Saturday 19 March 2011

विविधता में एकता की प्रतीक : होली

विविधता में एकता की प्रतीक : होली

होली को लेकर देश के विभिन्न अंचलों में तमाम मान्यतायें हैं और शायद यही विविधता में एकता की भारतीय संस्कृति का परिचायक भी है। उत्तर पूर्व भारत में होलिका दहन को भगवान कृष्ण द्वारा राक्षसी पूतना के वध दिवस से जोड़कर पूतना दहन के रूप में मनाया जाता है तो दक्षिण भारत में मान्यता है कि इसी दिन भगवान शिव ने कामदेव को तीसरा नेत्र खोल भस्म कर दिया था और उनकी राख को अपने शरीर पर मल कर नृत्य किया था। तत्पश्चात कामदेव की पत्नी रति के दुख से द्रवित होकर भगवान शिव ने कामदेव को पुनर्जीवित कर दिया, जिससे प्रसन्न हो देवताओं ने रंगों की वर्षा की। इसी कारण होली की पूर्व संध्या पर दक्षिण भारत में अग्नि प्रज्जवलित कर उसमें गन्ना, आम की बौर और चन्दन डाला जाता है। यहाँ गन्ना कामदेव के धनुष, आम की बौर कामदेव के बाण, प्रज्वलित अग्नि शिव द्वारा कामदेव का दहन एवं चन्दन की आहुति कामदेव को आग से हुई जलन हेतु शांत करने का प्रतीक है।
मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले में अवस्थित धूंधड़का गाँव में होली तो बिना रंगों के खेली जाती है और होलिकादहन के दूसरे दिन ग्रामवासी अमल कंसूबा (अफीम का पानी) को प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं और सभी ग्रामीण मिलकर उन घरों में जाते हैं जहाँ बीते वर्ष में परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु हो चुकी होती है। उस परिवार को सांत्वना देने के साथ होली की खुशी में शामिल किया जाता है।

बरसाने की लट्ठमार होली

बरसाने की लट्ठमार होली

होली की रंगत बरसाने की लट्ठमार होली के बिना अधूरी ही कही जायेगी। कृष्ण-लीला भूमि होने के कारण फाल्गुन शुक्ल नवमी को ब्रज में बरसाने की लट्ठमार होली का अपना अलग ही महत्व है। इस दिन नन्दगाँव के कृष्णसखा ‘हुरिहारे’ बरसाने में होली खेलने आते हैं, जहाँ राधा की सखियाँ लाठियों से उनका स्वागत करती हैं। सखागण मजबूत ढालों से अपने शरीर की रक्षा करते हैं एवं चोट लगने पर वहाँ ब्रजरज लगा लेते हैं। बरसाने की होली के दूसरे दिन फाल्गुन शुक्ल दशमी को सायंकाल ऐसी ही लट्ठमार होली नन्दगाँव में भी खेली जाती है। अन्तर मात्र इतना है कि इसमें नन्दगाँव की नारियाँ बरसाने के पुरूषों का लाठियों से सत्कार करती हैं। इसी प्रकार बनारस की होली का भी अपना अलग अन्दाज है। बनारस को भगवान शिव की नगरी कहा गया है। यहाँ होली को रंगभरी एकादशी के रूप में मनाते हैं और बाबा विश्वनाथ के विशिष्ट श्रृंगार के बीच भक्त भांग व बूटी का आनन्द लेते हैं।

यूँ आरंभ हुआ होलिका-दहन व होली

होली भारतीय समाज का एक प्रमुख त्यौहार है, जिसका लोग बेसब्री के साथ इंतजार करते हैं। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग रूपों में होली मनाई जाती है। रबी की फसल की कटाई के बाद वसन्त पर्व में मादकता के अनुभवों के बीच मनाया जाने वाला यह पर्व उत्साह और उल्लास का परिचायक है। अबीर-गुलाल व रंगों के बीच भांग की मस्ती में फगुआ गाते इस दिन क्या बूढे व क्या बच्चे, सब एक ही रंग में रंगे नजर आते हैं।

नारद पुराण के अनुसार दैत्य राज हिरण्यकश्यप को यह घमंड था कि उससे श्रेष्ठ दुनिया में कोई नहीं, अत: लोगों को ईश्वर की पूजा करने की बजाय उसकी पूजा करनी चाहिए। पर उसका बेटा प्रहलाद जो कि विष्णु भक्त था, ने हिरण्यकश्यप की इच्छा के विरूद्ध ईश्वर की पूजा जारी रखी। हिरण्यकश्यप ने प्रहलाद को प्रताड़ित करने हेतु कभी उसे ऊंचे पहाड़ों से गिरवा दिया, कभी जंगली जानवरों से भरे वन में अकेला छोड़ दिया पर प्रहलाद की ईश्वरीय आस्था टस से मस न हुयी और हर बार वह ईश्वर की कृपा से सुरक्षति बच निकला। अंतत: हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका जिसके पास एक चमत्कारी चुनरी थी, जिसे ओढ़ने के बाद अग्नि में भस्म न होने का वरदान प्राप्त था, की गोद में प्रहलाद को चिता में बिठा दिया ताकि प्रहलाद भस्म हो जाय। पर होनी को कुछ और ही मंजूर था, ईश्वरीय वरदान के गलत प्रयोग के चलते चुनरी ने उड़कर प्रहलाद को ढक लिया और होलिका जल कर राख हो गयी और प्रहलाद एक बार फिर ईश्वरीय कृपा से सकुशल बच निकला। दुष्ट होलिका की मृत्यु से प्रसन्न नगरवासियों ने उसकी राख को उड़ा-उड़ा कर खुशी का इजहार किया। मान्यता है कि आधुनिक होलिका दहन और उसके बाद अबीर-गुलाल को उड़ाकर खेले जाने वाली होली इसी पौराणिक घटना का स्मृति प्रतीक है।

होलिका दहन पर ग्रह अनुकूलन के उपाय

होलिका दहन पर ग्रह अनुकूलन के उपाय

होलिका दहन के शुभ मुहूर्त क ा निर्धारण भारतीय ज्योतिष शास्त्र द्वारा किया जाता है। होलिका दहन के समय हम किस दिशा में खड़े होकर कौन सी समिधा डालें इस बात की जानकारी रखें और इसी आधार पर होली पूजन करें तो नवग्रह अनुकूलन में बहुत ही सफलता प्राप्त होगी। द्वादश राशियों को किस दिशा, किस समिधा और किस पुष्प से एवं किस मिठाई को बांटना चाहिए इसकी जानकारी मैं यहाँ दे रहा हूँ। यह विशुध्द रूप से अथर्ववेद पर आधारित विशेषण है। इस विधि से पूजा करने पर जीवन में सुख-शांति अवश्य आएगी। वेदों तथा शास्त्रों में होलिका दहन से जुड़े विभिन्न तथ्यों पर विस्तृत चर्चा की गई है। जिनमें अथर्ववेद में नक्षत्रों के वर्णन के साथ ही प्रार्थना भी की गई है कि पूर्वा एवं उत्तराफाल्गुनी दोनों नक्षत्र मेंरे लिए सुखकारी हों। ध्यान देना होगा कि ज्योतिष शास्त्र अनंत तक से जुड़े विभिन्न पहलुओं की जानकारी देता है। इसी शास्त्र के मौलिक नियमों को ध्यान में रखते हुए हम धन-धान्य की वृद्धि तथा परिवार के कल्याण के लिए अपनी राशि के अनुसार होलिका दहन के समय उपस्थित रहकर खड़े होने का स्थान चुन सकते हैं। फिर होलिका की तीन परिक्रमा कर व मिष्ठान वितरित कर इस उत्सव को ज्यादा सुखकारी बना सकते हैं। ध्यान रखना होगा कि सपरिवार शामिल होते समय परिवार के मुखिया की राशि को मान्यता दी जाती है। मेष:- इस राशि के जातक होलिका दहन के स्थल पर खैर या नीम की समिधा और लाल पुष्प व अक्षत लेकर होलिका की परिक्रमा करें और पूर्व (East) अथवा दक्षिण-पूर्व (South East)दिशा में खड़े होकर हाथ की सामग्री को होलिका में डाल दें तथा होलिका दहन के बाद गाजर का हल्वा वितरित करें।
वृषभ:- इस राशि के जातक गूलर की समिधा और मोगरे के फूल व अक्षत को हाथ में लेकर होलिका की परिक्रमा करने के बाद दक्षिण-पूर्व (South East) दिशा में खड़े होकर होलिका में सारी सामग्री डाल दें तथा होलिका दहन के बाद दूध-मावे से बने मिष्ठान्न बांटें।
मिथुन:- इस राशि के जातक होलिका दहन के समय अपामार्ग की समिधा और विभिन्न रंगों के पुष्प, अक्षत हाथ में लेकर होलिका की परिक्रमा करें एवं पश्चिम (West)अथवा दक्षिण-पश्चिम (South West)दिशा में खड़े होकर होलिका में सारी सामग्री डाल दें। होलिका दहन के बाद मूंग दाल का हल्वा बांटे।
कर्क:- इस राशि के जातक पलाश की समिधा और श्वेत पुष्प व अक्षत के साथ होलिका की परिक्रमा करें एवं उत्तर (North) अथवा उत्तर-पश्चिम (North West)दिशा में खडे होकर सारी सामग्री होलिका में डाल दें। होलिका दहन के बाद चावल से निर्मित मिष्ठान्न बांटे।
सिंह:- इस राशि के जातक होलिका दहन के समय आक व खेजरी शमी की समिधा और गुलाब के पुष्प व अक्षत हाथ में लेकर होलिका की परिक्रमा करें तथा पूर्व-दक्षिण (South East) में खड़े होकर सारी सामग्री होलिका में डालें। होलिका दहन के बाद केसर युक्त मिष्ठान्न वितरित करें।
कन्या:- इस राशि के जातक होलिका दहन के समय अपामार्ग की समिधा तथा पीले फूल व पत्तों समेत अक्षत लेकर परिक्रमा करें तथा दक्षिण दिशा (South)में खड़े होकर होलिका में सारी सामग्री डाल दें। होलिका दहन के बाद मूंग से बने पिस्ता युक्त मिष्ठान्न लोगों में बांटें।
तुला:- इस राशि के जातक होलिका दहन के समय गूलर की समिधा और श्वेत व सुगंधित पुष्प व अक्षत लेकर होलिका की परिक्रमा करें तथा पश्चिम दिशा (West)में खडे होकर होलिका में सारी सामग्री डाल दें। होलिका दहन के बाद नारियल से बने मिष्ठान्न वितरित करें।
वृश्चिक:- इस राशि के जातक होलिका दहन के समय खैर या नीम की समिधा के साथ लाल एवं सफेद अक्षत लेकर होलिका की परिक्रमा करें तथा उत्तर दिशा (North) में खड़े होकर होलिका में सारी सामग्री डाल दें। होलिका दहन के बाद छुहारे युक्त मिष्ठान्न का वितरण करें।
धनु:- इस राशि के जातक होलिका दहन के समय पीपल की समिधा और पीले कनेर के पुष्पयुक्त अक्षत लेकर परिक्रमा करें तथा पूर्व (East)अथवा ईशान दिशा (North East)में खड़े होकर होलिका में सारी सामग्री डाल दें। होलिका दहन के बाद चने के बेसन से बने मिष्ठान्न लोगों को वितरित करें।
मकर:- इस राशि के जातक होलिका दहन के समय शमी या कपास दण्ड की समिधा और काले या नीले पुष्पयुक्त अक्षत से होलिका की परिक्रमा करें तथा दक्षिण (South) अथवा पश्चिम (West)में खड़े होकर होलिका में सारी सामग्री डाल दें। होलिका दहन के बाद उड़द से बने मिष्ठान्न बांटे।
कुंभ:- होलिका दहन के समय इस राशि के जातक शमी अथवा जामुन की समिधा और हल्के नीले एवं लौंग पुष्पयुक्त अक्षत हाथ में लेकर होलिका की परिक्रमा करें तथा पश्चिम दिशा (West) में खड़े होकर होलिका में सारी सामग्री डाल दें। होलिका दहन के बाद सिंघाड़े से बने मिष्ठान्न का वितरण करें।
मीन:- इस राशि के जातक होलिका दहन के समय पीपल की समिधा और पीले एवं सफेद पुष्पयुक्त अक्षत लेकर होलिका में परिक्रमा करें और ईशान (North East)अथवा उत्तर दिशा (North)में खड़े होकर होलिका में सारी सामग्री डाल दें। होलिका दहन के समय केले का वितरण करें।

होलिका दहन कथा

होलिका दहन कथा


 


वैसे तो आप सभी यह पुराण कथा जानते ही हैं। लेकिन होली के मौके पर इसे फिर से याद करना, बुराई पर अच्छाई की जीत को व्याख्यातित करता है। कथा है-दानव राजा हिरण्यकश्यप को अहंकार था कि वही ईश्वर है। उसकी इच्छा के मुताबिक उसके राज्य में सभी उसी के नाम का जाप करते थे। लेकिन उसका बेटा प्रह्लाद भगवान विष्णु का अटल भक्त था। पहले तो हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को बहुत समझाया। तरह- तरह के प्रलोभन दिए। कहा कि मैं ही तुम्हारा ईश्वर हूं। ईश्वर- फिश्वर कुछ नहीं होता। जो दिखाई नहीं देता, उसकी परवाह क्या करना। जब भगवान को किसी ने देखा ही नहीं है तो तुम क्यों उसके भक्त बने हो। हिरण्यकश्यप ने भगवान विष्णु के अस्तित्व को ही नकार दिया। लेकिन प्रह्लाद तो अटल भक्त था। उसे इस बात की चिंता नहीं थी उसके पिता क्रोध से उबल रहे हैं। वह तो नारायण, नारायण जपता रहता था और अकेले में ध्यान में मग्न रहता था। जब हिरण्यकश्यप ने देखा कि उसका बेटा उसकी बात नहीं सुनने वाला तो उसने उसकी हत्या की ठान ली। उसने तरह- तरह से उसे मारने की कोशिश की। लेकिन हर बार प्रह्लाद बच जाता था। तब उसने एक अनोखा उपाय सोचा। उसकी बहन को वरदान मिला हुआ था कि वह आग मे नहीं जल सकती। हिरण्यकश्यप ने चिता की तरह बड़ी सी आग जलवाई और होलिका को कहा कि वह प्रह्लाद को लेकर इस आग में बैठ जाए। होलिका खुश हो कर यह काम करने को तैयार हो गई। लेकिन आश्चर्य। होलिका जल कर राख हो गई और प्रह्लाद नारायण नारायण कहते हुए तब तक आग में बैठा रहा जब तक वह जलती रही। तब हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को एक खंभे में बांधा और तलवार उठा कर बोला- आज तुम्हारी हत्या हो कर रहेगी। बोलो क्या तुम्हारा विष्णु भगवान इस खंभे में है? प्रह्लाद बोला-
हममें, तुममें, खड्ग, खंभ में।घट, घट व्यापत राम।।
हिरण्यकश्यप अट्ठाहास करने लगा और उसने तलवार उठा कर अपने बेटे प्रह्लाद की गर्दन काटनी चाही। तभी भगवान विष्णु ने खंभे को फाड़ कर नृसिंहावतार लिया। हिरण्यकश्यप को वरदान था कि वह वह न दिन में मर सकता है न रात में। न जमीन पर मर सकता है और न आकाश या पाताल में। न मनुष्य उसे मार सकता है और न जानवर या पशु- पक्षी। इसीलिए भगवान उसे मारने का समय संध्या चुना और आधा शरीर सिंह का और आधा मनुष्य का- नृसिंह अवतार। नृसिंह भगवान ने हिरण्यकश्यप की हत्या न जमीन पर की न आसमान पर, बल्कि अपनी गोद में लेकर की। इस तरह बुराई की हार हुई और अच्छाई की विजय। यह कथा होली पर बार बार याद करने लायक है।

जंगल की होली

जंगल की होली    
लगा महीना फागुन का होली के दिन आए
इसीलिए वन के राजा ने सभी जीव बुलवाए
भालू आया बड़े ठाठ से शेर रह गया दंग
दुनिया भर के रंग उड़ेले चढ़ा न कोई रंग
हाथी जी की मोटी लंबी पूँछ बनी पिचकारी
खरगोश ने घिघियाकर मारी तब किलकारी
उसका बदला लेने आया वानर हुआ बेहाल
लगा-लगाकर थका बेचारा चौदह किलो गुलाल
मौका ताड़े खड़ी लोमड़ी रंगू गधे को आज
लगा दुलत्ती नो दो ग्यारह हो गए गर्दभराज
घायल हुई लोमड़ी उसको अस्पताल पहुँचाया
गर्दभ को जंगल के जज ने दंडित कर समझाया
होली है त्योहार प्रेम का मौका है अनमोल
भूलो देश खूब रंग खेलो गले मिलो दिल खोल
यहाँ राज है जंगल का सबको न्याय मिलेगा
वरना जग में हमें आदमी फिर बदनाम करेगा।

देश विदेश की होली

देश विदेश की होली
 
भारत के विभिन्न क्षेत्रों में भले ही विविध प्रकार से रंगों का उत्सव मनाया जाता है परंतु सबका उद्देश्य एवं भावना एक ही है। ब्रज मंडल में इस अवसर पर रास और रंग का मिश्रण देखते ही बनता है।
बरसाने' की लठमार होली फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की नवमी को मनाई जाती है। इस दिन नंद गाँव के ग्वाल बाल होली खेलने के लिए राधा रानी के गाँव बरसाने जाते हैं और विभिन्न मंदिरों में पूजा अर्चना के पश्चात जम कर बरसती लाठियों के साए में होली खेली जाती है। इस होली को देखने के लिए बड़ी संख्या में देश-विदेश से लोग 'बरसाना' आते हैं।
फालैन गाँव में विचित्र दृश्य देखने में आता है। मथुरा से ५३ किलोमीटर की दूरी पर स्थित फालैन की अनूठी होली अपने आप में एक कौतुक है। यह होली फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को आयोजित होती है। होली पर इस गाँव का एक पंडा मात्र एक अंगोछा शरीर पर धारण करके २०-२५ फुट घेरे वाली विशाल होली की धधकती आग में से निकल कर अथवा उसे फलांग कर दर्शकों में रोमांच पैदा कर देता है। यह पंडा वर्ष पर्यंत संयमपूर्वक नियमानुसार पूजा पाठ करता है जिससे वह ऐसी विकराल ज्वालाओं के मध्य कूदने का साहस कर पाता है। होली में से उसके सकुशल निकलने के उपलक्ष्य में उसे जन्म एवं विवाह इत्यादि अवसरों पर सम्मानपूर्वक निमंत्रित किया जाता है। खलिहान का पहला अनाज भी उसे अर्पित किया जाता है। फालैन गाँव के आस-पास के लोगों का मत है कि सैंकड़ों वर्षों से प्रह्लाद के आग से सकुशल बच जाने की घटना को, इस दृश्य के माध्यम से सजीव किया जाता है। इसलिए इस अवसर पर यहाँ लगने वाले मेले को 'प्रह्लाद मेला' कहा जाता है। इस गाँव में प्रह्लाद का एक भव्य मंदिर है। एक प्रह्लाद कुंड भी है।
मालवा में होली के दिन लोग एक दूसरे पर अंगारे फैंकते हैं। उनका विश्वास है कि इससे होलिका नामक राक्षसी का अंत हो जाता है।
पंजाब और हरियाणा में होली पौरुष के प्रतीक पर्व के रूप में मनाई जाती है। इसीलिए दशम गुरू गोविंद सिंह जी ने होली के लिए पुल्लिंग शब्द होला महल्ला का प्रयोग किया। गुरु जी इसके माध्यम से समाज के दुर्बल और शोषित वर्ग की प्रगति चाहते थे। होला महल्ला का उत्सव आनंदपुर साहिब में छ: दिन तक चलता है। इस अवसर पर, भांग की तरंग में मस्त घोड़ों पर सवार निहंग, हाथ में निशान साहब उठाए तलवारों के करतब दिखा कर साहस, पौरुष और उल्लास का प्रदर्शन करते हैं। जुलूस तीन काले बकरों की बलि से प्रारंभ होता है। एक ही झटके से बकरे की गर्दन धड़ से अलग करके उसके मांस से 'महा प्रसाद' पका कर वितरित किया जाता है। पंज पियारे जुलूस का नेतृत्व करते हुए रंगों की बरसात करते हैं और जुलूस में निहंगों के अखाड़े नंगी तलवारों के करतब दिखते हुए बोले सो निहाल के नारे बुलंद करते हैं। यह जुलूस हिमाचल प्रदेश की सीमा पर बहती एक छोटी नदी चरण गंगा के तट पर समाप्त होता है।
राजस्थान में भी होली के विविध रंग देखने में आते हैं। बाड़मेर में पत्थर मार होली खेली जाती है तो अजमेर में कोड़ा अथवा सांतमार होली कजद जाति के लोग बहुत धूम-धाम से मनाते हैं। हाड़ोती क्षेत्र के सांगोद कस्बे में होली के अवसर पर नए हिजड़ों को हिजड़ों की ज़मात में शामिल किया जाता है। इस अवसर पर 'बाज़ार का न्हाण' और 'खाड़े का न्हाण' नामक लोकोत्सवों का आयोजन होता है। खाडे के न्हाण में जम कर अश्लील भाषा का प्रयोग किया जाता है। राजस्थान के सलंबूर कस्बे में आदिवासी 'गेर' खेल कर होली मनाते हैं। उदयपुर से ७० कि. मि. दूर स्थित इस कस्बे के भील और मीणा युवक एक 'गेली' हाथ में लिए नृत्य करते हैं। गेली अर्थात एक लंबे बाँस पर घुंघरू और रूमाल का बँधा होना। कुछ युवक पैरों में भी घुंघरू बाँधकर गेर नृत्य करते हैं। इनके गीतों में काम भावों का खुला प्रदर्शन और अश्लील शब्दों और गालियों का प्रयोग होता है। जब युवक गेरनृत्य करते हैं तो युवतियाँ उनके समूह में सम्मिलित होकर फाग गाती हैं। युवतियाँ पुरुषों से गुड़ के लिए पैसे माँगती हैं। इस अवसर पर आदिवासी युवक-युवतियाँ अपना जीवन साथी भी चुनते हैं।
मध्य प्रदेश के भील होली को भगौरिया कहते हैं। भील युवकों के लिए होली अपने लिए प्रेमिका को चुनकर भगा ले जाने का त्योहार है। होली से पूर्व हाट के अवसर पर हाथों में गुलाल लिए भील युवक 'मांदल' की थाप पर सामूहिक नृत्य करते हैं। नृत्य करते-करते जब युवक किसी युवती के मुँह पर गुलाल लगाता है और वह भी बदले में गुलाल लगा देती है तो मान लिया जाता है कि दोनों विवाह सूत्र में बँधने के लिए सहमत हैं। युवती द्वारा प्रत्युत्तर न देने पर युवक दूसरी लड़की की तलाश में जुट जाता है। गुजरात के भील इसी प्रकार 'गोलगधेड़ो' नृत्य करते हैं। इसके अंतर्गत किसी बांस अथवा पेड़ पर गुड़ और नारियल बाँध दिया जाता है और उसके चारों ओर युवतियाँ घेरा बना कर नाचती हैं। युवक इस घेरे को तोड़कर गुड़ नारियल प्राप्त करने का प्रयास करता है जबकि युवतियों द्वारा उसका ज़बरदस्त विरोध होता है। इस विरोध से वह बुरी तरह से घायल भी हो जाता है। हर प्रकार की बाधा को पार कर यदि युवक गुड़ नारियल प्राप्त करने में सफल हो जाता है तो वह घेरे में नृत्य कर रही अपनी प्रेमिका अथवा किसी भी युवती के लिए होली का गुलाल उड़ाता है। वह युवती उससे विवाह करने को बाध्य होती है। इस परीक्षा में युवक न केवल बुरी तरह से घायल हो जाता है बल्कि कभी-कभी कोई व्यक्ति मर भी जाता है।
बस्तर में इस पर्व पर लोग 'कामुनी षेडुम' अर्थात कामदेव का बुत सजाते हैं। उसके साथ एक कन्या का विवाह किया जाता है। इसके उपरांत कन्या की चूड़ियाँ तोड़ दी जाती हैं और सिंदूर पोंछ कर विधवा का रूप दिया जाता है। बाद में एक चिता जला कर उसमें खोपरे भुन कर प्रसाद बाँटा जाता है। बनारस जैसी प्राचीन सांस्कृति नगरी में होली के अवसर पर भारी मात्रा में अश्लील पर्चे वितरित किए जाते हैं। शांति निकेतन में होली अत्यंत सादगी और शालीनतापूर्वक मनाई जाती है। प्रात: गुरु को प्रणाम करने के पश्चात अबीर गुलाल का उत्सव, जिसे 'दोलोत्सव' कहा जाता है, मनाते हैं। पानी मिले रंगों का प्रयोग नहीं होता। सायंकाल यहाँ रवींद्र संगीत की स्वर लहरी सारे वातावरण को गरिमा प्रदान करती है। भारत के अन्य भागों से पृथक बंगाल में फाल्गुन पूर्णिमा पर कृष्ण प्रतिमा का झूला प्रचलित है। इस दिन श्री कृष्ण की मूर्ति को एक वेदिका पर रख कर सोलह खंभों से युक्त एक मंडप के नीचे स्नान करवा कर सात बार झुलाने की परंपरा है।
मणिपुर में होली का पर्व 'याओसांग' के नाम से मनाया जाता है। यहाँ दुलेंडी वाले दिन को 'पिचकारी' कहा जाता है। याओसांग से अभिप्राय उस नन्हीं-सी झोंपड़ी से है जो पूर्णिमा के अपरा काल में प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है। इसमें चैतन्य महाप्रभु की प्रतिमा स्थापित की जाती है और पूजन के बाद इस झोंपड़ी को होली के अलाव की भाँति जला दिया जाता है। इस झोंपड़ी में लगने वाली सामग्री ८ से १३ वर्ष तक के बच्चों द्वारा पास पड़ोस से चुरा कर लाने की परंपरा है। याओसांग की राख को लोग अपने मस्तक पर लगाते हैं और घर ले जा कर तावीज़ बनवाते हैं। 'पिचकारी' के दिन रंग-गुलाल-अबीर से वातावरण रंगीन हो उठता है। बच्चे घर-घर जा कर चावल सब्ज़ियाँ इत्यादि एकत्र करते हैं। इस सामग्री से एक बड़े सामूहिक भोज का आयोजन होता है।
प्राचीन काल से अविरल होली मनाने की परंपरा को मुगलों के शासन में भी अवरुद्ध नहीं किया गया बल्कि कुछ मुगल बादशाहों ने तो धूमधाम से होली मनाने में अग्रणी भूमिका का निर्वाह किया। अकबर, हुमायूँ, जहाँगीर, शाहजहाँ और बहादुरशाह ज़फर होली के आगमन से बहुत पहले ही रंगोत्सव की तैयारियाँ प्रारंभ करवा देते थे। अकबर के महल में सोने चाँदी के बड़े-बड़े बर्तनों में केवड़े और केसर से युक्त टेसू का रंग घोला जाता था और राजा अपनी बेगम और हरम की सुंदरियों के साथ होली खेलते थे। शाम को महल में उम्दा ठंडाई, मिठाई और पान इलायची से मेहमानों का स्वागत किया जाता था और मुशायरे, कव्वालियों और नृत्य-गानों की महफ़िलें जमती थीं। जहाँगीर के समय में महफ़िल-ए-होली का भव्य कार्यक्रम आयोजित होता था। इस अवसर पर राज्य के साधारण नागरिक बादशाह पर रंग डालने के अधिकारी होते थे। शाहजहाँ होली को 'ईद गुलाबी' के रूप में धूमधाम से मनाता था। बहादुरशाह ज़फर होली खेलने के बहुत शौकीन थे और होली को लेकर उनकी सरस काव्य रचनाएँ आज तक सराही जाती हैं। मुगल काल में होली के अवसर पर लाल किले के पिछवाड़े यमुना नदी के किनारे और जहाँ आरा के बाग में होली के मेले भरते थे।
भारत ही नहीं विश्व के अन्य अनेक देशों में भी होली अथवा होली से मिलते-जुलते त्योहार मनाने की परंपराएँ हैं। हमारे पड़ोसी देश नेपाल, पाकिस्तान, बंगलादेश, श्री लंका और मरिशस में भारतीय परंपरा के अनुरूप ही होली मनाई जाती है। फ्रांस में यह पर्व १९ मार्च को डिबोडिबी के नाम से मनाया जाता है। वहाँ यह पर्व पिछले वर्ष की विदाई और नए साल के स्वागत में मनाया जाता है। मिस्र में १३ अप्रैल की रात्रि को जंगल में आग जला कर यह पर्व मनाया जाता है। आग में लोग अपने पूर्वजों के पुराने कपड़े भी जलाते हैं। अधजले अंगारों को भी एक दूसरे पर फैंकने के कारण यह अंगारों की होली होती है। लोगों का मत है कि इस प्रकार अंगारे फैंकने से राक्षसी का नाश हो जाएगा और वे अधिक खुशहाल हो जाएँगे। तेरह अप्रैल को ही थाईलैंड में भी नव वर्ष 'सौंगक्रान' प्रारंभ होता है इसमें वृद्धजनों के हाथों इत्र मिश्रित जल डलवाकर आशीर्वाद लिया जाता है। लाओस में यह पर्व नववर्ष की खुशी के रूप में मनाया जाता है। लोग एक दूसरे पर पानी डालते हैं। म्यांमर में इसे जल पर्व के नाम से जाना जाता है।
जर्मनी में ईस्टर के दिन घास का पुतला बनाकर जलाया जाता है। लोग एक दूसरे पर रंग डालते हैं। हंगरी का ईस्टर होली के अनुरूप ही है। अफ्रीका में 'ओमेना वोंगा' मनाया जाता है। इस अन्यायी राजा को लोगों ने ज़िंदा जला डाला था। अब उसका पुतला जलाकर नाच गाने से अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हैं। अफ्रीका के कुछ देशों में सोलह मार्च को सूर्य का जन्म दिन मनाया जाता है। लोगों का विश्वास है कि सूर्य को रंग-बिरंगे रंग दिखाने से उसकी सतरंगी किरणों की आयु बढ़ती है। पोलैंड में 'आर्सिना' पर लोग एक दूसरे पर रंग और गुलाल मलते हैं। यह रंग फूलों से निर्मित होने के कारण काफ़ी सुगंधित होता है। लोग परस्पर गले मिलते हैं।
अमरीका में 'मेडफो' नामक पर्व मनाने के लिए लोग नदी के किनारे एकत्र होते हैं और गोबर तथा कीचड़ से बने गोलों से एक दूसरे पर आक्रमण करते हैं। ३१ अक्तूबर को अमरीका में सूर्य पूजा की जाती है। इसे होबो कहते हैं। इसे होली की तरह मनाया जाता है। इस अवसर पर लोग फूहड वेशभूषा धारण करते हैं।
चेक और स्लोवाक क्षेत्र में बोलिया कोनेन्से त्योहार पर युवा लड़के-लड़कियाँ एक दूसरे पर पानी एवं इत्र डालते हैं। हालैंड का कार्निवल होली सी मस्ती का पर्व है। बेल्जियम की होली भारत सरीखी होती है और लोग इसे मूर्ख दिवस के रूप में मनाते हैं। यहाँ पुराने जूतों की होली जलाई जाती है। इटली में रेडिका त्योहार फरवरी के महीने में एक सप्ताह तक हर्षोल्लास से मनाया जाता है। लकड़ियों के ढेर चौराहों पर जलाए जाते हैं। लोग अग्नि की परिक्रमा करके आतिशबाजी करते हैं। एक दूसरे को गुलाल भी लगाते हैं। रोम में इसे सेंटरनेविया कहते हैं तो यूनान में मेपोल। ग्रीस का लव ऐपल होली भी प्रसिद्ध है। स्पेन में भी लाखों टन टमाटर एक दूसरे को मार कर होली खेली जाती है।
जापान में १६ अगस्त रात्रि को टेमोंजी ओकुरिबी नामक पर्व पर कई स्थानों पर तेज़ आग जला कर यह त्योहार मनाया जाता है। चीन में होली की शैली का त्योहार च्वेजे कहलाता है। यह पंद्रह दिन तक मनाया जाता है। लोग आग से खेलते हैं और अच्छे परिधानों में सज धज कर परस्पर गले मिलते हैं। साईबेरिया में घास फूस और लकड़ी से होलिका दहन जैसी परिपाटी देखने में आती है। नार्वे और स्वीडन में सेंट जान का पवित्र दिन होली की तरह से मनाया जाता है। शाम को किसी पहाड़ी पर होलिका दहन की भाँति लकड़ी जलाई जाती है और लोग आग के चारों ओर नाचते गाते परिक्रमा करते हैं। इंग्लैंड में मार्च के अंतिम दिनों में लोग अपने मित्रों और संबंधियों को रंग भेंट करते हैं ताकि उनके जीवन में रंगों की बहार आए।
इस प्रकार होली विश्व के कोने-कोने में उत्साहपूर्वक मनाई जाती है। भारत में यह पर्व अपने धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक और आर्थिक पक्षों के कारण हमारे संपूर्ण जीवन में रच बस गया है। यह पर्व स्नेह और प्रेम से प्राणी मात्र को उल्लसित करता है। इस पर्व पर रंग की तरंग में छाने वाली मस्ती जब तक मर्यादित रहती है तब तक आनंद से वातावरण को सराबोर कर देती है। सीमाएँ तोड़ने की भी सीमा होती है और उसी सीमा में बँधे मर्यादित उन्माद का ही नाम है होली।

रंगों के संदेश

  रंगों के संदेश
 

होली का रंग-बिरंगा त्योहार हमारे देश का सबसे लोकप्रिय और प्रचलित त्योहार है। वस्तुत: यह त्यौहार मनाया जाने वाला उतना नहीं हैं, जितना कि खेला जाने वाला है।
घर-घर और गली मोहल्लों में यह रंगीन त्यौहार इस प्रकार मुखरित होता है कि बच्चों से लेकर बुढ्ढ़े, नर-नारियों तक होली के रंग में सराबोर हो जाते हैं - इन रंग-बिरंगे चेहरों में हमारी भारतीय संस्कृति तथा हमारा भारतीय जीवन दर्शन मुखरित होता है। रंगों की अनेकता में हमारी सांस्कृतिक और दार्शनिक एकता का स्वरूप निहित है।
होली का त्यौहार रंग-बिरंगे
होली पर प्रयोग में आने वाला दूसरा रंग पीला होता है। प्राचीन काल में भारत में टेसू के फूलों से बनाया जाने वाला पीला रंग प्रचलित था। पीला रंग ज्ञान का प्रतीक है। ज्ञान हमारे मानसिक विकास का अग्रदूत है। ज्ञान हमें हमारे वास्तविक अस्तित्व का बोध कराता है और इंगित कराता है कि हमारे लिए क्या भला है और क्या बुरा? साधू और सन्यासी आज भी पीले गेरूए वस्त्र पहनते हैं जो उनके ज्ञान की रश्मियों को प्रतिबिंबित करते हैं। पीला रंग सतोगुण का सूचक है। दीपक की उँची उठती हुई लौ सामान्यत: पीले रंग की होती है - सूरज की किरणों को भी साधारणत: पीला समझा जाता है। दीपशिखा अपना आलोक बिखरते ही अंधकार को भगा देती है। सूर्योदय होते ही रात्रि का अंधकार स्वत: समाप्त हो जाता है। स्वयं जलकर अपने चारो ओर प्रकाश फैलाने की उसकी यह अभूतपूर्व भावना परोपकार की संगिनी है। ज्ञानालोकित रश्मियों के समक्ष अज्ञान का अंधकार समाप्त हो जाता है।
परोपकार की विशाल भावना में त्याग की इच्छा अंतरनिहित है। ज्ञान का प्रकाश अपार और अपरिमित होता है। खेतों में फूली हुई पीली सरसों हमारी समृद्धि के स्वप्न का केंद्र बिंदु है। पीला रंग पौरुष, शौर्य और निर्भीकता का भी परिचायक है। पहले केसरिया बाना (साफा) पहनकर या केसरिया पगड़ी लगाकर रणक्षेत्र में उतारा जाता था (। राजपूतों के प्रदेश राजस्थान में तो अब भी यही परंपरा है। युद्ध क्षेत्र में जाने के अवसर पर योद्धाओं को केसरिया साफा पहनाकर विदा किया जाता है - अपना अद्भुत शौर्य दिखाने और निर्भय होकर विजयी बनने अथवा बलिदान हो जाने की कामना को यह पर्व प्रकाशित करता है। अत: होली के त्यौहार का पीला रंग ज्ञान, त्याग, विकास और शौर्य का प्रतीक है।
हरा रंग हमारी समृद्धि का परिचायक है। वर्षा काल में धरती पर दिखाई देने वाली हरियाली वृक्षावलियाँ प्रकृति की समृद्धि का आधार हैं। समृद्धि में ही विकास छिपा है और विकास में निहित है जीवन का अग्रगामी प्रगतिशील सोपान। शुभ और मांगलिक पर्वों पर हरे रंगों का प्रयोग हमारी अनादि संस्कृति का आधार है। घर में किसी नवजात शिशु के जन्म पर जच्चा हरी चूडियाँ पहनती हैं तथा अपनी और अपने शिशु की समृद्धि की कामना करती हैं। विवाह के अवसर पर नई नवेली दुल्हन को भी हरी चूड़ियाँ और हरी साड़ी पहनाये जाने की परंपरा है। जिसमें यह आकांक्षा और कामना गूँथी हुई है कि जीवन के अग्रिम सोपान में कदम रखते ही समृद्धि का आलिंगन करें। महिलाओं के सौभाग्य (सुहाग) के महत्वपूर्ण पर्व को हरियाली तीज अथवा हरितालिका तीज की संज्ञा जानी-पहचानी है। हरा रंग मन के लिए लुभावना और आँखों के लिये सुखद लगता है। हरियाली तीज के झूले पर झूलने के लिये आज भी महिलाएँ विशेष तौर से हरी साड़ी रंगवा कर पहनती हैं। हरी साड़ी में सुसज्जित युवतियों को झूले पर झूलती देखकर मानव प्रकृति भी हरा परिधान धारण करके हरियाली तीज की समृद्धि पर मुस्कराती सी लगती है। होली का हरा रंग समृद्धि का प्रतिनिधि माना जाता है।
रंगीन गुलाल मे मिली हुई चमकती अबीर अपनी सफ़ेदी के कारण बड़ी भली लगती है। सफ़ेद रंग सतोगुण का प्रतीक है और पावन पवित्रता का द्योतक। पवित्रता का आधार है सदाचार जो जीवन को निर्मल बनाता है। निर्मलता हमें सत्कार्यों के लिए प्रेरणा देती है। सत्कार्य जीवन की विशाल उज्ज्वलता की नींव होते हैं। उज्ज्वलता हमारी महानता का सूचक हैं, महानता में ही अपार धैर्य व कर हम अपनी और अपने देश की ओर से शांति की कामना अभिव्यक्त करते हैं। शांति की इसी कामना की भूमि में सहअस्तित्व का बीजारोपण होता है, जिसमें पवित्रता, शांति, स्वच्छता, निर्मलता और सदाचार के सतोगुणी वृक्ष पुष्पपित एवं पल्लवित होते हैं।
अत: हम होली के इस पावन पर्व पर रंग-बिरंगे अबीर और गुलाल उड़ाकर तथा एक - दूसरे पर रंग डालकर आपस में परस्पर प्रसन्नता, शक्ति, ज्ञान, समृद्धि व शांति की कामना करते हैं। यह होली का एक अव्यक्त दार्शनिक पक्ष है, जो हमारे इस सांस्कृतिक पर्व के अवसर पर हमारे समक्ष साकार अवतरित होता है।

होली विशेषः कम से कम चार नरसिंह तो चाहिए ही



पाकिस्तान और ऑस्ट्रेलिया का मुकाबला जारी | ऑस्ट्रेलिया ने पाकिस्तान के सामने रखा 177 रन का टारगेट

होली विशेषः कम से कम चार नरसिंह तो चाहिए ही




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लो जी... फिर से आ गई होली। रंगों , उमंगों और तरंगों से भरी होली। मदमाते ' अनंगों ' और तान मिलाते मृदंगों की होली। फिर से मौक़ा मिलेगा एक दूसरे पर सतरंगी छींटे उड़ाने का। पर इस वर्ष स्थिति थोड़ी भिन्न है। इस पर्व-वेला में सतरंगी छींटे देखने को कम मिल रहे हैं। चहुंओर केवल एक रंग की छींटाकशी देखने को अधिक मिल रही है , और वह रंग है काला। विज्ञान कहता है कोई रंग न होने के परिणामस्वरूप जो वर्ण दिखता है , वह काला होता है। सारा समाज आज काले-धन और काले मन की विडंबनाओं से त्रस्त दिख रहा है। कुछ ऐसी ही पृष्ठभूमि में होली-पर्व की भी उत्पत्ति हुई थी। उस पृष्ठभूमि और आज की स्थिति में क्या अंतर्संबंध है इससे हमारे समाज के भविष्य का निर्णय किया जा सकता है।

होली के प्रचलन की अनेक कथाओं में प्रमुख है भक्त प्रहलाद , उसके पिता , बुआ और भगवान की कथा। कहा जाता है कि प्राचीन काल में एक असुर था जिसका नाम था हिरण्यकश्यप। अपने बल और सामर्थ्य के अभिमान में वह स्वयं को ही भगवान मानने लगा था। उसका पुत्र प्रह्लाद बड़ा ईश्वर भक्त था। बेचारे हिरण्यकश्यप कि भारी व्यथा यह थी कि उसके घर में ही उसे विद्रोह के स्वर (धर्म-पालन और ईश्वर-भक्ति के वचन) सुनाई दे रहे थे। प्रह्लाद की ईश्वर-भक्ति और धर्मपरायणता से नाराज होकर हिरण्यकश्यप ने उसे विभिन्न दंड दिए। परंतु पुत्र भी अडिग हो धर्म का मार्ग न छोड़ने को प्रतिबद्ध था। यहाँ सीन में उस असुर पिता की एक असुरा बहन भी थी , जिसका नाम था होलिका। उसको वरदान प्राप्त था कि वह आग में नहीं जल सकती। अत: कोई अन्य मार्ग न पाकर एक पिता ने अपने पुत्र की हत्या करने कि सोची। हिरण्यकश्यप ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे। उसको उम्मीद थी कि अग्नि में उसके अशक्त पुत्र कि इहलीला समाप्त हो जायेगी। परन्तु हुआ कुछ अलग ही। आग में बैठने पर होलिका तो जल गई और प्रह्लाद बच गया। यह देख हिरण्यकश्यप अपने पुत्र से और अधिक नाराज हो गया और पुत्र पर उसका अत्याचार बढ़ता चला गया।

उस ज़माने में बुरी प्रवृत्ति के लोग अत्यंत कठोर तपस्या दिखा कर अपने स्वार्थ साधने के लिए उपयोगी वरदान भगवान से येन-केन प्रकारेण पा ही लेते थे। अब भगवान भी ठहरे भोले-भाले। सुनने में आता है कि जब भी कोई असुर (भले ही बुरी महत्वाकांक्षा से ही क्यों न हो) उग्र तपस्या करता था , तो एक-दो देवताओं को रेफर करने के बाद अंतत: भगवान उसको दर्शन दे देते थे और कहते थे - बेटा , अब बस भी कर। खत्म कर यह खेल। क्यों इतना कष्ट देता है अपने को ? बोल क्या माँगता है ?... ज़ाहिर है ऐसा ही हिरण्यकश्यप के साथ भी हुआ। वैसे तो वह अमरता का वरदान प्राप्त करना चाहता था , किन्तु भगवान ने कहा कि यह वरदान वे नहीं दे सकते। इसपर उसने भी चालाकी से बाजी मारने कि कोशिश की। काफी जद्दोजहद के बाद उस असुर को यह वरदान मिला कि वह न दिन में मर सकता है न रात में , न जमीन पर मर सकता है और न आकाश या पाताल में , न मनुष्य उसे मार सकता है और न जानवर या पशु- पक्षी , इसीलिए भगवान उसे मारने का समय संध्या चुना और आधा शरीर सिंह का और आधा मनुष्य का- नरसिंह अवतार। नरसिंह भगवान ने हिरण्यकश्यप की हत्या न जमीन पर की न आसमान पर , बल्कि अपनी गोद में लेकर की।

इसी दिव्य प्रेरणा से आज , इस होली की “ करुण-रात्रि ” पर मैं आह्वान करता हूँ इस समाज की राष्ट्र-धर्म में आस्था को बचाने के लिए एक नहीं , दो नहीं , बल्कि चार-चार नृसिंहों का। कारण , आज विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के आधार स्वरूप जो चार खम्भे (अर्थात न्यायपालिका , कार्यपालिका , विधायिका और मीडिया) टूटने के कगार पर हैं , और इस देश के नागरिकों के अभिभावक स्वरूप माने जाने वाले प्रशासन-वर्ग और निर्वाचित प्रतिनिधियों में छिपे हिरण्यकश्यप इन खम्भों को जड़ या निर्जीव मान चुके हैं और खुली चुनौती दे रहे हैं समाज के “ प्रहलाद-वर्ग ” को , जो परम विश्वास के साथ इन स्तंभों की ओर देख रहे हैं , की इनमें निश्चय ही भगवान का वास है , जो हमारी , हमारे समाज और राष्ट्र की रक्षा करेंगे।

इन चारों स्तंभों को गिराने को उद्यत व्यक्तियों के अंदर के हिरण्यकश्यप को मारना आवश्यक है। इस क्रिया में बहुत पेचीदगी है। पहली तो यह , कि उस हिरण्यकश्यप की तरह इन हिरण्यकश्यपों को भी न ही अंदर मारा जा सकता है , और न ही बाहर। अर्थात इन चारों स्तंभों के सिस्टम के अंदर घुस कर या बाहर से ही इनपर आघात कर इनका संहार कर पाना असंभव दिखता है। वहाँ एक हिरण्यकश्यप था , यहाँ तो अनगिनत हैं , जो अपने ही स्वजनों को विद्रोही प्रहलाद मान मार देने पर उतारू हैं। ऐसे में इस सिस्टम या व्यवस्था ऐसे स्थान से सकारात्मक चोट और विध्वंस और निर्माण का एक ऐसा संतुलन देना होगा , कि पुरानी सड़ी-गली व्यवस्था धीरे-धीरे समाप्त हो , और उसका स्थान नवीन और कल्याणकारी व्यवस्था ले सके।

दूसरी पेचीदगी यह कि ये अंदर के हिरण्यकश्यप दिन के उजाले में उजले-उजले परिवेश में स्वयं को छिपा देवताओं के साथ घुल-मिल जाते हैं , जिससे इनको पहिचानने में मुश्किल होती है और रात के समय इतना अन्धेरा रहता है कि इनको खोजना मुश्किल है।

तीसरी पेचीदगी यह कि न ही इन हिरण्यकश्यपों को आकाश जैसी आदर्शवादिता कि ऊर्जा से मारा जा सकता है , और न ही पाताल जैसी आदर्शहीनता से। इनसे लड़ने के लिए अपनी आत्मा में आदर्श और सत्य कि ऊर्जा , और अपने कर्मों में वहीँ कूटनीति रखनी होगी , जो कृष्ण ने महाभारत-युद्ध में रखी थी।

चौथी पेचीदगी है मनुष्यता और पाशविकता की। यदि शुद्ध मनुष्यता का पालन करें , तो हिरण्यकश्यप हमें बेच खाएंगे , और यदि पशु ही बन जाएँ तो उनमें और हममें फर्क ही क्या रह जाएगा। ऐसे में मनुष्यता और पशुता का एक मध्यमान कुछ इस प्रकार से स्थापित करना होगा , कि चेतना तो मनुष्यता कि रहे , और उग्रता एक पशु के सामान हो। कदम तो मनुष्य के अनुसार ही चलें , और गर्जन , बाहुबल सिंह के सामान हो।

विचार किया जाए , तो इन चार पेचीदगियों का यदि हम उपचार कर ले गए , तो निश्चय ही हम सभी स्तंभों कि रक्षा कर सकते हैं।
वैसे , भगवान को मैंने बाहर तो कहीं देखा नहीं। हर किसी “ एक्स वाई जेड ” की बात मानें , तो भगवान हमारे अंदर ही हैं। यह बात फिर भी जँचती है। और कुछ दिन पहले एक मधुर उक्ति सुनाने को मिली - , “ अपने मरने से ही स्वर्ग मिलता है ”... तो इन दोनों तथ्यों के प्रभाव में आकर लगता है कि वह नरसिंह उस प्रहलाद के अंदर से ही निकला होगा। प्रहलाद में से ही नरसिंह का निकलना अर्थात अच्छे धार्मिक और सज्जन व्यक्तियों को मात्र अच्छाई का पालन ही नहीं , बल्कि बुराइयों का समूल-संहार करने के लिए भी कमर कसनी होगी। वास्तव में भगवान भी समाज के सज्जन व्यक्तियों को सक्रिय होने की प्रेरणा देकर ही दुर्जनों को निष्क्रिय या समाप्त करते हैं।

वैसे , होलिका-दहन तो फाल्गुन पूर्णिमा की बात है और नरसिंह प्रगटे थे वैशाख महीने के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को। फिर भी मैं यह मानते हुए कि नरसिंह तो हमारे अंदर ही हैं , अपने को इस होलिका दहन पर ही जी भर के झकझोर देना चाहता हूँ और अंदर के नरसिंह को अग्रिम निमंत्रण दे देना चाहता हूँ।

उम्मीद है कि शीघ्र ही लोकतंत्र के इन चारों टूटते स्तंभों में से हमारे , यानी देश के सज्जन-समाज के अंदर के नरसिंह अवतरित होंगे और श्रीमद्भगवद्गीता के वायदे के अनुसार धर्म कि ग्लानि दूर करेंगे। अत: कम से कम चार नरसिंह तो चाहिए ही , परन्तु अच्छा रहेगा कि अधिक अवतरित हो सकें , जो भारतीय संसद के एक सौ चवालीस स्तंभों से निकल कर उन दुष्टों को निर्माण और प्रलय के मध्यबिंदु पर खत्म कर सकें , जिन्होंने संसद के गलियारों को स्वार्थ-सिद्धि का माध्यम बनाया हुआ है।

होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय त्योहार है

होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय त्योहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का त्योहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। पहले दिन को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते है। दूसरे दिन, जिसे धुरड्डी, धुलेंडी, धुरखेल या धूलिवंदन कहा जाता है, लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं, और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं।
राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है।  राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही, पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्योहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। किसानों का ह्रदय ख़ुशी से नाच उठता है। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है। 

परंपराएँ

होली के पर्व की तरह इसकी परंपराएँ भी अत्यंत प्राचीन हैं, और इसका स्वरूप और उद्देश्य समय के साथ बदलता रहा है। प्राचीन काल में यह विवाहित महिलाओं द्वारा परिवार की सुख समृद्धि के लिए मनाया जाता था और पूर्ण चंद्र की पूजा करने की परंपरा थी। । वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था। उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा। भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र शुदी प्रतिपदा के दिन से नववर्ष का भी आरंभ माना जाता है। इस उत्सव के बाद ही चैत्र महीने का आरंभ होता है। अतः यह पर्व नवसंवत का आरंभ तथा वसंतागमन का प्रतीक भी है। इसी दिन प्रथम पुरुष मनु का जन्म हुआ था, इस कारण इसे मन्वादितिथि कहते हैं।
होलिका दहन
होली का पहला काम झंडा या डंडा गाड़ना होता है। इसे किसी सार्वजनिक स्थल या घर के आहाते में गाड़ा जाता है। इसके पास ही होलिका की अग्नि इकट्ठी की जाती है। होली से काफ़ी दिन पहले से ही यह सब तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। पर्व का पहला दिन होलिका दहन का दिन कहलाता है। इस दिन चौराहों पर व जहाँ कहीं अग्नि के लिए लकड़ी एकत्र की गई होती है, वहाँ होली जलाई जाती है। इसमें लकड़ियाँ और उपले प्रमुख रूप से होते हैं। कई स्थलों पर होलिका में भरभोलिए जलाने की भी परंपरा है। भरभोलिए गाय के गोबर से बने ऐसे उपले होते हैं जिनके बीच में छेद होता है। इस छेद में मूँज की रस्सी डाल कर माला बनाई जाती है। एक माला में सात भरभोलिए होते हैं। होली में आग लगाने से पहले इस माला को भाइयों के सिर के ऊपर से सात बार घूमा कर फेंक दिया जाता है। रात को होलिका दहन के समय यह माला होलिका के साथ जला दी जाती है। इसका यह आशय है कि होली के साथ भाइयों पर लगी बुरी नज़र भी जल जाए।लकड़ियों व उपलों से बनी इस होली का दोपहर से ही विधिवत पूजन आरंभ हो जाता है। घरों में बने पकवानों का यहाँ भोग लगाया जाता है। दिन ढलने पर ज्योतिषियों द्वारा निकाले मुहूर्त पर होली का दहन किया जाता है। इस आग में नई फसल की गेहूँ की बालियों और चने के होले को भी भूना जाता है। होलिका का दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है। यह बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय का सूचक है। गाँवों में लोग देर रात तक होली के गीत गाते हैं तथा नाचते हैं।
सार्वजनिक होली मिलन
होली से अगला दिन धूलिवंदन कहलाता है। इस दिन लोग रंगों से खेलते हैं। सुबह होते ही सब अपने मित्रों और रिश्तेदारों से मिलने निकल पड़ते हैं। गुलाल और रंगों से सबका स्वागत किया जाता है। लोग अपनी ईर्ष्या-द्वेष की भावना भुलाकर प्रेमपूर्वक गले मिलते हैं तथा एक-दूसरे को रंग लगाते हैं। इस दिन जगह-जगह टोलियाँ रंग-बिरंगे कपड़े पहने नाचती-गाती दिखाई पड़ती हैं। बच्चे पिचकारियों से रंग छोड़कर अपना मनोरंजन करते हैं। सारा समाज होली के रंग में रंगकर एक-सा बन जाता है। रंग खेलने के बाद देर दोपहर तक लोग नहाते हैं और शाम को नए वस्त्र पहनकर सबसे मिलने जाते हैं। प्रीति भोज तथा गाने-बजाने के कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं।
होली के दिन घरों में खीर, पूरी और पूड़े आदि विभिन्न व्यंजन पकाए जाते हैं। इस अवसर पर अनेक मिठाइयाँ बनाई जाती हैं जिनमें गुझियों का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। बेसन के सेव और दहीबड़े भी सामान्य रूप से उत्तर प्रदेश में रहने वाले हर परिवार में बनाए व खिलाए जाते हैं। कांजी, भांग और ठंडाई इस पर्व के विशेष पेय होते हैं। पर ये कुछ ही लोगों को भाते हैं। इस अवसर पर उत्तरी भारत के प्रायः सभी राज्यों के सरकारी कार्यालयों में अवकाश रहता है, पर दक्षिण भारत में उतना लोकप्रिय न होने की वज़ह से इस दिन सरकारी संस्थानों में अवकाश नहीं रहता ।

Sunday 6 March 2011

स्‍वामी रामकृष्‍ण परमहंस और मां शारद

राम कृष्‍ण अपनी पत्‍नी को मां बोलते थे। और यूं नहीं कि बाद में कहने लगे थे। रामकृष्‍ण जब चौदह साल के थे, तब उनको पहली समाधि हुई। आ रहे थे अपने खेत से वापस। झाल के पास से गांव में से गुजरते थे। सुंदर गांव की झील, सांझ का समय, सूरज का डूबना, बस डूबा-डूबा। सूरज की डूबती हुई किरणों ने, आकाश में फैली छोटी-छोटी बदलियों पर बड़े रंग फैला रखे है। वर्षा के दिन करीब आ रहे है। काली बदलियां भी छा गई है। घनघोर, जल्‍दी रामकृष्‍ण लोट रहे है। तभी बगुलों की एक पंक्‍ति झील से उड़ी और काली बदलियों को पार करती हुई निकल गई। काली बदलियों से सफेद बगुलों की पंक्‍ति का निकल जाना, जैसे बिजली कौंध गई। यह सौंदर्य का ऐसा क्षण था कि रामकृष्‍ण वहीं गर पड़े। घर उन्‍हें लोग बेहोशी में लाए। लोग समझे बेहोशी है, वह थी मस्‍ती। बामुशिकल से वे होश में लाए जा सके।
उनसे पूछा, क्‍या हुआ?
उन्‍होंने कहा, अद्भुत हुआ, बड़ा आनंद हुआ। बार-बार ऐसा ही होना चाहिए। अब मुझे होश में रहने की—जिसको तुम होश कहते हो—उसमें रहने की कोई इच्‍छा नहीं है।
गांव के लोगों ने, घर के लोगों ने सोचा कि लड़का बिगड़ा जा रहा है। यह तो मामला खराब है। यह ऐसे भी साधु-संग करता था। जाता था सुनने सत्‍संग। तब तक भी ठीक था; अब यह समाधि में भी जाने लगा। अब यह बेहोश हो-हो कर गिरने लगा। यह मामला बिगड़ा जा रहा है। यह हाथ से गया। गदाधर उनका नाम था। जो घर के लोगों का आम सोचने का ढंग होता है, उन्‍होंने कहा, जल्‍दी से इसके विवाह वगैरह का इंतजाम करो, हथकड़ी-बेड़ी डाल दो, तो यह रास्‍ते पर आ जाएगा। सो रामकृष्‍ण से पूछा कि बेटा, विवाह करोगे?
राम कृष्‍ण ने कहा,करेंगे।
घर के लोग थोड़े चौके, उन्‍होंने सोचा था यह इनकार करेगा।
उन्‍होंने कहा जरूर करेंगे, किससे करना है?
घर के लोगों ने कहा, अरे, हम तो सोचते थे तू सत्‍संगी हो गया है, समाधि लगने लगी है, और गांव में बड़ी चर्चा है कि तू ज्ञानी हो गया है। इस लिए तो हम तेरा विवाह कर रहे थे। और तू है कि कहता है करेंगे, किससे करना है? तू इतनी जल्‍दी में है।
पास में ही गांव में एक लड़की खोजी गई। रामकृष्‍ण को दिखाने ले गए। रामकृष्‍ण को जब लड़की मिठाई परोसने आई। बंगाल, तो वहां संदेश परोसा होगा। जब संदेश उसने रामकृष्‍ण की थाली में रखे, रामकृष्‍ण ने देखा। शारदा उसका नाम था। खीसे में जितने मां ने रूपये रख दिए थे। सब निकाल कर उसके पैरों पर चढ़ा दिए, और कहा कि तू तो मेरी मां है। शादी हो गई।
लोगों ने कहा, तू पागल है रे; पहले तो शादी करने की इतनी जल्‍दी कि और अब पत्‍नी को मां कह रहा है। कुछ अक्ल है तुझे, यो बौरा गया है। बेअक्‍ल हो गया है।
मगर उसने कहा कि यह तो मेरी मां है, शादी होगी, मगर यह मेरी मां ही रहेगी।
शादी भी हो गई। शादी से इंकार भी नहीं किया। इसको मैं खूबी कहता हूं। रामकृष्‍ण की। इसलिए रामकृष्‍ण से मुझे प्रेम है। एक लगाव है। यह आदमी अदभुत है। शादी करने में इनकार ही नहीं किया। नोट देख कर आंखे बंध करने वाले विनोबा जी नहीं है। अरे शादी से भी नहीं भागा। मगर शादी भी किस मस्‍ती से की। कहा कि मेरी मां है। और फिर जीवन भर मां ही माना। मां ही कहते थे वे शारदा को। और हर वर्ष जब बंगाल में काली की पूजा होती, तो वे काली की पूजा तो करते थे, मगर जब काली की पूजा का दिन आता है, उस दिन वे शारदा की पूजा करते थे। और यूं नहीं,तुम चोंकोगे, शारदा को नग्‍न बिठा लेते थे सिंहासन पर। नग्‍न शारदा
की पूजा करते थे। शारदा को नग्‍न बिठा लेते सिंहासन पर। और फिर चिल्‍लाते, रोते, नाचते, मां और मां की गुहार लगाते। शारदा पहले तो बहुत बेचैन होती थी कि किसी को पता न चल जाए, कि यह तुम क्‍या कर रहे हो। कोई क्‍या कहेगा; मगर धीरे-धीरे शारदा के जीवन में भी रामकृष्‍ण ने क्रांति ला दी।
रामकृष्‍ण उन सौ में से एक व्‍यक्‍तियों में से है। उन्‍होंने पत्‍नी को छोड़ा नहीं, हालांकि वह कहते यही है; कामिनी-कांचन से मुक्‍त हो जाओ। पुरानी भाषा, वे करें क्‍या–अतिक्रमण किया। नई भाषा का उन्‍हें पता नहीं था।
मैं कहूंगा: कामिनी-कांचन से मुक्‍त होने का सवाल नहीं है, कामिनी-कांचन को अतिक्रमण करना है। रामकृष्‍ण ने वही किया—अतिक्रमण किया। मगर उनको इस भाषा का साफ-साफ भेद नहीं था। वे बोलते रहे पुराना ढंग, पुरानी शैली।
मगर रामकृष्‍ण जैसे सभी लोग नहीं है। निन्यानवे ज्ञानी तो, सुलोचना, अज्ञानी है, महाअज्ञानी है। वि सिर्फ बकवास कर रहे है। वह अपने भय का सिर्फ निवेदन कर रहे है। वे दो चीजों से डरे है: क्‍योंकि स्‍त्री में सुख की आशा मालूम पड़ती है। और धन से डरे है। बस दोनों को गालियां दे रहे है। उनकी गालियां सबूत है कि उनके भीतर रस मोजूदा है।
पर रामकृष्‍ण इस के पास चले गये थे। इस पुराने ढंग के। अब वक्‍त आ गया है कि यह पुराना ढर्रा बंद होना चाहिए। इसलिए मैं धर्म को नई भाषा देने की कोशिश कर रहा हूं। स्‍वभावत: मुझे गालियां पड़ेगी। क्‍योंकि वे निन्यानवे लोग मेरी भाषा की बदलाहट से स्‍वभावत: नाराज होने वाले है। उनके तो हाथ से धंधा गया। उनकी तो मैं जमीन खींचे ले रहा हूं। हां, सौ में से वह जो एक व्‍यक्‍ति है, वह मेरे साथ राज़ी होगा। रामकृष्‍ण जैसा व्‍यक्‍ति मेरे साथ राज़ी होगा। रामकृष्‍ण मुझे मिल जाएं तो मैं उनकी भाषा बदल दूँ। वे मुझसे राज़ी हो जाएंगे। वे कहेंगे, अरे यही मैं कहना चाहता था। मगर मुझे कहने का पता नहीं था। मुझे जो पता था, वैसा मैंने कह दिया था। सच मैं तो यही कहना चाहता था,तुमने तो मेरे मुहँ की बात छिन ली। और वो प्रसन्‍न होंगे, और नाच उठेंगे।
जीसस मुझे मिल जाएं मुझसे राज़ी होंगे। बुद्ध मुझे मिल जाएं,मुझसे राज़ी होंगे। लेकिन जिन बुद्धूओं को तुम ज्ञानी समझ रही हो वे मुझसे राज़ी नहीं हो सकते।

जन्‍मदिवस पर -स्‍वामी रामकृष्‍ण परमहंस

जन्‍मदिवस पर -स्‍वामी रामकृष्‍ण परमहंस 

स्वामी रामकृष्ण परमहंस और रसिक मेहतर

तेरे भीतर नारायण है
दक्षिणेश्वर (कोलकाता) में स्वामी रामकृष्ण परमहंस किसी मार्ग से जा रहे थे। उन्हें देखकर झाड़ू लगानेवाले रसिक मेहतर ने उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया। ठाकुर ने प्रसन्नमुख से पूछाः "क्यों रे रसिक ! कुशल तो है ?"
"बाबा ! हमारी जाति हीन, हमारा कर्म हीन, हमारा क्या कुशल-मंगल !" हाथ जोड़ कर रसिक ने उत्तर दिया।
ठाकुर तेजयुक्त स्वर में बोलेः "हीन जाति कहाँ ! तेरे भीतर नारायण हैं, तू स्वयं को नहीं जान पाया इसलिए हीनता का अनुभव कर रहा है।"
"किंतु कर्म तो हीन है।" रसिक ने कहा।
"क्या कह रहा है ! क्या कभी कोई कर्म हीन होता है !" फिर ठाकुर जोर देकर बोलेः "यहाँ माँ का दरबार है, राधाकांत, द्वादश शिव का दरबार है, कितने साधु-संतों का यहाँ आना-जाना लगा रहता है, उनके चरणों की धूल चारों ओर फैली हुई है। झाड़ू लगाकर तू वही धूल अपने शरीर पर लगा रहा है। कितना पवित्र कर्म है ! कितने भाग्य से यह सब तुझे मिल रहा है !"
रसिक आश्वस्त होकर बोलाः "बाबा ! मैं मूर्ख हूँ, बातों में आपसे पार नहीं पा सकता। मैं तो केवल एक बात आपसे पूछना चाहता हूँ कि क्या मेरी मुक्ति होगी ?"
ठाकुर चलते-चलते स्वाभाविक बोलेः "हाँ होगी, अंतिम समय होगी किंतु घर के आँगन में तुलसी का पौधा लगाना और संध्या के समय हरिनाम का जप करना।"
संत तो परम हितकारी होते हैं। वे जो कुछ कहें, उसका पालन करने के लिए तत्परता से लग जाना चाहिए। इसी में हमारा परम कल्याण है। महापुरुष की बात को टालना नहीं चाहिए।
रसिक ने ठाकुर जी की आज्ञा समझकर अपने घर के आँगन में तुलसी का पौधा लगा लिया और रोज बच्चे-बूढ़ों सहित संध्याकाल में हरिनाम का जप-कीर्तन करने लगा।
कुछ वर्ष पश्चात रसिक की तबीयत अचानक खराब हो गयी। उसे तेज बुखार था पर उसने जिद पकड़ी कि दवा नहीं खाऊँगा। बुखार ने और जोर पकड़ा। एक दिन भरी दोपहर को उसने पत्नी को बुलाया और कहाः
"मुझे तुलसी के पास ले चलो, पुत्रों को बुलाओ। अब मेरा शरीर जाने वाला है।"
बच्चे जल्दी उसे तुलसी के पास ले गये। वहाँ रसिक तुलसी की माला से जप करने लगा। जप करते-करते पता नहीं उसे कौन सा दृश्य दिखने लगा। उसके मुखमंडल पर तृप्ति, संतुष्टि का एक विलक्षण भाव झलकने लगा।
अचानक वह बोल उठाः "बाबा आये हो, आहा ! कितने सुन्दर, कितने सुन्दर.... बाबा ! आपके दर्शन से कितनी शांति मिल रही है ! आपका दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया ! बाबा बाबा...." न कहीं साँस खिंची, न हिचकी आयी। बोलते-बोलते रसिक ने गम्भीर शांति से आँखें मूँद लीं और सदा के लिए परमात्मधाम में प्रवेश पा लिया।
भगवत्प्राप्त महापुरुष पृथ्वी पर के साक्षात कल्पतरू हैं। जन्मों की अंतहीन यात्रा से थका मानव उनका सान्निध्य पाकर, उनके अमृतवचन सुनकर परम शांति का अनुभव करता है, उसे जीवन में भी विश्रांति मिलती है और मृत्यु में भी। वह जन्म-मृत्यु के चक्र से सदा के लिए छूट जाता है।

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जलवायु, स्वभाव तथा नाम ही भिन्न हैं। जुदा-जुदा हैं, अन्यथा और कोई भेद नहीं है। रामकृष्ण परमहंस ने अपने निजी अनुभवों से उक्त तथ्यों को कमाया और सब को बांटा।

जलवायु, स्वभाव तथा नाम ही भिन्न हैं। जुदा-जुदा हैं, अन्यथा और कोई भेद नहीं है। रामकृष्ण परमहंस ने अपने निजी अनुभवों से उक्त तथ्यों को कमाया और सब को बांटा। 
 एक ही तालाब के अनेक घाट हैं। एक घाट पर हिंदू अपने-अपने कलस में पानी भरते हैं। उसे जल कहते हैं। दूसरे घाट पर मुसलमान अपनी मशकों में पानी भरते हैं, उसे पानी नाम देते हैं। तीसरे घाट पर ईसाई लोग जल लेते हैं तथा उसे वाटर कह कर पुकारते हैं। भिन्न नामों के नीचे एक ही वस्तु है। प्रत्येक उसकी एक ही चीज को खोज में लगा है।

जलवायु, स्वभाव तथा नाम ही भिन्न हैं। जुदा-जुदा हैं, अन्यथा और कोई भेद नहीं है। रामकृष्ण परमहंस ने अपने
निजी अनुभवों से उक्त तथ्यों को कमाया और सब को बांटा। इस सत्य को कमाने के लिए उन्होंने मुसलमानों की वेशभूषा में उनकी रहनी और मसजिद में जाकर नमाज अदा की। इसी प्रकार ईसाई धर्म का भी गहराई से अध्ययन मनन किया। रामकृष्ण कहा करते थे,उस ईसा का दर्शन करो, जिसने विश्व की मुक्ति के लिए अपने हृदय का रक्त दिया है। जिसने मनुष्य के प्रेम के लिए असीमित वेदना सहन की है। एक भक्त के प्रश्न का विनम्रता से उत्तर देते हुए उन्होंने कहा था, मैंने पढ़ा नहीं है, केवल ज्ञानियों के मुख से सुना है। उनके ज्ञान की ही माला गूंथकर मैंने अपने गले में डाल ली है और उसे अ‌र्घ्य के रूप में मां के चरणों में समर्पित कर दिया है। उन्होंने मुसलिम, ईसाई धर्मो का ही नहीं हिंदू धर्म के भी अन्य पथों- वैष्णव, शैव, सिख, जैन, शाक्त आदि का भी गहन अध्ययन किया और कहा कि जिसे हम कृष्ण के नाम से पुकारते हैं, वही शिव है, वही आद्या शक्ति है, वहीं ईसा है, वही अल्लाह है। सब उसी के नाम हैं- एक ही राम के सहस्त्रों नाम हैं। एक तालाब के अनेक घाट हैं। इस विश्व विख्यात संत का जन्म 18 फरवरी सन् 1836 बंगाल के छोटे से ग्राम कामारपुकुर में हुआ। रामकृष्ण का बचपन का नाम गदाधर था। वह चंचल, हंसमुख, नटखट और बडे़ सुंदर थे। उनमें नारी सुलभ माधुर्य और कोमलता थी, जो अंत तक बनी रही। छह वर्ष की आयु में इस बालक को प्रथम बार अपने भीतर असीम आनंद व भावातिरेक का अनुभव हुआ। जब वह घुमड़ती काली घटाओं से ढंके आकाश के तले, खेतों में मुक्तभाव से विचर रहा था, तो सफेद सारस पंक्ति बादलों से छूती हुई उस के सिर के ऊपर से गुजरी। दृश्य की मोहकता के उस क्षण में वह बेहोश होकर गिर पड़ा। राहगीर ने उसे घर पहुंचाया। भावावेश की इस घटना ने अपने दिव्य प्रभाव, कलात्मक अनुभूति एवं सौंदर्य की आंतरिक सहज प्रेरणा से उनका भावी मार्ग प्रशस्त किया। रामकृष्ण ने भगवान का साक्षात्कार किया। भगवान से उसका मिलन हो गया। प्रत्येक भक्त संत को परमात्मा ऐसे ही अनुभूति रूप में मिलता है। आठ वर्ष की आयु में रामकृष्ण शिवरात्रि के अवसर पर शिव की भूमिका का अभिनय करते समय अचानक शिवभाव में प्रवेश कर गए। उन के दोनों गालों से होकर अविरल अश्रु धाराएं बहने लगी। तथा उसी भाव में उन्होंने अपना होश खो दिया। यहीं यह तथ्य भी समझ लेना होगा कि वह शिशु काल से ही संगीत और काव्य के प्रति अत्यधिक अनुरक्त थे। ये कोमल वृत्तियां ही भाव-समाधि में बार-बार और शीघ्रता से जाने में उनकी अत्यंत सहयोगी थीं। वह अपने हाथों देवी-देवताओं की मूर्तियां बनाते उन्हें सजाते और अपने मित्रों को भी मूर्तियां बनाना सिखाते। कालांतर में पिता और फिर बडे़ भाई के देहांत के बाद कलकत्ता के निकट दक्षिणेश्वर में काली महादेवी के मंदिर में न चाहते हुए भी पुरोहित का कार्य स्वीकार करना पड़ा।

मंदिर में काले पत्थरों की बनी वह देवी मूर्ति चार भुजी रामकृष्ण के लिए साक्षात सजीव एवं सर्वशक्तिमती मां स्वरूपणी थी। वे कहा करते थे, वह सर्वशक्तिमयी मेरी जननी है। वह अपनी संतानों के सम्मुख विभिन्न रूपों व दिव्य अवतारों के रूप में आत्मप्रकाश करती है। जब इसकी इच्छा हो तो वह समस्त सृष्टिभूतों को नष्ट कर दे
ती और ब्रह्म में विलीन कर देती है। यहीं उन्हें विवेकानंद आकर मिले और उनके अनन्य भक्त बन गए। मां काली ने भी उन्हें कई खेल दिखाए। अपनी शक्ति का दंश देकर अंतर्हित हो गई। रामकृष्ण अत्यंत व्याकुल रहने लगे। विक्षिप्तों की भांति उन्मत्त हो भूमि पर लोट-पोट कर रोने लगते। समाज में उनके प्रति दया, करुणा और निंदा की चर्चाएं होने लगीं। रामकृष्ण ने अपनी जीवन लीला समाप्त करने का निर्णय ले लिया।

तब अंत में अचानक रामकृष्ण को पुन: मां ने दर्शन दिए। वे कहते हैं, आश्चर्य कि एक क्षण में मेरे आगे दरवाजा
, खिड़की यहां तक कि मंदिर पर्यन्त समस्त दृश्य विलुप्त हो गया। असीम : ज्योतिष्मान आत्मा का महासमुद्र दिखाई देने लगा। मां की शरीर धारी मूर्ति प्रकट हुई। उस दिन से रामकृष्ण के दिन-रात निरंतर मां के सहवास में ही कटने लगे। उनके अनेक शिष्य हुए किंतु उनमें एक नरेंद्र (विवेकानंद) उनके अति निकट थे। कालांतर में रामकृष्ण को गले का कैंसर रोग हो गया। अनेक उपचार आदि भी होते रहे, किंतु 15 अगस्त 1886 रविवार के दिन अपने शिष्यों को अंतिम उपदेश दिया और अस्फुट स्वर में तीन बार अपनी दिव्य मां सर्वप्रिय काली के नाम का उच्चारण किया और लेट गए। वह कहा करते थे कि समुद्र के मुकाबले में लहरों का जो स्थान है ब्रह्म के मुकाबले में अवतारों का भी वही स्थान है। और वह लहर रूप होकर ब्रह्म समुद्र में समा गए।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस

स्वामी रामकृष्ण परमहंस
मानवता के पुजारी स्वामी रामकृष्ण परमहंस का जीवन दीन-दुखियों के उपकार में समर्पित रहा। सेवा का अखंड व्रत उनके जीवन का मूलमंत्र था। एक बार उनके परम प्रिय शिष्य विवेकानंद कुछ समय के लिए हिमालय में तप करने के लिए जब उनसे आज्ञा लेने गए तो उन्होंने कहा था, वत्स, हमारे आसपास के लोग भूख से तड़प रहे हैं। चारों ओर अज्ञान का अंधेरा छाया है। लोग रोते चिल्लाते रहें और तुम हिमालय की गुफा में समाधि के आनंद में निमग्न रहो। क्या तुम्हारी आत्मा स्वीकारेगी?

बंगाल प्रांत के ग्राम कामारपुकुर में 17 फरवरी 1836 को जन्मे रामकृष्ण के बचपन का नाम गदाधर था। बताया जाता है कि एक दिन माता ने स्नेह पूर्वक एक सोने का हार पुत्र के गले में पहना दिया किंतु शिशु ने तत्काल उसके टुकड़े टुकड़े कर फेंक दिया। सात वर्ष की आयु में पिताजी नहीं रहे। इसी बीच गदाधर के भौहों के मध्य एक फोड़ा हुआ। चिकित्सक ने कहा कि बेहोश करके फोड़े को चीरना होगा। बालक ने कहा कि बेहोश करने की जरूरत नहीं, ऐसे ही काटिए, मैं हिलूंगा नहीं।

जब गदाधर को ओरिएंटल सेमिनरी में भर्ती कराया गया तो किसी सहपाठी को फटा कुर्ता पहने देखकर अपना नया कुर्ता उसे दे दिया। कई बार ऐसा होने पर एक दिन माता ने गदाधर से कहा, प्रतिदिन नया कुर्ता कहां से
लाऊंगी? बालक ने कहा, ठीक है, मुझे एक चादर दे दो, कुर्ते की आवश्यकता नहीं है। मित्रों की दु‌र्व्यवस्था देखकर संवेदनशील गदाधर के हृदय में करुणा उभर आती थी। उन्हें कोलकाता आने वाले साधुओं के मुख से हरिकथा सुनने का बड़ा लगाव था। विवेकानंद ने एक बार उनसे पूछा था , क्या आपने ईश्वर को देखा है। युगद्रष्टा रामकृष्ण ने उत्तर दिया,हाँ देखा है, जिस प्रकार तुम्हें देख रहा हूं ठीक उसी प्रकार, बल्कि उससे कहीं अधिक स्पष्टता से। माँ काली के सच्चे आराधक रामकृष्ण परमहंस भारतीय मनीषा थे। स्वामी विवेकानंद ने जब एक बार रोगमुक्ति के लिए काली से उन्हें प्रार्थना करने को कहा तो वे बोले, इस तन पर मां का अधिकार है। मैं क्या कहूं, जो वह करेंगी अच्छा ही करेंगी। 15 अगस्त 1886 को रामकृष्ण तीन बार काली का नाम उच्चारण कर सदा के लिए समाधि में लीन हो गए।

Thursday 3 March 2011

सूचना के अधिकार अधिनियम-2005

सूचना के अधिकार अधिनियम-2005
लोकतंत्र के पहले तीनों खंभे (कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका)सूचना के अधिकार अधिनियम-2005 के दायरे में आते हैं। इसका मक़सद लोकतंत्र को मज़बूत किया जा सके। इसी मक़सद की मज़बूती की खातिर मेरी ये मांग है कि लोकतंत्र के चौथे खंभे यानी मीडिया को भी सूचना के अधिकार अधिनियम-2005 के दायरे में लाया जाए, ताकि लोकतंत्र में जवाबदेही और पारदर्शिता को हर स्तर पर लागू किया जा सके

काला-धन-काली कमाई और राजनीति

काला-धन-काली कमाई और राजनीति

देश की सुरक्षा से खिलवाड़ कर इस काली कमाई के  श्रोत में हथियारों का सौदा और मादक पदार्थों की तस्करी तक शामिल है ,इन सभी लोगों जिनमे ताक़तवर राजनैतिक लोग  ,भ्रष्ट आफिसर्स सहित पूंजीपति शामिल हैं  क्यों सरकार सिर्फ कर चोरी के पहलु तक ही सीमित है? क्यों  नहीं इन सभी पर देशद्रोह का मामला दर्ज कर ऐसी सज़ा दी जाए  की इस दुष्कृत्य पर हमेशा हमेशा के लिए रोक लग जाए

देश की खून पशीने की गाढी कमाई का बड़ा भाग लगभग ६७००० हज़ार अरब रूपये अवैध रूप से स्विस बैंक में ज़मा हैं ,इस रकम से देश की गरीबी,भुखमरी,शिक्षा,चिकित्सा जैसी अनेक ज्वलंत  समस्याएँ जो सुरसा राक्षशी  की तरह मुह बाए खड़ी हैं  का निदान आसानी से हो  सकता है ,इस देश पर राज अब कहने को प्रजा तंत्र के माध्यम से “जनता की-जनता के लिए और जनता के द्वारा” के सर्वोपरि सिधान्त को आधार मान कर हो रहा है किन्तु वास्तव में क्या ये सरकारें देश के लिए सोचती या कुछ करती हैं ?क्या इनमे इस दिशा में शशक्त कदम उठाने की प्रबल इच्छा शक्ति है ? नहीं बिल्कुल भी नहीं तभी तो सुप्रीम कोर्ट ने सवाल किया है की काले धन को जमा करने वालों का नाम स्विस बैंक से उजागर होने के बाद क्या कदम उठाया  गया?काला धन जमा करनेवाले लोगों और कंपनियों के खिलाफ क्या किया  गया ?यहाँ तक की कोर्ट ने शंका जताई है की देश की सुरक्षा से खिलवाड़ कर इस काली कमाई के  श्रोत में हथियारों का सौदा और मादक पदार्थों की तस्करी तक शामिल है ,इन सभी लोगों जिनमे ताक़तवर राजनैतिक लोग  ,भ्रष्ट आफिसर्स सहित पूंजीपति शामिल हैं  क्यों सरकार सिर्फ कर चोरी के पहलु तक ही सीमित है? क्यों  नहीं इन सभी पर देशद्रोह का मामला दर्ज कर ऐसी सज़ा दी जाए  की इस दुष्कृत्य पर हमेशा हमेशा के लिए रोक लग जाए ,बिना कड़ी कार्यवाही और प्रबल इच्छा शक्ति के केवल बातें ही बातें होंगी यथार्थ में कुछ भी नहीं ,स्विस बैंक एक ऐसा बैंक माध्यम है जिसमे अकाउंट खोलने वाले का नाम तक नहीं लिखा जाता केवल खाता नम्बर ही दिखाई देता है वास्तविक खातेदार का नाम केवल उच्च अधिकारीयों को ही पता होता है ये पूरी गोपनीयता का पालन करतें हैं , इसी लिए दुनिया भर के काली कमाई के लोगों का पसंदीदा स्थल स्विस बैंक ही होता है ,दुनिया के  कुछ देश ऐसे भी हैं , जिन्होनें अपनी प्रबल और ईमानदार कोशिशों से इस पर अंकुश लगाया भी है ,उन सभी से सबक लेकर हमारे देश में भी ठोस सार्थक पहल करनी होगी तभी कुछ हो सकेगा अन्यथा हम केवल लाप-विलाप -प्रलाप करते ही रह जायेंगे.उच्चत्तम न्यायलय कालेधन की वापसी को लेकर आस की किरण जगा रहा ,देश का आम नागरिक  चाहता है की किसी भी कीमत पर यह कालाधन देश में वापस ज़रूर आना चाहिए किंतुं सरकार “संधियों के मकड़जाल” की आड़ लेकर इससे बचने का पूरा पूरा प्रयास कर रही है ये भूल रहें हैं की इस देश में ४० करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे का जीवन जी रहें हैं जब की कुल ज़मा धन का मात्र  ३०% हिस्सा ही  करीब २० करोड़ नई नौकरियां पैदा कर स्वावलंबन की और लेजाकर बेरोज़गारी की समस्या को हल कर सकता है ,भारत प्रतिवर्ष प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में फिलहाल जितना खर्च करता है ,उसकी अगले १५० साल तक इस कालेधन से व्यवस्था हो सकती है,देशके अर्थशाष्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी ने वादा किया था की अपने कार्यकाल के सौ दिन के भीतर विदेशों में ज़मा धन वापस लाने की प्रक्रिया वे शुरू कर देंगें किन्तु वे भी अब अर्थशाष्त्री प्रधानमंत्री के बजाय कांग्रेसी प्रधानमन्त्री साबित हो रहें हैं .हाल ही में किये गए एक विश्वशनीय आकलन में स्पष्ट किया गया है की भारत में पिछले ६० वर्षों में भ्रष्ट लोगों ने करीब ६५० अरब डालर यानी ३४ लाख करोड़ रुपये का कालाधन बनाया है जो इस देश के सकल घरेलु उत्पाद का ५० प्रतिशत के बराबर है ,इस पर भी मज़े की बात ये है की लगभग ४७० अरब डालर यानी २५ लाख करोड़ रुपये विदेशों में ज़मा किये गएँ हैं ,इस वक्त मुझे परम आदरणीय अटल जी की ये पंक्तियाँ फिर याद आ .रही हैं की “ना दीन-ना ईमान-नेता बेईमान-फिर भी मेरा भारत महान”……अंत में कहने लिखने को बहुत कुछ है किन्तु इस प्रार्थना के साथ अपनी बात पूरी करूँगा की “ईश्वर अल्हा तेरो नाम -सबको सम्मति दे भगवान् ”