Sunday, 16 January 2011

ज्योतिष परिचय:: ::सृष्टि के आदि काल में ही ऋषियों ने अपने लम्बे जीवन के लौकिक एवं अलौकिक अनुभवों से यह दिव्य विज्ञान प्राप्त किया।

ज्योतिष परिचय:: ::सृष्टि के आदि काल में ही ऋषियों ने अपने लम्बे जीवन के लौकिक एवं अलौकिक अनुभवों से यह दिव्य विज्ञान प्राप्त किया।

ज्योतिष विद्या – ज्यौतिष्, भारतीय ज्योतिष, हिन्दू ज्योतिष, वैदिक ज्योतिष, वेदांग ज्योतिष, नश्रत्र ज्योतिष (Jyotish) आदि नामों से विश्व में प्रसिद्ध है। सृष्टि के आदि काल में ही ऋषियों ने अपने लम्बे जीवन के लौकिक एवं अलौकिक अनुभवों से यह दिव्य विज्ञान प्राप्त किया। ऋषि-मुनियों ने ये ज्ञान गुरु परम्परा के अन्तर्गत अपने शिष्यों को दिया। उन्हीं ऋषियों के अनथक तपों का फल आज हमारे सामने है।

इसके तीन खण्ड हैं – सिद्धान्त, संहिता एवं होरा।
भगवन् परमं पुण्यं गुह्यं वेदाङ्गमुत्तमम्।
त्रिस्कन्धं ज्यौतिषं होरा गणितं संहितेति च
(1) सिद्धान्त ज्योतिष का गणितीय भाग है। ग्रह-पिण्डों की स्थिति का अध्ययन, इनके अध्ययन संबंधी उपकरण, पञ्चाङ्ग निर्माण आदि का विचार ज्योतिष के सिद्धान्त खण्ड में है।

(2) संहिता के अन्तरगत ज्योतिष के उन प्रभावों का विचार करते हैं जो न केवल व्यक्ति-विशेष अपितु जन समुह हो प्रभावित करे। जैसे आँधी-तूफान, बाढ़-अकाल, उल्का-बिजली, महामारी, बाज़ार-भाव इत्यादि।

(3) होरा ज्योतिष का सबसे व्यवहारिक अंग है। महर्षियों ने अपने-अपने समय में ज्योतिष-शास्त्र के तीनों स्कन्धों पर अपना-अपना विचार व्यक्त किया है, वे ऋषि ज्योतिष शास्त्र के प्रवर्तक कहलाते हैं। लेकिन व्यक्ति विशेष के दैनिक जीवन में उपयोगी होने के कारण जातक स्कन्ध का अधिक विकास हुआ है। हालांकि सिद्धान्त और संहिता ही होरा का आधार हैं। इस स्कन्ध के अन्तरगत व्यक्ति विशेष के जीवन के सभी पहलुओं पर विचार किया जाता है। होरा स्कन्ध के पाँच अंग हैं – (क) जन्मकाल शोधन, (ख) फलादेश, (ग) मेलापक, (घ) मुहुर्त एवं (ङ) परिहार।

(क) फलादेश की प्रमाणिकता के लिए जन्म कुण्डली भी प्रमाणिक होनी चाहिए, जन्मकुण्डली बनाने के लिए बहुत सारे सोफ्टवेयर बाज़ार में, इनमें से ज्यादतर ठीक हैं। लाहड़ी आधारित कोई भी सोफ्टवेयर प्रयोग कर सकते हैं।
मगर असली बात है जन्म कालिक विवरण की। सही जन्म कुण्डली बनाने के लिए तीन बातें जरूरी हैं- 1. जन्म का दिनांक, 2. शुद्ध जन्मसमय व 3. जन्म का स्थान।

(1). जन्म की तारीख तो आमतौर से सही-सही मिल ही जाती है, यदि न मिले तो वार के आधार पर खोजबीन-पूछताछ करके ढूँढ लेनी चाहिए। क्योंकि जन्म का वार ज्यातर सही ही होता है, आमतौर से लोग जन्म के वर्ष में गलती करते हैं। इसलिए यदि जातक का बताया हुआ वार और तारीख मेल नहीं खा रहें हों तो वार को सही मानना चाहिए। जातक जब जन्म की तारीख बताए तो उससे जन्म का वार भी पूछ लेना चाहिए और कुण्डली बना कर एक बार कुण्डली में लिखे वार से जातक के बताए हुए वार को मिला लेना चाहिए।

(2). जन्म समय बताने में अकसर सभी जातक गलती करते हैं। क्योंकि अस्पताल में दो-चार मिनट की कोई परवाह नहीं करता और दो-चार मिनट घड़ी गलत होती है। जब जन्म लग्न की संधि में हुआ हो तो दो-चार सेकण्ड का भी बहुत महत्त्व होता है। इसलिए जन्म यदि दो लग्नों की संधि में हुआ हो तो जीवन की घटनाओं का मिलान गोचर और दशाओं (अन्तरदशा, प्रत्यन्तरदशा, शुक्ष्मान्तरदशा) से करके जन्म समय शोधन कर लेना चाहिए।
(3). जन्म स्थान में आमतौर से गलती नहीं होती। लेकिन जन्म यदि संधि लग्न हुआ हो तो स्थान का अक्षांश और देशान्तर विकला तक शुद्ध कर लेना चाहिए। इस काम के लिए गूगल अर्थ बहुत अच्छा और मुफ़्त का सोफ़्टवेयर प्रयोग कर सकते हें।

(ख). फलादेश होरा का बहुत व्यापक अंग है। आमतौर से फलादेश जन्म कुण्डली के आधार पर होता है। जन्म के समय आकाश में ग्रहों-पिण्डों की जो स्थिति होती है, जन्म कुण्डली में उन्हीं ग्रहों-पिण्डों की स्थिति को बारह भाव, बारह राशि और नौ ग्रहों की सहायता से दर्शाया जाता है। जन्म कुण्डली में जन्म से मृत्यु पर्यन्त के संकेत होते हैं। हालांकि पूर्व-जन्म और भावी जन्म के फलादेश का विचार भी जन्म कुण्डली से किया जाता है, लेकिन कुछ ऋषियों ने अन्य जन्मों के फलादेश को उचित नहीं माना है। जन्म कुण्डली की सहायता से जातक के जीवन के संभावित अशुभ समय में सावधानी, सुरक्षा व धैर्य से ग्रहों के कुप्रभाव को कम करने का विचार किया जाता है और संभावित शुभ समय का सुनियोजित ढंग से सदुपयोग करने की सलाह दी जाती है। शिशु की रुचि व प्रवृत्ति जान कर उसे जीवन-यापन आदि की अनुकूल दिशा का ज्ञान बचपन में ही कराया जा सकता है।

(ग). मेलापक द्वारा दो या दो से अधिक लोगों के आपसी तालमेल पर विचार किया जाता है। इसका विचार जन्म कुण्डली और विशेष रूप से चन्द्र और लग्न से किया जाता है।

(घ). अंग्रेजी कहावत है – शुभ आरंभ ही आधा सम्पन्न। किसी भी कार्य की शुरुआत अगर अनुकूल समय में हो तो आधे परिश्रम से ही कार्य सफल हो जाता है। कुछ लोग होरा के मुहुर्त अंग को केवल संहिता का हिस्सा मानते हैं, जोकि सही नहीं है। क्योंकि भी मुहुर्त सभी के लिए नहीं होता, मुहुर्त सदैव व्यक्ति विषेश के लिए ही होता है। जैस- आज अगर शादी के लिए मुहुर्त, तो इसका अर्थ ये नहीं कि सबके लिए ताराबल (गोचर में सूर्य, चन्द्र, गुरु अनुकूल) है। ताराबल के अतिरिक्त और बहुत-सी बातें हैं जिसके कारण कोई भी मुहुर्त सबके लिए अनुकूल नहीं हो सकता। इसलिए मुहुर्त का स्थान होरा के अन्तरगत है। 

(ङ) परिहार (उपाय Remedies) ज्योतिष का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है। क्योंकि बिना ज्योतिष के उपाय हो सकते हैं लेकिन बिना उपाय के ज्योतिष अधूरा है। ज्योतिष की सार्थकता इसके उपायों से ही है। इसलिए ज्योतिषी के पास उसी जातक को आना चाहिए जो ये मानता है कि भविष्य बदला जा सकता है, क्योंकि ये विद्या उन्हीं पुरुषार्थियों के लिए है जो भाग्य से टक्कर लेना चाहते हैं। ज्योतिष हमें सिखाता है कि भाग्य से टक्कर कब और कैसे लेनी चाहिए।

यह दिव्य विज्ञान हमें बताता है कि किस तरह ग्रह-नक्षत्र किसी मानव, समुदाय, राष्ट्र या विश्व को प्रभावित करते हैं। ज्योतिष शास्त्र प्रत्यक्ष शास्त्र है क्योंकि सूर्य-चन्द्र इसके साक्षी हैं प्रत्यक्षं ज्योतिषं शास्त्रं चन्द्रार्कौ यत्रसाक्षिणौ, इस शास्त्र के लिए किसी अन्य प्रमाण की कोई आवश्यकता नहीं है।
इसे वेदांग ज्योतिष भी कहते हैं, वेदांग छः हैं – शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष। इन अंगों में ज्योतिष को वेदों पुरुष का नेत्र माना गया है। ज्योतिष हमारे शरीर में नेत्रों के समान महत्त्वपूर्ण है। बिना ज्योतिष-प्रकाश के जीवन अंधकारमय रहता है, व्यक्ति हर काम अंधेरे-जीवन में टटोल-टटोल कर करता है।

कुछ लोगों की धारणा है कि ज्योतिष व्यक्ति को निष्क्रिय या भाग्यवादी बना देता है, ये बिलकुल ग़लत है। जीवन से थके, हारे व निराश व्यक्ति को जीने की नई आशा और ऊर्जा ज्योतिष देता है। जब डॉक्टर किसी मरीज़ को लाइलाज़ कह कर घर बैठने को कहता है तो ज्योतिषी उस मरीज़ को उठाकर मार्ग दिखाता है। क्योंकि यदि डॉक्टर तो कल का मरता उसे आज ही मार देगा। जीवन के किसी भी क्षेत्र से हार व्यक्ति के लिए ज्योतिषी के पास इलाज है। यदि वास्तव में कोई रास्ता नहीं तो ज्योतिषी जातक को कम से कम शुभ दशा तक सहन करने के लिए तो कहता ही है। अशुभ दशा (समय अवधि) के लिए परिहार बता कर जातक को क्रियाशील बनाता है।

मैं यहाँ भाषा और शैली सरल रखने का प्रयास करुंगा। क्योंकि आमतौर से पुस्तक तो जानकार व्यक्ति सोच-समझकर ख़रीदता है, लेकिन जाल पर तो कोई भी और कहीं भी बस यूं ही पहुच जाता है। इसलिए मैं यह चाहता हूँ कि कोई भी मेरे लिखे को समझ सके। हालांकि ज्योतिष बहुत गूढ़ विषय है और हर विषय की अपनी एक परिभाषिक शब्दावली या टर्मिनोलोजी भी होती है। इसलिए किसी भी विषय को बोलचाल की सरल भाषा में लिखना कठिन होता है, लेकिन ज्योतिष जैसे गूढ़ विषय को साधारण भाषा और शैली में लिखना मुश्किल नहीं असंभव जैसा काम है। और जब कोई विषय सरल भाषा और शैली में उपलब्ध हो तो वहां प्रमाणिकता नहीं मिलती। इस बात का ध्यान रखते हुए प्रमाणिकता को मैंने कायम रखा है। इसलिए शब्दावली और शब्दार्थ के लिए पेज़ अलग से बनाया है।

मैं पिछले बीस वर्षों से ज्योतिष फलादेश और पढ़ाने का काम कर रहा हूँ। लगभग बीस देशों में रह कर फलादेश और अध्यापन का काम किया और कर रहा हूँ। और मैंने ये जाना कि दुनिया में भारत का नाम आइ. टी., मित्तल और अम्बानी नहीं हमारे प्राचीन ज्ञान से रौशन है। हजारो वर्ष पूर्व भी भारत विश्व का गुरु था। भारत में अध्ययन के बाद ही ईसा को लोगो ने मसीहा” कहा और मोहम्मदपैगम्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम” के रुप में स्थापित हुए। इसलिए हमें अपनी धरोहर मिटने नहीं देना चाहिए। हमें अपने ऋषि-मुनियों की विरासत को कायम रखना है। किसी विद्या के प्रचार-प्रसार और लोक-सुलभ होने से उसमें अशुद्धि और विकृति तो आती है लेकिन विद्या के लुप्त होने का खतरा कम हो जाता है। जिस प्रकार पहले समय-समय पर ऋषियों नें विद्याओं को शुद्ध किया उसी प्रकार भविष्य में भी होगा। हमारा काम यह है कि जहां तक हो सके केवल प्रमाणिक विद्या का प्रचार-प्रसार करें। अपने व्यक्तिगत अनुभवों को अलग से बताना चाहिए अन्यथा विद्या की प्रमाणिकता नष्ट हो जाती है।
हालांकि बृहद् पाराशर होरा शास्त्र में लिखा है- न देयं परशिष्याय नास्तिकाय शठाय वा अब जाल पर ये ज्ञान चढ़ा ही दिया तो ज्यादातर इन तीनों में से ही कोई आएगा। मैंने तो यह सज्जन-साधु व्यक्ति के लिए लिखा है, अन्यों से प्रार्थना है कि अपना बहुमुल्य समय यहां खर्च न करें।

ज्यतिष विषय प्रवेश

कुछ बाते जो ज्योतिष (Jyotish) के परिचय में लिखनी चाहिए थीं वो मैं यहां लिख रहा हूँ। क्योंकि ये उन्हीं के लिए है जो वास्तव में इस विद्या में रुचि रखते हैं।
. ज्योतिष विद्या सीखने के लिए बहुत धैर्य से लम्बे समय तक अध्ययन करने की आवश्यकता होती है। अध्ययन के बाद अनुभव भी प्राप्त करना होता है।
. अध्ययन और अनुभव के बाद कोई ज्योतिष की फलित विद्या तो सीख सकता है, लेकिन फलादेश करना एक कला है। जिस व्यक्ति के भीतर कलाकार पहले से हो वही साधक कोई कला सीख सकता है।
. विद्या तो स्वयं पुस्तक पढ़कर सीखी जा सकती है, लेकिन कला के लिए गुरु के दिशा निर्दश, उपदेश, संरक्षण, आशीर्वाद और फलित करने की अनुमति जरूरी है।
. ज्योतिष विज्ञान है, विज्ञान के क्षेत्र में अभ्यास जरूरी नहीं। फलित-ज्योतिष विज्ञान पर आधारित कला है, कला सीखने के लिए अभ्यास जरूरी है। जो व्यक्ति एक कला का स्वामी हो वह दूसरी कला बहुत आसानी से सीख सकता है।
. फलादेश की सफलता के बाद भी कुछ ज्योतिषियों को यश नहीं मिलता। यश प्राप्ति के लिए ज्योतिषी की कुण्डली में यश प्राप्ति के योग होना चाहिए। शुक्र की स्थिति अच्छी होनी चाहिए।
. गुरुदेव या इष्टदेव का आशीर्वाद प्राप्त हो तो कला का यश बहुत सरलता से प्राप्त हो जाता है।  
आपने कुछ ऐसे ज्योतिषी भी देखे होंगे जो बिना ज्योतिष-विद्या बिना गुरु कृपा के यश पा रहे हैं। वास्तव में वो यश नहीं अपनी चतुराई से प्रसिद्धि पा रहे हैं। ऐसी प्रसिद्धि अपनी सीमा (मूर्ख यजमान/जातक) में रहती है और समय सीमा भी होती है। कुछ ज्योतिषी ऐसे भी हैं जिनके गुरु तो हैं लेकिन अपने अहंकार का पोषण करने के लिए वे स्वीकार नहीं करते।
आमतौर से दो प्रकार के ज्योतिषी आजकल के बाज़ार में हैं-
पहली श्रेणी में वो पुराने (निडर) ज्योतिषी आते हैं जो जातक को ग्रहों का भय दिखा कर डराते और भावुक करते हैं फिर उनसे जीवन भर पैसे ऐंठते हैं। इसके लिए जातक को दूसरे ज्योतिषियों से भी डरा कर रखते हैं, जिससे कि यजमान कहीं भाग न जाए।
दूसरी श्रेणी उन (डरपोक) ज्योतिषियों की है जो भविष्य के सुन्दर-सुनहरे सपने दिखा कर जातक खुश करते हैं, क्योंकि ये ज्योतिषी तुरन्त दान महा कल्याण में विश्वास रखते हैं। क्योंकि जातक यदि खुश हो जाएगा दो फलित की दक्षिणा ठीक-ठाक दे देगा। इन नये ज्योतिषियों को ये अनुभव नहीं होता कि अगर जातक डर कर भड़क गया को मुट्ठी में कैसे आएगा? आगे चलकर जब दूसरी श्रेणी के नए ज्योतिषियों को किसी भी तरह जातक को फसाने का अनुभव हो जाता है तो वे प्रथम श्रेणी के निडर ज्योतिषी हो जाते है।
जैसे आमतौर पर दो प्रकार के ज्योतिषी है, ज्यादातर जातक भी दो ही प्रकार के हैं, इसीलिए ऐसे ज्योतिषियों से जाकर फंसते हैं। पहली किस्म के जातकों को डरने में मजा आता, क्योंकि वे सहानुभूति चाहते हैं। वो सहानुभूति चाहे स्वयं से ही प्राप्त क्यों न हो। दूसरी किस्म के जाकत प्रशंसा चाहते हैं, चाहे वो आत्म प्रशंसा ही क्यों न हो। अपनी कुण्डली के महा-योग सुनना चाहते हैं, इसीलिए ज्योतिषी के पास जाते हैं।
आप ये न साचें कि अधिकतर जातक इन दो किस्मों के ही हैं तो समझदार जातक कहां से मिलेंगे? ज्योतिषियों को तो यमराज ही बदलेगा लेकिन ये जातक हर समय बदलने के लिए तैयार हैं। इसको बस अच्छे ज्योतिषी का इंतज़ार है। क्योंकि खुले तौर पर न तो कोई सहानुभूति चाहता है और न ही झूठी प्रशंसा।
स्वयं को साधक मानकर ज्योतिष की साधना करें, मन में धैर्य रखें, पूरी महनत करें। लाल किताब बहुत अच्छी पुस्तक है लेकिन जब तक आप फलित की विद्या और कला दोनो न सीख लें लाल किताब को हाथ न लगाएं। फलित ज्योतिष के केवल प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करें। सबसे पहले बृहद् पाराशर होरा शास्त्र का अध्ययन करें फिर अन्य प्रमाणिक (मानसागरी प्रमाणिक ग्रंथ नहीं है।) ग्रंथों को पढ़ें। जब मूल ज्ञान प्राप्त हो जाए तब नए लेखकों की पुस्तकें भी पढ़ सकते हैं। मेरे हिसाब से तो पिछली शताब्दी के प्रसिद्ध लेखको में केवल भसीन जी ने ही अपनी पुस्तकों में प्रमाणिकता का ध्यान रखा गया है। बाकि आप अपने अनुभवों से पुस्तकों का चयन करें, मगर (मैं बार-बार दोहरा रहा हूँ) ग्रंथो के अध्ययन के बाद ही ज्योतिष की पुस्तके पढ़ें।  

ज्योतिष में पाया विचार

ज्योतिष विद्या में पाया (जन्म के पैर) का विचार दो प्रकार से होता है। नक्षत्र एवं चन्द्र से, चन्द्र से पाया विचार स्थूल माना जाता है लेकिन यह अधिक प्रचलित और व्यवहार में है।
१. नक्षत्र से पाया विचार
सोने का पाया- २७. रेवती, १. अश्विनी, २. भरणी, ३. कृत्तिका, ४. रोहणी या ५. मृगशिरा नक्षत्र में जन्म होने पर सोने के पैर होते हैं।
चाँदी का पाया- ६. आद्रा, ७. पुनर्वसु, ८. पुष्य, ९. आश्लेषा, १०. मघा, ११. पूर्वा फाल्गुनी, १२. उत्तरा फाल्गुनी, १३. हस्त, १४. चित्रा या १५. स्वाती नक्षत्र में जन्म होने पर चाँदी के पैर होते हैं।
ताम्बे का पाया- १६. विशाखा, १७. अनुराधा, १८. ज्येष्ठा, १९. मूल, २०. पूर्वा षाढा, २१. उत्तरा षाढा, २२. श्रवण २३. धनिष्ठा या २४. शतभिषा नक्षत्र में जन्म होने पर ताम्बे के पैर होते हैं।
लोहे का पाया- २५. पूर्वा भाद्रपद या २६. उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र में जन्म होने पर लोहे के पैर होते हैं।

२. चन्द्र से पाया विचार
सोने का पाया- चन्द्र यदि लग्न, षष्ठ या एकादश भाव हो तो सोने के पैर होते हैं। (अत्यंत शुभ)
चाँदी का पाया- चन्द्र यदि द्वितीय, पंचम या नवम भाव हो तो चाँदी के पैर होते हैं। (शुभ)
ताम्बे का पाया- चन्द्र यदि तृतीय, सप्तम या दशम भाव हो तो ताम्बे के पैर होते हैं। (साधारण)
लोहे का पाया- चन्द्र यदि चतुर्थ, अष्टम या द्वादश भाव हो तो लोहे के पैर होते हैं। (अशुभ)

No comments:

Post a Comment