Saturday 21 February 2015

कैसे जाग्रत करें छठी इंद्री ?

छठी इंद्री को अंग्रेजी में सिक्स्थ सेंस कहते हैं। सिक्स्थ सेंस को जाग्रत करने के लिए योग में अनेक उपाय बताए गए हैं। इसे परामनोविज्ञान का विषय भी माना जाता है। असल में यह संवेदी बोध का मामला है। गहरे ध्यान प्रयोग से यह स्वत: ही जाग्रत हो जाती है। मेस्मेरिज्म या हिप्नोटिज्म जैसी अनेक विद्याएँ इस छठी इंद्री के जाग्रत होने का ही कमाल होता है।
क्या है छठी इंद्री : मस्तिष्क के भीतर कपाल के नीचे एक छिद्र है, उसे ब्रह्मरंध्र कहते हैं, वहीं से सुषुन्मा रीढ़ से होती हुई मूलाधार तक गई है। सुषुन्मा नाड़ी जुड़ी है सहस्रकार से।
इड़ा नाड़ी शरीर के बायीं तरफ स्थित है तथा पिंगला नाड़ी दायीं तरफ अर्थात इड़ा नाड़ी में चंद्र स्वर और पिंगला नाड़ी में सूर्य स्वर स्थित रहता है। सुषुम्ना मध्य में स्थित है, अतः जब हमारी नाक के दोनों स्वर चलते हैं तो माना जाता है कि सुषम्ना नाड़ी सक्रिय है। इस सक्रियता से ही सिक्स्थ सेंस जाग्रत होता है।
इड़ा, पिंगला और सुषुन्मा के अलावा पूरे शरीर में हजारों नाड़ियाँ होती हैं। उक्त सभी नाड़ियों का शुद्धि और सशक्तिकरण सिर्फ प्राणायाम और आसनों से ही होता है। शुद्धि और सशक्तिकरण के बाद ही उक्त नाड़ियों की शक्ति को जाग्रत किया जा सकता है।
कैसे जाग्रत करें छठी इंद्री : यह इंद्री सभी में सुप्तावस्था में होती है। भृकुटी के मध्य निरंतर और नियमित ध्यान करते रहने से आज्ञाचक्र जाग्रत होने लगता है जो हमारे सिक्स्थ सेंस को बढ़ाता है। योग में त्राटक और ध्यान की कई विधियाँ बताई गई हैं। उनमें से किसी भी एक को चुनकर आप इसका अभ्यास कर सकते हैं।
अभ्यास का स्थान : अभ्यास के लिए सर्वप्रथम जरूरी है साफ और स्वच्छ वातावरण, जहाँ फेफड़ों में ताजी हवा भरी जा सके अन्यथा आगे नहीं बढ़ा जा सकता। शहर का वातावरण कुछ भी लाभदायक नहीं है, क्योंकि उसमें शोर, धूल, धुएँ के अलावा जहरीले पदार्थ और कार्बन डॉक्साइट निरंतर आपके शरीर और मन का क्षरण करती रहती है। स्वच्छ वातावरण में सभी तरह के प्राणायाम को नियमित करना आवश्यक है।
मौन ध्यान : भृकुटी पर ध्यान लगाकर निरंतर मध्य स्थित अँधेरे को देखते रहें और यह भी जानते रहें कि श्वास अंदर और बाहर ‍हो रही है। मौन ध्यान और साधना मन और शरीर को मजबूत तो करती ही है, मध्य स्थित जो अँधेरा है वही काले से नीला और ‍नीले से सफेद में बदलता जाता है। सभी के साथ अलग-अलग परिस्थितियाँ निर्मित हो सकती हैं।
मौन से मन की क्षमता का विकास होता जाता है जिससे काल्पनिक शक्ति और आभास करने की क्षमता बढ़ती है। इसी के माध्यम से पूर्वाभास और साथ ही इससे भविष्य के गर्भ में झाँकने की क्षमता भी बढ़ती है। यही सिक्स्थ सेंस के विकास की शुरुआत है।
अंतत: हमारे पीछे कोई चल रहा है या दरवाजे पर कोई खड़ा है, इस बात का हमें आभास होता है। यही आभास होने की क्षमता हमारी छठी इंद्री के होने की सूचना है। जब यह आभास होने की क्षमता बढ़ती है तो पूर्वाभास में बदल जाती है। मन की स्थिरता और उसकी शक्ति ही छठी इंद्री के विकास में सहायक सिद्ध होती है।
इसका लाभ : व्यक्ति में भविष्य में झाँकने की क्षमता का विकास होता है। अतीत में जाकर घटना की सच्चाई का पता लगाया जा सकता है। मीलों दूर बैठे व्यक्ति की बातें सुन सकते हैं। किसके मन में क्या विचार चल रहा है इसका शब्दश: पता लग जाता है। एक ही जगह बैठे हुए दुनिया की किसी भी जगह की जानकारी पल में ही हासिल की जा सकती है। छठी इंद्री प्राप्त व्यक्ति से कुछ भी छिपा नहीं रह सकता और इसकी क्षमताओं के विकास की संभावनाएँ अनंत हैं।

100 वर्ष जिंदा रहने के 5 उपाय

अच्छा भोजन :-
अच्छा भोजन चयन करना जरूरी है। ज्यादा मिर्च और तेल का भोजन नहीं करना चाहिए। बेसन और मैदे से बने आइटम तो त्याग ही देना चाहिए। किसी भी प्रकार का नशा नहीं करना चाहिए। सम्यक आहार लेला चाहिए अर्थात न ज्यादा और न कम।
भोजन करते वक्त जितनी भूख है उससे दो रोटी कम खाएं। भोजन में सलाद का ज्यादा प्रयोग करें। भोजन बैठकर (पालथी मारकर) ही करें। भोजन करते वक्त मन प्रसन्नचित्त रखें। ऐसा भोजन न करें, जिससे दांतों और आंतों को अतिरिक्त श्रम करना पड़े। भोजन करने के एक घंटे बाद ही पानी पीएं। यह भी ध्यान रखें क‍ि थाली में हाथ न धोएं। रात्रि का भोजन बहुत कम ही करें।
कहते हैं कि खान-पान में मात्रा जानने वाले, संभोग में नियम पालने वाले और अन्य बातों और इंद्रियों में संयम और सम्यकता समझने वाले को जब आंधी आती है तो सिर्फ छूकर चली जाती है, इससे विपरीत उक्त बातों का पालन न करने वाले को जड़ सहित उखाड़कर फेंक देती है।
जल-वायु :-
धरती की जलवायु अच्छी होगी तो धरती पर सेहतमंद होगी उसी तरह हमारे शरीर के भीतर की जल वायु का शुद्ध और तरोताजा होना जरूरी है। प्रदूषित जल और वायु से जहां भोजन खराब होता है वहीं इससे गंभीर रोगों का खतरा भी बढ़ जाता है।
जल :-
पानी (जल) पीएं छानकर। ध्यान रहे पानी हलका और मीठा पीएं। जब प्यास लगे तब पानी पीएं। पानी बैठकर ही पीएं। पानी गिलास से पीएं या फिर हाथों की अंजुली बनाकर ही पीएं। ऊपर से मुंह में पानी डालकर पीने के अपने नुकसान हैं। जिस पात्र में पानी भरा जाता है व पात्र ईशान कोण में रखा हो, उसके आसपास की जगह साफ हो।
वायु :-
भोजन कुछ दिन न मिले तो जीवन चल जाएगा। पानी कुछ घंटे न मिले तो भी चल जाएगा, लेकिन हवा हमें हर पल चाहिए। जिस तरह दूषित भोजन और पानी स्वत: ही निकल जाते हैं या कभी-कभार निकालने का प्रयास करते हैं, उसी तरह शरीर के फेफड़ों और पेट में एकत्रित दूषित वायु को निकालने का प्रयास ‍करें। हलके प्रेशर से सांस बाहर फेंक दें, फिर पूरी गहराई से सांस भीतर खींचें, भ्रस्त्रिका और कपालभाति के इस हिस्से को जब भी समय मिले करते रहें। छींक आए तो पूरी ताकत से छींकें।
शहरी प्रदूषण के कारण शरीर में दूषित वायु के होने की स्थिति में भी उम्र क्षीण होती है और रोगों की उत्पत्ति होती है। पेट में पड़ा भोजन दूषित हो जाता है, जल भी दूषित हो जाता है तो फिर वायु क्यों नहीं। यदि आप लगातार दूषित वायु ही ग्रहण कर रहे हैं तो समझो कि समय से पहले ही रोग और मौत के निकट जा रहे हैं।
नींद :-
नींद एक डॉक्टर है और दवा भी। आपकी नींद कैसी होगी, यह निर्भर करता है इस पर क‍ि आप दिनभर किस तरह से जीएं। जरूरी है कार्य, विचार, आहार और व्यवहार पर गंभीर मंथन करना। यदि यह संतुलित और सम्यक रहेगा तो भरपूर ‍नींद से स्वास्थ्‍य में लाभ मिलेगा। यह भी ध्यान रखें क‍ि ज्यादा या कम नींद से सेहत और मन पर विपरीत असर पड़ता है। अच्छे स्वप्नों के लिए अच्छी दिनचर्या को मैनेज करें। इससे स्वास्थ्य अच्छा रहेगा।
झपकी ध्यान :-
यदि अत्यधिक कार्य के कारण आपकी नींद पूरी नहीं हो रही है तो सिर्फ एक मिनट का झपकी ध्यान करें। ऑफिस या घर में जब भी लगे तो 60 सेकंड की झपकी मार ही लें। इसमें साँसों के आवागमन को तल्लीनता से महसूस करें। गहरी-गहरी सांस लें। यह न सोचें क‍ि कोई देख लेगा तो क्या सोचेगा। हां आफिस में इसे सतर्कता से करें, वरना बॉस गलत समझ बैठेंगे। इस ध्यान से आप स्वयं को हर वक्त तरोताजा महसूस करेंगे।
मन और मस्तिष्क :-
मानसिक द्वंद्व, चिंता, दुख: या दिमागी बहस हमारी श्वासों की गति को अनियंत्रित करते हैं, जिससे खून की गति भी असंतुलित हो जाती है। इसका सीधा असर हृदय, फेफड़े और पेट पर होता है और यह गंभीर रोग का कारण भी बन सकता है। मानसिक द्वंद्व या दुख हामारी उम्र घटाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
सुख-दुख से परे मन और मस्तिष्क को शांत और प्रसन्न चित्त रखने के लिए आप सुबह और शाम को 10 मिनट का ध्यान करें। ध्यान करना जरूरी है। ध्‍यान से मस्तिष्क और मन को अतिरिक्त ऊर्जा मिलती है और इसके नियमित अभ्यास से किसी भी प्रकार की समस्या और दुख से व्यक्ति मुक्त हो जाता है।
मौन :-
मौन से मन की आंतरिक्त शक्ति और रोगों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। कुछ क्षण ऐसे होते हैं जबकि हम खुद-ब-खुद मौन हो जाते हैं। ऐसा कुछ विशेष परिस्थिति में होता है, लेकिन मौन रहने का प्रयास करना और यह सोचते हुए क‍ि मौन में कम से कम सोचने का प्रयास करूंगा, ज्यादा से ज्यादा देखने और श्‍वासों के आवागमन को महसूस करने का प्रयास करूंगा, एक बेहतर शुरुआत होगी। दो घंटे की व्यर्थ की बहस से 10 मिनट का मौन रिफ्रेश कर विजन पावर बढ़ाएंगा।
नियमित व्यायाम :-
वैज्ञानिकों का कहना है कि 70 साल का कोई व्यक्ति यदि नियमित व्यायाम करता है, तो इस बात की पूरी संभावना है कि वह 100 वर्ष की उम्र तक जिए।
आर्काइव्स ऑफ इंटरनल मेडिसिन में प्रकाशित शोध के परिणाम कहते हैं कि लंबी उम्र के लिए हमारे जीन सिर्फ 30 प्रतिशत तक जिम्मेदार होते हैं बाकी का काम तो जीवन शैली करती है।
इसलिए आप योगासन या हल्की-फुल्की कसरत करें और इस बता को अच्छी तरह से तय कर लें कि किसी भी कीमत में पेट और कमर की चर्बी न बढ़ने पाएं।

उम्र को बढ़ने से रोके 'तिब्ब‍ती योगा

उम्र को बढ़ने से रोके 'तिब्ब‍ती योगा'
आज की पीढ़ी अपनी पुरानी पीढ़ी की तुलना में अधिक जल्दी बूढ़ी हो रही है। इसके लिए जिम्मेदार है बाहर का वातावरण, उसकी अनियमित जीवन पद्धति और खानपान। आज की जीवनशैली और बढ़ते काम का दबाव भी इसके लिए जिम्मेदार है। इस तेजी से जीने की जीवनशैली को बदलकर अनुशासनबद्ध जीवनशैली में जीने का नाम ही है 'तिब्ब‍ती योगा।
उम्र को रोकने का एक कारगर उपाय है 'तिब्बती योगा'। इसमें कुछ खास बात है जो आपको जवान बनाए रखने में सक्षम है बशर्ते की आप इसका ईमानदारी से पालन करते हैं। 'तिब्ब‍ती योगा में अनुशासन का बहुत महत्व है। ‍यहां प्रस्तुत है तिब्बती योगा की मुख्य मुख्‍य बातें।
1.श्वास पर नियंत्रण
2.नियमित ध्यान
3.अनुशासनबद्ध जीवन
4.उचित आहार
5.फलों का ज्यूस
6.शुद्ध वातावरण
8.पाचन क्रिया को सुचारू रूप से चलाने के लिए योगासन।
9.इसके अलावा कुछ खास तरीके से किए जाने वाले अंग संचालन।
आपकी आयु आपके शरीर की उपचय और अपचय की क्रियाओं पर निर्भर है। यानी यदि आपके शरीर में अपचय की तुलना में उपचय की क्रियाएं बढ़ रही होती हैं तो इसका मतलब आप बुढ़ापे की ओर बढ़ रहे हैं। तिब्बती लामा योगाभ्यास इस हेतु ही करते हैं कि अंतःस्त्रावी ग्रंथियों के क्रम और चक्रों को उचित व्यवस्था में स्थित किया जा सके।
शरीर की चयापचयी क्रियाओं में संतुलन स्थापित कर शरीर के चक्र को सुधारकर शरीर को पूरी तरह दुरुस्त किया जा सकता है।

उत्तर दिशा मेँ सिर रखकर क्योँ नहीँ सोना चाहिए

(1)हमारे पूर्वजों ने नित्य की
क्रियाओं के लिए समय, दिशा और आसन
आदि का बड़ी सावधानी पूर्वक वर्णन
किया है। उसी के अनुसार मनुष्य को
कभी भी उत्तर दिशा की ओर सिर रखकर
नहीं सोना चाहिए।इसके कारण है कि
पृथ्वी का उत्तरी धुव्र चुम्बकत्व
का प्रभाव रखता है जबकि दक्षिण
ध्रुव पर यह प्रभाव नहीं पाया
जाता।
शोध से पता चला है कि साधारण चुंबक
शरीर से बांधने पर वह हमारे शरीर के
ऊत्तकों पर विपरीत प्रभाव डालता है
। इसी सिद्धांत पर यह निष्कर्ष भी
निकाला गया कि अगर साधारण चुंबक
हमारे शरीर पर विपरीत प्रभाव डाल
सकता है तो उत्तरी पोल पर प्राकृतिक
चुम्बक भी हमारे मन, मस्तिष्क व
संपूर्ण शरीर पर विपरीत असर डालता
है।
यही वजह है कि उत्तर दिशा की ओर सिर
रखकर सोना निषेध माना गया है।
(2)सर किस दिशा में करके सोना चाहिए
यह भी एक मुख कारण है….
उत्तरी ध्रुव की तरफ .. घनात्मक–. सर
करके न सोयें
वैसे तो जिधर चाहे मनुष्य सिर करके
सो जाता है, परंतु सिर्फ इतनी सी बात
याद रखा जाए कि उत्तर की ओर सिर करके
ना सोया जाये। इससे स्वप्न कम आते
हैं, निद्रा अच्छी आती है।
कारण- पृथ्वी के दो ध्रुवों उत्तर,
दक्षिण के कारण बिजली की जो तरंगे
होती है यानि, उत्तरी ध्रुव में ( )
बिजली अधिक होती है। दक्षिणी ध्रुव
में ऋणात्मक (-) अधिक होती है। इसी
प्रकार मनुष्य के सिर में विद्युत
का धनात्मक केंद्र होता है । पैरों
की ओर ऋणात्मक। यदि बिजली एक ही
प्रकार की दोनों ओर से लाई जाए तो
मिलती नहीं बल्कि हटना चाहती है।
यानि ( = -)
यदि घनत्व परस्पर विरुद्ध हो तो
दौडकर मिलना चाहती है जैसे यदि सिर
दक्षिण की ओर हो तो सिर का धनात्मक (
) और यदि पैर उत्तर ध्रुवतो, ऋणात्मक
(-) बिजली एक दूसरे के सामने आ जाती
है। और दोनों आपस में मिलना चाहती
है। परंतु यदि पांव दक्षिण की ओर हो
तो सिर का धनात्मक तथा उत्तरी ध्रुव
की धनात्मक बिजली आमने-सामने हो
जाती है और एक दूसरे को हटाती है
जिससे मस्तिष्क में आंदोलन होता
रहता है।एक दूसरे के साथ खींचा तानी
चलती रहती हैपूर्व औरपश्चिम में
चारपाई का मुख होने से कोई विषेश
फर्क नहीं होता, बल्कि सूर्य की
प्राणशक्ति मानव शरीर पर अच्छा
प्रभावडालतीहै
पुराने लोग इस नियम को भली प्रकार
समझते थे और दक्षिण की ओर पांव करके
किसी को सोने नहीं देते थे। दक्षिण
की ओर पांव केवल मृत व्यक्ति के ही
किये जाते हैं मरते समय उत्तर की ओर
सिर करके उतारने की रीति इसी नियम
पर है, भूमि बिजली को शीघ्र खींच
लेती है और प्राण सुगमता से निकल
जाते है।

भगवान को पाने के तीन सूत्र-रामकृष्ण परमहंस

भगवान को पाने के तीन सूत्र है वो है हमारा भगवान के प्रति समर्पण (Dedication), विसर्जन और विलय (merging) (क्रमश) ।
रामकृष्ण परमहंस (Ramakrishna Paramahamsa) के अनुसार इन तीनो साधनाओ को करने के लिए नीचे लिखे पाच भावो में से कोई भी एक अपना कर हम भगवन को पा सकते है इनके द्वारा भक्त, अपने भगवान के प्रति, अपनी प्रीति जता सकता –
१. दास भाव - रामकृष्ण परमहंस ने अपनी इस साधना के दौरान जो भाव हनुमान का अपने प्रभु राम से था इसी भाव से उन्होंने साधना की और साधना के अंत में उन्हें प्रभु श्रीराम और माता सीता के दर्शन हुए और वे उनके शरीर में समा गए ।
२. दोस्त भाव - इस साधना में स्वयं को सुदामा मान कर और भगवान को अपना मित्र मानकर की जाती है ।
३. वात्सल्य भाव - 1864 में रामकृष्ण एक वैष्णव गुरु जटाधारी के सनिद्य में वात्सल्य भाव की साधना की, इस अवधि के दौरान उन्होंने एक मां के भाव से रामलला के एक धातु छवि (एक बच्चे के रूप में राम) की पूजा की. रामकृष्ण के अनुसार, वह धातु छवि में रहने वाले भगवान के रूप में राम की उपस्थिति महसूस करते थे ।
४. माधुर्य भाव - बाद में रामकृष्ण ने माधुर्य भाव की साधना की. उन्होंने अपने भाव को कृष्ण के प्रति गोपियों और राधा का रखा. इस साधना के दौरान, रामकृष्ण कई दिनों महिलाओं की पोशाक में रह कर स्वयं को वृंदावन की गोपियों में से एक के रूप में माना. रामकृष्ण के अनुसार, इस साधना के अंत में, वह साथ सविकल्प समाधि प्राप्त की ।
५ . संत का भाव (शांत स्वाभाव) - अन्त में उन्होने संत भाव की साधना की. इस साधना में उन्होंने खुद को एक बालक के रूप में मानकर माँ काली की पूजा की और उन्हें माँ काली की दर्शन हुए ।

संख्या 108 का महत्व

108 का रहस्य ! (The Mystery of 108) वेदान्त में एक
मात्रकविहीन सार्वभौमिक ध्रुवांक
108 का उल्लेख मिलता है जिसका हजारों
वर्षों पूर्व हमारे ऋषियों
(वैज्ञानिकों) ने अविष्कार किया था l
मेरी सुविधा के लिए मैं मान लेता
हूँ कि, 108 = ॐ (जो पूर्णता का द्योतक
है) प्रकृति में 108 की विविध
अभिव्यंजना : 1. सूर्य और पृथ्वी के
बीच की दूरी/सूर्य का व्यास = 108 = 1 ॐ
150,000,000 km/1,391,000 km = 108 (पृथ्वी और सूर्य के
बीच 108 सूर्य सजाये जा सकते हैं) 2.
सूर्य का व्यास/ पृथ्वी का व्यास = 108 =
1 ॐ 1,391,000 km/12,742 km = 108 = 1 ॐ सूर्य के व्यास पर
108 पृथ्वियां सजाई सा सकती हैं . 3.
पृथ्वी और चन्द्र के बीच की
दूरी/चन्द्र का व्यास = 108 = 1 ॐ 384403 km/3474.20 km
= 108 = 1 ॐ पृथ्वी और चन्द्र के बीच १०८
चन्द्रमा आ सकते हैं . 4. मनुष्य की
उम्र 108 वर्षों (1ॐ वर्ष) में पूर्णता
प्राप्त करती है . वैदिक ज्योतिष के
अनुसार मनुष्य को अपने जीवन काल में
विभिन्न ग्रहों की 108 वर्षों की
अष्टोत्तरी महादशा से गुजरना
पड़ता है . 5. एक शांत, स्वस्थ और
प्रसन्न वयस्क व्यक्ति 200 ॐ श्वास
लेकर एक दिन पूरा करता है . 1 मिनट में
15 श्वास >> 12 घंटों में 10800 श्वास >>
दिनभर में 100 ॐ श्वास, वैसे ही रातभर
में 100 ॐ श्वास 6. एक शांत, स्वस्थ और
प्रसन्न वयस्क व्यक्ति एक मुहुर्त
में 4 ॐ ह्रदय की धड़कन पूरी करता है .
1 मिनट में 72 धड़कन >> 6 मिनट में 432
धडकनें >> 1 मुहूर्त में 4 ॐ धडकनें ( 6
मिनट = 1 मुहूर्त) 7. सभी 9 ग्रह (वैदिक
ज्योतिष में परिभाषित) भचक्र एक
चक्र पूरा करते समय 12 राशियों से
होकर गुजरते हैं और 12 x 9 = 108 = 1 ॐ 8. सभी 9
ग्रह भचक्र का एक चक्कर पूरा करते
समय 27 नक्षत्रों को पार करते हैं और
प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण होते
हैं और 27 x 4 = 108 = 1 ॐ 9. एक सौर दिन 200 ॐ विपल
समय में पूरा होता है. (1 विपल = 2.5
सेकेण्ड) 1 सौर दिन (24 घंटे) = 1
अहोरात्र = 60 घटी = 3600 पल = 21600 विपल = 200 x 108 =
200 ॐ विपल *** 108 का आध्यात्मिक अर्थ *** 1
सूचित करता है ब्रह्म की
अद्वितीयता/एकत्व/पूर्णता को 0
सूचित करता है वह शून्य की अवस्था
को जो विश्व की अनुपस्थिति में
उत्पन्न हुई होती 8 सूचित करता है उस
विश्व की अनंतता को जिसका अविर्भाव
उस शून्य में ब्रह्म की अनंत
अभिव्यक्तियों से हुआ है . अतः
ब्रह्म, शून्यता और अनंत विश्व के
संयोग को ही 108 द्वारा सूचित किया
गया है . जिस प्रकार ब्रह्म की
शाब्दिक अभिव्यंजना प्रणव ( अ उ म् )
है और नादीय अभिव्यंजना ॐ की ध्वनि
है उसी प्रकार ब्रह्म की गाणितिक
अभिव्यंजना 108 है .!!

शुकरहस्योपनिषद

शुकरहस्योपनिषद इस कृष्ण यजुर्वेदीय उपनिषद में महर्षि व्यास जी के आग्रह पर भगवान शिव
उनके पुत्र शुकदेव को चार महावाक्यों का उपदेश 'ब्रह्म रहस्य'के रूप में देते हैं। वे चार
महावाक्य- 
#ॐ प्रज्ञानं ब्रह्म, 
ॐअहं ब्रह्मास्मि, 
ॐ तत्त्वमसि और 

अयमात्मा ब्रह्म हैं। ---------------------- 
ॐ प्रज्ञानं ब्रह्म (चेतना ब्रह्म है)
| Consciousness is Brahman इस महावाक्य का अर्थ है-
'प्रकट ज्ञान ब्रह्म है।' वह ज्ञान-स्वरूप ब्रह्म जानने योग्य
है और ज्ञान गम्यता से परे भी है। वह
विशुद्ध-रूप, बुद्धि-रूप, मुक्त-रूप
और अविनाशी रूप है। वही सत्य, ज्ञान
और सच्चिदानन्द-स्वरूप ध्यान करने
योग्य है। उस महातेजस्वी देव का
ध्यान करके ही हम 'मोक्ष' को प्राप्त
कर सकते हैं। वह परमात्मा सभी
प्राणियों में जीव-रूप में
विद्यमान है। वह सर्वत्र अखण्ड
विग्रह-रूप है। वह हमारे चित और
अहंकार पर सदैव नियन्त्रण करने
वाला है। जिसके द्वारा प्राणी
देखता, सुनता, सूंघता, बोलता और
स्वाद-अस्वाद का अनुभव करता है, वह
प्रज्ञान है। वह सभी में समाया हुआ
है। वही 'ब्रह्म' है। -------------------------------- उस
ब्रह्म को जानने के लिए चित कि
शुद्धता आवश्यक है, वह ब्रह्म ज्ञान
गम्यता से परे है, ब्रह्म का ध्यान
करके ही हम ‘मोक्ष’ को प्राप्त
कर सकते हैं, उसी का आधार प्राप्त
करके सभी जीवों में चेतना का समावेश
होता है, वह अखण्ड विग्रह रूप में
चारों ओर व्याप्त होता है. वही
हमारी शक्तियों हमारी किर्याओं पर
नियंत्रण करने वाला है. उसी की
प्रार्थना द्वारा चित और अहंकार पर
नियन्त्रण प्राप्त किया जा सकता है
वह प्रज्ञान अर्थात चैतन्य
विद्वान पुरुष है सभी में समाहित
ब्रह्म मोक्ष का मार्ग है.
----------------------------------- ॐ अहं ब्रह्मास्मि | I am
Brahman इस महावाक्य का अर्थ है- 'मैं
ब्रह्म हूं।' यहाँ 'अस्मि' शब्द से
ब्रह्म और जीव की एकता का बोध होता
है। जब जीव परमात्मा का अनुभव कर
लेता है, तब वह उसी का रूप हो जाता
है। दोनों के मध्य का द्वैत भाव
नष्ट हो जाता है। उसी समय वह 'अहं
ब्रह्मास्मि' कह उठता है। -----------------------
ॐ तत्त्वमसि | That Thou Art इस महावाक्य का
अर्थ है-'वह ब्रह्म तुम्हीं हो।'
सृष्टि के जन्म से पूर्व, द्वैत के
अस्तित्त्व से रहित, नाम और रूप से
रहित, एक मात्र सत्य-स्वरूप,
अद्वितीय 'ब्रह्म' ही था। वही
ब्रह्म आज भी विद्यमान है। उसी
ब्रह्म को 'तत्त्वमसि' कहा गया है।
वह शरीर और इन्द्रियों में रहते हुए
भी, उनसे परे है। आत्मा में उसका अंश
मात्र है। उसी से उसका अनुभव होता
है, किन्तु वह अंश परमात्मा नहीं
है। वह उससे दूर है। वह सम्पूर्ण
जगत में प्रतिभासित होते हुए भी
उससे दूर है। ---------------------
शुकरहस्योपनिषद में इस ॐ
तत्त्वमसि महावाक्य को स्पष्ट
करते हुए भगवन कहते हैं कि ब्रह्म
तुम्हीं हो, सृष्टि पूर्व, द्वैत
रहित, नाम, रूप से रहित,केवल ब्रह्म
ही विराजमान था और आज भी वही है आदि
से अंत उसी की सत्ता उपस्थित रही है.
इसी कारण ब्रह्म को ‘तत्त्वमसि’
कहा गया. ब्रह्म देह में रहते हुए भी
उससे मुक्त है केवल आत्मा द्वारा
उसका अनुभव होता है, वह संपूर्ण
सृष्टि में होते हुए भी उससे दूर है.
---------------------------------- ॐ अयमात्मा ब्रह्म | This
Self is Brahman. इस महावाक्य का अर्थ है- 'यह
आत्मा ब्रह्म है।' उस स्वप्रकाशित
परोक्ष (प्रत्यक्ष शरीर से परे)
तत्त्व को 'अयं' पद के द्वारा
प्रतिपादित किया गया है। अहंकार से
लेकर शरीर तक को जीवित रखने वाली
अप्रत्यक्ष शक्ति ही 'आत्मा' है। वह
आत्मा ही परब्रह्म के रूप में समस्त
प्राणियों में विद्यमान है।
सम्पूर्ण चर-अचर जगत में तत्त्व-रूप
में वह संव्याप्त है। वही ब्रह्म
है। वही आत्मतत्त्व के रूप में
स्वयं प्रकाशित 'आत्मतत्त्व' है।
अन्त में भगवान शिव शुकदेव से कहते
हैं-'हे शुकदेव! इस सच्चिदानन्द-
स्वरूप 'ब्रह्म' को, जो तप और ध्यान
द्वारा प्राप्त करता है, वह
जीवन-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता
है।' भगवान शिव के उपदेश को सुनकर
मुनि शुकदेव सम्पूर्ण जगत के
स्वरूप परमेश्वर में तन्मय होकर
विरक्त हो गये। उन्होंने भगवान को
प्रणाम किया और सम्पूर्ण
प्ररिग्रह का त्याग करके तपोवन की
ओर चले गये। ------------- देह का प्राण
आत्मा ही है वह आत्मा ही परब्रह्म
के रूप में समस्त प्राणियों में
विराजमान है. सम्पूर्ण चर, अचर में
तत्त्व-रूप में वह व्याप्त है,
आत्मतत्त्व के रूप में स्वयं
प्रकाशित ब्रह्म है. इस प्रकार चार
मावाक्यों का के ज्ञान का बोध कराकर
भगवान शिव शुकदेव को प्रणव मंत्र के
विषय में बताते हैं तथा
ब्रह्मप्रणव के अर्थ को व्यक्त
करते हैं शिव शुकदेव को वेद और वेद
मंत्रों का संदेश,समझाते हैं. भगवान
शिव शुकदेव को बताते हैं कि
सच्चिदानन्द ब्रह्म को, तपस्या एवं
साधना ध्यान द्वारा प्राप्त किया
जा सकता है तथा गुरू के निर्देश
स्वरुप तप करके ब्रह्म को जाना जा
सकता है. जो भी जीव इस ब्रह्म को जान
लेते है वह मोक्ष को पाता है. इस
प्रकार भगवान शिव के उपदेश को
प्राप्त करके शुकदेव संपूर्ण
सृष्टि स्वरूप परमेश्वर में तन्मय
होकर विरक्त हो जाते हैं तथा
प्ररिग्रह का त्याग करके तपोवन की
ओर ब्रह्म साधना के लिए चले जाते
हैं.

शरीर में छिपे सप्त चक्र

शरीर में छिपे सप्त चक्र शरीर में छिपे सप्त चक्र मनुष्य शरीर स्थित कुंडलिनी शक्ति में जो चक्र स्थित होते हैं उनकी संख्या कहीं छ: तो कहीं सात बताई गई है। इन'चक्रों के विषय में अत्यंत महत्वपूर्ण एवं गोपनीय जानकारी यहां दी गई है। यह जानकारी शास्त्रीय, प्रामाणिक एवं तथ्यात्मक है-
(1) मूलाधार चक्र - गुदा
और लिंग के बीच चार पंखुरियों वाला
'आधार चक्र' है । आधार चक्र का ही एक
दूसरा नाम मूलाधार चक्र भी है। वहाँ
वीरता और आनन्द भाव का निवास है ।
(2) स्वाधिष्ठान चक्र - इसके बाद
स्वाधिष्ठान चक्र लिंग मूल में है ।
उसकी छ: पंखुरियाँ हैं । इसके
जाग्रत होने पर क्रूरता,गर्व,
आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास
आदि दुर्गणों का नाश होता है ।
(3)मणिपूर चक्र - नाभि में दस दल वाला
मणिचूर चक्र है । यह प्रसुप्त पड़ा
रहे तो तृष्णा, ईष्र्या, चुगली,
लज्जा, भय, घृणा, मोह, आदि कषाय-कल्मष
मन में लड़ जमाये पड़े रहते हैं ।
(4) अनाहत चक्र - हृदय स्थान में अनाहत
चक्र है । यह बारह पंखरियों वाला है
। यह सोता रहे तो लिप्सा, कपट, तोड़
-फोड़, कुतर्क, चिन्ता, मोह, दम्भ,
अविवेक अहंकार से भरा रहेगा । जागरण
होने पर यह सब दुर्गुण हट जायेंगे ।
(5) विशुद्धख्य चक्र - कण्ठ में
विशुद्धख्य चक्र यह सरस्वती का
स्थान है । यह सोलह पंखुरियों वाला
है। यहाँ सोलह कलाएँ सोलह
विभूतियाँ विद्यमान है
(6)आज्ञाचक्र - भू्रमध्य में आज्ञा
चक्र है, यहाँ '?' उद्गीय, हूँ, फट, विषद,
स्वधा स्वहा, सप्त स्वर आदि का
निवास है । इस आज्ञा चक्र का जागरण
होने से यह सभी शक्तियाँ जाग पड़ती
हैं ।
(7) सहस्रार चक्र - सहस्रार की
स्थिति मस्तिष्क के मध्य भाग में है
। शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक
महत्वपूर्ण ग्रंथियों से सम्बन्ध
रैटिकुलर एक्टिवेटिंग सिस्टम का
अस्तित्व है । वहाँ से जैवीय
विद्युत का स्वयंभू प्रवाह उभरता
है । कुण्डलिनी जागरण: विधि और
विज्ञान कुंडलिनी जागरण का अर्थ है
मनुष्य को प्राप्त महानशक्ति को
जाग्रत करना। यह शक्ति सभी
मनुष्यों में सुप्त पड़ी रहती है।
कुण्डली शक्ति उस ऊर्जा का नाम है
जो हर मनुष्य में जन्मजात पायी जाती
है। यह शक्ति बिना किसी भेदभाव के
हर मनुष्य को प्राप्त है। इसे जगाने
के लिए प्रयास या साधना करनी पड़ती
है। जिस प्रकार एक नन्हें से बीज
में वृक्ष बनने की शक्ति या क्षमता
होती है। ठीक इसी प्रकार मनुष्य में
महान बनने की, सर्वसमर्थ बनने की
एवं शक्तिशाली बनने की क्षमता होती
है। कुंडली जागरण के लिए साधक को
शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक स्तर पर
साधना या प्रयास पुरुषार्थ करना
पड़ता है। जप, तप, व्रत-उपवास,
पूजा-पाठ, योग आदि के माध्यम से साधक
अपनी शारीरिक एवं मानसिक,
अशुद्धियों, कमियों और बुराइयों को
दूर कर सोई पड़ी शक्तियों को जगाता
है। अत: हम कह सकते हैं कि विभिन्न
उपायों से अपनी अज्ञात, गुप्त एवं
सोई पड़ी शक्तियों का जागरण ही
कुंडली जागरण है। योग और अध्यात्म
की भाषा में इस कुंडलीनी शक्ति का
निवास रीढ़ की हड्डी के समानांतर
स्थित छ: चक्रों में माना गया है।
कुण्डलिनी की शक्ति के मूल तक
पहुंचने के मार्ग में छ: फाटक है
अथवा कह सकते हैं कि छ: ताले लगे हुए
है। यह फाटक या ताले खोलकर ही कोई
जीव उन शक्ति केंद्रों तक पहुंच
सकता है। इन छ: अवरोधों को
आध्यात्मिक भाषा में षट्-चक्र कहते
हैं। ये चक्र क्रमश: इस प्रकार है:
मूलधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र,
मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र,
विशुद्धाख्य चक्र, आज्ञाचक्र।
साधक क्रमश: एक-एक चक्र को जाग्रत
करते हुए। अंतिम आज्ञाचक्र तक
पहुंचता है। मूलाधार चक्र से
प्रारंभ होकर आज्ञाचक्र तक की
सफलतम यात्रा ही कुण्डलिनी जागरण
कहलाता है। ----------------------------------------------- 
कुण्डलिनी के षटचक्र ओर उनका वेधन
अखिल विश्व गायत्री परिवार
सांस्कृतिक धरोहर गायत्री
महाविद्या सावित्री कुण्डलिनी एवं
तंत्र कुण्डलिनी में षठ चक्र और
उनका भेदन सुषुप्तिरत्र तृष्णा
स्यादीष्र्या पिशुनता तथा॥ (१) गुदा
और लिंग के बीच चार पंखुरियों वाला
'आधार चक्र' है । वहाँ वीरता और आनन्द
भाव का निवास है । (२) इसके बाद
स्वाधिष्ठान चक्र लिंग मूल में है ।
उसकी छः पंखुरियाँ हैं । इसके
जाग्रत होने पर क्रूरता, गर्व,
आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास
आदि दुर्गणों का नाश होता है । (३)
नाभि में दस दल वाला मणिचूर चक्र है
। यह प्रसुप्त पड़ा रहे तो तृष्णा,
ईर्ष्या, चुगली, लज्जा, भय, घृणा, मोह,
आदि कषाय-कल्मष मन में लड़ जमाये
पड़े रहते हैं ‍ (४) हृदय स्थान में
अनाहत चक्र है । यह बारह पंखरियों
वाला है । यह सोता रहे तो लिप्सा,
कपट, तोड़-फोड़, कुतर्क, चिन्ता, मोह,
दम्भ, अविवेक अहंकार से भरा रहेगा ।
जागरण होने पर यह सब दुर्गुण हट
जायेंगे । (५) कण्ठ में विशुद्धख्य
चक्र यह सरस्वती का स्थान है । यह
सोलह पंखुरियों वाला है । यहाँ सोलह
कलाएँ सोलह विभतियाँ विद्यमान है
‍ (६) भू्रमध्य में आज्ञा चक्र है,
यहाँ 'ॐ' उद्गीय, हूँ, फट, विषद, स्वधा
स्वहा, सप्त स्वर आदि का निवास है ।
इस आज्ञा चक्र का जागरण होने से यह
सभी शक्तियाँ जाग पड़ती हैं । ***श्री
हडसन ने अपनी पुस्तक 'साइन्स आव
सीयर-शिप' में अपना मत व्यक्त किया
है । प्रत्यक्ष शरीर में चक्रों की
उपस्थिति का परिचय तंतु गुच्छकों
के रूप में देखा जा सकता है । अन्तः
दर्शियों का अनुभव इन्हें सूक्ष्म
शरीर में उपस्थिति दिव्य शक्तियों
का केन्द्र संस्थान बताया है । ***
कुण्डलिनी के बारे में उनके
पर्यवेक्षण का निष्कर्ष है कि वह एक
व्यापक चेतना शक्ति है । मनुष्य के
मूलाधार चक्र में उसका सम्पर्क
तंतु है जो व्यक्ति सत्ता को विश्व
सत्ता के साथ जोड़ता है । कुण्डलिनी
जागरण से चक्र संस्थानों में
जागृति उत्पन्न होती है । उसके
फलस्वरूप पारभौतिक (सुपर फिजीकल) और
भौतिक (फिजीकल) के बीच आदान-प्रदान
का द्वार खुलता है । यही है वह
स्थिति जिसके सहारे मानवी सत्ता
में अन्तर्हित दिव्य शक्तियों का
जागरण सम्भव हो सकता है । चक्रों की
जागृति मनुष्य के गुण, कर्म, स्वभाव
को प्रभावित करती है । स्वाधिष्ठान
की जागृति से मनुष्य अपने में नव
शक्ति का संचार हुआ अनुभव करता है
उसे बलिष्ठता बढ़ती प्रतीत होती है
। श्रम में उत्साह और गति में
स्फूर्ति की अभिवृद्धि का आभास
मिलता है । मणिपूर चक्र से साहस और
उत्साह की मात्रा बढ़ जाती है ।
संकल्प दृढ़ होते हैं और पराक्रम
करने के हौसले उठते हैं । मनोविकार
स्वयंमेव घटते हैं और परमार्थ
प्रयोजनों में अपेक्षाकृत अधिक रस
मिलने लगता है । अनाहत चक्र की
महिमा हिन्दुओं से भी अधिक ईसाई
धर्म के योगी बताते हैं । हृदय
स्थान पर गुलाब से फूल की भावना
करते हैं और उसे महाप्रभु ईसा का
प्रतीक 'आईचीन' कनक कमल मानते हैं ।
भारतीय योगियों की दृष्टि से यह भाव
संस्थान है । कलात्मक
उमंगें-रसानुभुति एवं कोमल
संवेदनाओं का उत्पादक स्रोत यही है
। बुद्धि की वह परत जिसे विवेकशीलता
कहते हैं । आत्मीयता का विस्तार
सहानुभूति एवं उदार सेवा
सहाकारिता क तत्त्व इस अनाहत चक्र
से ही उद्भूत होते हैं ‍कण्ठ में
विशुद्ध चक्र है । इसमें बहिरंग
स्वच्छता और अंतरंग पवित्रता के
तत्त्व रहते हैं । दोष व दुर्गुणों
के निराकरण की प्रेरणा और तदनुरूप
संघर्ष क्षमता यहीं से उत्पन्न
होती है । शरीरशास्त्र में थाइराइड
ग्रंथि और उससे स्रवित होने वाले
हार्मोन के संतुलन-असंतुलन से
उत्पन्न लाभ-हानि की चर्चा की जाती
है । अध्यात्मशास्त्र द्वारा
प्रतिपादित विशुद्ध चक्र का स्थान
तो यहीं है, पर वह होता सूक्ष्म शरीर
में है । उसमें अतीन्द्रिय
क्षमताओं के आधार विद्यमान हैं ।
लघु मस्तिष्क सिर के पिछले भाग में
है । अचेतन की विशिष्ट क्षमताएँ उसी
स्थान पर मानी जाती हैं । मेरुदण्ड
में कंठ की सीध पर अवस्थित विशुद्ध
चक्र इस चित्त संस्थान को प्रभावित
करता है । तदनुसार चेतना की अति
महत्वपूर्ण परतों पर नियंत्रण
करने और विकसित एवं परिष्कृत कर
सकने सूत्र हाथ में आ जाते हैं ।
नादयोग के माध्यम से दिव्य श्रवण
जैसी कितनी ही परोक्षानुभूतियाँ
विकसित होने लगती हैं । सहस्रार की
मस्तिष्क के मध्य भाग में है । शरीर
संरचना में इस स्थान पर अनेक
महत्वपूर्ण ग्रंथियों से सम्बन्ध
रैटिकुलर एक्टिवेटिंग सिस्टम का
अस्तित्व है । वहाँ से जैवीय
विद्युत का स्वयंभू प्रवाह उभरता
है । वे धाराएँ मस्तिष्क के अगणित
केन्द्रों की ओर दौड़ती हैं । इसमें
से छोटी-छोटी चिनगारियाँ तरंगों के
रूप में उड़ती रहती हैं । उनकी
संख्या की सही गणना तो नहीं हो सकती,
पर वे हैं हजारों । इसलिए हजार या
हजारों का उद्बोधक 'सहस्रार' शब्द
प्रयोग में लाया जाता है । सहस्रार
चक्र का नामकरण इसी आधार पर हुआ है
सहस्र फन वाले शेषनाग की परिकल्पना
का यही आधार है ।
--------------------------------मनुष्य शरीर स्थित
कुंडलिनी शक्ति में जो चक्र स्थित
होते हैं उनकी संख्या कहीं छ: तो
कहीं सात बताई गई है। इन चक्रों के
विषय में अत्यंत महत्वपूर्ण एवं
गोपनीय जानकारी यहां दी गई है। यह
जानकारी शास्त्रीय, प्रामाणिक एवं
तथ्यात्मक है- (1) मूलाधार चक्र- गुदा
और लिंग के बीच चार पंखुरियों वाला
'आधार चक्र' है । आधार चक्र का ही एक
दूसरा नाम मूलाधार चक्र भी है। वहाँ
वीरता और आनन्द भाव का निवास है । (2)
स्वाधिष्ठान चक्र- इसके बाद
स्वाधिष्ठान चक्र लिंग मूल में है ।
उसकी छ: पंखुरियाँ हैं । इसके
जाग्रत होने पर क्रूरता,गर्व,
आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास
आदि दुर्गणों का नाश होता है ।
(3)मणिपूर चक्र- नाभि में दस दल वाला
मणिचूर चक्र है । यह प्रसुप्त पड़ा
रहे तो तृष्णा, ईष्र्या, चुगली,
लज्जा, भय, घृणा, मोह, आदि कषाय-कल्मष
मन में लड़ जमाये पड़े रहते हैं । (4)
अनाहत चक्र- हृदय स्थान में अनाहत
चक्र है । यह बारह पंखरियों वाला है
। यह सोता रहे तो लिप्सा, कपट, तोड़
-फोड़, कुतर्क, चिन्ता, मोह, दम्भ,
अविवेक अहंकार से भरा रहेगा । जागरण
होने पर यह सब दुर्गुण हट जायेंगे ।
(5) विशुद्धख्य चक्र- कण्ठ में
विशुद्धख्य चक्र यह सरस्वती का
स्थान है । यह सोलह पंखुरियों वाला
है। यहाँ सोलह कलाएँ सोलह
विभूतियाँ विद्यमान है (6)
आज्ञाचक्र- भू्रमध्य में आज्ञा
चक्र है, यहाँ '?' उद्गीय, हूँ, फट, विषद,
स्वधा स्वहा, सप्त स्वर आदि का
निवास है । इस आज्ञा चक्र का जागरण
होने से यह सभी शक्तियाँ जाग पड़ती
हैं । (७)सहस्रार चक्र-सहस्रार की
स्थिति मस्तिष्क के मध्य भाग में है
। शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक
महत्वपूर्ण ग्रंथियों से सम्बन्ध
रैटिकुलर एक्टिवेटिंग सिस्टम का
अस्तित्व है । वहाँ से जैवीय
विद्युत का स्वयंभू प्रवाह उभरता
है । -----------------------

16 संस्कारों में लाइफ मैनेजमेंट के सूत्र

हिंदू धर्म में किए जाने वाले 16
संस्कार केवल कर्मकांड या रस्में
नहीं हैं। इनमें जीवन प्रबंधन के कई
सूत्र छुपे हैं। आज के भागदौड़ भरे
जीवन में ये सूत्र हमें जीवन के
भौतिक और आध्यात्मिक दोनों विकास
को आगे बढ़ाते हैं। हमें इन
संस्कारों में खुद के वैवाहिक,
विद्यार्थी और व्यवसायिक जीवन के
सूत्र तो मिलते ही हैं साथ ही अपनी
संतान को कैसे संस्कारवान बनाएं
इसके तरीके भी मिलते हैं।

पुंसवन संस्कार : इस संस्कार के
अंतर्गत भावी माता-पिता को यह
समझाया जाता है कि शारीरिक, मानसिक
एवं आर्थिक दृष्टि से परिपक्व यानि
पूर्ण समर्थ हो जाने के बाद, समाज को
श्रेष्ठ, तेजस्वी नई पीढ़ी देने के
संकल्प के साथ ही संतान उत्पन्न
करें।
नामकरण संस्कार: बालक का नाम सिर्फ
उसकी पहचान के लिए ही नहीं रखा
जाता। मनोविज्ञान एवं
अक्षर-विज्ञान के जानकारों का मत है
कि नाम का प्रभाव व्यक्ति के
स्थूल-सूक्ष्म व्यक्तित्व पर
गहराई से पड़ता रहता है। इन्हीं
बातों को ध्यान में रखकर नामकरण
संस्कार किया जाता है।
चूड़ाकर्म संस्कार: (मुण्डन, शिखा
स्थापना) सामान्य अर्थ में, माता के
गर्भ से सिर पर आए वालों को हटाकर
खोपड़ी की सफाई करना आवश्यक होता
है। किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से
नवजात शिशु के व्यवस्थित बौद्धिक
विकास, कुविचारों के परिस्कार के
लिये भी यह संस्कार बहुत आवश्यक
है।
अन्नप्राशसन संस्कार: जब शिशु के
दांत उगने लगें, तो मानना चाहिए कि
प्रकृति ने उसे ठोस आहार, अन्नाहार
करने की स्वीकृति प्रदान कर दी है।
स्थूल (अन्नमयकोष) के विकास के लिए
तो अन्न के विज्ञान सम्मत उपयोग को
ध्यान में रखकर शिशु के भोजन का
निर्धारण किया जाता है। इन्हीं
तमाम बातों को ध्यान में रखकर यह
महत्वपूर्ण संस्कार संपन्न किया
जाता है।
विद्यारंभ संस्कार: जब बालक/ बालिका
की उम्र शिक्षा ग्रहण करने लायक हो
जाय, तब उसका विद्यारंभ संस्कार
कराया जाता है । इसमें समारोह के
माध्यम से जहां एक ओर बालक में
अध्ययन का उत्साह पैदा किया जाता
है, वहीं ज्ञान के मार्ग का साधक
बनाकर अंत में आत्मज्ञान की और
प्रेरित किया जाता है।
यज्ञोपवीत संस्कार : जब बालक/
बालिका का शारीरिक-मानसिक विकास इस
योग्य हो जाए कि वह अपने विकास के
लिए आत्मनिर्भर होकर संकल्प एवं
प्रयास करने लगे, तब उसे श्रेष्ठ
आध्यात्मिक एवं सामाजिक अनुशासनों
का पालन करने की जिम्मेदारी सोंपी
जाती है।
विवाह संस्कार : सफल गृहस्थ की,
परिवार निर्माण की जिम्मेदारी
उठाने के योग्य शारीरिक, मानसिक एवं
आर्थिक सामथ्र्य आ जाने पर
युवक-युवतियों का विवाह संस्कार
कराया जाता है। यह संस्कार जीवन का
बहुत महत्वपूर्ण संस्कार है जो एक
श्रेष्ठ समाज के निर्माण में अहम
भूमिका निभाता है।
वानप्रस्थ संस्कार : गृहस्थ की
जिम्मेदारियां यथा शीघ्र संपन्न
करके, उत्तराधिकारियों को अपने
कार्य सौंपकर अपने व्यक्तित्व को
धीरे-धीरे सामाजिक, उत्तरदायित्व,
पारमार्थिक कार्यों में पूरी तरह
लगा देना ही इस संस्कार का उद्देश्य
है।
अन्येष्टि संस्कार : मृत्यु जीवन का
एक अटल सत्य है । इसे जरा-जीर्ण को
नवीन-स्फूर्तिवान जीवन में
रूपान्तरित करने वाला महान देवता
भी कह सकते हैं ।
मरणोत्तर (श्राद्ध संस्कार):
मरणोत्तर (श्राद्ध संस्कार) जीवन का
एक अबाध प्रवाह है । शरीर की
समाप्ति के बाद भी जीवन की यात्रा
रुकती नहीं है । आगे का क्रम भी
अच्छी तरह सही दिशा में चलता रहे, इस
हेतु मरणोत्तर संस्कार किया जाता
है।
जन्म दिवस संस्कार : मनुष्य को
अन्यान्य प्राणियों में
सर्वश्रेष्ठ माना गया है । जन्मदिन
वह पावन पर्व है, जिस दिन ईश्वर ने
हमें श्रेष्ठतम मनुष्य जीवन में
भेजा। श्रेष्ठ जीवन प्रदान करने के
लिये ईश्वर का धन्यवाद एवं जीवन का
सदुपयोग करने का संकल्प ही इस
संस्कार का मूल उद्देश्य है।
विवाह दिवस संस्कार : जैसे जीवन का
प्रांरभ जन्म से होता है, वैसे ही
परिवार का प्रारंभ विवाह से होता
है। श्रेष्ठ परिवार और उस माध्यम से
श्रेष्ठ समाज बनाने का शुभ प्रयोग
विवाह संस्कार से प्रारंभ होता है।

ब्रह्मा की पूजा क्यों नहीं करते

In mythology, Brahma is said
to have built the universe.
But still we manufacturer universe
do not worship. Why?
Well, it is a mystery. In India,
only two places in the Brahma
temple. Aquarius is one of South India
Knimawr second, Pushkar North India
in. The truth is that in India,
based on Brahma any celebration or
festival is not. In our mind, it
is natural to question the ancestors
worship the Creator of the universe, why
not start? Indeed, to know
we must closely. All
religions have said this in the
creation of the universe is God
's. According to Hindu scriptures,
Brahma himself to understand the
universe was built. The
universe has a female. His
name had-tation, which
is a form-which are many. The truth is that
the constant changing Satrupake seeing as
Brahma had a crush on her. He was so
enamored that he was chasing
it. Control and subdue him
wanted to. Brahma's why we
do not worship. Even
holding the four heads, so
they can see Satrupako continuously.
However, as with changing Satrupake
as Brahma also held.
They try that continues today. The interesting
thing is that in trying their
fifth head came out. Brahma
's condition is not good gods
did. He plenty Brahma
cursed. Because the father of your
[daughter of creation] was running behind.
It's a metaphor, but it directly
to mistake the meaning.
It really means that we
can build a world and
fascinated at the same are. There was
happiness and sadness, they arise from our minds
are. In this way we Maya, illusion and
are pinned in the loop. And so we
find no longer sacred. Namely
Brahma are also revered. Some time
later, the state of the gods Brahma
drew the attention of Shiva.
He raised his sword and
cut off Brahma's fifth head.
The fifth head is our ego.
The ego says that the world
I've created. Shiva's why
Kpalin says. The story we
have the message that our world
are built and the
ego is born within us.
But to worship Shiva we
can eliminate ego. We
believe that Shiva and Brahma,
Vishnu in the City. Lord
Vishnu, like Brahma
are Mohasktnhin. They themselves from the world
are different. Those little
quietness, yet the physical world
are related. Their engagement
is Karma Yoga. They work, but
do not worry fruit. This concept
is understood, then we will find that we
are Brahman Brahman around.
cocky sense of our world
and the other world of live Rme
do not care. Brahma We
do not even worship, but we
will understand. Brahma is not God
's. They are no different than us.
They are finding their existence. Well
Brahma in the same way we all
are. Indeed, as we like them
to know. Without the discovery
gives us peace.