Saturday, 22 January 2011

माथे की बिन्दी- हिन्दी (संविधान, संसद और हम)

  वन्दे मातरम्
एक प्रतिष्ठित पत्रिका में हिन्दी के ऊपर देश के कुछ बुद्धिजीवियों का विचार पढ़ा, आश्‍चर्य तब अधिक हुआ जब कुछ युवाओं के साथ अन्य तथाकथित बुद्धिजीवियों नें हिन्दी की जगह अंग्रेजी की पैरवी की। हम इस स्थिति के लिए दोष किसे दें। संविधान को, संसद को, सरकार को, लोक प्रशासकों को या खुद को, आइए सर्वप्रथम हम यह जाने कि इस राजभाषा का संकल्प 1968 में जो संसद की दोनो सदनों में पारित हुआ। क्या है?
राजभाषा संकल्प 1968 : संसद के दोनो सदनो द्वारा पारित निम्नलिखित सरकारी संकल्प- ”जबकि संविधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार संघ की राजभाषा हिन्दी रहेगी और उसके अनुच्छेद 351 के अनुसार हिन्दी भाषा का प्रचार वृद्धि करना और उसका विकास करना ताकि वह भारत की सामाजिक संस्कृति के सब तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम हो सके।”
1- संघ का कर्तव्य है ”यह सभा संकल्प करती है कि हिन्दी के प्रसार एवं विकास की गति बढ़ाने हेतु तथा संघ के विभिन्न राजकीय प्रयोजनो के लिए उत्तरोत्तर इसके प्रयोग हेतु भारत सरकार द्वारा एक अधिक गहन एवं व्यापक कार्यक्रम तैयार किया जायेगा और उसे क्रियान्वित किया जायेगा, और किये जाने वाले उपायो एवं की जाने वाली प्रगति की विस्तृत वार्षिक मूल्यांकन रिपोर्ट संसद की दोनों सभाओं के पटल पर रखी जायेगी और सब राज्य सरकारों को भेजी जायेगी।”
2- जबकि संविधान की आठवीं अनुसूची में हिन्दी के अतिरिक्त भारत की 21 मुख्य भाषाओं का उल्लेख किया गया है, और देश की शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक उन्नति के लिए यह आव”यक है कि इन भाषाओं के पूर्ण विकास हेतु सामूहिक उपाय किये जाने चाहिए ”यह सभा संकल्प करती है कि हिन्दी के साथ-साथ इन सब भाषाओं के समन्वित विकास हेतु भारत सरकार द्वारा राज्य सरकार के सहयोग से एक कार्यक्रम तैयार किया जाएगा और उसे क्रियान्वित किया जायेगा, ताकि वे शीघ्र समृध्द हो और आधुनिक ज्ञान के संचार का प्रभावी माध्यम बने।”
3-जबकि एकता की भावना के संवर्धन तथा देश के विभिन्न भागो में जनता में संचार की सुविधा हेतु यह आव”यक है कि भारत सरकार द्वारा राज्य सरकारों के परामर्श से तैयार किये गये त्रिभाषा सूत्र को सभी राज्यों में पूर्णत: कार्यान्वित करने के लिए प्रभावी किया जाना चाहिए ‘यह सभा संकल्प करती है कि हिन्दी भाषी क्षेत्रों में हिन्दी तथा अंग्रेजी के अतिरिक्त एक आधुनिक भाषा के, दक्षिण भारत की भाषाओ मे से किसी एक को तहरीज देते हुए, और अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में प्रादेशिक भाषाओं एवं अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी के अध्ययन के लिए उस सूत्र के अनुसार प्रबंध किया जाना चाहिए।’
ये थी हमारी संसद की संकल्पना अब जानिए हिन्दी पर कुछ अतिविशिष्ट महानुभावों के विचार:-
•”राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूँगा है, हिन्दी भाषा का प्रश्न है, स्वराज का प्रश्न है।” – महात्मा गाँधी
• ”संस्कृत माँ, हिन्दी गृहणी और अंग्रेजी नौकरानी है।”- डॉ. फादर कामिल बुल्के
• ”मैं दुनिया की सभी भाषाओं की इज्जत करता हूँ, परन्तु मेरे देशमें हिन्दी की इज्जत न हो, यह हरगिज सह नही सकता।”- आचार्य विनोवा भावे
• ”इस विशाल प्रदेश के हर भाग में शिक्षित, अशिक्षित नागरिक और ग्रामीण सभी हिन्दी को समझते हैं।” – राहुल सांकृत्यायन
• ”निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।” – भारतेन्दु हरिश्चंद्र
• ”हिन्दी हमारे देश और भाषा की प्रभावशाली विरासत है।”- राष्ट्रकवि माखनलाल चतुर्वेदी
अब प्रश्‍न यह उठता है कि हम क्या सोचते हैं, और क्या करते हैं। क्योंकि हिन्दी के अपने हाथ व पाँव नही हैं, हम सब ही उसके अंग है, और आज उसकी यह दशा है तो इसके लिए हम ही उत्तरदायी हैं।
संसद व सांसद तो अपने संकल्प को भूल चुके हैं, लेकिन चूकिं हिन्दी हमारी मातृ से जुड़ी हुई है, इसलिए हमारा यह कर्तव्य बनता है कि हम इस माता का ऋण चुकाएं।

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