Wednesday 20 April 2011

छात्रों को मुख्यधारा से अलग करने का षडयंत्र


संप्रग सरकार की हिंदू विरोधी भावनाएं लगातार बढ़ रही हैं। जो काम मुगलों और अंग्रेजों ने नहीं किया उसे सोनिया गांधी की अगुवाई वाली केन्द्र सरकार अंजाम दे रही है। एक ओर सरकार शिक्षा में अल्पसंख्यकवाद को पुरस्कृत करने में जुटी हुई है तो वहीं दूसरी ओर हिन्दुओं की आस्था से खिलवाड़ करने से बाज नहीं आ रही है।

ज्ञात हो कि दिल्ली विश्वविद्यालय में स्नातक कला(बीए) इतिहास ऑनर्स(द्वितीय वर्ष) वर्ष के पाठयक्रम में शामिल 'एनशिएंट कल्चर इन इंडिया' पुस्तक में भगवान राम तथा रामायण से संबंधित तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया है, इसके चलते करोड़ों हिंदुओं की भावनाएं आहत हुई हैं। इस आपत्तिजनक अंशों को हटाने की मांग को लेकर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद छात्रों के बीच जागरण अभियान चला रही है। इसी क्रम में गत 25 फरवरी को विद्यार्थी परिषद के बैनर तले छात्र दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभागाध्यक्ष के समक्ष अपने विचार रखने पहुंचे तो उन्होंने छात्रों की बात सुनने से इंकार कर दिया। इससे उत्तेजित होकर छात्र विभागाध्यक्ष के खिलाफ नारे लगाने लगे। विश्वविद्यालय प्रशासन के इशारे पर पुलिस ने छात्रों के साथ बदसलूकी की और विद्यार्थी परिषद के तीन कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया।

दिल्ली विश्वविद्यालय में स्नातक कला(बीए) इतिहास ऑनर्स (द्वितीय वर्ष) के पाठयक्रम में शामिल 'एनशिएंट कल्चर इन इंडिया' पुस्तक में विद्यार्थियों को जो पढ़ाया जा रहा है, उससे किसी भी देशभक्त का खून खौल उठेगा-

-रावण और मंदोदरी की कोई संतान नहीं थी। दोनों ने शिवजी की पूजा की। शिवजी ने उन्हें पुत्र प्राप्ति के लिए आम खाने को दिया। गलती से सारा आम रावण ने खा लिया और उसे गर्भ ठहर गया। बड़ी स्वच्छंदता से रावण के नौ मास के गर्भधारण की व्यथा का वर्णन किया गया है।

-दु:ख से बेचैन रावण ने छींक मारी और सीता का जन्म हुआ। सीता रावण की पुत्री थी। उसने उसे जनकपुरी के खेत में त्याग दिया।

-हिन्दुओं की मति भ्रमित करने के लिए कहा गया कि हनुमान छुटभैया एक छोटा सा बंदर था। हनुमान की अवमानना करते हुए लिखा गया है कि वह एक कामुक व्यक्ति था वह लंका के शयनकक्षाओं में झांकता रहता था और वह स्त्रियों और पुरूषों को आमोद-प्रमोद करते बेशर्मी से देखता फिरता था।

-रावण का वध राम से नहीं लक्ष्मण से हुआ।

-रावण और लक्ष्मण ने सीता के साथ व्यभिचार किया।


और स्नातक कला(प्रथम वर्ष) में पढ़ाया जा रहा है-

-ऋग्वेद में कहा गया है कि स्त्रियों का स्थान शूद्रों तथा कुत्तों के समान है।
-स्त्रियों को वेद पढ़ने पढ़ाने का कोई भी अधिकार नहीं था और न ही वह धार्मिक क्रिया-कर्म कर सकती थी।
-अथर्ववेद में महिलाओं को केवल संतान उत्पन्न का साधन माना जाता था।
-लड़कियां उनके लिए अभिशाप थीं।
- स्त्रियां एक वस्तु समझी जाती थी उन्हें खरीदा तथा बेचा जा सकता था।
-वेदों के अर्थों का अनर्थ कर महिलाओं को घृणा की दृष्टि से दिखलाया गया है।

केंद्र सरकार के साढ़े तीन वर्ष के कार्यकाल के दौरान लिए गये निर्णयों पर नजर डालने यह स्पष्ट हो जाता है कि हिंदुओं को अपमानित करना ही इस सरकार का प्रमुख कार्य है। सरकार ने पहले रामसेतु के मुद्दे पर गलत हलफनामा पेश कर कहा था कि भगवान राम का अस्तित्व ही नहीं है। डेनमार्क में पैगम्बर मोहम्मद के कार्टून पर भारत सरकार ने अधिकृत रूप से चिंता और खेद जताया लेकिन जिस एम.एफ. हुसैन ने मां सीता और भारतमाता के अश्लील चित्र बनाए, उस पर कोई बयान तक नहीं दिया। राम के अस्तित्व पर सवाल खड़ा करने वाले रामद्रोही ही नहीं वरन राष्ट्रद्रोही है। दरअसल, यह मार्क्‍स-मैकाले के मानस मस्तिष्कों का कमाल है। जो राष्ट्रविरोधी कचड़ा उनके दिमाग में होता है वही विभिन्न माध्यमों से वे बाहर अभिव्यक्त करते रहते हैं। कभी पेंटिंग बनाकर, लेख लिखकर, पाठयक्रमों में गलत तथ्य समाहित कर। वे जानते है कि विदेशी विचारधारा भारत में तभी प्रबल हो सकता है जब नौजवानों में राष्ट्रनायकों के प्रति हीन भावना उत्पन्न हो जाए। किसी को भी किसी भी धर्म का अपमान करने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिये। देश के छात्र-नौजवान किसी भी हालत में राष्ट्रनायकों का अपमान बर्दाश्त नहीं करेंगे।

संघ का सच


हिन्दी ब्लॉग पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ काफी दिनों से चर्चा के केन्द्र में है। संघ के बारे में तरह-तरह के विचार प्रस्तुत किए गए है लेकिन अधिकांश पूर्वाग्रह से प्रेरित कहे जा सकते है। आखिर कोई यह समझने का प्रयास क्यों नहीं करता कि क्या कारण है कि संघ विचार परिवार तमाम अवरोधों के बावजूद बढता ही जा रहा है। संघ ने विचार की धरातल पर जहां सभी वादों- समाजवाद, साम्यवाद, नक्सलवाद को पटखनी दी हैं वहीं राजनीतिक क्षेत्र में भी कांग्रेस के वर्चस्व को तोड़ा है। पहले भारतीय राजनीति गैर कांग्रेसवाद के आधार पर चलती थी अब यह गैर भाजपावाद हो गया है। संघ के सभी आनुषांगिक संगठन आज अपने-अपने क्षेत्र के क्रमांक एक पर है। भारतीय मजदूर संघ, विद्यार्थी परिषद्, विद्या भारती, स्वदेशी जागरण मंच, भाजपा, विश्व हिन्दू परिषद् आदि...सेवा के क्षेत्र में वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती की सक्रियता प्रशंसनीय है। इस पर बहस होनी चाहिए कि कांग्रेस और वामपंथ का आधार क्यों सिकुड़ रहा है और संघ भाजपा के प्रति जन-समर्थन क्यों बढ़ रहा हैं। पिछले पंजाब और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में माकपा-भाकपा और माले का खाता क्यों नहीं खुल पाया। कांग्रेस पिछले कई चुनावों से लगातार पराजय का मुंह क्यों देख रही है। देश की जनता अब समझदार हो गई है। वह देखती है कि कौन उसके लिए ईमानदारीपूर्वक काम कर रहा है और कौन केवल एयरकंडीशन कमरों में बैठकर महज जुगाली कर रहा है। समाजसेवा के नाम पर कांग्रेस-वामपंथियों की क्या उपलब्धि है। इस बात में दम है कि 'अंधेरे की शिकायत करते रहने से कहीं बेहतर है एक दिया जलाना'।

हम देखते हैं कि 1885 में स्थापित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जहां आंतरिक कलह और परिवारवाद के कारण दिन-प्रतिदिन सिकुड़ती जा रही है, वहीं 1925 में दुनिया को लाल झंडे तले लाने के सपने के साथ शुरू हुआ भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन आज दर्जनों गुटों में बंट कर अंतिम सांसें ले रहा है। इनके विपरीत 1925 में ही स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दिनोंदिन आगे बढ़ रहा है।

आज यदि गांधी के विचार-स्वदेशी, ग्राम-पुनर्रचना, रामराज्य-को कोई कार्यान्वित कर रहा है तो वह संघ ही है। महात्मा गांधी का संघ के बारे में कहना था- 'आपके शिविर में अनुशासन, अस्पृश्यता का पूर्ण रूप से अभाव और कठोर, सादगीपूर्ण जीवन देखकर काफी प्रभावित हुआ' (16.09.1947, भंगी कॉलोनी, दिल्ली)।

आज विभिन्न क्षेत्रों में संघ से प्रेरित 35 अखिल भारतीय संगठन कार्यरत हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, वैकल्पिक रोजगार के क्षेत्र में लगभग 30 हजार सेवा कार्य चल रहे हैं। राष्ट्र के सम्मुख जब भी संकट या प्राकृतिक विपदाएं आई हैं, संघ के स्वयंसेवकों ने सबसे पहले घटना-स्थल पर पहुंच कर अपनी सेवाएं प्रस्तुत की हैं।

संघ में बौध्दिक और प्रत्यक्ष समाज कार्य दोनों समान हैं। संघ का कार्य वातानुकूलित कक्षों में महज सेमिनार आयोजित करने या मुट्ठियां भींचकर अनर्गल मुर्दाबाद-जिंदाबाद के नारों से नहीं चलता है। राष्ट्र की सेवा के लिए अपना सर्वस्व होम कर देने की प्रेरणा से आज हजारों की संख्या में युवक पंचतारा सुविधाओं की बजाय गांवों में जाकर कार्य कर रहे हैं। संघ के पास बरगलाने के लिए कोई प्रतीक नहीं है और न कोई काल्पनिक राष्ट्र है। संघ के स्वयंसेवक इन पंक्तियों में विश्वास करते हैं-'एक भूमि, एक संस्कृति, एक हृदय, एक राष्ट्र और क्या चाहिए वतन के लिए?'

संघ धर्म और जाति के आधार पर भेदभाव नहीं करता। इसके तीसरे सरसंघचालक बाला साहब देवरस ने उद्धोष किया कि 'अस्पृश्यता यदि पाप नहीं है तो कुछ भी पाप नहीं है।' बाबा साहब भीमराव आंबेडकर का कहना था- 'अपने पास के स्वयंसेवकों की जाति को जानने की उत्सुकता तक नहीं रखकर, परिपूर्ण समानता और भ्रातृत्व के साथ यहां व्यवहार करने वाले स्वयंसेवकों को देखकर मुझे आश्चर्य होता है' (मई, 1939, संघ शिविर, पुणे)।

संघ की दिनोंदिन बढ़ती ताकत और सर्वस्वीकार्यता देखकर उसके विरोधी मनगढ़ंत आरोप लगाकर संघ की छवि को विकृत करने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन हमें स्वामी विवेकानंद का वचन अच्छी तरह याद है: 'हर एक बड़े काम को चार अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है: उपेक्षा, उपहास, विरोध और अंत में विजय।' इसी विजय को अपनी नियति मानकर संघ समाज-कार्य में जुटा हुआ है।

आजादी एक चुनौती है, बीड़ा कौन उठाएगा


भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं। जवाहरलाल नेहरू ने 1947 में 14-15 अगस्त की मध्यरात्रि में 'भारत की नियति के साथ मिलन' का संदर्भ देते हुए कहा कि स्वाधीनता प्राप्ति के साथ ही हमें एक ऐसे राष्ट्र के निर्माण के लिए काम करना होगा, जहां प्रत्येक बच्चे, महिला और पुरूषों को बेहतर स्वास्थ्य, भोजन, शिक्षा और रोजगार के अवसर उपलब्ध हों।
भारत की आजादी के 61 वर्ष बीत गए। क्या पं नेहरू के उक्त संकल्प की दिशा में देश विकास की ओर अग्रसर है? आज विकास की दो दिशाएं दिखाई पड़ती है। एक है- इंडिया का विकास और दूसरा है- भारत का विकास। 'इंडिया' की अगुआई अंग्रेजियत में रंगे नौकरशाह, राजनेता, पूंजीपति और शहरी वर्ग के लोग कर रहे हैं, वहीं 'भारत' में समाज के अंतिम पंक्ति में खड़े देश के 75 फीसदी गरीब, जो गांवों में रहते हैं, शामिल है। 'इंडिया' में लगातार बढ़ रहे 36 अरबपतियों की संख्या समाहित हैं तो 'भारत' में 77 करोड़ लोग, जिनकी आमदनी प्रतिदिन 20 रुपए से भी कम है, शामिल है। असमानता की खाई इस कदर चौड़ी हो रही है कि भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर श्री विमल जालान कहते है कि भारत के 20 सबसे अधिक धनवानों की आय 30 करोड़ सबसे गरीब भारतीयों से अधिक है। यही विषमता आज भारत की मुख्य समस्या है।
आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो देश के सामने अनेक चुनौतियां मुंह बाएं खड़ी हैं। दुनिया भर में सबसे अधिक अरबपतियों की संख्या के हिसाब से भारत चौथे स्थान पर है। वहीं ग्लोबल हंगर इंडेक्स में हम 94वें स्थान पर हैं। 11वीं पंचवर्षीय योजना के मुताबिक 2004-05 में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों का प्रतिशत 27।8 अनुमानित था। लोगों की आय, स्वास्थ्य, शिक्षा के आधार पर तैयार किए जाने वाले मानव विकास सूचकांक में 2004 में 177 देशों की सूची में भारत का स्थान 126 वां था।
हमारी आबादी का दो-तिहाई हिस्सा अभी भी खेती पर ही आश्रित है लेकिन सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान 20 प्रतिशत से भी कम हो गया है। 38 मीलियन हेक्टेयर क्षेत्र पर हम आज भी खेती नहीं करते, जबकि इस जमीन पर जोत संभव है। गौरतलब है कि 38 मीलियन हेक्टेयर क्षेत्र पाकिस्तान, जापान, बांग्लादेश और नेपाल के कुल सिंचित क्षेत्र से भी ज्यादा है।
भारत सरकार का वर्ष 2007-2008 का आर्थिक सर्वेक्षण कहता है कि 1990 से 2007 के दौरान खाद्यान्न उत्पादन 1।2 प्रतिशत कम हुआ है, जो कि जनसंख्या की औसतन 1.9 प्रतिशत वार्षिक बढ़ोत्तरी की तुलना में कम है। इसके फलस्वरूप मांग और आपूर्ति में भारी अंतर है, जिसकी वजह से खाद्य संकट की आशंका बराबर बनी रहती है। 1990-91 में अनाजों की खपत प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 468 ग्राम थी जो कि 2005-2006 में प्रतिदिन 412 ग्राम प्रति व्यक्ति हो गई है। केन्द्र सरकार यह बात स्वीकार कर चुकी है कि हर साल लगभग 55,600 करोड़ रुपये का खाद्यान्न उचित भंडारन आदि न होने के कारण नष्ट हो जाता है।
हालात ऐसे हो गए हैं कि कृषि प्रधान देश भारत में 40 प्रतिशत किसान, खेती छोड़ना चाहता है। पिछले 10 वर्षों में 80 लाख लोगों ने खेती-किसानी छोड़ी है। एक आकलन के अनुसार 85 प्रतिशत से अधिक ग्रामीण परिवार या तो भूमिहीन, उपसीमांत, सीमांत किसान है या छोटे किसान है। भारत की आजादी के 61 वर्षों बाद भी लगभग 50 प्रतिशत ग्रामीण परिवार अभी भी साहूकारों पर निर्भर रहते हैं। नेशनल सैम्पल सर्वे हमें बताता है कि किसानों की ऋणग्रस्तता पिछले एक दशक में लगभग दोगुनी हो गई है। देश के 48।60 फीसदी किसान कर्ज के तले दबे हुए हैं। हर किसान पर औसतन 12,585 रू. का कर्ज है। भारतीय किसान परिवार का औसत प्रति व्यक्ति मासिक खर्च 302 रुपए है। स्थिति की भयावहता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 1993 से अब तक करीब 1,12,000 किसान आत्महत्या कर चुके है।
आंकड़े बताते हैं कि प्रति व्यक्ति मिलने वाला अनाज घट गया है। इसका असर व्यक्ति के स्वास्थ्य पर भी दिखाई देता है। वर्ष 2005-2006 में कराए गए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे में कहा गया है कि देश में 5 साल से कम उम्र के बच्चे शारीरिक रूप से अविकसित हैं और इसी उम्र के 43 फीसदी बच्चों का वजन (उम्र के हिसाब से) कम है। इनमें से 24 फीसदी शारीरिक रूप से काफी ज्यादा अविकसित हैं और 16 फीसदी का वजन बहुत ही ज्यादा कम है। देश में 15 से 49 साल की उम्र के बीच की महिलाओं का बॉडी मांस इंडेक्स (बीएमआई) 18।5 से कम है, जो उनमें पोषण की गंभीर कमी की ओर इशारा करता है और इन महिलाओं में से 16 फीसदी तो बेहद ही पतली हैं। इसी तरह देश में 15 से 49 साल की उम्र के 34 फीसदी पुरुषों का बीएमआई भी 18.5 से कम है और इनमें से आधे से ज्यादा पुरुष बेहद कुपोषित हैं। देश में कुपोषण के शिकार बच्चे की स्थिति के मामले में हमारा देश नीचे से 10 वें नंबर पर है।
सुगठित शिक्षा व्यवस्था राष्ट्रीय विकास की धुरी होती है लेकिन देश में शिक्षा-व्यवस्था की हालत अच्छी नहीं है। भारत में 300 से ज्यादा विश्वविद्यालय हैं पर उनमें से केवल दो ही हैं जो विश्व में पहले 100 में स्थान पा सकें। सन् 2005 में विश्वबैंक के अध्ययन में पता चला था कि हमारे देश में 25 प्रतिशत प्राइमरी स्कूल के अध्यापक तो काम पर जाते ही नहीं हैं। पिछले दिनों नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन के एक सर्वेक्षण में यह पता चला कि इस देश के 42 हजार स्कूल ऐसे भी हैं, जिनका अपना कोई भवन ही नहीं है। देश के 32 हजार विद्यालयों में शिक्षक नहीं है। अमेरिका में कुल बजट का 19।9 प्रतिशत, जापान में 19.6 प्रतिशत, इंग्लैंड में 13.9 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च किया जाता है। जबकि भारत में शिक्षा पर बजट का मात्र 6 प्रतिशत भाग खर्च किया जाता है। शिक्षा पर केंद्र सरकार सकल घरेलू उत्पाद का 3.54 फीसद और कुल सकल उत्पाद का 0.79 फीसद खर्च करती है जबकि राज्य सरकारें 2.73 फीसद खर्च करती है। यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में स्कूल जाने वालों में 40 प्रतिशत बच्चे अंडरवेट होते हैं और 42 प्रतिशत कुपोषण के शिकार। देश के 63 प्रतिशत बच्चे 10वीं कक्षा से पहले ही स्कूल छोड़ देते हैं। एक आकलन के मुताबिक भारत के मात्र 10 फीसद युवाओं को उच्च शिक्षा मिलती है जबकि विकसित राष्ट्रों के 50 फीसद युवाओं को उच्च शिक्षा मिलती है। विदेशों में विज्ञान और तकनीकी शिक्षा ले रहे भारतीय छात्रों में से 85 फीसद वतन लौट कर नहीं आते।
इराक के बाद भारत सर्वाधिक आतंकवाद का दंश झेल रहा है। हाल ही में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने चिंता व्यक्त की कि देश में आतंकवादियों के 800 से ज्यादा ठिकाने है। भारत में अब तक हुए आतंकवादी हिंसा में 70,000 से अधिक बेगुनाहों के प्राण चले गए, जबकि पाकिस्तान तथा चीन के साथ जो युध्द हुए हैं, उनमें 8,023 लोगों की मौतें हुई। गृह मंत्रालय द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2007 में नवंबर के अंत तक नक्सली हिंसा की 1385 घटनाएं हुईं, जिसमें 214 पुलिस कार्मिक व 418 नागरिक मारे गए, वहीं 2006 में 1389 घटनाएं हुईं, जिसमें 133 पुलिस कार्मिक व 501 लोग मारे गए। इस समय माओवादियों का प्रभाव 16 राज्‍यों में है। देश के 604 जिलों में 160 जिले पर माओवादियों या नक्सलवादियों का कब्जा है। देश का 40 प्रतिशत भू-भाग नक्सलवादी हिंसा से प्रभावित है। पूर्वोत्तर की स्थिति चिंताजनक है। वर्ष 2007 में यहां 1489 हिंसक घटनाएं हुई, जिनमें 498 सामान्य नागरिक आंतकवादी हिंसा के शिकार हुए।
हमारी शासन प्रणाली मुकदमेबाजी को बढ़ावा दे रही है। भ्रष्टाचार का महारोग देश को आगे बढ़ने में बाधित कर रहा है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल संस्था के अनुसार दुनिया के 172 देशों में भारत भ्रष्टाचार के 72वें पायदान पर है। अलगाववादी प्रवृतियां राष्ट्रीय एकता को चुनौती दे रहा हैं। अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का विषवेल समाज को नुकसान पहुंचा रहा है। मीडिया के माध्यम से सहज ही पाश्चात्य संस्कृति का आक्रमण हो रहा है। जातिवाद, सामाजिक समरसता को छिन्न-भिन्न कर रहा है। घुसपैठ आंतरिक सुरक्षा को तार-तार कर रहा है। 2।5 करोड़ बंगलादेशी घुसपैठियों के कारण देश पर 90 करोड़ रुपए का अतिरिक्त बोझ पड़ रहा है। 13 प्रतिशत को छू रही महंगाई की दर लोगों का जीना मुहाल कर रही है। वहीं बेरोजगारों की संख्या लगभग 25 से 30 करोड़ है। हर साल 3.5 से 4 करोड़ नए रोजगार ढूढने वाले जुड़ रहे है। इस गंभीर समस्या का निदान होना अत्यंत जरूरी है।
हर देश की अपनी अलग समस्याएं होती है। पाश्चात्य विचार के अनुगामी बनकर तो इसका समाधान कतई नहीं होगा। इसका उत्तर स्थानीय परिवेश में ही ढूढा जाना चाहिए। और ऐसा तब होगा जब देशवासियों के मन में स्वदेशी भावना प्रबल हो, वे अपने कर्तव्य और अधिकार के प्रति सचेत हों। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने लोगों में सामाजिक एकता की भावना को प्रबल करने के लिए 'गणेश उत्सव' का शुभारंभ किया। महर्षि अरविंद ने सनातन धर्म को राष्ट्रवाद से जोड़ा। गांधीजी ने सदैव धर्म के महत्व को रेखांकित किया। श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन ने छद्म पंथनिरपेक्षता को धराशायी किया। इसी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की धारा का सहयात्री बनने से हम भारत को विश्व का सिरमौर बना सकेंगे। अजीब विडंबना है कि आज के समय में ऐसी पहल करने वालों पर साम्प्रदायिक होने का आरोप मढ़ दिया जाता है।
पूर्व राष्ट्रपति डॉ। एपीजे अब्दुल कलाम ने विजन 2020 की अवधारणा देश के सामने प्रस्तुत करते हुए कहा था कि वर्ष 2020 का भारत एक ऐसा देश हो, जिसमें ग्रामीण एवं शहरी जीवन के बीच कोई दरार न रहे। जहां सबके लिए बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हो और देश का शासन जिम्मेदार, पारदर्शी और भ्रष्टाचारमुक्त हो। जहां गरीबी, अशिक्षा का कोई अस्तित्व न हो और देश महिलाओं एवं बच्चों के प्रति होनेवाले अपराधों से मुक्त हो।
राष्ट्रीय समृध्दि विरासत में नहीं मिलती, उसे बनाना पड़ता है। सिर्फ सरकार के भरोसे देश का विकास सुनिश्चित नहीं होगा। भारत आज एक युवा राष्ट्र है। इस समय 70 प्रतिशत से अधिक लोग 35 साल से कम उम्र के हैं। देश को समृध्दशाली बनाने की चुनौती युवाओं को स्वीकार करनी होगी, समस्याओं को कोसने के बजाए सार्थक हस्तक्षेप के लिए आगे आना होगा, तभी सही मायने में आजादी सार्थक होगी।

अखण्ड भारत



-अखण्ड भारत- यह सांस्कृतिक संकल्पना है, राजनैतिक नहीं।
-जिस तरह स्वाधीनता से पहले प्रत्येक राष्ट्रभक्त के लिए स्वाधीनता की भावना प्रेरणा का मुख्य स्रोत हुआ करती थी उसी तरह स्वाधीनता के बाद अखण्ड भारत का स्वप्न प्रत्येक राष्ट्रभक्त के लिए प्रेरणा का मुख्य स्रोत होना चाहिए और इस स्वप्न को साकार करने के लिये उसको सतत् क्रियाशील रहना चाहिए।
-विभाजन का मूल कारण है राष्ट्र और संस्कृति के बारे में भ्रामक धारणा। अंग्रेजों के जाल में हमारा नेतृत्व फंसा। तबसे राष्ट्र और संस्कृति के विषय में सर्वसामान्य जनता की भी धारणा भ्रामक हो गई। मिला-जुला राष्ट्र और मिली-जुली संस्कृति के विचार के कारण एक राष्ट्र, एक संस्कृति की बात गलत लगने लगी।
-स्वाधीनता संग्राम के एक प्रमुख नेता जवाहरलाल नेहरू कहा करते थे कि "We are a nation in the making" अर्थात् ''हम राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में है''। अंग्रेजों ने यह संभ्रम फैलाने का प्रयास किया कि भारत कभी एक राष्ट्र रहा ही नहीं, उन्‍होंने इसे एक राष्ट्र बनाया है।
-अंग्रेजों की शह से पुष्ट हुई मुस्लिम लीग ने 1940 में देश के विभाजन की मांग की, अंग्रेजों ने 3 जून 1947 को विभाजन की योजना प्रस्तुत की और 14-15 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि को देश का विभाजन हो गया।
विभाजन के बीज:
1906 में की गई पृथक निर्वाचक-मण्डल की मांग को भारत विभाजन की दिशा का पहला कदम कहा जा सकता है। यह स्पष्ट रूप से मुस्लिम अलगाववाद था और इसे अंग्रेजों का समर्थन प्राप्त था।
1906 में अड़तालीसवें शिया इमाम आगा खां के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल लार्ड मिण्टो से मिला। इसकी प्रमुख मांग थी- मुसलमानों के लिए पृथक् निर्वाचक मण्डल। लार्ड मिण्टो ने इस मांग के प्रति अपनी सहमति जाहिर की और आगे चलकर 1909 के मार्ले-मिण्टो सुधारों में इसे सम्मिलित किया।
तुष्टीकरण के अंतर्गत शर्तों के आधार पर मुसलमानों को स्वाधीनता संग्राम में सम्मिलित करने के लिए कांग्रेस ने राष्ट्रीय मानबिन्दुओं के साथ समझौते किए। 1923 में कांग्रेस के काकीनाड़ा अधिवेशन में प्रख्यात गायक पं। पलुस्कर ने जैसे ही 'वन्देमातरम्' का गायन प्रारंभ किया वैसे ही कांग्रेस अध्यक्ष मोहम्मद अली ने यह कहते हुए गायन को रोकने का प्रयास किया कि इसमें मूर्ति पूजा है इसलिए इससे मुसलमानों की भावनाओं को ठेस पहुंचती है मंच पर आसीन एक भी नेता ने इसका विरोध नहीं किया। पं. पलुस्कर ने मोहम्मद अली को यह कहकर चुप कर दिया कि मुझे यहां 'वन्देमातरम्' गाने के लिए बुलाया गया है और मैं तो गाऊंगा। इसके बाद उन्होंने संपूर्ण 'वन्देमातरम्' गाया और उस दौरान मोहम्मद अली मंच से उठकर चले गये। आगे चलकर 1937 में यह देखने के लिए एक समिति बनाई गई कि 'वन्देमातरम्' का कौन सा हिस्सा मुसलमानों के लिए आपत्तिाजनक है। उनके निष्कर्ष के अनुसार ' वन्देमातरम्' के केवल पहले दो पद ही गाये जायेंगे ऐसा तय हुआ और आगे का 'वन्देमातरम्' निकाल दिया गया। आज भी हमारे स्वीकृत राष्ट्रगीत 'वन्देमातरम्' में पहले दो पद ही हैं, संपूर्ण 'वन्देमातरम्' नहीं है।
मोहम्मद अली जिन्ना की अध्यक्षता में 1927 में प्रमुख मुस्लिम नेताओं की एक बैठक हुई। इसमें उनकी मांगें ''चार सूत्र'' के रूप में प्रस्तुत की गई इस समय तक पृथक निर्वाचन-मंडल वाली बात निष्प्रभावी हो चुकी थी, अत: चार सूत्रों के बदले पृथक निर्वाचक मंडल के स्थान पर आरक्षण वाले संयुक्त निर्वाचन क्षेत्रों की बात स्वीकार करने की बात कही गई-
(1) सिंध का मुंबई प्रांत से अलग किया जाये
(2) पश्चिमोत्तार सीमा प्रांत और ब्लूचिस्तान का स्तर बढ़ाकर उन्हें पूर्ण गवर्नर का प्रांत बनाया जाये।
(3) पंजाब और बंगाल इन मुस्लिम बहुल प्रांतों में जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिया जाये।
(4) केन्द्रीय विधानमंडल में कम से कम एक तिहाई सदस्य मुसलमान हों।
सभी मांगें खतरनाक थीं। विशेष रूप से सिंध को मुंबई से अलग करने की। क्योंकि इससे सिंध मुस्लिम बहुल प्रांत बननेवाला था। (सिंध के मुस्लिम बहुत प्रांत बनने से ही विभाजन के समय वह पाकिस्तान में शामिल हो गया, जबकि यदि वह हिन्दू-बहुल मुंबई प्रांत का हिस्सा होता तो सिंध आज भारत में होता।) कांग्रेस ने पहली तीन मांगें स्वीकार कर लीं। जब जिन्ना ने देखा कि कांग्रेस इतना झुक रही है तो उसने 1928 में ''जिन्ना के चौदह सूत्र' प्रस्तुत कर दिए। इनमें पिछली सारी मांगें तो थी हीं, साथ में कुछ और मांगें भी थीं, जिनमें प्रमुख थी-
(1) पंजाब, बंगाल और पश्चिमोत्तार सीमाप्रांत का कोई ऐसा पुनर्गठन न हो जिससे उनका मुस्लिम बाहुल्य समाप्त हो।
(2) केन्द्रीय और सभी प्रांतीय मंत्रिकंडलों में कम से कम एक तिहाई मुस्लिम हों।
साथ ही इसमें फिर से पृथक् निर्वाचक मण्डल की मांग की गई थी। इसमें यह भी घोषणा की गई कि मुसलमान मात्र एक समुदाय नहीं, बल्कि विशेष दृष्टि से स्वयं में एक राष्ट्र है। इस तरह कांग्रेस के मुस्लिम तुष्टीकरण के कारण अलगाववादी मुस्लिम नेताओं की मांगें बढ़ती ही गई।
1930 में लंदन में हुए प्रथम गोलमेज सम्मेलन का कांग्रेस ने नमक सत्याग्रह के कारण बहिष्कार किया इस कारण वह निष्फल हुआ। 1939 में हुए दूसरे गोलमेज सम्मेलन में कांग्रेस की ओर से गांधीजी सम्मिलित हुए। आगा खां को मुसलमानों के प्रतिनिधि के रूप में चुना गया। इसमें कोई सर्वसम्मत निष्कर्ष नहीं निकला परन्तु इस सम्मेलन में ही पहली बार 'पाकिस्तान'' यह शब्द अस्तित्व में आया।
1939 में जब द्वितीय विश्वयुध्द आरंभ हुआ तब भारतीयों का समर्थन और सहयोग प्राप्त करने के लिए वाइसराय लिनलिथगोने गांधीजी के साथ जिन्ना को भी वार्ता क के लिए आमंत्रित किया। इस तरह अंग्रेजों ने जिन्नों को गांधीजी के बराबरी का स्थान दिया। कांग्रेस ने युध्द समाप्ति के बाद भारत के लिए पूर्ण स्वाधीनता की मांग की। परन्तु मुस्लिम लीग ने हमेशा की तरह केवल अलगाववाद पर आधारित मुस्लिम हित ही सामने रखा, भारत की स्वाधीनता के संबंध में कोई बात नहीं की। उन्होंने दो मांगें की-
1) कांग्रेस-शासित प्रांतों में मुसलमानों को न्याय और उचित व्यवहार मिलना चाहिए।
(2) मुस्लिम लीग की सहमति के बिना भारत की संवैधानिक प्रगति के प्रश्न पर न तो कोई घोषणा की जाये और न ही कोई संविधान बनाया जाये।
अंग्रेजों ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अखिल इस्लामवाद को खाद-पानी देना प्रारंभ किया ताकि युध्द के दौरान मुस्लिम देश उनके निकट आ जायें। इसका लाभ भी मुस्लिम लीग उठा रही थी। ऐसे वायुमंडल में 1940 के लाहौर अधिवेशन में मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए अलग देश की मांग की। इसे ''पाकिस्तान प्रस्ताव'' के रूप में जाना जाता है।
1939 में भारत के कम्युनिस्ट द्वितीय विश्वयुध्द में अंग्रेजों के विरूध्द थे क्योंकि जर्मनी के हिटलर ने रूस के स्टालिन से संधि की थी। परन्तु जब जर्मनी ने 1941 में रूस पर आक्रमण कर दिया तब अपनी पहले की भूमिका बदलकर वे अंग्रेजों के समर्थक बन गए। इस कारण उन्होंने भी 1942 के ''भारत छोड़ों'' आंदोलन का विरोध किया। साथ ही उन्होंने मुस्लिम लीग की देश विभाजन की मांग का समर्थन किया और अपने अनेक मुस्लिम सदस्यों को निर्देश दिया कि द्वि-राष्ट्र सिध्दांत को बौध्दिक बल देने के लिए वे मुस्लिम लीग में शामिल हों। उन्‍होंने तो ऐसा कहना भी प्रारंभ किया कि प्रत्येक भाषाई इकाई अलग राष्ट्र है और उन्हें अलग होने का अधिकार है। इस तरह अंग्रेज-लीग-कम्युनिस्ट गठबधंन भारत की स्वाधीनता और अखण्डता की जड़ें काटने में जुट गया।
1945-46 में जो चुनाव हुए उनमें कांग्रेस 'अखण्ड भारत' के नारे के साथ चुनाव मैदान में उतरी तो मुस्लिम लीग 'पाकिस्तान' के नारे के साथ। इस चुनाव में जहां एक ओर सभी सामान्य क्षेत्रों में कांग्रेस विजयी रही और केन्द्रीय धारा सभा में उसे 91।3 प्रतिशत मत प्राप्त हुए वहीं दूसरी ओर मुस्लिम लीग को सभी मुस्लिम सीटों पर विजय मिली। उसके मतों का प्रतिशत 86.8 था। इस बात से लीग के नेता उन्मत्ता हुए और वे खुली लड़ाई की चुनौतियां देने लगे।
कांग्रेस ने 8 मार्च 1947 की बैठक में इस घोषणा का स्वागत किया और मांग की कि पंजाब और बंगाल का सांप्रदायिक आधार पर विभाजन किया जाये। इस तरह कांग्रेस ने यह संकेत दे दिया कि उसने पाकिस्तान की मांग को सिध्दांत रूप में स्वीकार कर लिया है और वह आधा पंजाब और आधा बंगाल भारत में लाने के लिए प्रयत्नशील है।
माउंटबेटन ने 2 जून को मेनन योजना सबके सामने रखी। कांग्रेस ने इसे इस शर्त पर स्वीकार किया कि मुस्लिम लीग भी इसे बिना किसी शर्त के स्वीकार करे। 2 जून की रात्रि को जब माउंटबेटन ने जिन्ना से भेंट की तो उसने कहा कि लीग को अखिल भारतीय परिषद की सहमति प्राप्त करने के लिए एक सप्ताह चाहिए। इस पर माउंटबेटन ने उसे स्पष्ट चेतावनी दी कि यदि तुरंत स्वीकृति नहीं मिली तो कांग्रेस भी अपनी स्वीकृति वापस ले लेगी और उसके हाथ से पाकिस्तान प्राप्ति का अवसर सदा-सदा के लिए निकल जाएगा। तब जिन्ना ने भी अपनी स्वीकृति दी।
3 जून को एटली ने हाउस ऑफ कॉमंस में योजना की अधिकृत घोषणा की इसलिए इसे '3 जून योजना' कहा गया। इसमें सत्ता हस्तातंरण की तिथि जून 1948 से पीछे खिसककर 15 अगस्त 1947 कर दी गई।
14-15 जून को अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक में 3 जून योजना को स्वीकृति दी जानी थी। वरिष्ठ नेताओं में से केवल बाबू पुरुषोत्ताम दास टंडन ने विभाजन की 3 जून योजना का विरोध किया, परंतु उनके भाषण पर तालियों की भारी गड़बड़ाहट हुई। ऐसे समय गांधीजी ने 3 जून योजना का समर्थन किया। प्रस्ताव के पक्ष में 157 और विपक्ष में 29 मत पड़े। 32 सदस्य तटस्थ रहे। इस तरह वह प्रस्ताव पारित हो गया। (यहां यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि जिस कांग्रेस ने 1945-46 का चुनाव ''अखंड भारत'' के नारे पर लड़ा और जीता उसे विभाजन स्वीकार करने का क्या नैतिक अधिकार था?) इस प्रकार स्वाधीनता संग्राम का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस ने विभाजन को स्वीकृति देकर राष्ट्रीय एकता और अखंडता के मूल प्रश्न पर आत्मसमर्पण कर दिया जिसके परिणामस्वरूप 14-15 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि को देश का दुर्भाग्यपूर्ण विभाजन होकर उसे स्वाधीनता मिली।
मुस्लिम लीग की हठधर्मिता और हिंसात्मक कारवाइयों के कारण विवश होकर कांग्रेस ने विभाजन को स्वीकृति दी। परंतु यदि यह स्वीकृति नहीं दी जाती तो क्या होता? अधिक से अधिक गृहयुध्द होता। किंतु क्या देश की अखंडता के लिए गृहयुध्द नहीं किया जा सकता? अमरीकी इतिहास में अब्राहम लिंकन ने देश विभाजन और गृहयुध्द में से गृहयुध्द को चुना और अंततोगत्वा वे देश को अखंड रखने में सफल हुए। आज कोई भी उन्हें युध्दपिपासु नहीं कहता, उन्हें महापुरुष माना जाता है।
कभी-कभी ऐसा विचार भी मन में आ सकता है कि जब हमारे श्रध्देय नेताओं ने विभाजन स्वीकार कर लिया तो हमने भी उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। परंतु जरा विचार करें। जितने भी लोगों ने स्वाधीनता के लिए प्रयास किये, उनकी आंखों के सामने अखंड भारत था या खंडित भारत। इसका उत्तर - अखंड भारत।
द्वितीय विश्वयुध्द के बाद जर्मनी का विभाजन हो गया। इतनी सख्ती थीं कि अब यह विभाजन सदैव के लिए है ऐसा लगने लगा था परन्तु आज जर्मनी फिर से अपने अखण्ड रूप में है। वियतनाम का एकीकरण हो चुका है।
अखंड भारत के विषय को आम लोगों के हृदय तक पहुंचाने के लिए निम्न उपाय करने होंगे- -'अखण्ड भारत स्मृति दिवस' का आयोजन करना, ताकि युवा पीढी के सामने अखण्ड भारत का सपना बरकरार रहे।
-अखण्ड भारत का चित्र अपने कमरों में लगाना, यह हमारे आंखों के सामने रहेगा जिससे हमारा संकल्प और मजबूत होता रहे।
महापुरूषों के विचार:
मैं स्पष्ट रूप से यह चित्र देख रहा हूं कि भारतमाता अखण्ड होकर फिर से विश्वगुरू के सिंहासन पर आरूढ है।
-अरविन्द घोष
आइये, प्राप्त स्वतंत्रता को हम सुदृढ़ नींव पर खड़ी करें अखंड भारत के लिए प्रतिज्ञाबध्द हों।
-स्वातंत्र्यवीर सावरकर
अखंड भारत मात्र एक विचार न होकर विचारपूर्वक किया हुआ संकल्प है। कुछ लोग विभाजन को पत्थर रेखा मानते हैं। उनका ऐसा दृष्टिकोण सर्वथा उनुचित है। मन में मातृभूमि के प्रति उत्कट भक्ति न होने का वह परिचायक है।
-पंडित दीनदयाल उपाध्याय
पाकिस्तान तो इस्लामी भावना के ही विपरीत है। यह कैसे कहा जा सकता है कि जिन प्रांतों में मुसलमान अधिक है वे पाक हैं और दूसरे सब प्रांत नापाक हैं।
-मौलाना अबुल कलाम आजाद
पश्चाताप से पाप प्राय: धुल जाता है किंतु जिनकी आत्मा को विभाजन के कुकृत्य पर संतप्त होना चाहिए था वे ही लोग अपनी अपकीर्ति की धूल में लोट लगाकर प्रसन्न हो रहे हैं। आइए, जनता ही पश्चाताप कर ले-न केवल अपनी भूलचूक के लिए, बल्कि अपने नेताओं के कुकर्मों के लिए भी।
-डा. राम मनोहर लोहिया
हम सब अर्थात् भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश इन तीनों देशों में रहने वाले लोग वस्तुत: एक ही राष्ट्र भारत के वासी हैं। हमारी राजनीतिक इकाइयां भले ही भिन्न हों, परंतु हमारी राष्ट्रीयता एक ही रही है और वह है भारतीय।
-लोकनायक जयप्रकाश नारायण
पिछले चालीस वर्ष का इतिहास इस बात का गवाह है कि विभाजन ने किसी को फायदा नहीं पहुंचाया। अगर आज भारत अपवने मूल रूप में अखंडित होता तो न केवल वह दुनिया की सबसे बड़ी ताकत बन सकता था, बल्कि दुनिया में अमन-चैन कायम करने में उसकी खास भूमिका होती।
-जिए सिंध के प्रणेता गुलाम मुर्तजा सैयद
मुझे वास्तविक शिकायत यह है कि राष्ट्रवादी मुसलमानों के प्रति न केलव कांग्रेस अपितु महात्मा गांधी भी उदासीन रहे। उन्होंने जिन्ना एवं उनके सांप्रदायिक अनुयायियों को ही महत्व दिया। मुझे पूरा विश्वास है कि यदि उन्होंने हमारा समर्थन किया होता तो हम जिन्ना की हर बात का खंडन कर देते और विभाजनवादी आंदोलन के आरंभ काल में पर्याप्त संख्या में मुसलमानों को राष्ट्रवादी बना देते।
-न्यायमूर्ति मोहम्मद करीम छागला

Tuesday 19 April 2011

धर्मक्षेत्रे भारतक्षेत्रे ………

 

गीता का प्रथम श्लोक ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ भारतीय मनीषा को उत्कृष्टतम अभिव्यक्ति देने वाले ग्रंथ की शुरुआत मात्र नहीं है, यह व्यवस्था की एक एक विशेष स्थिति की तरफ संकेत भी करता है। एक ऐसी जब सत्य और असत्य के बीच आमना -सामना अवश्यंभावी बन जाता है। इस स्थिति में पूरी व्यवस्था व्यापक बदलाव के मुहाने पर खड़ी होती है। असात्विक शक्तियों की चालबाजियों, फरेबों और तिकड़मों से आम आदमी कराह रहा होता है। अभिव्यक्ति में असत्य हावी हो जाता है। परंपरागत सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक संरचनाओं में सड़ांध इस कदर बढ़ चुकी होती है अपने हितों के लिए मूल्य एवं आदर्श को ताक पर रखना सहज व्यवहार बन जाता है। राज और समाज को संचालित करने वाली शक्तियां इतनी मदमस्त हो जाती है कि उनके खिलाफ ‘लो इन्टेंसिटी वार’ अप्रासंगिक हो जाता है। लेकिन इस स्थिति का एक सकारात्मक पक्ष भी होता है। वह यह कि सात्विक शक्तियां असात्विक शक्तियों की चुनौती को ताल ठोंककर स्वीकार करती है। इस कारण प्रत्यक्ष संघर्ष अपरिहार्य बन जाना है। दोनों पक्षों को एक दूसरे के खिलाफ शंखनाद करना पड़ता है। चूंकि यह संग्राम धर्म की स्थापना के उद्देश्य से लड़ा जाता है इसलिए जिस भूमि पर सेनाएं डटती हैं , वह धर्मभूमि बन जाती है। इस स्थिति की एक विशेषता यह भी है कि अपने तमाम अच्छे आग्रहों के बावजूद संचार और संचारक (मीडिया और पत्रकार) असात्विक शक्तियों के पाले में ही खड़े दिखायी देते हैं और उनकी भूमिका मात्र ‘आंखो देखा हाल’ सुनाने तक सीमित हो जाती है।
भारत जिस कालखंड से गुजर रहा है उसमें भी भारतीयता और अभारतीयता के बीच का संघर्ष तेजी से ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ की स्थिति की स्थिति की ओर बढ़ रहा है। हालांकि इस युध्द का क्षेत्र कुरुक्षेत्र तक सीमित न रहकर संपूर्ण भारत है। एक लंबी योजना के तहत उन शक्तियों पर निशाना साधा जा रहा है जो वर्तमान प्रणाली में भारतीयता को स्थापित करने का प्रयास कर रही है , भारतीय प्रकृति और तासीर पर आधारित वैकल्पिक व्यवस्था को गढ़ने के लिए प्रयत्नशील हैं।
इस बिंदु पर भारतीयता और अभारतीयता के बीच के संघर्ष को व्यापक परिप्रेक्ष्य में समझना आवश्यक है। यह संघर्ष दिन, माह, और 100-50 वर्ष की सीमाओं को बहुत पहले ही लांघ चुका है और पिछले 1ं4 सौ वर्षों से सतत जारी है। कई निर्णायक दौर आए। कई बार ऐसा लगा कि भारतीयता सदैव के लिए जमींदोज हो गयी है लेकिन अपनी अदम्य धार्मिक जीजीविषा और प्रबल सांस्कृतिक जठराग्नि की बदौलत ऐसे तमाम झंझावातों को पार करने में वह सफल रही। 17वीं सदी तक भारतीयता पर होने वाले आक्रमणों की प्रकृति बर्बर और स्थूल थी। इस दौर के आक्रांताओं में सांस्कृतिक समझ का अभाव था और वे जबरन भारतीयता को अपने ढांचे में ढालने की कोशिश कर रहे थे। 18 वीं सदी में आए आक्रांताओं ने धर्म और संस्कृति में छिपी भारतीयता की मूलशक्ति को पहचाना और उसे नष्ट करने के व्यवस्थागत प्रयास भी शुरु किए। इस दौर में भारतीयता पर दोहरे आक्रमण की परंपरा शुरु हुई। बलपूर्वक भारतीयता को मिटाने के प्रयास यथावत जारी रहे साथ ही भारतीयों में भारतीयता को लेकर पाए जाने वाले गौरवबोध को नष्ट करने के एक नया आयाम आक्रांताओं ने अपनी रणनीति में जोड़ा। 1990 के बाद मीडिया -मार्केट गठजोड़ के कारण लोगों में तेजी से रोपी जा रही उपभोक्तावादी जीवनशैली के कारण भारतीयता पर आक्रमण का एक नया तीसरा मोर्चा भी खुल गया। मीडिया मार्केट गठजोड़ का भारतीयता से आमना-सामना अवश्यंभावी था क्योंकि भारतीयता त्यागपूर्वक उपभोग के जरिए आध्यात्मिक उन्नति के चरम लक्ष्य को प्राप्त करने की बात कहती है जबकि दूसरा पक्ष उपभोग को ही जीवन का चरम लक्ष्य मानता है और अंधाधुध उपभोग पर आधारित जीवनशैली को बढ़ावा देता है। भारतीयता पर आक्रमण करने वाले इस त्रिकोण के अंतर्संबंध आपस मे बहुत अच्छे नहीं कहे जा सकते। कही कहीं तो वे एकदूसरे पर जानलेवा हमला करते हुए भी दिखते है। लेकिन भारतीयता से इन तीनों को चनौती मिल रही है। इसलिए इस त्रिकोण ने भारतीयता के समाप्ति को अपने साझा न्यूनतम कार्यक्रम का हिस्सा बना लिया है।
इस अभारतीय त्रिकोण के उभार के कारण संघर्ष की प्रकृति और त्वरा में व्यापक बदलाव दिखने लगे हैं। पहले दोनों पक्षों के बीच अनियोजित अथवा अल्पयोजनाबध्द ढंग से विभिन्न मोर्चों पर छोटी – मोटी लडाईयां होती रहती है। अब सुनियोजित और व्यवस्थित तरीके से भारतीयता पर आक्रमण हो रहे और उसके अस्तित्व को समाप्त करने प्रयास किए जा रहे हैं। भारतीयता की वाहक शक्तियां भी चुनौती को स्वीकार करने के मूड में दिख रही है , इसलिए अब महासंग्राम का छिड़ना तय सा दिख रहा है।
पिछले 2 वर्षो सें ‘ हिन्दू आतंकवाद ‘ की अवधारणा को रोपने का जो प्रयास किए जा रहा हैं और उसका जिस तरह से प्रतिवाद हो रहा है , वह भावी महासंग्राम का कारण बन सकता है। हिंदू आतंकवाद की अवधारणा अभारतीय शक्तियों का एक व्यवस्थित और दूरगामी प्रयास है। इस अवधारणा के जरिए वे पश्चिम में तेजी से फैल रही आध्यात्मिकता पर आधारित उदात्त और समग्र भारतीय जीवनशैली को दफनाना चाहती हैं।। योग और आयुर्वेद के प्रति संपूर्ण दुनिया की नई पीढ़ी जिस तरह से आकर्षित हुई है।इसी तरह कई संस्थाएं और संत पश्चिम में आध्यात्मिकता की अलख जगा रहे हैं, और वहां नई पीढ़ी इसकी तरफ तेजी से आकर्षित हो रही है। इस आकर्षण भाव के कारण भारतीयता विरोधी त्रिकोण के हाथ-पांव फूल गए है। भारतीयता की छवि को संकीर्ण और कट्टर पेश कर यह त्रिकोण उसके प्रति तेजी से पनप रहे आकर्षण भाव को भंग करना चाहता है। ‘हिन्दू आतंकवाद’ का नया शिगूफा छोड़कर इस त्रिकोण ने भारतीयता की ध्वजावाहक शक्तियों को भारत में ही घेरने की रणनीति बनायी है।
इस पूरे प्रकरण में मीडिया की अति उत्साही भूमिका भी देखने लायक है। 2 वर्षों पहले तक किसी पंथ को आतंकवाद से न जोड़ने का उपदेश देने वाला मीडिया बिना किसी सबूत और साक्ष्य के ‘हिन्दू आतंकवाद’ शब्द को बार -बार दोहरा रहा है। मजेदार तथ्य यह है कि ‘हिन्दू आतंकवाद’ शब्द को मीडिया के जरिए आमलोगों से परिचित पहले करवाया गया और उसकी पुष्टि के सबूत बाद में जुटाए जा रहे हैं। एक अवधारणा के रुप में हिन्दू आतंकवाद हाल के दिनों में ‘मीडिया ट्रायल’ का सबसे बडा उदाहरण है। सबसे पहले मालेगांव प्रकरण में ‘हिन्दू आतंकवाद’ शब्द का प्रयोग किया गया। इस प्रकरण में सांगठनिक स्तर पर अभिनव भारत तथा व्यक्तिगत स्तर साध्वी प्रज्ञा का नाम उछाला गया। मालेगांव विस्फोट प्रकरण में मीडिया को तमाम मनगढंत कहानियां उपलब्ध कराने के अतिरिक्त आजतक जांच एजेंसियां कोई ठोस सबूत नहीं इकट्ठा कर पायी हैं। अभिनव भारत जैसे अनजान जैसे संगठन को लपेटने पर भी भारतीयता पर कोई आंच आती न देख अब इस त्रिकोण ने भारत और विश्व के सबसे बडे सांस्कृतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को हिन्दू आतंकवाद से जोड़ने का कुत्सित प्रयास शुरु कर दिया है। संघ इस त्रिकोण के निशाने पहले भी सबसे उपर रहा है। क्योंकि आतंकवाद, धर्मांतरण और खुली अर्थव्यवस्था की विसंगतियों के प्रति संघ आमजन को जागरुक करता रहा है। इस कारण पूरे भारत में धीरे -धीरे इस त्रिकोण के खिलाफ एक प्रतिरोधात्मक शक्ति खड़ी होती जा रही थी।
अब इन शक्तियों ने संघ के एक वरिष्ठ और दूरदर्शी प्रचारक इंद्रेश का नाम ,जिन्हे मुसलमानों को भी संघ के कार्य से जोड़ने के लिए विशेष रुप से जाना जाता है, अजमेर बम विस्फोट में घसीटा है। यह त्रिकोण इंद्रेश के नाम को अजमेर बम विस्फोट से जोड़कर एक साथ कई निशाने साधने की कोशिश कर रहा है। इससे जहां एक तरफ त्रिक़ोण के सर्वाधिक सशक्त प्रतिरोधी की राष्ट्रवादी और लोक कल्याणकारी छवि को धूमिल किया जा सकेगा , वहीं इस्लामिक आतंकवाद के समकक्ष ‘हिन्दू आतंकवाद’ शब्द खड़ा कर मुसलमानों के कुछ वोट भी हथियाए जा सकेंगे। साथ ही , हिन्दू -मुस्लिम संवाद के एक संभावित धरातल को नष्ट भी किया जा सकेगा। लेकिन संघ ने भी इस चुनौती को स्वीकार करने का मन बन लिया है। संघ ने 10 नवंबर को पूरे देश में हिन्दुत्व और भारतीयता को बदनाम करने के इस कुत्सित प्रयास के खिलाफ धरना देने का फैसला किया है, आमजनता के बीच जाने का निर्णय लिया है। इस निर्णय का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि क्योंकि संघ ने घरने -प्रदर्शन के पूरे अभियान के सूत्र अपने हाथ में रखे है इससे पहले यह काम संघ के अनुषांगिक संगठन करते थे। 1975 के आपातकाल के बाद यह पहला मौका है जब संघ किसी मुद्दे की बागडोर खुद अपने हाथ मे लेकर आमजन के बीच जा रहा है। धरने प्रदर्शन का यह अभियान मात्र अभारतीय त्रिकोण को उत्तर देने की तैयारी मात्र नहीं है , संघ अपने उस आनुषंगिक संगठन को भी संदेश देना चाहता है जो व्यवस्था में भारतीयता को स्थापित करने के लक्ष्य से एकहद तक विचलित हो चुका है और यह मान चुका है कि उनके बिना संघ कोई सार्वजनिक अभियान चलाने में अक्षम है। जाहिर है एक बडे महासंग्राम की स्थितियां पूरी तरह बन गयी है। भारत तेजी से ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ की स्थिति की तरफ बढ़ रहा है। लेकिन कोई ऐसा संजय नहीं दिखाई दे रहा है जो असत्य के पाले मेंं रहते हुए भी अंधी सत्ता को बीच-बीच में टोक कर उसे सत्य मार्ग अपनाने के लिए प्रेरित करता रहे और स्थिति की भीषणता की तरफ उसका ध्यान भी आकर्षित करे।

संघ पर निशाना: कांग्रेस का भीतरी डर

चर्च द्वारा त्रिपुरा में शान्तिकाली जी महाराज की हत्या और ओडीशा में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या की पृष्ठ भूमि में कांग्रेस द्वारा राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ पर प्रहार करने की रणनीति को समझना आसान हो जायेगा। इन दोनों हत्याओं के मामले में कांग्रेस का रवैया आश्चर्यजनक रूप से चर्च के पक्ष में रहा। सोनिया गांधी और उनकी चर्च समर्थक शक्तियां किसी भी तरीके से शीघ्रातिशीघ्र राहुल गांधी को देश के प्रधानमंत्री के पद पर बिठा देना चाहती हैं। देश में छोट मोटे राजनैतिक हितों वाले कुछ क्षेत्रीय दलों का सहयोग उन्होंने किसी ने किसी तरीके से प्राप्त कर ही लिया है। लेकिन सोनियां और चर्च दोनों जानते है कि संघ परिवार और देश की राष्ट्र्वादी शक्तियां किसी न किसी रूप में भारत की राजनीति के केन्द्र बिन्दु तक पहुंच गई हैं। इसलिए संघ को हटाये बिना राहुल गांधी को प्रधानमंत्री नहीं बनाया जा सकता और न ही भारत में चर्च की रणनीति सफल हो सकती है। यदि राहुल गांधी प्रधानमंत्री नहीं बनते तो सोनिया गांधी की 45 साल पहले इंग्लैंड के कैम्बिर्ज से दिल्ली में प्रधानमंत्री के घर तक पहुंचने की सारी मेहनत बेकार जायेगी और चर्च के व पश्चिमी शक्तियों के भारत की पहचान बदलने के सारे स्वप्न धूलि धूसर हो जायेंगे। इसलिए सोनियां कांग्रेस ने देश में मुस्लिम लीग के बाद फिर से मुस्लिम कार्ड खेलना शुरू कर दिया। आज तक कांग्रेस मुसलमानों को हिन्दुओं के काल्पनिक भय से भयभीत रखकर अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति पर चल रही थी और उसे इसमें सफलता भी मिल रही थी। मुसलिम समुदाय का ठोस वोट बैंक कांग्रेस की सबसे बड़ी शक्ति थी। लेकिन राष्ट्र्ीय स्वयंसेवक संघ ने जब मुस्लिम समुदाय से सीधे संवाद रचना प्रारम्भ कर दी तो कांग्रेस के नीचे से जमीन खिसकने लगी।

इस पृष्ठभूमि में मुसलमान या इस्लामपंथी विवाद का मुद्दा बन जाते हैं। कांग्रेस एवं साम्यवादियों की दृष्टि में इस देश के मुसलमान एक अलग राष्ट्र है , इसलिए उनको सावधानीपूर्वक इस देश की छूत से बचाना यह टोला जरुरी मानता है। साम्यवादी यह बात खुलकर कहते हैं और कांग्रेस इसे अपने व्यवहार से सिद्ध करती है। इस वैचारिक अवधारणा के आधार पर ये दोनों देश के मुसलमानों को अलग-थलग करके स्वयं को उनके रक्षक की भूमिका में उपस्थित करते हैं। जाहिर है इस भूमिका में रहने पर दम्भ भी आएगा। अतः ये दोनों दल मुसलमानों के तुष्टिकरण की ओर चल पडते हैं। चूकि इस देश में लोकतांत्रिक प्रणाली है इसलिए मुसलमानों को यदि बहुसंख्यक भारतीयों में डराए रखा जाएगा जो जाहिर है कि वे अपने वोट भी एकमुश्त उन्हीं की झोली में डालेंगे। अब लोकतांत्रिक प्रणाली में ज्यों-ज्यों सत्ता के दावेदार बढ रहे है त्यो -त्यों मुसलमानों के रक्षक होने का दावा करने वालों की संख्या भी बढती जा रही है। लालू यादव , मुलायम सिह यादव और रामविलास पासवानों का इस क्षेत्र में प्रवेश ‘ लेटर स्टेज ’ पर हुआ है। परन्तु जो देर से आएगा वो यकीनन हो हल्ला ज्यादा मचाएगा। इसलिए मुसलमानों की रक्षा करने के लिए इन देर से आए रक्षकों के तेवर भी उतने ही तीखे हैं।

इधर जब पिछले पाचं -छह दशकों में इन सभी ने मुसलमानों के दिमाग में यह डाल दिया है कि मामला सिर्फ उनकी रक्षा का है और बाकी चीजें तो गौण है तो उनमें से भी कुछ संगठन उठ आए हैं जिन्होंने यह कहना शुरू कर दिया है अब हमें बाहरी रक्षकों की जरुरत नहीं है हम अपनी रक्षा खुद कर सकते हैं। सुरक्षा का काल्पनिक भय कांग्रेस एवं कम्युनिस्टों ने मुसलमानों के मन में बैठा दिया था और सत्ता में भागीदारी का आसान रास्ता देखकर इन मुस्लिम संगठनों ने भी हाथ में हथियार उठा लिए। यह तक सब ठीक -ठाक चल रहा था केवल मुस्लिम वोटों पर छापेमारी का प्रश्न था जिसके हिस्से जितना आ जाय उतना ही सही।

इस मोड पर ‘स्क्रिप्ट ’ में अचानक कुछ गडबड होने लगी। कांग्रेस एवं कम्युनिस्ट जिन लोगों से मुसलमानों को डरा रहे थे उन्ही लोगों ने मुसलमानों से बिना दलालों एवं एजेंटों की सहायता से सीघे -सीधे संवाद रचना शुरू कर दी। 1975 की आपात स्थिति में राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ और मुसलमानों के बीच जो संवाद रचना नेताओं के स्तर पर प्रारम्भ हुई थी उसे इक्कीसवीं शताब्दी के शुरु में संघ के एक प्रचारक इन्द्रेश कुमार आम मुसलमान तक खीचं ले गए। ऐसा एक प्रयास कभी महात्मा गांधी ने किया था लेकिन वह प्रयास खिलाफत के माध्यम से हुआ था जो वस्तुतः इस देश के मुसलमानों की राष्ट्रªीय भावना को कही न कही खण्डित करता था। इसलिए इसका असफल होना निश्चित ही था। जो इक्का -दुक्का प्रयास दूसरे प्रयास हुए लेकिन उनका उद्देश्य तात्कालिक लाभों के लिए तुष्टिकरण ही ज्यादा था।

इन्द्रेश कुमार ने संघ के धरातल पर मुसलमानों से जो संवाद रचना प्रारम्भ की उसका उद्देदश्य न तो राजनीतिक था और न ही तात्कालिक लाभ उठाना। चूंकि राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ को चुनाव नही लडना था। इन्द्रेश कुमार की संवाद रचना से जो हिन्दू मुसलमानों का व्यास आसन निर्मित हुआ। वह इस देश का वही सांस्कृतिक आसन है जिसके कारण लाखों सालों से इस देश की पहचान बनी हुई है। इस संवाद रचना में स्वयं मुसलमानों ने आगे आकर कहना शुरू किया कि हमारे पुरखे हिंदू थे और उनकी जो सांस्कृतिक थाती थी वही सांस्कृतिक थाती हमारी भी है। इन संवाद रचनाओं में इन्द्रेश कुमार का एक वाक्य बहुत प्रसिद्ध हुआ कि हम ‘ सिजदा तो मक्का की ओर करेंगे लेकिन गर्दन कटेगी तो भारत के लिए कटेगी। देखते ही देखते इस संवाद की अंतर्लहरें देश भर में फैली और मुसलमानों की युवा पीढी में एक नई सुगबुगाहट प्रारम्भ हो गयी। वे धीरे -धीरे उस चारदीवारी से निकलकर जिस उनके तथाकथित रक्षकों ने पिछले 60 सालों से यत्नपूर्वक निर्मित किया था , खुली हवा में सांस लेने के लिए आने लगे। इन्द्रेश कुमार की मुसलमानों से इस संवाद रचना ने देखते ही देखते ‘ मुस्लिम राष्ट्रीय मंच’ का आकार ग्रहण कर लिया। जाहिर है मुसलमानों के भीतर संघ की इस पहल से कांग्रेसी खेमे एवं साम्यवादी टोले में हड़बडी मचती। जिस संघ के बारे में आज तक मुसलमानों को यह कहकर डराया जाता रहा कि उनको सबसे ज्यादा खतरा संघ से है उस संघ को लेकर मुसलमानों का भ्रम छंटने लगा। यह स्पष्ट होने लगा कि संघ मुसलमानों के खिलाफ नहीं है । संघ भारत की इस विशेषता में पूर्ण विश्वास रखता है कि ईश्वर की पूजा करने के हजारों तरीके हो सकते हैं और वास्तव में संघ इसी विचार को आगे बढाना चाहता है। जब संघ ईष्वर या अल्लाह की पूजा के हजारों तरीकों में विश्वास करता है तो उसे कुछ लोगों द्वारा इस्लामी तरीके से ईश्वर की पूजा के तरीके से भला कैसे एतराज हो सकता था। संघ को लेकर मुसलमानों के भीतर कोहरा छंटने की प्रारम्भिक प्रक्रिया शुरू हो गयी है। और इसी भीतरी डर के कारण सोनियां व्रिगेड संध पर निशाना साध रही है। सोनियां व्रिगेड को इसका एक और लाभ भी हो सकता है, जब सारे देश का ध्यान संध पर हो रहे प्रहारो पर लगा होगा तो चर्च चुपचाप अपने षडयंत्रों को सफलतापूर्वक चला सकता है।

विनायक सेन, माओवाद और बेचारा जनतंत्र


डा. विनायक सेन- एक मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं, पढ़ाई से डाक्टर हैं, प्रख्यात श्रमिक नेता स्व.शंकरगुहा नियोगी के साथ मिलकर मजदूरों के बीच काम किया, गरीबों के डाक्टर हैं और चाहते हैं कि आम आदमी की जिंदगी से अंधेरा खत्म हो। ऐसे आदमी का माओवादियों से क्या रिश्ता हो सकता है ? लेकिन रायपुर की अदालत ने उन्हें राजद्रोह का आरोपी पाया है। आजीवन कारावास की सजा दी है। प्रथम दृष्ट्या यह एक ऐसा सच है जो हजम नहीं होता। रायपुर में रहते हुए मैंने उन्हें देखा है। उनके जीवन और जिंदगी को सादगी से जीने के तरीके पर मुग्ध रहा हूं। किंतु ऐसा व्यक्ति किस तरह समाज और व्यवस्था को बदलने के आंदोलन से जुड़कर कुछ ऐसे काम भी कर डालता है कि उसके काम देशद्रोह की परिधि में आ जाएं, मुझे चिंतित करते हैं। क्या हमारे लोकतंत्र की नाकामियां ही हमारे लोगों को माओवाद या विभिन्न देशतोड़क विचारों की ओर धकेल रही हैं? इस प्रश्न पर मैं उसी समय से सोच रहा हूं जब डा. विनायक सेन पर ऐसे आरोप लगे थे।
अदालत के फैसले पर हाय-तौबा क्यों-
अदालत, अदालत होती है और वह सबूतों की के आधार पर फैसले देती हैं। अदालत का फैसला जो है उससे साबित है कि डा. सेन के खिलाफ आरोप जो थे, वे आरोप सच पाए गए और सबूत उनके खिलाफ हैं। अभी कुछ समय पहले की बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें इसी मामले पर जमानत दी थी। उस जमानत को एक बड़ी विजय के रूप में निरूपित किया गया था और तब हमारे कथित बुद्धिजीवियों ने अदालत की बलिहारी गायी थी। अब जब रायपुर की अदालत का फैसला सामने है तो स्वामी अग्निवेश से लेकर तमाम समाज सेवकों की भाषा सुनिए कि अदालतें भरोसे के काबिल नहीं रहीं और अदालतों से भरोसा उठ गया है और जाने क्या-क्या। ये बातें बताती हैं कि हम किस तरह के समाज में जी रहे हैं। जहां हम अपनी संवैधानिक संस्थाओं को सम्मान देना तो दूर उनके प्रति अविश्वास पैदा कर न्याय की बात करते हैं। निशाना यहां तक कि जनतंत्र भी हमें बेमानी लगने लगता है और हम अपने न्यायपूर्ण राज्य का स्वर्ग माओवाद में देखने लगते हैं। देश में तमाम ऐसी ताकतें, जिनका इस देश के गणतंत्र में भरोसा नहीं है अपने निजी स्वर्ग रचना चाहती हैं। उनकी जंग जनतंत्र को असली जनतंत्र में बदलने, उसे सार्थक बनाने की नहीं हैं। उनकी जंग तो इस देश के भूगोल को तितर-बितर कर देने के लिए है। वे भारत को सांस्कृतिक इकाई के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। शायद इसी वैचारिक एकता के नाते अलग काश्मीर का ख्वाब देखने वाले अलीशाह गिलानी, माओ का राज लाने में लगे कवि बरवर राव और देश को टुकड़ों का बांटने की स्वप्नदृष्टा अरूंघती राय, खालिस्तान के समर्थक नेता एक मंच पर आने में संकोच नहीं करते। यह आश्चर्यजनक है इन सबके ख्वाब और मंजिलें अलग-अलग हैं पर मंच एक हैं और मिशन एक है- भारत को कमजोर करना। यह अकारण नहीं है मीडिया की खबरें हमें बताती हैं कि जब छत्तीसगढ़ में माओवादियों की एक महत्वपूर्ण बैठक हुयी तो उसमें लश्करे तैयबा के दो प्रतिनिधि भी वहां पहुंचे।
उनकी लड़ाई तो देश के गणतंत्र के खिलाफ है-
आप इस सचों पर पर्दा डाल सकते हैं। देश के भावी प्रधानमंत्री की तरह सोच सकते हैं कि असली खतरा लश्करे तैयबा से नहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से है। चीजों को अतिसरलीकृत करके देखने का अभियान जो हमारी राजनीति ने शुरू किया है ,उसका अंत नहीं है। माओवादियों के प्रति सहानूभूति रखने वाली लेखिका अगर उन्हें हथियारबंद गांधीवादी कह रही हैं तो हम आप इसे सुनने के लिए मजबूर हैं। क्योंकि यह भारतीय लोकतंत्र ही है, जो आपको लोकतंत्र के खिलाफ भी आवाज उठाने की आजादी देता है। यह लोकतंत्र का सौन्दर्य भी है। हमारी व्यवस्था जैसी भी है किंतु उसे लांछित कर आप जो व्यवस्थाएं लाना चाहते हैं क्या वे न्यायपूर्ण हैं? इस पर भी विचार करना चाहिए। जिस तरह से विचारों की तानाशाही चलाने का एक विचार माओवाद या माक्सर्वाद है क्या वह किसी घटिया से लोकतंत्र का भी विकल्प हो सकता है? पूरी इस्लामिक पट्टी में भारत के समानांतर कोई लोकतंत्र खोजकर बताइए ? क्या कारण है अलग- अलग विचारों के लोग भारत के गणतंत्र या भारतीय राज्य के खिलाफ एक हो जाते हैं। उनकी लड़ाई दरअसल इस देश की एकता और अखंडता से है।
मोहरे और नारों के लिए गरीबों की बात करना एक अलग बात है किंतु जब काश्मीर के आतंकवादियों- पत्थर बाजों, मणिपुर के मुइया और माओवादी आतंकवादियों के सर्मथक एक साथ खड़े नजर आते हैं तो बातें बहुत साफ हो जाती हैं। इसे तर्क से खारिज नहीं किया जा सकता कि घोटालेबाज धूम रहे हैं और विनायक सेन को सजा हो जाती है। धोटालेबाजों को भी सजा होनी चाहिए, वे भी जेल में होने चाहिए। किसी से तुलना करके किसी का अपराध कम नहीं हो जाता। अरूंधती की गलतबयानी और देशद्रोही विचारों के खिलाफ तो केंद्र सरकार मामला दर्ज करने के पीछे हट गयी तो क्या उससे अरूंधती का पाप कम हो गया। संसद पर हमले के आरोपी को सजा देने में भारतीय राज्य के हाथ कांप रहे हैं तो क्या उससे उसका पाप कम हो गया। यह हमारे तंत्र की कमजोरियां हैं कि यहां निरपराध लोग मारे जाते हैं, और अपराधी संसद तक पहुंच जाते हैं। किंतु इन कमजोरियों से सच और झूठ का अंतर खत्म नहीं हो जाता। जनसंगठन बना कर नक्सलियों के प्रति सहानुभूति के शब्दजाल रचना, कूटरचना करना, भारतीय राज्य के खिलाफ वातावरण बनाना, विदेशी पैसों के बल पर देश को तोड़ने का षडयंत्र करना ऐसे बहुत से काम हैं जो हो रहे हैं। हमें पता है वे कौन से लोग हैं किंतु हमारे जनतंत्र की खूबियां हैं कि वह तमाम सवालों पर अन्यान्न कारणों से खामोशी ओढ़ लेता है। वोटबैंक की राजनीति ने हमारे जनतंत्र को सही मायने में कायर और निकम्मा बना दिया है। फैसले लेने में हमारे हाथ कांपते हैं। देशद्रोही यहां शान से देशतोड़क बयान देते हुए घूम सकते हैं। माओ के राज के स्वप्नदृष्टा जरा माओ के राज में ऐसा करके दिखाएं। माओ, स्टालिन को भूल जाइए ध्येन आन-मन चौक को याद कीजिए।
विचारों की तानाशाही भी खतरनाकः
सांप्रदायिकता और आतंकवाद के नाम पर भयभीत हम लोगों को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इस धरती पर ऐसे हिंसक विचार भी हैं- जिन्होंने अपनी विचारधारा के लिए लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा है। ये हिंसक विचारों के पोषक ही भारतीय जनतंत्र की सदाशयता पर सवाल खड़े कर रहे हैं। आप याद करें फैसले पक्ष में हों तो न्यायपालिका की जय हो , फैसले खिलाफ जाएं तो न्यायपालिका की ऐसी की तैसी। इसे आप राममंदिर पर आए न्यायालय के फैसले से देख सकते हैं। पहले वामविचारी बुद्धिवादी कहते रहे न्यायालय का सम्मान कीजिए और अब न्यायालय के फैसले पर भी ये ही उंगली उठा रहे हैं। इनकी नजर में तो राम की कपोल कल्पना हैं। मिथक हैं। जनविश्वास और जनता इनके ठेंगें पर। किंतु आप तय मानिए कि राम अगर कल्पना हैं मिथक हैं तो भी इतिहास से सच्चे हैं , क्योंकि उनकी कथा गरीब जनता का कंठहार है। उनकी स्तुति और उनकी गाथा गाता हुआ भारतीय समाज अपने सारे दर्द भूल जाता है जो इस अन्यायी व्यवस्था ने उसे दिए हैं।
डा. विनायक सेन, माओवादी आतंकी नहीं हैं। वे बंदूक नहीं चलाते। अरूंधती राय भी नक्सलवादी नहीं हैं। अलीशाह गिलानी भी खुद पत्थर नहीं फेंकते। वे तो यहां तक नाजुक हैं कि नहीं चाहते कि उनका बेटा कश्मीर आकर उनकी विरासत संभाले और मुसीबतें झेले। क्योंकि उसके लिए तो गरीब मुसलमानों के तमाम बेटे हैं जो गिलानी की शह पर भारतीय राज्य पर पत्थर बरसाते रहेंगें, उसके लिए अपने बेटे की जान जोखिम में क्यों डाली जाए। इसी तरह बरवर राव भी खून नहीं बहाते, शब्दों की खेती करते हैं। लेकिन क्या ये सब मिलकर एक ऐसा आधार नहीं बनाते जिससे जनतंत्र कमजोर होता है, देश के प्रति गुस्सा भरता है। माओवाद को जानने वाले जानते हैं कि यह आखिर लड़ाई किस लिए है। इस बात को माओवादी भी नहीं छिपाते कि आखिर वे किसके लिए और किसके खिलाफ लड़ रहे हैं। बहुत साफ है कि उनकी लड़ाई हमारे लोकतंत्र के खिलाफ है और 2050 तक भारतीय राजसत्ता पर कब्जा करना उनका घोषित लक्ष्य है। यह बात सारा देश समझता है किंतु हमारे मासूम बुद्धिवादी नहीं समझते। उन्हें शब्दजाल बिछाने आते है। वे माओवादी आतंक को जनमुक्ति और जनयुद्घ जैसे खूबसूरत नाम देते हैं और चाहते हैं कि माओवादियों के पाप इस शब्दावरण में छिप जाएं। झूठ, फरेब और ऐसी बातें फैलाना जिससे नक्सलवाद के प्रति मन में सम्मान का भाव का आए यही माओवादी समर्थक विचारकों का लक्ष्य है। उसके लिए उन्होंने तमाम जनसंगठन बना रखे हैं, वे कुछ भी अच्छा नहीं करते ऐसा कहना कठिन है। किंतु वे माओवादियों के प्रति सहानुभूति रखते हैं और उन्हें महिमामंडित करने का कोई अवसर नहीं चूकते इसमें दो राय नहीं हैं। ये सारी बातें अंततः हमारे हमारे जनतंत्र के खिलाफ जाती हैं क्या इसमें कोई दो राय है।

बस एक सरदार (पटेल )चाहिए कश्मीर के लिये

कश्मीर में अब निर्णय की उम्मीद दिखेगी इस आस में हम २७ अक्टूबर १९४७ से प्रतिक्षारत है। पाकिस्तान ने अपनी फौज को छदम रूप में भेजकर उस समय तक अधर में लटके कश्मीर को हड़पने की साजिश रची थी। तब से लेकर आज तक कश्मीर की बीमारी दूर होने के बजाय कुछ ऐसे बढ़ी जैसे के ज्यों –ज्यों इलाज किया मर्ज बढाता ही गया। आजादी के पहले के कश्मीर राज्य का लगभग पैंतालीस प्रतिशत भारत के पास है। पैंतीस प्रतिशत नापाक, पाक के कब्जे में है और बचा हुआ लगभग बीस प्रतिशत चीन ने अवैध रूप से दबा रखा हैं। भारतीय कश्मीर के भी तीन भाग है ,जम्मू में हिंदुओं का बाहुल्य है तो लद्दाख में बौद्ध धर्म के अनुयायी बहुतायात में है और कश्मीर घाटी मुस्लिम बाहुल्य है।
पाक कश्मीर को छोड़े तो भारतीय हिस्से में भी तीन तरह की विचार धारा वाले लोग है। एक पक्ष भारत में ही रहना चाहता है ,दूसरा पक्ष पाकिस्तान के साथ अपना भविष्य उज्जवल देखता है वही तीसरा धड़ा कश्मीर को एक अलग राज्य के रूप में स्वतंत्र किये जाने की मांग करता है। इस त्रिकोण में कश्मीर के अच्छे लोग और पर्यटन का प्रमुख व्यवसाय घुट-घुट कर मरणासन्न स्तिथि में आ चुका है। ये अलगाववादी लोग और इनके कार्यकर्ता अपने आप को आतंकवादी के स्थान पर तथाकथित स्वतंत्रता सेनानी मानते है और ऐसा प्रचार भी करते है। अफज़ल गुरु को आज भी ये अतिवादी आतंकवादी नहीं मानते और उसे कश्मीर के कथित स्वतंत्रता की मुहिम का सिपाही प्रचारित करते है। इस विचारधारा से संघर्ष एक बड़ी चुनौती बन गया है।
सैंतालीस में महाराजा हरि सिंह के भारत में शामिल होने के निर्णय में २० अक्टूबर से २७ अक्टूबर तक का समय निकल गया और इतनी देर में पाक ने पैंतीस प्रतिशत भू-भाग पर कब्ज़ा कर लिया, जो सिद्धांत रूप से गलत है। क्योंकि महाराजा ने पूरे कश्मीर का विलय भारत में चाहा था, विभाजित कश्मीर का नहीं। इसके बाद धीरे–धीरे घाटी से मुस्लिमों के अतिरिक्त अन्य धर्मावलंबियों को छल से या बल से बाहर कर दिया गया। आज भी ऐसे कई परिवार है जो कश्मीर में अपनी जमीन–जायदाद छोड़कर देश के कई भागों में शरणार्थियों के रूप में जी रहें है।
भारत पाकिस्तान का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ था, और दुनिया में सिर्फ इस विभाजन को छोड़ दे तो सभी जगह भूमि के साथ जनता ने अपने को विभाजित किया है, बुल्गारिया –तुर्की ,पौलैंड –जर्मनी ,बोस्निया –सर्बिया सहित पाकिस्तान और बंगलादेश ने भी विभाजन के बाद अन्य धर्मों के लोगो को बाहर का रास्ता दिखा दिया या फिर पीड़ित और प्रताडित किया। घाटी में मुस्लिम आबादी की अधिकता को देखकर पाकिस्तान इस पर अपने दांत गडाये बैठा है ,तो हमारे धर्मनिरपेक्ष स्वरुप के कारण ये हमारे लिए भी प्रतिष्ठा की बात है। सैंतालीस से कारगिल तक और आज भी इस भूमि पर स्वामित्व का संघर्ष जारी है। लेकिन ये प्रतिष्ठा की लड़ाई अब तक ना जाने कितने ही मानव और अर्थ संसाधन लील चुकी है और नतीजा सिफर है। कश्मीर में कानून –व्यवस्था राज्य सरकार का जिम्मा है फिर केंद्र सरकारों को भी अपनी पूरी दम–ख़म का इस्तेमाल करना पड़ रहा है।
कश्मीर उस सोये हुए ज्वालामुखी के सामान हो गया है ,जो अचानक कभी भी फट पड़ता है और परेशानी इस बात की है कि कोई भी इसकी तीव्रता का अंदाज नहीं लग सकता। कांग्रेस और मुफ्ती सईद की पिछली सरकार के समय ये ज्वालामुखी लगभग शांत सा बना रहा और पर्यटकों ने फिर कश्मीर को अपने कार्यक्रमों में शामिल कर लिया था, लेकिन कांग्रेस के हिस्से की सरकार के दौरान अमरनाथ यात्रा से उपजे विवाद ने जो माहौल खराब किया,तब से लेकर अब तक दिन –ब –दिन हालात खराब होते जा रहें है और उसे उमर अब्दुल्ला की वर्तमान सरकार भी नहीं सम्हाल पा रही है। इस आग में घी का कम एक लेखिका के बयान ने कर दिया जो सदा ही नक्सलियों और अलगाववादियों के साथ है। ,इस बयान की ध्वनि और अलगाववादियों के सुर एक से लगते है, जो किसी भारतीय को ललकारते से प्रतीत हो रहें है। सर्व –दलीय संसदीय दल के दौरे के विफलता के बाद नियुक्त तीन वार्ताकारों से कुछ आस बंधी थी के ये गैर राजनीतिक लोग शायद कुछ कर सके पर अफ़सोस की ऐसा कुछ भी नहीं दिख रहा। इन नव नियुक्त वार्ताकारों का दल भी असफलता के पथ पर जाते दिख रहा है।
भारत में कम्युनिस्ट मांग कर रहें है के कश्मीर के लिए एक विधिवत गठित संसदीय समित हो जो कश्मीर और जम्मू में लोगों से बात करे साथ ही विशेष सेना शक्ति अधिनियम को वापस लिया जाये, क्यो कि इस अधिनियम की आड़ में सेना कथित रूप से मानव अधिकारों का हनन का करती है, यद्यपि ये अधिनियम उत्तर-पूर्व के राज्यों में भी लागू है। इस तरह से सरकार में शामिल दलों और विपक्षी दलों की सोच भी एकरूप नहीं है।
अमरीकी राष्ट्रपति की भारत यात्रा ने इस विवाद को और भी गरमा दिए है और कश्मीर के अलगाववादियों ने ओबामा से बहुत उम्मीद बांध रखी है। हुर्रियत कांफ्रेंस ने तो ब-कायदा ५ नवम्बर तक एक हस्ताक्षर अभियान भी चलाया है ,इन हस्ताक्षरों को ६ नवम्बर को दिल्ली में अमरीकी दूतावास को सौंपा जायेगा। इस अभियान के द्वारा हुर्रियत अमेरिकी प्रमुख से ये अपील करना चाहती है कि कश्मीर के मसले पर अमरीकी सोच में बदलाव आये और भारत पर ये दवाब बनाया जाये की कश्मीर में जनमत संग्रह कर वह के लोगो की राय के हिसाब से इस मामले को हल किया जाये।
इस समस्या ने इस मिथक को भी तोड़ दिया की विकास की योजनाओं और बुनियादी अवशक्ताओ की पूर्ति से किसी भी समस्या का हल ढूंढा जा सकता है, कश्मीर में वो सब प्रयास विफल रहे है। वो हाथ जो डल झील में नाव चलाते थे, अब पत्थर-बाजी में शरीक है।
इन स्थितियों में तो ऐसा लगता है काश आज सरदार पटेल के कद और राजनीतिक दृढता वाला कोई नेता देश में होता तो अब तक ये विवाद कब का हल हो गया होता। हम एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी बिना नतीजा तक इस समस्या को स्थानान्तरित तो कर ही चुके है। अब तो कोई कड़ा और कड़वा निर्णय ही कश्मीर समस्या का हल दे पायेगा। नहीं तो यह विवाद ऐसे ही धधकता रहेगा और हमारे बहुमूल्य संसाधनों को ईधन के रूप में डकारता रहेगा.

मुस्लिम तुष्टिकरण

जिस देश का गृहमंत्री अपने ही देश के बहुसंख्यक समाज को आतंकवादी कहे जबकि वह उसी समाज का हिस्सा है, तो यह सोचना होगा कि वह कहीं मानसिक दिवालियेपन का शिकार तो नहीं हो रहे या फिर इसके पीछे उनका कोई स्वार्थ है। लेकिन इस दिवालियेपन का शिकार तो उस सरकार के मुखिया प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी है जिन्होंने उन लोगों को स्वायत्ताता अर्थात लगभग आजादी का आश्वासन दे दिया है जो भारत का तिरंगा जलाते है, भारत की फौज पर हमला करते है, भारत मुर्दाबाद के नारे लगाते है। किसी भी देश की सरकार के इस प्रकार के बयानो को क्या देशहित मे कहेंगे जो देश को पुन: विभाजन की और धकेल रहे है।
आजादी के समय से ही इस सोच का भारत में विकास होना शुरू हो गया था। वर्तमान सरकार के पितृपुरुष तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरुजी ने इसकी नींव कश्मीर में रखी थी। 20 अक्टुबर 1947 को पाकिस्तानी सेना व कबाईलियो ने कश्मीर पर कब्जा करने के लिये हमला किया महाराजा की सेना के मुस्लिम सिपाहियो ने पाक सेना के साथ चली गयी। पाकिस्तानी सेना के इस हमले का करारा जवाब हमारी फौजो ने देना ही शुरु किया था कि नेहरु जी ने आल इन्डिया रेडियों पर घोषणा कर दी कि भारतीय फौजे जहाँ है वही रुक जाये, हम शान्ति विराम की घोषणा करते है साथ ही जनमत संग्रह का आश्वासन कश्मीरी जनता को देते है। उनकी इस घोषणा के बाद कश्मीर का एक तिहाई क्षेत्र पाकिस्तान के कब्जे में चला गया। तबसे आज तक पाकिस्तान भारत पर निगाहे गढ़ाये बैठा है। हमारी सरकार ने भी कश्मीरियों को भारत से जोड़ने के नाम पर उस राज्य के अन्य क्षेत्र जम्मू और लद्दाख की इतनी उपेक्षा की जिसकी हद नहीं। जरा इन आंकड़ो का ध्यान करें :
- जम्मू कश्मीर राज्य का क्षेत्रफल 1947 में 2,22,236 वर्ग कि.मी. था जो आज घटकर 1,01,387 वर्ग कि.मी. रह गया है। आज पाकिस्तान ने 78,114 वर्ग कि.मी. व चीन ने 42735 वर्ग कि.मी भूमि पर कब्जा किया हुआ है। यह हमारी राजनैतिक कमजोरी का परिणाम है।
- जम्मू का क्षेत्रफल 26,293 वर्ग कि.मी., कश्मीर का क्षेत्रफल 15853 वर्ग कि.मी. व लद्दाख का क्षेत्रफल 59241 वर्ग कि.मी. है।
- जम्मू की जनसंख्या लगभग 25 लाख व कश्मीर की जनसंख्या 24 लाख के आसपास है इसमें से लगभग 5 लाख कश्मीरी पण्डित पूरे देश में विस्थापितों का जीवन बिता रहे है। दोनो क्षेत्रो की लगभग समान जनसंख्या होने के बावजूद 37 विधानसभा सीटे जम्मू में, 4 विधानसभा सीटे लद्दाख में व 46 सीटें कश्मीर में रखी गयी। इन नौ सीटो के अन्तर ने आज तक गैर कश्मीरी और गैर मुस्लिम को जम्मू कश्मीर राज्य का मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया। क्या यह बगैर योजना के सम्भव है।
- जम्मू और लद्दाख के साथ यह भेदभाव अन्य क्षेत्रों में भी बरता गया है। जैसे राजस्व प्राप्ति जम्मू से 70 प्रतिशत व कश्मीर से 30 प्रतिशत होती है। लेकिन विकास के नाम पर जम्मू पर 28 प्रतिशत, लद्दाख पर 10 प्रतिशत व कश्मीर पर 62 प्रतिशत खर्च होता है।
- पूरे जम्मू में व्यवस्था देखने के लिये 4 कमिश्नर है जबकि कश्मीर में 31 कमिश्नर/सचिव है।
- रोजगार के नाम पर केवल 10 प्रतिशत कर्मचारी ही जम्मू से प्रशासनिक सेवाओं में है जबकि कश्मीर से 90 प्रतिशत।
- केन्द्र सरकार से सम्बन्धित सभी विभागों एवं 13 राज्य निगमों के मुख्यालय कश्मीर में है जिसमें सभी कर्मचारी कश्मीरी है।
इस तुष्टिकरण के बाद भी कश्मीर शांत नहीं है। कश्मीर घाटी का यह विवाद जिसका खामियाजा आज पुरा भारत आतंकवाद के रुप में भुगत रहा है, इसे प्रधानमंत्री स्वायत्ताता के नाम पर हवा दे रहे है। क्या यह भारत को पुन: विभाजन की और धकेलना नही है।
क्या यह तुष्टिकरण कभी रुकेगा जिसके अनुगामी केवल नेहरू गांधी वंशज ही नही अन्य नेता भी हो रहे है। मुस्लिम तुष्टिकरण के नाम पर शुरू हुये इस सत्ता के खेल ने आज हिन्दु समाज को भी भगवा आतंकवादी करार दे दिया है। कहीं इस तुष्टिकरण ने हिन्दु समाज को एक समुह मे इकठ्रठा कर दिया तो नेहरू गांधी वंशज व उनके विचार के अनुगामी नेता सोच ले उनका किया हश्र होगा।

इस बहादुर विधवा की दर्दनाक आपबीती से मनमोहन सिंह की नींद उचाट नहीं होती


आप सभी को याद होगा कि किस तरह से ऑस्ट्रेलिया में एक डॉक्टर हनीफ़ को वहाँ की सरकार ने जब गलती से आतंकवादी करार देकर गिरफ़्तार कर लिया था, उस समय हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी ने बयान दिया था कि “हनीफ़ पर हुए अत्याचार से उनकी नींद उड़ गई है…” और उस की मदद के लिये सरकार हरसंभव प्रयास करेगी। डॉक्टर हनीफ़ के सौभाग्य कहिये कि वह ऑस्ट्रेलिया में कोर्ट केस भी जीत गया, ऑस्ट्रेलिया सरकार ने उससे लिखित में माफ़ी भी माँग ली है एवं उसे 10 लाख डॉलर की क्षतिपूर्ति राशि भी मिलेगी…

अब चलते हैं सऊदी अरब… डॉक्टर शालिनी चावला इस देश को कभी भूल नहीं सकतीं… यह बर्बर इस्लामिक देश, रह-रहकर उन्हें सपने में भी डराता रहेगा, भले ही मनमोहन जी चैन की नींद लेते रहें…डॉक्टर शालिनी एवं डॉक्टर आशीष चावला की मुलाकात दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में हुई, दोनों में प्रेम हुआ और 10 साल पहले उनकी शादी भी हुई। आज से लगभग 4 वर्ष पहले दोनों को सऊदी अरब के किंग खालिद अस्पताल में नौकरी मिल गई और वे वहाँ चले गये। डॉ आशीष ने वहाँ कार्डियोलॉजिस्ट के रुप में तथा डॉ शालिनी ने अन्य मेडिकल विभाग में नौकरी ज्वाइन कर ली। सब कुछ अच्छा-खासा चल रहा था, लेकिन नियति को कुछ और ही मंज़ूर था…
जनवरी 2010 (यानी लगभग एक साल पहले) में डॉक्टर आशीष चावला की मृत्यु हार्ट अटैक से हो गई, अस्पताल की प्रारम्भिक जाँच रिपोर्ट में इसे Myocardial Infraction बताया गया था अर्थात सीधा-सादा हार्ट अटैक, जो कि किसी को कभी भी आ सकता है। यह डॉ शालिनी पर पहला आघात था। शालिनी की एक बेटी है दो वर्ष की, एवं जिस समय आशीष की मौत हुई उस समय शालिनी गर्भवती थीं तथा डिलेवरी की दिनांक भी नज़दीक ही थी। बेटी का खयाल रखने व गर्भावस्था में आराम करने के लिये शालिनी ने अपनी नौकरी से इस्तीफ़ा पहले ही दे दिया था। इस भीषण शारीरिक एवं मानसिक अवस्था में डॉ शालिनी को अपने पति का शव भारत ले जाना था… जो कि स्थिति को देखते हुए तुरन्त ले जाना सम्भव भी नहीं था…।
फ़िर 10 फ़रवरी 2010 को शालिनी ने एक पुत्र “वेदांत” को जन्म दिया, चूंकि डिलेवरी ऑपरेशन (सिजेरियन) के जरिये हुई थी, इसलिये शालिनी को कुछ दिनों तक बिस्तर पर ही रहना पड़ा…ज़रा इस बहादुर स्त्री की परिस्थिति के बारे में सोचिये… उधर दूसरे अस्पताल में पति का शव पड़ा हुआ है, दो वर्ष की बेटी की देखभाल, नवजात शिशु की देखभाल, ऑपरेशन की दर्दनाक स्थिति से गुज़रना… कैसी भयानक मानसिक यातना सही होगी डॉ शालिनी ने…
लेकिन रुकिये… अभी विपदाओं का और भी वीभत्स रुप सामने आना बाकी था…
1 मार्च 2010 को नज़रान (सऊदी अरब) की पुलिस ने डॉ शालिनी को अस्पताल में ही नोटिस भिजवाया कि ऐसी शिकायत मिली है कि “आपके पति ने मौत से पहले इस्लाम स्वीकार कर लिया था एवं शक है कि उसने अपने पति को ज़हर देकर मार दिया है”। इन बेतुके आरोपों और अपनी मानसिक स्थिति से बुरी तरह घबराई व टूटी शालिनी ने पुलिस के सामने तरह-तरह की दुहाई व तर्क रखे, लेकिन उसकी एक न सुनी गई। अन्ततः शालिनी को उसके मात्र 34 दिन के नवजात शिशु के साथ पुलिस कस्टडी में गिरफ़्तार कर लिया गया व उससे कहा गया कि जब तक उसके पति डॉ आशीष का दोबारा पोस्टमॉर्टम नहीं होता व डॉक्टर अपनी जाँच रिपोर्ट नहीं दे देते, वह देश नहीं छोड़ सकती। डॉ शालिनी को शुरु में 25 दिनों तक जेल में रहना पड़ा, ज़मानत पर रिहाई के बाद उसे अस्पताल कैम्पस में ही अघोषित रुप से नज़रबन्द कर दिया गया, उसकी प्रत्येक हरकत पर नज़र रखी जाती थी…। चूंकि नौकरी भी नहीं रही व स्थितियों के कारण आर्थिक हालत भी खराब हो चली थी इसलिये दिल्ली से परिवार वाले शालिनी को पैसा भेजते रहे, जिससे उसका काम चलता रहा… लेकिन उन दिनों उसने हालात का सामना बहुत बहादुरी से किया। जिस समय शालिनी जेल में थी तब यहाँ से गई हुईं उनकी माँ ने दो वर्षीय बच्ची की देखभाल की। शालिनी के पिता की दो साल पहले ही मौत हो चुकी है…
डॉ आशीष का शव अस्पताल में ही रखा रहा, न तो उसे भारत ले जाने की अनुमति दी गई, न ही अन्तिम संस्कार की। डॉक्टरों की एक विशेष टीम ने दूसरी बार पोस्टमॉर्टम किया तथा ज़हर दिये जाने के शक में “टॉक्सिकोलोजी व फ़ोरेंसिक विभाग” ने भी शव की गहन जाँच की। अन्त में डॉक्टरों ने अपनी फ़ाइनल रिपोर्ट में यह घोषित किया कि डॉ आशीष को ज़हर नहीं दिया गया है उनकी मौत सामान्य हार्ट अटैक से ही हुई, लेकिन इस बीच डॉ शालिनी का जीवन नर्क बन चुका था। इन बुरे और भीषण दुख के दिनों में भारत से शालिनी के रिश्तेदारों ने सऊदी अरब स्थित भारत के दूतावास से लगातार मदद की गुहार की, भारत स्थित सऊदी अरब के दूतावास में भी विभिन्न सम्पर्कों को तलाशा गया लेकिन कहीं से कोई मदद नहीं मिली, यहाँ तक कि तत्कालीन विदेश राज्यमंत्री शशि थरुर से भी कहलवाया गया, लेकिन सऊदी अरब सरकार ने “कानूनों”(?) का हवाला देकर किसी की नहीं सुनी। मनमोहन सिंह की नींद तब भी खराब नहीं हुई…
शालिनी ने अपने बयान में कहा कि आशीष द्वारा इस्लाम स्वीकार करने का कोई सवाल ही नहीं उठता था, यदि ऐसा कोई कदम वे उठाते तो निश्चित ही परिवार की सहमति अवश्य लेते, लेकिन मुझे नहीं पता कि पति को ज़हर देकर मारने जैसा घिनौना आरोप मुझ पर क्यों लगाया जा रहा है।
इन सारी दुश्वारियों व मानसिक कष्टों के कारण शालिनी की दिमागी हालत बहुत दबाव में आ गई थी एवं वह गुमसुम सी रहने लगी थी, लेकिन उसने हार नहीं मानी और सऊदी प्रशासन से लगातार न्याय की गुहार लगाती रही। अन्ततः 3 दिसम्बर 2010 को सऊदी सरकार ने यह मानते हुए कि डॉ आशीष की मौत स्वाभाविक है, व उन्होंने इस्लाम स्वीकार नहीं किया था, शालिनी चावला को उनका शव भारत ले जाने की अनुमति दी। डॉ आशीष का अन्तिम संस्कार 8 दिसम्बर (बुधवार) को दिल्ली के निगमबोध घाट पर किया गया… आँखों में आँसू लिये यह बहादुर महिला तनकर खड़ी रही, डॉ शालिनी जैसी परिस्थितियाँ किसी सामान्य इंसान पर बीतती तो वह कब का टूट चुका होता…
यह घटनाक्रम इतना हृदयविदारक है कि मैं इसका कोई विश्लेषण नहीं करना चाहता, मैं सब कुछ पाठकों पर छोड़ना चाहता हूँ… वे ही सोचें…
1) डॉ हनीफ़ और डॉ शालिनी के मामले में कांग्रेस सरकार के दोहरे रवैये के बारे में सोचें…


2) ऑस्ट्रेलिया सरकार एवं सऊदी सरकार के बर्ताव के अन्तर के बारे में सोचें…


3) भारत में काम करने वाले, अरबों का चन्दा डकारने वाले, मानवाधिकार और महिला संगठनों ने इस मामले में क्या किया, यह सोचें…


4) डॉली बिन्द्रा, वीना मलिक जैसी छिछोरी महिलाओं के किस्से चटखारे ले-लेकर दिन-रात सुनाने वाले “जागरुक” व “सबसे तेज़” मीडिया ने इस महिला पर कभी स्टोरी चलाई? इस बारे में सोचें…

5) भारत की सरकार का विदेशों में दबदबा(?), भारतीय दूतावासों के रोल और शशि थरुर आदि की औकात के बारे में भी सोचें…


और हाँ… कभी पैसा कमाने से थोड़ा समय फ़्री मिले, तो इस बात पर भी विचार कीजियेगा कि फ़िजी, मलेशिया, पाकिस्तान, बांग्लादेश, सऊदी अरब और यहाँ तक कि कश्मीर, असम, बंगाल जैसी जगहों पर हिन्दू क्यों लगातार जूते खाते रहते हैं? कोई उन्हें पूछता तक नहीं…

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विषय से जुड़ा एक पुराना मामला –
जो लोग “सेकुलरिज़्म” के गुण गाते नहीं थकते, जो लोग “तथाकथित मॉडरेट इस्लाम”(?)की दुहाईयाँ देते रहते हैं, अब उन्हें डॉ शालिनी के साथ-साथ, मलेशिया के श्री एम मूर्ति के मामले (2006) को भी याद कर लेना चाहिये, जिसमें उसकी मौत के बाद मलेशिया की “शरीयत अदालत” ने कहा था कि उसने मौत से पहले इस्लाम स्वीकार कर लिया था। परिवार के विरोध और न्याय की गुहार के बावजूद उन्हें इस्लामी रीति-रिवाजों के अनुसार दफ़नाया गया था। जी नहीं… एम मूर्ति, भारत से वहाँ नौकरी करने नहीं गये थे, मूर्ति साहब मलेशिया के ही नागरिक थे, और ऐसे-वैसे मामूली नागरिक भी नहीं… माउंट एवरेस्ट पर चढ़ाई की थी, मलेशिया की सेना में लेफ़्टिनेंट रहे, मलेशिया की सरकार ने उन्हें सम्मानित भी किया था… लेकिन क्या करें, दुर्भाग्य से वह “हिन्दू” थे…। विस्तार से यहाँ देखें…http://en.wikipedia.org/wiki/Maniam_Moorthy
भारत की सरकार जो “अपने नागरिकों” (वह भी एक विधवा महिला) के लिये ही कुछ नहीं कर पाती, तो मूर्ति जी के लिये क्या करती…? और फ़िर जब “ईमानदार लेकिन निकम्मे बाबू” कह चुके हैं कि “देश के संसाधनों पर पहला हक मुस्लिमों का है…” तो फ़िर एक हिन्दू विधवा का दुख हो या मुम्बई के हमले में सैकड़ों मासूम मारे जायें… वे अपनी नींद क्यों खराब करने लगे?
बहरहाल, पहले मुगलों, फ़िर अंग्रेजों, और अब गाँधी परिवार की गुलामी में व्यस्त, “लतखोर” हिन्दुओं को अंग्रेजी नववर्ष की शुभकामनाएं… क्योंकि वे मूर्ख इसी में “खुश” भी हैं…। विश्वास न आता हो तो 31 तारीख की रात को देख लेना…।
डॉ शालिनी चावला, मैं आपको दिल की गहराईयों से सलाम करता हूँ और आपका सम्मान करता हूँ, जिस जीवटता से आपने विपरीत और कठोर हालात का सामना किया, उसकी तारीफ़ के लिये शब्द नहीं हैं मेरे पास…

(…समाप्त)