शुकरहस्योपनिषद इस कृष्ण यजुर्वेदीय उपनिषद में महर्षि व्यास जी के आग्रह पर भगवान शिव
उनके पुत्र शुकदेव को चार महावाक्यों का उपदेश 'ब्रह्म रहस्य'के रूप में देते हैं। वे चार
महावाक्य-
#ॐ प्रज्ञानं ब्रह्म,
ॐअहं ब्रह्मास्मि,
ॐ तत्त्वमसि और
ॐ
अयमात्मा ब्रह्म हैं। ----------------------
ॐ प्रज्ञानं ब्रह्म (चेतना ब्रह्म है)
| Consciousness is Brahman इस महावाक्य का अर्थ है-
'प्रकट ज्ञान ब्रह्म है।' वह ज्ञान-स्वरूप ब्रह्म जानने योग्य
है और ज्ञान गम्यता से परे भी है। वह
विशुद्ध-रूप, बुद्धि-रूप, मुक्त-रूप
और अविनाशी रूप है। वही सत्य, ज्ञान
और सच्चिदानन्द-स्वरूप ध्यान करने
योग्य है। उस महातेजस्वी देव का
ध्यान करके ही हम 'मोक्ष' को प्राप्त
कर सकते हैं। वह परमात्मा सभी
प्राणियों में जीव-रूप में
विद्यमान है। वह सर्वत्र अखण्ड
विग्रह-रूप है। वह हमारे चित और
अहंकार पर सदैव नियन्त्रण करने
वाला है। जिसके द्वारा प्राणी
देखता, सुनता, सूंघता, बोलता और
स्वाद-अस्वाद का अनुभव करता है, वह
प्रज्ञान है। वह सभी में समाया हुआ
है। वही 'ब्रह्म' है। -------------------------------- उस
ब्रह्म को जानने के लिए चित कि
शुद्धता आवश्यक है, वह ब्रह्म ज्ञान
गम्यता से परे है, ब्रह्म का ध्यान
करके ही हम ‘मोक्ष’ को प्राप्त
कर सकते हैं, उसी का आधार प्राप्त
करके सभी जीवों में चेतना का समावेश
होता है, वह अखण्ड विग्रह रूप में
चारों ओर व्याप्त होता है. वही
हमारी शक्तियों हमारी किर्याओं पर
नियंत्रण करने वाला है. उसी की
प्रार्थना द्वारा चित और अहंकार पर
नियन्त्रण प्राप्त किया जा सकता है
वह प्रज्ञान अर्थात चैतन्य
विद्वान पुरुष है सभी में समाहित
ब्रह्म मोक्ष का मार्ग है.
----------------------------------- ॐ अहं ब्रह्मास्मि | I am
Brahman इस महावाक्य का अर्थ है- 'मैं
ब्रह्म हूं।' यहाँ 'अस्मि' शब्द से
ब्रह्म और जीव की एकता का बोध होता
है। जब जीव परमात्मा का अनुभव कर
लेता है, तब वह उसी का रूप हो जाता
है। दोनों के मध्य का द्वैत भाव
नष्ट हो जाता है। उसी समय वह 'अहं
ब्रह्मास्मि' कह उठता है। -----------------------
ॐ तत्त्वमसि | That Thou Art इस महावाक्य का
अर्थ है-'वह ब्रह्म तुम्हीं हो।'
सृष्टि के जन्म से पूर्व, द्वैत के
अस्तित्त्व से रहित, नाम और रूप से
रहित, एक मात्र सत्य-स्वरूप,
अद्वितीय 'ब्रह्म' ही था। वही
ब्रह्म आज भी विद्यमान है। उसी
ब्रह्म को 'तत्त्वमसि' कहा गया है।
वह शरीर और इन्द्रियों में रहते हुए
भी, उनसे परे है। आत्मा में उसका अंश
मात्र है। उसी से उसका अनुभव होता
है, किन्तु वह अंश परमात्मा नहीं
है। वह उससे दूर है। वह सम्पूर्ण
जगत में प्रतिभासित होते हुए भी
उससे दूर है। ---------------------
शुकरहस्योपनिषद में इस ॐ
तत्त्वमसि महावाक्य को स्पष्ट
करते हुए भगवन कहते हैं कि ब्रह्म
तुम्हीं हो, सृष्टि पूर्व, द्वैत
रहित, नाम, रूप से रहित,केवल ब्रह्म
ही विराजमान था और आज भी वही है आदि
से अंत उसी की सत्ता उपस्थित रही है.
इसी कारण ब्रह्म को ‘तत्त्वमसि’
कहा गया. ब्रह्म देह में रहते हुए भी
उससे मुक्त है केवल आत्मा द्वारा
उसका अनुभव होता है, वह संपूर्ण
सृष्टि में होते हुए भी उससे दूर है.
---------------------------------- ॐ अयमात्मा ब्रह्म | This
Self is Brahman. इस महावाक्य का अर्थ है- 'यह
आत्मा ब्रह्म है।' उस स्वप्रकाशित
परोक्ष (प्रत्यक्ष शरीर से परे)
तत्त्व को 'अयं' पद के द्वारा
प्रतिपादित किया गया है। अहंकार से
लेकर शरीर तक को जीवित रखने वाली
अप्रत्यक्ष शक्ति ही 'आत्मा' है। वह
आत्मा ही परब्रह्म के रूप में समस्त
प्राणियों में विद्यमान है।
सम्पूर्ण चर-अचर जगत में तत्त्व-रूप
में वह संव्याप्त है। वही ब्रह्म
है। वही आत्मतत्त्व के रूप में
स्वयं प्रकाशित 'आत्मतत्त्व' है।
अन्त में भगवान शिव शुकदेव से कहते
हैं-'हे शुकदेव! इस सच्चिदानन्द-
स्वरूप 'ब्रह्म' को, जो तप और ध्यान
द्वारा प्राप्त करता है, वह
जीवन-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता
है।' भगवान शिव के उपदेश को सुनकर
मुनि शुकदेव सम्पूर्ण जगत के
स्वरूप परमेश्वर में तन्मय होकर
विरक्त हो गये। उन्होंने भगवान को
प्रणाम किया और सम्पूर्ण
प्ररिग्रह का त्याग करके तपोवन की
ओर चले गये। ------------- देह का प्राण
आत्मा ही है वह आत्मा ही परब्रह्म
के रूप में समस्त प्राणियों में
विराजमान है. सम्पूर्ण चर, अचर में
तत्त्व-रूप में वह व्याप्त है,
आत्मतत्त्व के रूप में स्वयं
प्रकाशित ब्रह्म है. इस प्रकार चार
मावाक्यों का के ज्ञान का बोध कराकर
भगवान शिव शुकदेव को प्रणव मंत्र के
विषय में बताते हैं तथा
ब्रह्मप्रणव के अर्थ को व्यक्त
करते हैं शिव शुकदेव को वेद और वेद
मंत्रों का संदेश,समझाते हैं. भगवान
शिव शुकदेव को बताते हैं कि
सच्चिदानन्द ब्रह्म को, तपस्या एवं
साधना ध्यान द्वारा प्राप्त किया
जा सकता है तथा गुरू के निर्देश
स्वरुप तप करके ब्रह्म को जाना जा
सकता है. जो भी जीव इस ब्रह्म को जान
लेते है वह मोक्ष को पाता है. इस
प्रकार भगवान शिव के उपदेश को
प्राप्त करके शुकदेव संपूर्ण
सृष्टि स्वरूप परमेश्वर में तन्मय
होकर विरक्त हो जाते हैं तथा
प्ररिग्रह का त्याग करके तपोवन की
ओर ब्रह्म साधना के लिए चले जाते
हैं.
उनके पुत्र शुकदेव को चार महावाक्यों का उपदेश 'ब्रह्म रहस्य'के रूप में देते हैं। वे चार
महावाक्य-
#ॐ प्रज्ञानं ब्रह्म,
ॐअहं ब्रह्मास्मि,
ॐ तत्त्वमसि और
ॐ
अयमात्मा ब्रह्म हैं। ----------------------
ॐ प्रज्ञानं ब्रह्म (चेतना ब्रह्म है)
| Consciousness is Brahman इस महावाक्य का अर्थ है-
'प्रकट ज्ञान ब्रह्म है।' वह ज्ञान-स्वरूप ब्रह्म जानने योग्य
है और ज्ञान गम्यता से परे भी है। वह
विशुद्ध-रूप, बुद्धि-रूप, मुक्त-रूप
और अविनाशी रूप है। वही सत्य, ज्ञान
और सच्चिदानन्द-स्वरूप ध्यान करने
योग्य है। उस महातेजस्वी देव का
ध्यान करके ही हम 'मोक्ष' को प्राप्त
कर सकते हैं। वह परमात्मा सभी
प्राणियों में जीव-रूप में
विद्यमान है। वह सर्वत्र अखण्ड
विग्रह-रूप है। वह हमारे चित और
अहंकार पर सदैव नियन्त्रण करने
वाला है। जिसके द्वारा प्राणी
देखता, सुनता, सूंघता, बोलता और
स्वाद-अस्वाद का अनुभव करता है, वह
प्रज्ञान है। वह सभी में समाया हुआ
है। वही 'ब्रह्म' है। -------------------------------- उस
ब्रह्म को जानने के लिए चित कि
शुद्धता आवश्यक है, वह ब्रह्म ज्ञान
गम्यता से परे है, ब्रह्म का ध्यान
करके ही हम ‘मोक्ष’ को प्राप्त
कर सकते हैं, उसी का आधार प्राप्त
करके सभी जीवों में चेतना का समावेश
होता है, वह अखण्ड विग्रह रूप में
चारों ओर व्याप्त होता है. वही
हमारी शक्तियों हमारी किर्याओं पर
नियंत्रण करने वाला है. उसी की
प्रार्थना द्वारा चित और अहंकार पर
नियन्त्रण प्राप्त किया जा सकता है
वह प्रज्ञान अर्थात चैतन्य
विद्वान पुरुष है सभी में समाहित
ब्रह्म मोक्ष का मार्ग है.
----------------------------------- ॐ अहं ब्रह्मास्मि | I am
Brahman इस महावाक्य का अर्थ है- 'मैं
ब्रह्म हूं।' यहाँ 'अस्मि' शब्द से
ब्रह्म और जीव की एकता का बोध होता
है। जब जीव परमात्मा का अनुभव कर
लेता है, तब वह उसी का रूप हो जाता
है। दोनों के मध्य का द्वैत भाव
नष्ट हो जाता है। उसी समय वह 'अहं
ब्रह्मास्मि' कह उठता है। -----------------------
ॐ तत्त्वमसि | That Thou Art इस महावाक्य का
अर्थ है-'वह ब्रह्म तुम्हीं हो।'
सृष्टि के जन्म से पूर्व, द्वैत के
अस्तित्त्व से रहित, नाम और रूप से
रहित, एक मात्र सत्य-स्वरूप,
अद्वितीय 'ब्रह्म' ही था। वही
ब्रह्म आज भी विद्यमान है। उसी
ब्रह्म को 'तत्त्वमसि' कहा गया है।
वह शरीर और इन्द्रियों में रहते हुए
भी, उनसे परे है। आत्मा में उसका अंश
मात्र है। उसी से उसका अनुभव होता
है, किन्तु वह अंश परमात्मा नहीं
है। वह उससे दूर है। वह सम्पूर्ण
जगत में प्रतिभासित होते हुए भी
उससे दूर है। ---------------------
शुकरहस्योपनिषद में इस ॐ
तत्त्वमसि महावाक्य को स्पष्ट
करते हुए भगवन कहते हैं कि ब्रह्म
तुम्हीं हो, सृष्टि पूर्व, द्वैत
रहित, नाम, रूप से रहित,केवल ब्रह्म
ही विराजमान था और आज भी वही है आदि
से अंत उसी की सत्ता उपस्थित रही है.
इसी कारण ब्रह्म को ‘तत्त्वमसि’
कहा गया. ब्रह्म देह में रहते हुए भी
उससे मुक्त है केवल आत्मा द्वारा
उसका अनुभव होता है, वह संपूर्ण
सृष्टि में होते हुए भी उससे दूर है.
---------------------------------- ॐ अयमात्मा ब्रह्म | This
Self is Brahman. इस महावाक्य का अर्थ है- 'यह
आत्मा ब्रह्म है।' उस स्वप्रकाशित
परोक्ष (प्रत्यक्ष शरीर से परे)
तत्त्व को 'अयं' पद के द्वारा
प्रतिपादित किया गया है। अहंकार से
लेकर शरीर तक को जीवित रखने वाली
अप्रत्यक्ष शक्ति ही 'आत्मा' है। वह
आत्मा ही परब्रह्म के रूप में समस्त
प्राणियों में विद्यमान है।
सम्पूर्ण चर-अचर जगत में तत्त्व-रूप
में वह संव्याप्त है। वही ब्रह्म
है। वही आत्मतत्त्व के रूप में
स्वयं प्रकाशित 'आत्मतत्त्व' है।
अन्त में भगवान शिव शुकदेव से कहते
हैं-'हे शुकदेव! इस सच्चिदानन्द-
स्वरूप 'ब्रह्म' को, जो तप और ध्यान
द्वारा प्राप्त करता है, वह
जीवन-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता
है।' भगवान शिव के उपदेश को सुनकर
मुनि शुकदेव सम्पूर्ण जगत के
स्वरूप परमेश्वर में तन्मय होकर
विरक्त हो गये। उन्होंने भगवान को
प्रणाम किया और सम्पूर्ण
प्ररिग्रह का त्याग करके तपोवन की
ओर चले गये। ------------- देह का प्राण
आत्मा ही है वह आत्मा ही परब्रह्म
के रूप में समस्त प्राणियों में
विराजमान है. सम्पूर्ण चर, अचर में
तत्त्व-रूप में वह व्याप्त है,
आत्मतत्त्व के रूप में स्वयं
प्रकाशित ब्रह्म है. इस प्रकार चार
मावाक्यों का के ज्ञान का बोध कराकर
भगवान शिव शुकदेव को प्रणव मंत्र के
विषय में बताते हैं तथा
ब्रह्मप्रणव के अर्थ को व्यक्त
करते हैं शिव शुकदेव को वेद और वेद
मंत्रों का संदेश,समझाते हैं. भगवान
शिव शुकदेव को बताते हैं कि
सच्चिदानन्द ब्रह्म को, तपस्या एवं
साधना ध्यान द्वारा प्राप्त किया
जा सकता है तथा गुरू के निर्देश
स्वरुप तप करके ब्रह्म को जाना जा
सकता है. जो भी जीव इस ब्रह्म को जान
लेते है वह मोक्ष को पाता है. इस
प्रकार भगवान शिव के उपदेश को
प्राप्त करके शुकदेव संपूर्ण
सृष्टि स्वरूप परमेश्वर में तन्मय
होकर विरक्त हो जाते हैं तथा
प्ररिग्रह का त्याग करके तपोवन की
ओर ब्रह्म साधना के लिए चले जाते
हैं.
गोमाता की पुकार
ReplyDeleteआप उठते हि किसको देखते हैं
ईश्वर उठते हि मुझको देखते हैं
क्या आप मेरे बच्चों के
चमड़े से बना . . .
चप्पल,
बटवा,
हैंण्ड बैग,
बेल्ट,
आदि का उपयोग
सहि मान्ते हैं ?
क्या ईश्वर आपकी पुकार सुनेगा ?
क्या आपको ईश्वर का अनुग्रह नहीं चाहिए ?
चमड़े से बनी चीज़ को सक्त मना कीजिए
ईश्वर का दया की पात्र बन जाईए