Saturday 4 December 2010

वार्ता के दौर शुरू श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन


वार्ता के दौर शुरू श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन
1 दिसम्बर 1990 को विश्व हिन्दू परिषद एवं बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के प्रतिनिधियों ने सरकारी प्रतिनिधियों की उपस्थिति में बातचीत प्रारम्भ की। बातचीत का मुख्य विचार बिन्दु था कि यदि यह सिद्ध हो जाए कि 'श्रीराम जन्मभूमि पर मन्दिर तोड़ कर विवादित ढांचा बनाया गया था' तो मुसलमान उस पर अपना दावा छोड़ देंगे।

राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में गृहमंत्री बूटा सिंह, हिन्दू और मुस्लिम प्रतिनिधियों के बीच बातचीत कराया करते थे। एक अवसर पर मुस्लिम प्रतिनिधियों ने सन्तों से पूछा कि क्या गारंटी है कि यदि अयोध्या मथुरा, काशी के धर्मस्थान आपको दे दिए जाएं तो आप किसी चौथे की मांग नहीं करेंगे? सन्तों की ओर से इस प्रश्न का उत्तर दिया जाता, इसके पूर्व ही जनाब सैयद शाहबुद्दीन अपने प्रतिनिधियों पर बिगड़ कर बोलने लगे कि आप कौन होते हैं? इतने उदार बनकर इन स्थानों को सौंपने वाले? विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में आन्ध्र भवन में एक बार मुसलमानों के शीर्ष धर्मगुरू मौलाना अली मियां नदवी के नेतृत्व में मुस्लिम समाज के धार्मिक, सामाजिक नेता और सन्त महापुरुष आमने-सामने बैठे थे, शुक्रवार का दिन था। जब दोपहर की नमाज का समय आया तो मुस्लिम पक्ष के लोग नमाज पढ़ने चले गए। नमाज के बाद लौटने पर स्वामी सत्यमित्रानन्द महाराज ने खड़े होकर अपना आंचल फैलाकर मुस्‍लिम समाज के प्रतिनिधियों से कहा कि नमाज के बाद ज़कात करने का विधान है, मैं आपसे श्रीराम जन्मभूमि की भीख मांगता हूं। मुस्लिम प्रतिनिधियों का उत्तर था कि 'यह मिठाई का डिब्बा नहीं है जो उठाकर दे दें।'
एक बार सैयद शाहबुद्दीन ने स्वयं कहा कि यदि यह सिद्ध हो जाए कि किसी मन्दिर को तोड़कर यह मस्जिद बनाई गई है, तो मुस्लिम समाज इस स्थान को छोड़ देगा। इसके उत्तर में जब उन्हें कहा गया कि काशी विश्वनाथ मन्दिर में प्रमाण पष्ट दिख रहा है, आप वह स्थान हिन्दू समाज को वापस दे दीजिए तो शाहबुद्दीन साहब अपनी बात से पलट गए। तत्‍कालीन प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर ने भी दोनों पक्षों में वार्तालाप कराने का प्रयास किया। उनकी पहल पर 1 दिसम्बर 1990 को विश्व हिन्दू परिषद एवं बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के प्रतिनिधियों ने सरकारी प्रतिनिधियों की उपस्थिति में बातचीत प्रारम्भ की। बातचीत का मुख्य विचार बिन्दु था कि यदि यह सिद्ध हो जाए कि 'श्रीराम जन्मभूमि पर मन्दिर तोड़ कर विवादित ढांचा बनाया गया था' तो मुसलमान उस पर अपना दावा छोड़ देंगे।
चार दिसम्बर 1990 की बैठक में निर्णय हुआ कि दोनों पक्ष अपने साक्ष्य लिखित रूप में 22 दिसम्बर 1990 तक केंद्रीय गृह राज्य मंत्री के पास भेज देंगे। केंद्रीय गृह राज्य मंत्री 25 दिसम्बर 1990 तक उन साक्ष्यों का सम्बंधित पक्षों में आदान-प्रदान कर देंगे। दोनों पक्ष साक्ष्यों समीक्षा करके अपनी टिप्पणी 6 जनवरी 1991 तक गृह राज्य मंत्री को देंगे। गृह राज्य मंत्री कार्यालय इन टिप्पणियों के आधार पर सहमति और असहमति के बिन्दु तैयार करके 9 जनवरी 1991 तक दोनों पक्षों को भेज देगा। दस जनवरी 1991 को पुन: मिलेंगे। गुजरात भवन में दोनों पक्षों ने चर्चा की। अनुभव किया गया कि चार प्रकार के विशेषज्ञ (ऐतिहासिक, पुरातात्विक, राजस्व एवं कानून सम्बन्धी) उपलब्ध साक्ष्यों का विश्लेषण करें। यह भी तय हुआ कि विशेषज्ञों की सूची 17 जनवरी 1991 तक सरकार को दी जाएगी।
विशेषज्ञों की बैठक 24 जनवरी 1991 से प्रारम्भ होगी। विशेषज्ञों के निष्कर्ष 5 फरवरी 1991 को दोनों पक्षों के समक्ष विचार के लिए रखे जाएंगे। यह भी निश्चित हुआ था कि मुस्लिम पक्ष भगवान राम की ऐतिहासिकता और अयोध्या की पहचान पर कोई प्रश्न खड़ा नहीं करेगा अत: इन विषयों पर कोई वार्ता नहीं होगी। चौबीस जनवरी 1991 को विशेषज्ञ दो टोलियों में साक्ष्यों का अध्ययन करने के लिए बैठे। मुस्लिम पक्ष की ओर से इतिहास और पुरातत्व के विशेषज्ञ आए थे। उन्होंने प्रारम्भ में ही सरकार को पत्र लिखकर दे दिया कि तथ्यों का अध्ययन करने के लिए उन्हें 6 सप्ताह का समय चाहिए जबकि हिन्दू पक्ष के विशेषज्ञ कहते रहे कि 5 फरवरी, 1991 के पूर्व कार्य सम्पन्न किया जा सकता है।
मुस्लिम पक्ष के राजस्व एवं कानूनी विशेषज्ञ उपस्थित ही नहीं हुए। पच्‍चीस जनवरी 1991 को फिर बैठक हुई। हिन्दू पक्ष के विशेषज्ञ पूर्व निर्धारित समय प्रात: 11 बजे गुजरात भवन पहु गए। मुस्लिम पक्ष का कोई भी विशेषज्ञ दोपहर 12.45 बजे तक बैठक स्थल, गुजरात भवन नहीं पहुंचा और ना ही अपने वहां पहुंचने की सूचना दी, इससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि मुस्लिम पक्ष बातचीत से भाग रहा है। मुस्लिम पक्ष की अनुपस्थिति को अपमानजनक समझा गया और बातचीत यहीं समाप्त हो गई। मुस्लिम पक्ष के साथ बातचीत करने में एक अनुभव यह आया कि वे हर वार्तालाप में अपना पैंतरा बदलते थे। वार्तालाप से समाधान निकालने की चर्चा आज जब सुनी जाती है तो मन में प्रश्न उठता है कि अब वार्तालाप कहाँ से शुरू होगा? दस अक्टूबर 1991 को उत्तर प्रदेश सरकार के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने विवादित ढांचे को छोड़कर उसके चारों ओर का 2.77 एकड़ भूखण्ड तीर्थ यात्रियों के लिए सुविधाएं विकसित करने के उद्देश्य से अधिग्रहीत कर लिया। मुस्लिम पक्ष की ओर से अधिग्रहण को उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई। उच्च न्यायालय ने 25 अक्टूबर 1991 को अन्तरिम आदेश दिया की अधिग्रहीत भूमि पर उत्तर प्रदेश सरकार कब्जा कर सकती है, परन्तु दायर याचिकाओं का अन्तिम निपटारा होने तक कोई पक्का निर्माण नहीं करा सकेगी। याचिकाओं पर अन्तिम सुनवाई 4 नवम्बर 1992 को पूरी करके निर्णय सुरकषित रख लिया गया।

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