Thursday 16 December 2010

स्वयंसेवकों से अपेक्षा : : संघ

स्वयंसेवकों से अपेक्षा

by  राजेन्द्र सिंह चौहान onसाभार - श्री गुरूजी जन्म शताब्दी वर्ष
संघ-संस्थापक पूजनीय डॉक्टर केशवराव बलिराम हेडगेवार के जीवन-काल के 15 वर्षों में संघ और उसके स्वयंसेवक शाखाओं के माधयम से हिन्दू समाज के संगठन-कार्य में ही संलग्न रहे। जून, 1940 में उनके दिवंगत होने पर पूजनीय श्रीगुरुजी के मार्गदर्शन के प्रारम्भिक कुछ वर्षों में संघ के स्वयंसेवक अपने समाज को पुष्ट करने तथा अपने समाज-बन्धुओं का संरक्षण करने में ही तल्लीन रहे। किन्तु कार्य विस्तार और स्वयंसेवक वर्ग में आयी परिपक्वता के फलस्वरूप संघ के स्वयंसेवकों का जब समाज-जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में प्रवेश होने लगा तब उनके लिए यह स्वाभाविक था कि संघ-शाखाओं से संस्कारयुक्त ये स्वयंसेवक समाज-जीवन के विविध क्षेत्रों में इस सनातन राष्ट्र की कालजयी संस्कृति के श्रेष्ठतम आदर्शों, संघ के ध्येयवाद, इस देश की पावन जीवन-पध्दति आदि की अमिट छाप वहाँ अंकित करते हुए राष्ट्र-जीवन को समुन्नत बनाने में अपना सक्रिय योगदान करने के दायित्व को पूर्ण करें।
प्रतिनिधि फलस्वरूप पत्रकारिता, विद्यार्थी, मजदूर, राजनीतिक, शिक्षक, किसान, वनवासी आदि अनेक क्षेत्रों में संघ-स्वयंसेवक सक्रिय हुए। पूजनीय श्रीगुरुजी ने इस विकास-क्रम को स्वाभाविक बताते हुए समाज-जीवन के विविध क्षेत्रों में सक्रिय हुए स्वयंसेवकों का मार्गदर्शन किया और उन्हें स्पष्ट रूप से यह बताया कि जिस प्रकार अपने देश का एक राजदूत अन्य देश में जाकर इस राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करते हुए अपने राष्ट्र के उदात्त आदर्शों की छाप वहाँ पर अंकित करने हेतु सदैव जागरूक और सचेष्ट रहता है, उसी भाँति संघ-स्वयंसेवकों को भी समाज-जीवन के विविधा क्षेत्रों में संघ के विचार और व्यवहार का प्रतिनिधि बन कर अपने क्रिया-कलापों से उच्चता, श्रेष्ठता, त्याग भावना, परस्पर बन्धुता, पवित्रता, आदर्शवादिता को व्यावहारिक रूप देकर संघ के विचार और आचार का प्रभाव प्रस्थापित करना चाहिए।
इसके साथ ही श्री गुरुजी ने समय-समय पर इन स्वयंसेवकों को असंदिग्ध शब्दों में यह भी स्पष्ट कर दिया था कि समाज-जीवन के विविध क्षेत्रों में अपनी सक्रियता को ही वे संघ-कार्य मानने की भूल न करें। स्वयंसेवक उन्हें नित्य चलने वाले संघ-कार्य के साथ पूर्ण करें क्योंकि उक्त विविध कार्य संघ-कार्य के लिए सहायक तो हो सकते हैं किन्तु वे उसका विकल्प कतई नहीं हैं। श्री गुरुजी के शब्दों में ''संघ-कार्य सर्वांगपूर्ण है। भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में सक्रिय अपने कार्यकर्ता उन समस्त क्षेत्रों के एक-एक क्षेत्र को प्रभावित करने वाले प्रतिनिधि के समान हैं। संघ के दैनन्दिन कार्य से जीवन्त संबंध रख कर उनको अपने त्याग, तपस्या, श्रम तथा कौशल से हर क्षेत्र में आदर्श उपस्थित करते हुए संघ के महान लक्ष्य की पूर्ति करनी है।''

ग्रामोत्थान और ग्राम विकास

समाज-जीवन के विविध क्षेत्रों में सक्रिय संघ-स्वयंसेवकों के समक्ष अपने एक उद्बोधान में अपने उक्त कथन की व्याख्या करते हुए श्रीगुरुजी ने कहा था कि कृषि के क्षेत्र से संबध्द अपने स्वयंसेवकों की संख्या सम्पूर्ण देश में फैली हुई है। उनके मध्य कार्य करते समय स्वयंसेवकों को कृषि की दशा सुधारने, उपज बढ़ाने, कृषि को आधुनिक रूप देने, उनकी अशिक्षा को दूर कर उनके ज्ञान में वृध्दि करने, गोरक्षा और गो-संवर्धान को प्रोत्साहन देने आदि की दिशा में सक्रिय रूप से सचेष्ट होना चाहिए। किसान और खेतिहर मजदूर के मध्य सामंजस्य बैठाते हुए न्याय रीति से, सबकी भलाई का ध्यान रखकर उनके झगड़ों का सौहार्दपूर्ण हल खोजना होगा। इसके साथ ही किसान और खेतिहर मजदूर दोनों के ही मध्य अपनी पवित्र मातृभूमि का, धर्म- संस्कृति-समाज-परम्परा का बोध सम्यक् रूप से प्रस्थापित करने का प्रयास करना होगा क्योंकि उससे उनके मध्य समरसतापूर्ण जीवन का निर्माण होने के साथ संघ शाखा के रूप में दैनन्दिन श्रेष्ठ संस्कारों की योजना को भी व्यावहारिक रूप देकर सही अर्थों में ग्राम-विकास और ग्रामोत्थान के कार्य को आगे बढ़ाया जा सकेगा।

शिक्षा जगत्

इसी भाँति शिक्षा क्षेत्र में सक्रिय स्वयंसेवकों को सचेत करते हुए श्री गुरुजी ने कहा था कि आज तो शिक्षकों का काम शिक्षक संघ का चुनाव लड़ना, उसके माध्यम से राजनीतिक श्रेष्ठता प्राप्त करना, समय-समय पर वेतन-वृध्दि और सेवा सुरक्षा हेतु आन्दोलन करना और कम से कम काम करना हो गया है। अत: उनके मध्य कार्य करने वाले स्वयंसेवकों का यह दायित्व है कि वे उन्हें इस तथ्य से भलीभाँति अवगत करायें कि शिक्षक केवल वेतनभोगी कर्मचारी न होकर अपने विशाल समाज का एक अभिन्न अंग है। उस पर राष्ट्र की भावी पीढ़ी के निर्माण का गुरुतर दायित्व है। अत: उनका कार्य जहाँ शिक्षार्थियों में पाठयक्रम के आधार पर उनकी ज्ञान-वृध्दि करना है वहीं उनके अन्दर शील, चारित्र्य एवं बुध्दि आदि का विकास कर उनके मन-मस्तिष्क में ज्ञान की भूख जगाना भी है। किन्तु यह तभी संभव हो सकेगा जब शिक्षक वर्ग अपने स्वयं के आचरण से इन श्रेष्ठ जीवनादर्शों को शिक्षार्थियों के समक्ष प्रस्तुत करेगा और स्वयं भी ज्ञानार्जन के प्रति पूर्णरूपेण समर्पित होगा।

विद्यार्थी और शिक्षक

श्रीगुरुजी का स्पष्ट अभिमत था कि विद्यार्थी केवल परीक्षार्थी नहीं है। अत: परीक्षा में किसी भी प्रकार उत्तीर्ण हो जाना उसका ध्येय नहीं हो सकता। उसे आधुनीकतम ज्ञान से युक्त बनाना, उसके व्यक्तिगत और सामाजिक-राष्ट्रीय चारित्र्य का विकास करना, उसे परिपूर्ण मानव बनने के लिए प्रेरित करना यह शिक्षक तथा विद्यार्थियों के मध्य कार्य करने वाले स्वयंसेवकों का दायित्व है। उन्हें राष्ट्र की भावी पीढ़ी को अपने इस सनातन राष्ट्र की गौरवशाली परम्पराओं, उसके श्रेष्ठ जीवन-दर्शन, उसके वैशिष्टययुक्त राष्ट्र-जीवन आदि से अवगत कराकर विद्यार्थी समुदाय को उन श्रेष्ठ आदर्शों को अपने जीवन में चरितार्थ करने के लिए प्रेरित करने की दिशा में सचेष्ट होना चाहिए। विद्यार्थी जगत् में चल रही आंदोलनकारी प्रवृत्ति को राष्ट्र-जीवन के लिए घातक मानते हुए श्रीगुरुजी का कहना था कि आन्दोलन का सहारा तो अन्य कोई उपाय शेष न रहने पर ही लिया जाना चाहिए, अन्यथा नहीं। शैक्षणिक क्षेत्र में सक्रिय स्वयंसेवकों को इस तथ्य को भलीभाँति हृदयंगम कर आगे बढ़ना चाहिए कि विद्यार्थी और शिक्षक दो पृथक् परस्पर-विरोधी वर्ग न होकर एक-दूसरे से अभिन्न रूप में सम्बध्द हैं क्योंकि वे एक-दूसरे के पूरक हैं।

श्रमिक क्षेत्र

मजदूर और राजनीतिक क्षेत्र की चर्चा करते हुए श्रीगुरुजी ने कहा था कि इन दोनों क्षेत्रों में प्राय: अवसरवादिता का बोलबाला रहता है और उसके परिणामस्वरूप उनके नेताओं द्वारा उद्धोषित उनके श्रेष्ठ आदर्श, सिध्दान्त, जीवन-मूल्य आदि या तो समाप्त हो जाते हैं अथवा वे निष्प्रभावी बन जाते हैं।
श्री गुरुजी को मजदूर और राजनीतिक क्षेत्र का यह दुर्भाग्यपूर्ण चित्र राष्ट्र के व्यापक तथा दूरगामी हित की दृष्टि से अत्यधिक भयावह प्रतीत होता था। अत: उन्होंने इन क्षेत्रों में सक्रिय स्वयंसेवकों को सचेत करते हुए कहा था कि क्षणिक लाभ और सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए अपने आदर्शों का कभी भी विस्मरण नहीं होने देना चाहिए। श्रमिक क्षेत्र में पश्चिमी जगत् की चल रही इस अवधारणा को वे राष्ट्र-जीवन के लिए अत्यन्त घातक मानते थे कि श्रमिक जगत् का राष्ट्रभक्ति से क्या लेना-देना? श्रमिक आन्दोलन को तो केवल श्रमिकों की आर्थिक हित-चिन्ता करते हुए आन्दोलनों का ही सहारा लेकर औद्योगिक क्षेत्र में टकराव की स्थिति उत्पन्न करनी चाहिए।

श्रमिक उत्पादक है

इसके विपरीत उनका यह सुनिश्चित अभिमत था कि श्रमिक भी राष्ट्र-जीवन का उतना ही अत्यन्त महत्वपूर्ण अंग है जितना कि समाज-जीवन का अन्य कोई अंग हो सकता है। श्रमिक मात्र वेतनभोगी कर्मचारी नहीं है, वह राष्ट्र-जीवन में विविध वस्तुओं का उत्पादक है। इसीलिए हमारी श्रेष्ठ संस्कृति में संसार के सर्वप्रथम शिल्पकार को भगवान् विश्वकर्मा कहकर गौरवान्वित किया गया है। श्रमिकों को भरपेट भोजन, वस्त्र, निवास आदि की सुविधायें प्राप्त होनी ही चाहिएँ। किन्तु उसके अन्दर अपने-आपको शेष समाज से पृथक एक वर्ग मानने की दूषित भावना उत्पन्न नहीं होने देना चाहिये और यह तभी सम्भव है जब श्रमिक वर्ग की दैनन्दिन जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सक्रियता दिखाने के साथ-साथ उनके हृदयों में प्रखर राष्ट्रभक्ति की ज्वाला भी उन्हें संघ शाखा पर लाकर प्रज्वलित की जाए।

राजनीतिक क्षेत्र

अपने देश के राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय स्वयंसेवकों से संघ-शाखाओं द्वारा उनमें अनुप्राणित किए गए आदर्शवाद का पूर्ण निष्ठा के साथ पालन करने का बड़ा ही जबरदस्त आग्रह श्रीगुरुजी का था। इस संबंध में भारतीय जनसंघ की स्थापना के कुछ समय बाद तमिलनाडु में जनसंघ का कार्य प्रारम्भ होने पर वहाँ के प्रदेश अध्यक्ष डा. जॉन नामक एक ईसाई सज्जन श्रीगुरुजी से भेंट-वार्ता करने आए। उस भेंट-वार्ता में श्रीगुरुजी ने उनसे स्पष्ट शब्दों में पूछा कि आपको इस तथ्य की जानकारी होगी ही कि जनसंघ में संघ के अनेक स्वयंसेवक सक्रिय हैं और वे हिन्दू राष्ट्र की श्रेष्ठ संकल्पना के अनुयायी हैं। डॉ. जान ने प्रत्युत्तर में कहा कि हाँ, उन्हें इन तथ्यों की जानकारी है। इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी कहा कि ''सिध्दान्तों के विषय में संघ के स्वयंसेवकों की जो यह एकान्तिक निष्ठा है, उसका मैं हृदय से अभिनन्दन करता हूँ। मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि भारत हिन्दू राष्ट्र ही है। इसके अतिरिक्त वह अन्य कुछ हो भी नहीं सकता।''
डॉ. जॉन के इस उध्दरण के साथ श्रीगुरुजी ने राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय स्वयंसेवकों को सचेत करते हुए कहा कि ''राजनीतिक क्षेत्र में अनेक अस्थायी बातें, अनेक आन्दोलन करने पड़ते हैं। आप इनसे बच भी नहीं सकते। किन्तु इसमें अपना जो मूलभूत विचार है, यदि उसका स्मरण न रहा तो काम करने का लाभ क्या? अपना विस्मरण न हो, यह भार आपके ऊपर है। .... यह सब काम करते समय अपना जो मूल है, जड़ है, उसका स्मरण याने अपनी धयेयवादिता, अपना जीवन का लक्ष्य, उसके अनुसार अपने चारों ओर कार्यकर्ताओं को बनाना, तदनुसार अपने कार्य का मार्गदर्शन करना, उसको उस ढंग से चलाना चाहिए। इसलिए बार-बार सब कार्यकर्ताओं को एकत्र बैठकर, चिन्तन-परामर्श करते हुए, आवश्यकता पड़ने पर गम्भीर विचार-विनिमय करते हुए यह अध्ययनशीलता सब में उत्पन्न करने की आवश्यकता है। अपनी ध्येयनिष्ठा, ध्येयवादिता, ध्येय का जागरण हृदय में अत्यन्त स्पष्ट रखना चाहिए। कहीं पर भी उसको धुँधला नहीं होने देना चाहिए। संघ के द्वारा जिसका पोषण हुआ यह अपना आदर्शवाद अत्यन्त प्रभावपूर्ण चेतना देने वाला सामर्थ्य है और उस कारण संघ को भी हम लोग बढ़ा देंगे। यह सब लोगों के ध्यान में रखना चाहिए।''
श्रीगुरुजी के उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि वे जोड़-तोड़ की अवसरवादी राजनीति के स्थान पर उच्चादर्शों पर आधारित समाजसेवी एवं सर्वजन हितकारी राजनीति को वरीयता प्रदान करते थे तथा राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय व्यक्तियों से यह अपेक्षा करते थे कि वे अपने-आपको नवीनतम ज्ञान से लाभान्वित करें।

वनवासी समाज

स्वामी विवेकानन्द की भाँति श्रीगुरुजी अपने देश के समस्त समाज-बन्धुओं को एक विराट और विशाल परिवार का अभिन्न घटक मानते थे। अत: सुदूर गिरि-पर्वतों, कन्दराओं, उपत्यकाओं आदि अत्यन्त बीहड़ और दुर्गम क्षेत्रों में निवास करने वाले अपने समाज-बन्धुओं की उन्हें विशेष चिन्ता रहती थी। किन्तु आधुनिक प्रगतिशील कहे जाने वाले बुध्दिजीवियों तथा पश्चिमी जगत् के तथाकथित इतिहासकारों के उच्छिष्ट ज्ञान को ब्रह्म वाक्य मानकर चलने वाले अपने शासन-तन्त्र द्वारा उन समाज-बन्धुओं को 'आदिवासी' शब्द से सम्बोधित किया जाना श्रीगुरुजी को स्वीकार्य नहीं था। उनका कहना था कि उक्त सम्बोधन पृथकता के असत्य भाव का पोषण कर अपने ही समाज-बान्धवों को अपने से दूर करने का आत्मघाती मार्ग प्रशस्त करता है। अत: वे उन्हें वनवासी अथवा गिरिजन संज्ञा से सम्बोधित करते थे।?
श्री गुरुजी का यह भी सुनिश्चित मत था कि आधुनिक मानदण्डों के आधार पर वनवासी समाज को अत्यन्त पिछड़ा और हीन मानने की प्रवृत्ति अत्यन्त निन्दनीय है। वनवासी समाज में बल, बुध्दि, पौरुष, मेधा, पराक्रम आदि सद्गुणों की बहुलता है। सच्चाई तो यह है कि पश्चिमी जगत् की तथाकथित औद्योगिक सभ्यता से उत्पन्न अनेकानेक गम्भीर दोषों से अपना यह समाज-बन्धु पूरी तरह मुक्त है तथा वह समाज वस्तुत: 'आर्य' संज्ञा को ही सार्थक करता है।
अपने इस कथन की पुष्टि में उन्होंने मध्य प्रदेश के जशपुर नामक स्थान पर वनवासी कल्याण आश्रम द्वारा संचालित केन्द्र का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए स्पष्ट किया था कि ''उक्त आश्रम में निवास कर अपना विद्याध्ययन करने वाले वनवासी समाज-बन्धुओं के बालक श्रीमद्भगवद्गीता तथा संघ-शाखा में नियमित बोली जाने वाली प्रार्थना आदि संस्कृत श्लोकों का उच्चारण इतने अधिक शुध्द रूप में करते हैं कि उनको 'वन्य' कहना भी अनुपयुक्त प्रतीत होता है। 'आर्य' संज्ञा गुणवाचक है, जातिवाचक नहीं। 'आर्य' शब्द का एक अर्थ अपनी संस्कृत वर्णमाला के सभी अक्षरों एवं स्वर-संयुक्त अक्षरों का शुध्द उच्चारण करने की पात्रता रखना होता है। दूसरे शब्दों में जो उनका सस्वर शुध्द उच्चारण करने में सक्षम है, वही 'आर्य' कहलाने योग्य है। इस दृष्टि से वे सभी 'आर्य' हैं।''
असम प्रदेश की कुछ वन्य जातियों में गोमांस भक्षण की कुप्रथा प्रचलित है। इस तथ्य को लेकर कतिपय धर्माचार्यों ने एक बार श्रीगुरुजी से प्रश्न किया कि उन्हें 'हिन्दू' कैसे कहा जाए? श्रीगुरुजी ने उनके समक्ष ही उन वन्य जातियों के परमपंथी, बालगोविन्द पंथी आदि साधुओं से वार्ता की। वार्ता का निष्कर्ष था कि ''वहाँ के लोग गोमांस खाते हैं, इसके लिए दोष और पाप आचार्य लोगों का है। वैष्णवधार्मीय, महास्वामी शंकरदेव महासाधु के अनुयायी सत्राधिकारियों ने किसी की धर्म-सम्बन्धी सद्भावना जागृत नहीं की, संस्कार भी नहीं किये। केवल दक्षिणा ली। संस्कार प्राप्त न होने से वे गोमांस खाते हैं तो शिष्य के अपराधा का दोष गुरु का और दण्डनीय हो जाता है, ऐसा अपने यहाँ शास्त्रों में कहा गया है।'' धर्माचार्यों को यह तथ्य समझ में आ गया और उन्होंने श्रीगुरुजी को कहा कि ''आपका कथन पूर्णतया शास्त्रसम्मत है।''
श्रीगुरुजी ने बारम्बार यह स्पष्ट किया कि वनवासी समाज के रूप में अपने समाज का यह बहुत बड़ा वर्ग अत्यन्त बुध्दिमान, चारित्र्यवान, कर्तृत्ववान और साहसी है। आवश्यकता उनको सुसंस्कारित करने की है। अत: श्रीगुरुजी का आग्रह था कि अपने अधिकाधिक स्वयंसेवक बन्धु वनवासी समाज-बन्धुओं के मध्य जाकर कार्य करें तथा हिन्दू समाज से एकरूप करने वाली अपनी संघ-शाखाओं का विस्तार कर उन अपने समाज-बन्धुओं को शिक्षित एवं संस्कारित कर उनकी क्षमता बढ़ायें तथा अपने हिन्दू समाज को और अधिक सामर्थ्यवान बनाने में अपना योगदान करें।
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साभार - श्री गुरूजी जन्म शताब्दी वर्ष


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