Saturday 19 March 2011

होली विशेषः कम से कम चार नरसिंह तो चाहिए ही



पाकिस्तान और ऑस्ट्रेलिया का मुकाबला जारी | ऑस्ट्रेलिया ने पाकिस्तान के सामने रखा 177 रन का टारगेट

होली विशेषः कम से कम चार नरसिंह तो चाहिए ही




 holi he..................................











holika.jpg

लो जी... फिर से आ गई होली। रंगों , उमंगों और तरंगों से भरी होली। मदमाते ' अनंगों ' और तान मिलाते मृदंगों की होली। फिर से मौक़ा मिलेगा एक दूसरे पर सतरंगी छींटे उड़ाने का। पर इस वर्ष स्थिति थोड़ी भिन्न है। इस पर्व-वेला में सतरंगी छींटे देखने को कम मिल रहे हैं। चहुंओर केवल एक रंग की छींटाकशी देखने को अधिक मिल रही है , और वह रंग है काला। विज्ञान कहता है कोई रंग न होने के परिणामस्वरूप जो वर्ण दिखता है , वह काला होता है। सारा समाज आज काले-धन और काले मन की विडंबनाओं से त्रस्त दिख रहा है। कुछ ऐसी ही पृष्ठभूमि में होली-पर्व की भी उत्पत्ति हुई थी। उस पृष्ठभूमि और आज की स्थिति में क्या अंतर्संबंध है इससे हमारे समाज के भविष्य का निर्णय किया जा सकता है।

होली के प्रचलन की अनेक कथाओं में प्रमुख है भक्त प्रहलाद , उसके पिता , बुआ और भगवान की कथा। कहा जाता है कि प्राचीन काल में एक असुर था जिसका नाम था हिरण्यकश्यप। अपने बल और सामर्थ्य के अभिमान में वह स्वयं को ही भगवान मानने लगा था। उसका पुत्र प्रह्लाद बड़ा ईश्वर भक्त था। बेचारे हिरण्यकश्यप कि भारी व्यथा यह थी कि उसके घर में ही उसे विद्रोह के स्वर (धर्म-पालन और ईश्वर-भक्ति के वचन) सुनाई दे रहे थे। प्रह्लाद की ईश्वर-भक्ति और धर्मपरायणता से नाराज होकर हिरण्यकश्यप ने उसे विभिन्न दंड दिए। परंतु पुत्र भी अडिग हो धर्म का मार्ग न छोड़ने को प्रतिबद्ध था। यहाँ सीन में उस असुर पिता की एक असुरा बहन भी थी , जिसका नाम था होलिका। उसको वरदान प्राप्त था कि वह आग में नहीं जल सकती। अत: कोई अन्य मार्ग न पाकर एक पिता ने अपने पुत्र की हत्या करने कि सोची। हिरण्यकश्यप ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे। उसको उम्मीद थी कि अग्नि में उसके अशक्त पुत्र कि इहलीला समाप्त हो जायेगी। परन्तु हुआ कुछ अलग ही। आग में बैठने पर होलिका तो जल गई और प्रह्लाद बच गया। यह देख हिरण्यकश्यप अपने पुत्र से और अधिक नाराज हो गया और पुत्र पर उसका अत्याचार बढ़ता चला गया।

उस ज़माने में बुरी प्रवृत्ति के लोग अत्यंत कठोर तपस्या दिखा कर अपने स्वार्थ साधने के लिए उपयोगी वरदान भगवान से येन-केन प्रकारेण पा ही लेते थे। अब भगवान भी ठहरे भोले-भाले। सुनने में आता है कि जब भी कोई असुर (भले ही बुरी महत्वाकांक्षा से ही क्यों न हो) उग्र तपस्या करता था , तो एक-दो देवताओं को रेफर करने के बाद अंतत: भगवान उसको दर्शन दे देते थे और कहते थे - बेटा , अब बस भी कर। खत्म कर यह खेल। क्यों इतना कष्ट देता है अपने को ? बोल क्या माँगता है ?... ज़ाहिर है ऐसा ही हिरण्यकश्यप के साथ भी हुआ। वैसे तो वह अमरता का वरदान प्राप्त करना चाहता था , किन्तु भगवान ने कहा कि यह वरदान वे नहीं दे सकते। इसपर उसने भी चालाकी से बाजी मारने कि कोशिश की। काफी जद्दोजहद के बाद उस असुर को यह वरदान मिला कि वह न दिन में मर सकता है न रात में , न जमीन पर मर सकता है और न आकाश या पाताल में , न मनुष्य उसे मार सकता है और न जानवर या पशु- पक्षी , इसीलिए भगवान उसे मारने का समय संध्या चुना और आधा शरीर सिंह का और आधा मनुष्य का- नरसिंह अवतार। नरसिंह भगवान ने हिरण्यकश्यप की हत्या न जमीन पर की न आसमान पर , बल्कि अपनी गोद में लेकर की।

इसी दिव्य प्रेरणा से आज , इस होली की “ करुण-रात्रि ” पर मैं आह्वान करता हूँ इस समाज की राष्ट्र-धर्म में आस्था को बचाने के लिए एक नहीं , दो नहीं , बल्कि चार-चार नृसिंहों का। कारण , आज विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के आधार स्वरूप जो चार खम्भे (अर्थात न्यायपालिका , कार्यपालिका , विधायिका और मीडिया) टूटने के कगार पर हैं , और इस देश के नागरिकों के अभिभावक स्वरूप माने जाने वाले प्रशासन-वर्ग और निर्वाचित प्रतिनिधियों में छिपे हिरण्यकश्यप इन खम्भों को जड़ या निर्जीव मान चुके हैं और खुली चुनौती दे रहे हैं समाज के “ प्रहलाद-वर्ग ” को , जो परम विश्वास के साथ इन स्तंभों की ओर देख रहे हैं , की इनमें निश्चय ही भगवान का वास है , जो हमारी , हमारे समाज और राष्ट्र की रक्षा करेंगे।

इन चारों स्तंभों को गिराने को उद्यत व्यक्तियों के अंदर के हिरण्यकश्यप को मारना आवश्यक है। इस क्रिया में बहुत पेचीदगी है। पहली तो यह , कि उस हिरण्यकश्यप की तरह इन हिरण्यकश्यपों को भी न ही अंदर मारा जा सकता है , और न ही बाहर। अर्थात इन चारों स्तंभों के सिस्टम के अंदर घुस कर या बाहर से ही इनपर आघात कर इनका संहार कर पाना असंभव दिखता है। वहाँ एक हिरण्यकश्यप था , यहाँ तो अनगिनत हैं , जो अपने ही स्वजनों को विद्रोही प्रहलाद मान मार देने पर उतारू हैं। ऐसे में इस सिस्टम या व्यवस्था ऐसे स्थान से सकारात्मक चोट और विध्वंस और निर्माण का एक ऐसा संतुलन देना होगा , कि पुरानी सड़ी-गली व्यवस्था धीरे-धीरे समाप्त हो , और उसका स्थान नवीन और कल्याणकारी व्यवस्था ले सके।

दूसरी पेचीदगी यह कि ये अंदर के हिरण्यकश्यप दिन के उजाले में उजले-उजले परिवेश में स्वयं को छिपा देवताओं के साथ घुल-मिल जाते हैं , जिससे इनको पहिचानने में मुश्किल होती है और रात के समय इतना अन्धेरा रहता है कि इनको खोजना मुश्किल है।

तीसरी पेचीदगी यह कि न ही इन हिरण्यकश्यपों को आकाश जैसी आदर्शवादिता कि ऊर्जा से मारा जा सकता है , और न ही पाताल जैसी आदर्शहीनता से। इनसे लड़ने के लिए अपनी आत्मा में आदर्श और सत्य कि ऊर्जा , और अपने कर्मों में वहीँ कूटनीति रखनी होगी , जो कृष्ण ने महाभारत-युद्ध में रखी थी।

चौथी पेचीदगी है मनुष्यता और पाशविकता की। यदि शुद्ध मनुष्यता का पालन करें , तो हिरण्यकश्यप हमें बेच खाएंगे , और यदि पशु ही बन जाएँ तो उनमें और हममें फर्क ही क्या रह जाएगा। ऐसे में मनुष्यता और पशुता का एक मध्यमान कुछ इस प्रकार से स्थापित करना होगा , कि चेतना तो मनुष्यता कि रहे , और उग्रता एक पशु के सामान हो। कदम तो मनुष्य के अनुसार ही चलें , और गर्जन , बाहुबल सिंह के सामान हो।

विचार किया जाए , तो इन चार पेचीदगियों का यदि हम उपचार कर ले गए , तो निश्चय ही हम सभी स्तंभों कि रक्षा कर सकते हैं।
वैसे , भगवान को मैंने बाहर तो कहीं देखा नहीं। हर किसी “ एक्स वाई जेड ” की बात मानें , तो भगवान हमारे अंदर ही हैं। यह बात फिर भी जँचती है। और कुछ दिन पहले एक मधुर उक्ति सुनाने को मिली - , “ अपने मरने से ही स्वर्ग मिलता है ”... तो इन दोनों तथ्यों के प्रभाव में आकर लगता है कि वह नरसिंह उस प्रहलाद के अंदर से ही निकला होगा। प्रहलाद में से ही नरसिंह का निकलना अर्थात अच्छे धार्मिक और सज्जन व्यक्तियों को मात्र अच्छाई का पालन ही नहीं , बल्कि बुराइयों का समूल-संहार करने के लिए भी कमर कसनी होगी। वास्तव में भगवान भी समाज के सज्जन व्यक्तियों को सक्रिय होने की प्रेरणा देकर ही दुर्जनों को निष्क्रिय या समाप्त करते हैं।

वैसे , होलिका-दहन तो फाल्गुन पूर्णिमा की बात है और नरसिंह प्रगटे थे वैशाख महीने के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को। फिर भी मैं यह मानते हुए कि नरसिंह तो हमारे अंदर ही हैं , अपने को इस होलिका दहन पर ही जी भर के झकझोर देना चाहता हूँ और अंदर के नरसिंह को अग्रिम निमंत्रण दे देना चाहता हूँ।

उम्मीद है कि शीघ्र ही लोकतंत्र के इन चारों टूटते स्तंभों में से हमारे , यानी देश के सज्जन-समाज के अंदर के नरसिंह अवतरित होंगे और श्रीमद्भगवद्गीता के वायदे के अनुसार धर्म कि ग्लानि दूर करेंगे। अत: कम से कम चार नरसिंह तो चाहिए ही , परन्तु अच्छा रहेगा कि अधिक अवतरित हो सकें , जो भारतीय संसद के एक सौ चवालीस स्तंभों से निकल कर उन दुष्टों को निर्माण और प्रलय के मध्यबिंदु पर खत्म कर सकें , जिन्होंने संसद के गलियारों को स्वार्थ-सिद्धि का माध्यम बनाया हुआ है।

No comments:

Post a Comment