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बंगाल प्रांत के ग्राम कामारपुकुर में 17 फरवरी 1836 को जन्मे रामकृष्ण के बचपन का नाम गदाधर था। बताया जाता है कि एक दिन माता ने स्नेह पूर्वक एक सोने का हार पुत्र के गले में पहना दिया किंतु शिशु ने तत्काल उसके टुकड़े टुकड़े कर फेंक दिया। सात वर्ष की आयु में पिताजी नहीं रहे। इसी बीच गदाधर के भौहों के मध्य एक फोड़ा हुआ। चिकित्सक ने कहा कि बेहोश करके फोड़े को चीरना होगा। बालक ने कहा कि बेहोश करने की जरूरत नहीं, ऐसे ही काटिए, मैं हिलूंगा नहीं।
जब गदाधर को ओरिएंटल सेमिनरी में भर्ती कराया गया तो किसी सहपाठी को फटा कुर्ता पहने देखकर अपना नया कुर्ता उसे दे दिया। कई बार ऐसा होने पर एक दिन माता ने गदाधर से कहा, प्रतिदिन नया कुर्ता कहां से लाऊंगी? बालक ने कहा, ठीक है, मुझे एक चादर दे दो, कुर्ते की आवश्यकता नहीं है। मित्रों की दुर्व्यवस्था देखकर संवेदनशील गदाधर के हृदय में करुणा उभर आती थी। उन्हें कोलकाता आने वाले साधुओं के मुख से हरिकथा सुनने का बड़ा लगाव था। विवेकानंद ने एक बार उनसे पूछा था , क्या आपने ईश्वर को देखा है। युगद्रष्टा रामकृष्ण ने उत्तर दिया,हाँ देखा है, जिस प्रकार तुम्हें देख रहा हूं ठीक उसी प्रकार, बल्कि उससे कहीं अधिक स्पष्टता से। माँ काली के सच्चे आराधक रामकृष्ण परमहंस भारतीय मनीषा थे। स्वामी विवेकानंद ने जब एक बार रोगमुक्ति के लिए काली से उन्हें प्रार्थना करने को कहा तो वे बोले, इस तन पर मां का अधिकार है। मैं क्या कहूं, जो वह करेंगी अच्छा ही करेंगी। 15 अगस्त 1886 को रामकृष्ण तीन बार काली का नाम उच्चारण कर सदा के लिए समाधि में लीन हो गए।
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