Tuesday 28 December 2010

विश्व की सर्वोत्कृष्टि संस्कृति भारतीय संस्कृति है,



विश्व की सर्वोत्कृष्टि संस्कृति भारतीय संस्कृति है,
यह कोई गर्वोक्ति नहीं अपितु वास्तविकता है । भारतीय संस्कृति को देव संस्कृति कहकर सम्मानित किया गया है । आज जब पूरी संस्कृति पर पाश्चात्य सभ्यता का तेजी से आक्रमण हो रहा है, यह और भी अनिवार्य हो जाता है कि, उसके हर पहलू को जो विज्ञान सम्मत भी है तथा हमारे दैनन्दिन जीवन पर प्रभाव डालने वाला भी, हम जनजन के समक्ष प्रस्तुत करें ताकि हमारी धरोहर-आर्य संस्काति के आधार भूत तत्व नष्ट न होने पायें ।

भारतीय संस्कृति का विश्व संस्कृति परक स्वरूप तथा उसकी गौरव गरिमा का वर्णन तो इस वाङ्मय के पैंतीसवें खण्ड 'समस्त विश्व को भारत के अजस्र अनुदान' में किया गया है किंतु इस खण्ड में संस्कृति के स्वरूप, मान्यताएँ, कर्म काण्ड-परम्पराएँ-उपासना पद्धतियाँ एवं अंत में इसके सामाजिक पक्ष पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है । इस प्रकार दोनों खण्ड मिलकर एक दूसरे के पूरक बनते हैं ।


भारतीय संस्कृति हमारी मानव जाति के विकास का उच्चतम स्तर कही जा सकती है । इसी की परिधि में सारे विश्वराष्ट के विकास के-वसुधैव कुटुम्बकम् के सारे सूत्र आ जाते हैं । हमारी संस्कृति में जन्म के पूर्व से मृत्यु के पश्चात् तक मानवी चेतना को संस्कारित करने का क्रम निर्धारित है । मनुष्य में पशुता के संस्कार उभरने न पायँ, यह इसका एक महत्त्वपूर्ण दायित्व है । भारतीय संस्कृति मानव के विकास का आध्यात्मिक आधार बनाती है और मनुष्य में संत, सुधारक, शहीद की मनोभूमि विकसित कर उसे मनीषी, ऋषि, महामानव, देवदूत स्तर तक विकसित करने की जिम्मेदारी भी अपने कंधों पर लेती है । सदा से ही भारतीय संस्कृति महापुरुषों को जन्म देती आयी है व यही हमारी सबसे बड़ी धरोहर है ।


भारतीय संस्कृति की अन्यान्य विशेषताओं सुख का केन्द्र आंतरिक श्रेष्ठता, अपने साथ कड़ाई, औरों के प्रति उदारता, विश्वहित के लिए स्वार्थो का त्याग, अनीतिपूर्ण नहीं-नीतियुक्त कमाई पारस्परिक सहिष्णुता, स्वच्छता-शुचिता का दैनन्दिन जीवन में पालन, परिवार-व राष्ट के प्रति अपनी नैतिक जिम्मेदारी का परिपालन, अनीति से लड़ने संघर्ष करने का साहस-मन्यु, पितरों की तृप्ति हेतु तथा पर्यावरण संरक्षण हेतु स्थान-स्थान पर वृक्षारोपण कर हरीतिमा विस्तार तथा
अवतारवाद का हेतु समझते हुए तदनुसार अपनी भूमिका निर्धारण सभी पक्षों का बड़ा ही तथ्य सम्मत-तर्क विवेचन पूज्यवर ने इसमें प्रस्तुत किया है ।

संस्कृति का अर्थ है वह कृति-कार्य पद्धति जो संस्कार संपन्न हो । व्यक्ति की उच्छृंखल मनोवृत्ति पर नियंत्रण स्थापित कर कैसे उसे संस्कारी बनाया जाय यह सारा अधिकार क्षेत्र संस्कृति के मूर्धन्यों का है एवं इसी क्षेत्र पर हमारे ऋषिगणों ने सर्वाधिक ध्यान दिया है । परम पूज्य गुरुदेव ने भारतीय संस्कृति की कुछ मान्यताओं पर बड़ी गहराई से प्रकाश डाला है व प्रत्येक का तथ्य सम्मत विवेचन विज्ञान की-शास्त्रों की सम्मति के साथ प्रस्तुत किया है, पुनर्जन्म में विश्वास, स्वर्ग और नरक कहाँ है, कैसे हैं, ब्राह्मणत्व क्या है-कैसे अर्जित किया जाता है-वर्णाश्रम धर्म परम्परा क्यों व किस रूप में ऋषियों ने स्थापित की, जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष का आधार क्या है तथा आस्तिकता व कमर्फल के सिद्धान्तों को संस्कृति का मूल प्राण क्यों माना जाता है, पूज्यवर ने बड़ी सुगम शैली में यह सब समझाने का प्रयास किया है । आपद धर्म-युगधर्म तथा यज्ञ की व्याख्या भी इसमें सशक्त रूप में आयी है । यधपि ये सभी विस्तार से अलग-अलग खण्डों में भी प्रसंगानुसार आये हैं, किंतु यहाँ उनका संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में विवेचन है ।


मूतिर्पूजा-प्रतीकों की उपासना के पीछे क्या वैज्ञानिकता है तथा शिखा-सूत्र, तिलक-माला आदि के पीछे क्या रहस्य छिपे पड़े हैं जो हमारे ऋषियों ने उन्हें इतना महत्व दिया, यह विवेचन पाठकगण इसमें पढ़ सकेंगे । षोड़ष संस्कारों से लेकर
पर्व त्योहारों तक तथा तीर्थ यात्राओं, मेलों से लेकर कथा पारायण तक देवसंस्कृति का विस्तृत फैलाव है । इन सभी के स्वरूप को एक पाठक को जैसे प्रारंभिक कक्षा के छात्र को पढ़ाया जाता है, पूज्यवर ने समझाया है । बहुदेव वाद क्या है- हमें इसके माध्यम से एक पर ब्रह्म की उपासना के मार्ग तक कैसे पहुँचाना है, यह समग्र तत्त्व दशर्न तथा श्राद्ध-तपर्ण आदि मान्यताओं की वैज्ञानिक व्याख्या भी इस में है ।

अंतिम अध्याय में पूज्यवर ने चारों वर्णओ व चारों आश्रमों के विभन्न पक्षों को विस्तार से लिखा है । वाणार्श्रम पद्धति हमारी संस्कृति की विशेषता है एवं समाज की सुव्यवस्था की एक सुदृढ़ आधार शिला है । आज इस संबंध में अनेकानेक भ्रान्तियाँ फैला दी गयी हैं पर वस्तुतः यह सारी विधि व्यवस्था मानवी जीवन को व उसकी सामाजिक जिम्मेदारियों को एक निधार्रित क्रम में बाँधने के लिए बनी थीं । इसी सामाजिक पक्ष में संस्कृति के खान-पान, जाति-पाँति, ऊँच-नीच, भाषा वेश, गुण-कर्म-स्वाभाव की परिष्काति से समाज की आराधना जैसे अनेकानेक पक्ष आ जाते हैं इनका वणर्न विस्तार से हुआ है । गुरु, गायत्री, गंगा, गौ व गीता ये पाँच हमारी संस्कृति के महत्त्वपूर्ण आधारस्तम्भ माने जाते हैं । इनके प्रति श्रद्धा रख हम अपनी सांस्कृतिक गौरव गरिमा का अभवधर्न करते हैं एवं इनके माध्यम से अनेकानेक अनुदान भी दैनन्दिन जीवन में पाते हैं ।


सांस्कृतिक पुररुत्थान के महत् प्रयोजन व उस निमित्त योजनाओं के विस्तार के साथ इस वाङ्मय का समापन है । भारतीय संस्कृति के आधार भूत तत्त्वों को सीखने-धारण करने वालों के लिए इस खण्ड में बहुत कुछ अमूल्य सामग्री भरी पड़ी है ।

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