्तिपीठों की गणना भी भारत के प्रमुख तीर्थॊ में की जाती है।
१२ ज्योतिर्लिंगों में सोमनाथ, मल्लिकार्जुन, महाकाल, ओंकारेश्वर, केदार, भीमाशंकर, विश्वेश्वर, त्र्यम्बकेश्वर, वैद्यनाथ, नागेश, रामेश्वर व घुश्मेशेश्वर भारत के प्राय सभी अँचलों में अपनी पूर्ण तेजस्विता के साथ प्रतिष्ठित हैं। भगवान शंकर का इन ज्योतिर्लिंगों में साक्षात निवास है, ऐसी हिन्दुओं की मान्यता व विश्वास है। इस्लामी शासकों द्वारा अनेकों बार इन तीर्थों के विध्वंस के उपरान्त पुन: पुन: इन ज्योतिर्लिंगों की प्रतिष्ठा हिन्दु समाज के मन में इन ज्योतिर्लिंगों के प्रति गहन आस्था का प्रतीक है। इन विध्वंसों में सोमनाथ का गज़नी द्वारा व विश्वेश्वर (काशी विश्वनाथ) का औरंगज़ेब द्वारा क्रूर विध्वंस प्रमुख है।
इन सभी प्रमुख तीर्थ स्थानों में भारत की पारम्परिक सांस्कृतिक एकता का तो साक्षात्कार होता ही है, साथ ही भारत में शैव- वैष्णव सम्प्रदायों में विभेद अथवा वैमनस्य की भावना की कल्पना भी निर्मूल प्रतिपादित होती है।
सेतुबन्ध रामेश्वर- सेतुबन्ध रामेश्वर की गणना जहाँ चार धामों में की गई है वहीं द्वादश ज्योतिर्लिंगों में भी इसका उल्लेख इस तीर्थ के विशेष महत्व का आभास कराता है। त्रेतायुग में भगवान राम के आदेश पर उनकी सेना के नल व नील के नेतृत्व में भारत के दक्षिणी तट से लंका के मध्य समुद्र पर बने इस सेतु व स्वयं राम द्वारा यहाँ स्थापित शिवलिड्ग की कथा के कारण इस तीर्थ की महत्ता अन्य तीर्थों की अपेक्षा अधिक हो जाती है। सेतुनिर्माण व भगवान राम द्वारा शिवलिड्ग स्थापना का उल्लेख रामायण के अतिरिक्त स्कन्द, विष्णु, ब्रह्म, अग्नि आदि पुराणों में विस्तारपूर्वक वर्णित है। इस सेतु के ऐतिहासिक महत्व के कारण व सेतुनिर्माण व शिवलिड्ग की स्थापना के सामयिक सम्बन्ध के कारण इस तीर्थ का नामकरण अधिकांश विद्वानों ने सेतुबन्ध रामेश्वर ही किया है जिससे हिन्दु समाज में दोनों ऐतिहसिक घटनाओं का स्मरण व राम के रूप में इस सनातन पुरातन राष्ट्र के महानायक के व मर्यादा पुरुषोत्तम के प्रति श्रद्धा अक्षुण्ण रह सके। वैज्ञानिक शोधकर्ताओं ने इस रामसेतु के अनेकों लाभ का परिचय कराया है जिसमें इस रामसेतु की उपस्थिति के कारण सुनामी नामक समुद्री बवंडर से भारत के दक्षिणी सागर तट की रक्षा एक अनुभवसिद्ध सत्य के रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत हो चुकी है व इस तटीय क्षेत्र में Thorium नामक परमाणु इंधन की उपस्थिति रामसेतु व सेतुबन्ध रामेश्वर की वर्तमान भारत के लिये अनिवार्य रूप से इस तीर्थ के संरक्षण के प्रति सचेत करती है। किन्तु खेद का विषय है कि वर्तमान शासन धर्मनिर्पेक्षता के अस्त्र से हमारे इस लाखों वर्ष प्राचीन् तीर्थ की मर्यादा को नष्ट कर इसे तोड़ने पर तत्पर है। तीर्थों के प्रति श्रद्धा रखने वाले व भारत के सर्वांगीण हितों की रक्षा से विचारित सभी भारतवासियों को शासन के इस कुटिल प्रयास का विरोध अपरिहार्य है, अन्यथा हमें इसके दुष्परिणाम झेलने ही होंगे।
अन्य सभी हिन्दु तीर्थों के दर्शन के रूप में भारत की पुरातन- सनातन राष्ट्र के रूप में सत्ता का भी विश्वास हमारे मनों में जाग्रत होना अनिवार्य है, अन्यथा हम कभी अपनी संस्कृति व अपने राष्ट्र पर गर्व नहीं कर सकते। नदियों, पर्वतों, वनों के प्रति पूज्यता के भाव में अपने पर्यावरण के प्रति श्रद्धावान होने का संदेश भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। वट अमावस्या पर वट वृक्ष के पूजन के साथ साथ वट- अश्वत्थ वृक्षों की निरन्तर घटती संख्या के प्रति उदासीनता धर्मपालन नहीं होगा। तीर्थों के महत्व को अपने पुनीत कर्तव्य के रूप् में पहचान हमें अपने पर्यावरण की रक्षा करनी होगी। नदियों, सरोवरों के जल की शुद्धता- पवित्रता का विचार हमें स्वयं ही करना होगा तीर्थों के प्रति श्रद्धा का सीधा अर्थ है, अपनी प्राकृतिक, सांस्कृतिक एवम् दैविक सम्पदा के प्रति संवेदनशील होना व इन्हें सुरक्षित रखने के अपने दायित्व की पूर्ति के प्रति निष्ठावान होना। हिन्दु तीर्थ भारत की सनातन- चिरन्तन एकात्मता के प्रतीक हैं, जो हमें हमारे स्वर्णिम अतीत के प्रति गौरवन्वित होने व राष्ट्रीय एकता व सामाजिक समरसता की प्रेरणा देते हैं। आईए अपने इस दायित्व का निर्वहण सम्पूर्ण शक्ति के साथ करें, तभी तीर्थों के देश भारत का गौरव सुरक्षित रह पायेगा। कोई ईश्वरीय अवतार इस कार्य हेतु नहीं आने वाला है।

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