Monday, 17 January 2011

महँगाई से ग़रीबों की भारी आबादी के लिए जीने का संकट:: ::महँगाई पूँजीवादी समाज में खत्म हो ही नहीं सकती

  महँगाई से ग़रीबों की भारी आबादी के लिए जीने का संकट                                    

इस महँगाई के कारण प्राकृतिक नहीं, यह मुनाफाखोरी की हवस और सरकारी नीतियों का नतीजा है!



यूपीए सरकार के सौ दिन के एजेण्डे में कही गयी बड़ी-बड़ी बातें बेहिसाब महँगाई के बवण्डर में उड़ गयी हैं। दालों, सब्जियों, चीनी, तेल, मसाले, फल आदि की आसमान छूती कीमतों ने ग़रीबों ही नहीं, निम्न मध्‍यवर्ग तक के सामने पेट भरने का संकट पैदा कर दिया है। देश के सवा सौ जिलों में सूखे के कारण बहुत बड़ी आबादी के सामने तो भुखमरी के हालात पैदा हो गये हैं। यह हालत केवल बारिश न होने के कारण नहीं हुई है जैसा कि सरकार बार-बार बताने की कोशिश कर रही है। इसके लिए व्यापारियों की मुनाफाखोरी की हवस और उसे शह देने वाली सरकारी नीतियाँ ज़िम्मेदार हैं।

एक ओर मुद्रास्फीति की दर शून्य से भी नीचे जा रही है दूसरी ओर बेहिसाब महँगाई सारे रिकार्ड तोड़ रही है। यह भी बताता है कि पूँजीवादी समाज में ऑंकड़ों की क्या सच्चाई होती है।

दरअसल कीमतें बढ़ने के लिए उत्पादन की कमी, मानसून आदि मुख्य कारण हैं ही नहीं। अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में कीमतें बढ़ना भी इसका कारण नहीं है। अगर ऐसा होता तो गेहूँ और चावल की कीमतें अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में कम होने के बाद देश में इनकी कीमतें गिरनी चाहिए थीं। महँगाई की असली वजह यह है कि खेती की उपज के कारोबार पर बड़े व्यापारियों, सटोरियों और कालाबाज़ारियों का कब्ज़ा है। ये ही जिन्सों के दाम तय करते हैं और जानबूझकर बाज़ार में कमी पैदा करके चीज़ों के दाम बढ़ाते हैं। पिछले कुछ वर्षों में कृषि उपज और खुदरा कारोबार के क्षेत्र को बड़ी कम्पनियों के लिए खोल देने के सरकार के फैसले से स्थिति और बिगड़ गयी है। अपनी भारी पूँजी और ताक़त के बल पर ये कम्पनियाँ बाज़ार पर पूरा नियंत्रण कायम कर सकती हैं और मनमानी कीमतें तय कर सकती हैं।

सरकार ने वायदा कारोबार की छूट देकर व्यापारियों को जमाखोरी करने का अच्छा मौका दे दिया है। अब सरकार बेशर्मी से कह रही है कि जमाखोरों के कारण महँगाई बढ़ी है। लेकिन इन जमाखोरों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने के बजाय केन्द्र सरकार राज्य सरकारों को कार्रवाई करने की नसीहत देकर खुद को बरी कर लेना चाहती है। लेकिन केन्द्र हो या राज्य सरकारें, जमाखोरी करने वाले व्यापारियों पर कोई हाथ नहीं डालना चाहता। हर पार्टी में इन व्यापारियों की दखल है और सभी पार्टियाँ इनसे करोड़ों रुपये का चन्दा लेती हैं। हाल में हुए चुनावों में इन मुनाफाखोरों ने अरबों रुपये का चन्दा पार्टियों को दे दिया था। अब उसकी वसूली का समय है।

इस महँगाई ने देश की भारी आबादी के लिए हालात कितने मुश्किल कर दिये हैं, इसका अन्दाज़ा लगाने के लिए बस यह तथ्य याद कर लेना ज़रूरी है कि 84 करोड़ लोग सिर्फ 20 रुपये रोज़ पर गुज़ारा करते हैं। इनमें से भी लगभग एक तिहाई आबादी तो महज़ 11 रुपये रोज़ पर जीती है। इस महँगाई में यह आबादी किस तरह जी रही होगी, इसे सोचकर भी सिहरन होती है। देश के 44 करोड़ असंगठित मज़दूरों पर महँगाई की मार सबसे बुरी तरह पड़ रही है। शहरों में करोड़ों मज़दूर उद्योगों में 1800 से 2500 रुपये मासिक की मज़दूरी पर काम कर रहे हैं। इसमें से भी मालिक बात-बात पर पैसे काट लेता है। लगभग एक तिहाई से लेकर आधी मज़दूरी मकान के किराये, बिजली, बस भाड़े आदि में चली जाती है। ज्यादातर मज़दूर इलाकों में मकानमालिक ही किराने आदि की दूकानें भी खोलकर बैठे रहते हैं और मज़दूरों को मनमानी कीमतों पर सामान बेचते हैं। ज्यादातर मज़दूर थोड़ा-थोड़ा सामान लेते हैं और उन्हें उधार खरीदना पड़ता है इसलिए वे उनसे ही खरीदने को मजबूर होते हैं।

ऐसी भीषण महँगाई के पहले ही हालत यह थी कि देश की तीन चौथाई आबादी के भोजन में विटामिन और प्रोटीन जैसे जरूरी पौष्टिक तत्वों की लगातार कमी होती गयी है। आम आदमी के लिए प्रोटीन के मुख्य स्रोत दालों की कीमत में पिछले एक साल के अन्दर 110 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। हरी सब्जियाँ, दाल और दूध तो गरीब आदमी के भोजन से गायब ही चुके हैं। फल खाने की इच्छा होने पर वह मण्डी में बचे हुए सबसे खराब और सड़े-गले फल कुछ सस्ती कीमत पर लेकर चख सकता है। इसी का नतीजा है कि कुपोषण के कारण कम वजन वाले बच्चों की सबसे बड़ी संख्या भारत में है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक द्वारा किये गये एक अध्‍ययन से पता चला कि आज प्रति व्यक्ति औसत खाद्य उपलब्‍धता बंगाल में 1942-43 में आये भीषण अकाल के दिनों के बराबर पहुँच चुकी है। ग्रामीण क्षेत्रों में बहुतेरे परिवारों को दोनों वक्त या सप्ताह के सातों दिन खाना नहीं मिलता। आज भी लगभग दस हजार बच्चे रोज कुपोषण और उससे होने वाली बीमारियों के कारण मर जाते हैं। भारत सरकार बाल-पोषण कार्यक्रम और सस्ते गल्ले आदि के लिए तो आवण्टन घटाती जा रही है लेकिन पूँजीपतियों को सैकड़ों करोड़ की सब्सिडी देने में उसे कोई गुरेज़ नहीं होता।

पूँजीवादी नीतियों के कारण अनाजों के उत्पादन में कमी आती जा रही है। भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में आज खेती संकट में है। पूँजीवाद में उद्योग के मुकाबले खेती का पिछड़ना तो लाज़िमी ही होता है लेकिन भूमण्डलीकरण के दौर की नीतियों ने इस समस्या को और गम्भीर बना दिया है। अमीर देशों की सरकारें अपने फार्मरों को भारी सब्सिडी देकर खेती को मुनाफे का सौदा बनाये हुए हैं। लेकिन तीसरी दुनिया के देशों में सरकारी उपेक्षा और पूँजी की मार ने छोटे और मझोले किसानों की कमर तोड़ दी है। साम्राज्यवादी देशों की एग्रीबिजनेस कम्पनियों और देशी उद्योगपतियों की मुनाफोखोरी से खेती की ला
गतें लगातार बढ़ रही हैं और बहुत बड़ी किसान आबादी के लिए खेती करके जी पाना मुश्किल होता जा रहा है। इसका सीधा असर उन देशों में खाद्यान्न उत्पादन पर पड़ रहा है।
दूसरे, वैश्विक पैमाने पर खेती का कारोबार चन्द दैत्याकार कम्पनियों के कब्जे में आ चुका है जो खाद-बीज-कीटनाशक और मशीनों जैसे खेती के साधनों से लेकर फसलों के व्यापार तक को नियन्त्रित करती हैं। यही कम्पनियाँ इथेनॉल के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए सरकारी सब्सिडी का भी फायदा उठा रही हैं। इसका नतीजा यह हो रहा है कि खाद्यान्न की खेती के लिए तय ज़मीनों का इस्तेमाल अमीरों की कारें दौड़ाने के लिए इथेनॉल के उत्पादन में किया जा रहा है।

सबसे बड़ा कारण यह है कि मेहनतकश जनता की मज़दूरी में लगातार आ रही गिरावट के कारण उसकी खरीदने की शक्ति कम होती जा रही है। देश की अर्थव्यवस्था जब चमक रही थी तब भी आम मेहनतकश आबादी की वास्तविक आमदनी में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई थी। दिहाड़ी पर काम करने वाली 44 करोड़ आबादी आज से 10 साल पहले जितना कमाती थी आज भी बमुश्किल उतना ही कमा पाती है जबकि कीमतें दोगुनी-तीन गुनी हो चुकी हैं। भारी अर्द्धसर्वहारा आबादी और निम्नमध्‍यवर्गीय आबादी को भी पेट भरने के लिए अपनी ज़रूरतों में कटौती करनी पड़ रही है। अब मन्दी के दौर में उनकी हालत और भी खराब होती जा रही है। बहुत बड़ी आबादी छँटनी, वेतन में कटौती और बेरोज़गारी के कारण तबाही के कगार पर है लेकिन इस आबादी के लिए सरकार के पास कोई राहत योजना नहीं है। मगर टेक्सटाइल कम्पनियों को सरकार ने फौरन 2546 करोड़ रुपये की सहायता दे डाली।


महँगाई पूँजीवादी समाज में खत्म हो ही नहीं सकती। जब तक चीज़ों का उत्पादन और वितरण मुनाफा कमाने के लिए होता रहेगा तब तक महँगाई दूर नहीं हो सकती। कामगारों की मज़दूरी और चीज़ों के दामों में हमेशा दूरी बनी रहेगी। मज़दूर वर्ग सिर्फ अपनी मज़दूरी में बढ़ोत्तरी के लिए लड़कर कुछ नहीं हासिल कर सकता। अगर उसके आन्दोलन की बदौलत पूँजीपति थोड़ी मज़दूरी बढ़ाता भी है तो दूसरे हाथ से चीज़ों के दाम बढ़ाकर उसकी जेब से निकाल भी लेता है। मज़दूर की हालत वहीं की वहीं बनी रहती है। इसलिए मज़दूरों को मज़दूरी बढ़ाने के लिए लड़ने के साथ-साथ मज़दूरी की पूरी व्यवस्था को खत्म करने के लिए भी लड़ना होगा।

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