Thursday, 24 February 2011

'मैं'

 

'मैं'  


एक चर्चा में आज उपस्थित था। उपस्थित था जरूर, पर मेरी उपस्थिति न के बराबर थी। भागीदार मैं नहीं था। केवल श्रोता था। जो सुना, वह साधारण था, पर जो देखा, वह निश्चय ही असाधारण था।
प्रत्येक विचार पर वहां वाद-विवाद हो रहा था। सब सुना, पर दिखाई कुछ और ही दिया। दिखा कि विवाद विचारों पर नहीं, 'मैं' पर है। कोई कुछ सिद्ध नहीं करना चाहता है। सब 'मैं' को- अपने-अपने 'मैं' को सिद्ध करना चाहते हैं। विवाद की मूल जड़ इस 'मैं' में है। फिर प्रत्यक्ष में केंद्र कहीं दिखे, अप्रत्यक्ष में केंद्र वहीं है। जड़े सदा ही अप्रत्यक्ष होती हैं। दिखाई वे नहीं देतीं। दिखता है जो, वह मूल नहीं है। फूल-पत्तों की भांति जो दिखता है, वह गौण है। उस दिखने वाले पर रुक जायें तो समाधान नहीं है, क्योंकि समस्या ही वहां नहीं है।
समस्या जहां है, समाधान भी वहीं है। विवाद कहीं नहीं पहुंचाते। कारण, जो जड़ है, उसका ध्यान ही नहीं आता है।
यह भी दिखाई देता है कि जहां विवाद है, वहां कोई दूसरे से नहीं बोलता है। प्रत्येक अपने से ही बातें करता है। प्रतीत भर होता है कि बातें हो रही हैं। पर जहां, 'मैं' है, वहीं दीवार है और दूसरे तक पहुंचना कठिन है। 'मैं' को साथ लिए संवाद असंभव है।
संसार में अधिक लोग अपने से ही बातें करने में जीवन बिता देते हैं।
एक पागलखाने की घटना पढ़ी थी। दो पागल विचार में तल्लीन थे, पर उनका डाक्टर एक बात देखकर हैरान हुआ। वे बातें कर रहे थे जरूर और जब एक बोलता था, तो दूसरा चुप रहता था, पर दोनों की बातों में कोई संबंध, कोई संगति न थी। उसने उनसे पूछा कि 'जब तुम्हें अपनी-अपनी ही कहना है, तो एक-दूसरे के बोलते समय चुप क्यों रहते हो?' पागलों ने कहा, 'संवाद के नियम हमें मालूम हैं- जब एक बोलता है, तब दूसरे को चुप रहना नियमानुसार आवश्यक है।'
यह कहानी बहुत सत्य है और पागलों के ही नहीं, सबके संबंध में सत्य है। बातचीत के नियम का ध्यान रखते हैं, सो ठीक, अन्यथा प्रत्येक अपने से ही बोल रहा है।
'मैं' को छोड़े बिना कोई दूसरे से नहीं बोल सकता। और 'मैं' केवल प्रेम से छूटता है। इसलिए प्रेम में ही केवल संवाद होता है। उसके अतिरिक्त सब विवाद है और विवाद विक्षिप्तता है। क्योंकि उसमें सब अपने द्वारा और अपने से ही कहा जा रहा है।
मैं जब उस चर्चा से आने लगा, तो किसी ने कहा, 'आप कुछ बोले नहीं?' मैंने कहा, 'कोई भी नहीं बोला है'

Wednesday, 23 February 2011

बिकाऊ है भारत सरकार, बोलो खरीदोगे ?

बिकाऊ है भारत सरकार, बोलो खरीदोगे ?

 
अरविन्द केजरीवाल (प्रमुख आरटीआई एक्टिविस्ट एवं सामाजिक कार्यकर्ता)

पहले आयकर विभाग में काम किया करता था। 90 के दशक के अंत में आयकर विभाग ने कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों का सर्वे किया। सर्वे में ये कंपनियां रंगे हाथों टैक्स की चोरी करते पायी गयीं, उन्होंने सीधे अपना जुर्म कबूल किया और बिना कोई अपील किये सारा टैक्स जमा कर दिया। अगर ये लोग किसी और देश में होते तो अभी तक उनके वरिष्ठ अधिकारियों को जेल भेज दिया गया होता। ऐसी ही एक कम्पनी पर सर्वे के दौरान उस कम्पनी के विदेशी मुखिया ने आयकर टीम को धमकी दी - ‘‘भारत एक बहुत गरीब देश है। हम आपके देश में आपकी मदद करने आये हैं। आपको पता नहीं हम कितने ताकतवर हैं। हम चाहें तो आपकी संसद से कोई भी कानून पारित करा सकते हैं। हम आप लोगों का तबादला भी करा सकते हैं।’’ इसके कुछ दिन बाद ही इस आयकर टीम के एक हेड का तबादला कर दिया गया।

उस वक्त मैंने उस विदेशी की बातों पर ज्यादा गौर नहीं किया। मैंने सोचा कि शायद वो आयकर सर्वे से परेशान होकर बोल रहा था, लेकिन पिछले कुछ सालों से मुझे धीरे-धीरे उसकी बातों में सच्चाई नजर आने लगी है।

जुलाई 2008 में यू.पी.ए. सरकार को संसद में अपना बहुमत साबित करना था। खुलेआम सांसदों की खरीद-फरोख्त चल रही थी। कुछ टी.वी. चैनलों ने सांसदों को पैसे लेकर खुलेआम बिकते दिखाया। उन तस्वीरों ने इस देश की आत्मा को हिला दिया। अगर सांसद इस तरह से बिक सकते हैं तो हमारे वोट की क्या कीमत रह जाती है। मैं जिस किसी सांसद को वोट करूँ, जीतने के बाद वह पैसे के लिए किसी भी पार्टी में जा सकता है। दूसरे, आज अपनी सरकार बचाने के लिए इस देश की एक पार्टी उन्हें खरीद रही है। कल को उन्हें कोई और देश भी खरीद सकता है। जैसे अमरीका, पाकिस्तान इत्यादि। हो सकता है ऐसा हो भी रहा हो, किसे पता? यह सोच कर पूरे शरीर में सिहरन दौड़ पड़ी- क्या हम एक आजाद देश के नागरिक हैं? क्या हमारे देश की संसद सभी कानून इस देश के लोगों के हित के लिए ही बनाती है?

अभी कुछ दिन पहले जब अखबारों में संसद में हाल ही में प्रस्तुत न्यूक्लीयर सिविल लायबिलिटी बिल के बारे में पढ़ा तो सभी डर सच साबित होते नजर आने लगे। यह बिल कहता है कि कोई विदेशी कम्पनी भारत में अगर कोई परमाणु संयंत्र लगाती है और यदि उस संयंत्र में कोई दुर्घटना हो जाती है तो उस कम्पनी की जिम्मेदारी केवल 1500 करोड़ रुपये तक की होगी। दुनियाभर में जब भी कभी परमाणु हादसा हुआ तो हजारों लोगों की जान गयी और हजारों करोड़ का नुकसान हुआ।

भोपाल गैस त्रासदी में ही पीड़ित लोगों को अभी तक 2200 करोड़ रुपया मिला है जो कि काफी कम माना जा रहा है। ऐसे में 1500 करोड़ रुपये तो कुछ भी नहीं होते। एक परमाणु हादसा न जाने कितने भोपाल के बराबर होगा? इसी बिल में आगे लिखा है कि उस कम्पनी के खिलाफ कोई आपराधिक मामला भी दर्ज नहीं किया जायेगा और कोई मुकदमा नहीं चलाया जायेगा। कोई पुलिस केस भी नहीं होगा। बस 1500 करोड़ रुपये लेकर उस कम्पनी को छोड़ दिया जायेगा।

यह कानून पढ़कर ऐसा लगता है कि इस देश के लोगों की जिन्दगियों को कौड़ियों के भाव बेचा जा रहा है। साफ-साफ जाहिर है कि यह कानून इस देश के लोगों की जिन्दगियों को दांव पर लगाकर विदेशी कम्पनियों को फायदा पहुंचाने के लिए किया जा रहा है। हमारी संसद ऐसा क्यों कर रही है? यकीनन या तो हमारे सांसदों पर किसी तरह का दबाव है या कुछ सांसद या पार्टियां विदेशी कम्पनियों के हाथों बिक गयी हैं।

भोपाल गैस त्रासदी के हाल ही के निर्णय के बाद अखबारों में ढेरों खबरें छप रही हैं कि किस तरह भोपाल के लोगों के हत्यारे को हमारे देश के उच्च नेताओं ने भोपाल त्रासदी के कुछ दिनों के बाद ही राज्य अतिथि सा सम्मान दिया था और उसे भारत से भागने में पूरी मदद की थी।

इस सब बातों को देखकर मन में प्रश्न खड़े होते हैं---क्या भारत सुरक्षित हाथों में है? क्या हम अपनी जिन्दगी और अपना भविष्य इन कुछ नेताओं और अधिकारियों के हाथों में सुरक्षित देखते हैं?

ऐसा नहीं है कि हमारी सरकारों पर केवल विदेशी कम्पनियों या विदेशी सरकारों का ही दबाव है। पैसे के लिए हमारी सरकारें कुछ भी कर सकती हैं। कितने ही मंत्री और अफसर औद्योगिक घरानों के हाथ की कठपुतली बन गये हैं। कुछ औद्योगिक घरानों का वर्चस्व बहुत ज्यादा बढ़ गया है। अभी हाल ही में एक फोन टैपिंग मामले में खुलासा हुआ था कि मौजूदा सरकार के कुछ मंत्रियों के बनने का निर्णय हमारे प्रधानमंत्री ने नहीं बल्कि कुछ औद्योगिक घरानों ने लिया था। अब तो ये खुली बात हो गयी है कि कौन सा नेता या अफसर किस घराने के साथ है। खुलकर ये लोग साथ घूमते हैं। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि कुछ राज्यों की सरकारें और केन्द्र सरकार के कुछ मंत्रालय ये औद्योगिक घराने ही चला रहे हैं।

यही कारण है कि हमारे देश की खदानों को इतने सस्ते में इन औद्योगिक घरानों को बेचा जा रहा है। जैसे आयरन ओर की खदानें लेने वाली कम्पनियां सरकार को महज 27 रुपये प्रति टन रॉयल्टी देती हैं। उसी आयरन ओर को ये कम्पनियां बाजार में 6000 रुपये प्रति टन के हिसाब से बेचती हैं। क्या यह सीधे-सीधे देश की सम्पत्ति की लूट नहीं है?

इसी तरह से औने-पौने दामों में वनों को बेचा जा रहा है, नदियों को बेचा जा रहा है, लोगों की जमीनों को छीन-छीन कर कम्पनियों को औने-पौने दामों में बेचा जा रहा है।

इन सब उदाहरणों से एक बात तो साफ है कि इन पार्टियों, नेताओं और अफसरों के हाथ में हमारे देश के प्राकृतिक संसाधन और हमारे देश की सम्पदा खतरे में है। जल्द ही कुछ नहीं किया गया तो ये लोग मिलकर सब कुछ बेच डालेंगे।

इन सब को देखकर भारतीय राजनीति और जनतंत्र पर एक बहुत बड़ा सवालिया निशान लगता है। सभी पार्टियों का चरित्र एक ही है। हम किसी भी नेता या किसी भी पार्टी को वोट दें, उसका कोई मतलब नहीं रह जाता।

पिछले 60 सालों में हम हर पार्टी, हर नेता को आजमा कर देख चुके हैं। लेकिन कोई सुधार नहीं हुआ। इससे एक चीज तो साफ है कि केवल पार्टियाँ और नेता बदल देने से बात नहीं बनने वाली। हमें कुछ और करना पड़ेगा।

हम अपने संगठन परिवर्तन के जरिये पिछले दस सालों में विभिन्न मुद्दों पर काम करते रहे हैं। कभी राशन व्यवस्था पर, कभी पानी के निजीकरण पर, कभी विकास कार्यों में भ्रष्टाचार को लेकर इत्यादि। आंशिक सफलता भी मिली। लेकिन जल्द ही यह आभास होने लगा कि यह सफलता क्षणिक और भ्रामक है। किसी मुद्दे पर सफलता मिलती जब तक हम उस क्षेत्र में उस मुद्दे पर काम कर रहे होते, ऐसा लगता कि कुछ सुधार हुआ है। जैसे ही हम किसी दूसरे मुद्दे को पकड़ते, पिछला मुद्दा पहले से भी बुरे हाल में हो जाता। धीरे-धीरे लगने लगा कि देश भर में कितने मुद्दों पर काम करेंगे, कहां-कहां काम करेंगे। धीरे-धीरे यह भी समझ में आने लगा कि इस सभी समस्याओं की जड़ में ठोस राजनीति है। क्योंकि इन सब मुद्दों पर पार्टियां और नेता भ्रष्ट और आपराधिक तत्वों के साथ हैं और जनता का किसी प्रकार का कोई नियंत्रण नहीं है। मसलन राशन की व्यवस्था को ही लीजिए। राशन चोरी करने वालों को पूरा-पूरा पार्टियों और नेताओं का संरक्षण है। यदि कोई राशन वाला चोरी करता है तो हम खाद्य कर्मचारी या खाद्य आयुक्त या खाद्य मंत्री से शिकायत करते हैं। पर ये सब तो उस चोरी में सीधे रूप से मिले हुए हैं। उस चोरी का एक बड़ा हिस्सा इन सब तक पहुंचता है। तो उन्हीं को शिकायत करके क्या हम न्याय की उम्मीद कर सकते हैं। यदि किसी जगह मीडिया का या जनता का बहुत दबाव बनता है तो दिखावे मात्र के लिए कुछ राशन वालों की दुकानें निरस्त कर दी जाती हैं। जब जनता का दबाव कम हो जाता है तो रिश्वत खाकर फिर से वो दुकानें बहाल कर दी जाती हैं।

इस पूरे तमाशे में जनता के पास कोई ताकत नहीं है। जनता केवल चोरों की शिकायत कर सकती है कि कृपया अपने खिलाफ कार्रवाई कीजिए। जो होने वाली बात नहीं है।

सीधे-सीधे जनता को व्यवस्था पर नियंत्रण देना होगा जिसमें जनता निर्णय ले और नेता व अफसर उन निर्णयों का पालन करें।
क्या ऐसा हो सकता है? क्या 120 करोड़ लोगों को कानूनन निर्णय लेने का अधिकार दिया जा सकता है?

वेसे तो जनतंत्र में जनता ही मालिक होती है। जनता ने ही संसद और सरकारों को जनहित के लिए निर्णय लेने का अधिकार दिया है। संसद, विधानसभाओं और सरकारों ने इस अधिकारों का जमकर दुरुपयोग किया है। उन्होंने पैसे खाकर खुलेआम और बेशर्मी से जनता को और जनहित को बेच डाला है और इस लूट में लगभग सभी पार्टियाँ हिस्सेदार हैं। क्या समय आ गया है कि जनता नेताओं, अफसरों और पार्टियों से अपने बारे में निर्णय लेने के अधिकार वापस ले ले?

समय बहुत कम है। देश की सत्ता और देश के साधन बहुत तेजी से देशी-विदेशी कम्पनियों के हाथों में जा रहे हैं। जल्द कुछ नहीं किया गया तो बहुत देर हो चुकी होगी।


Saturday, 19 February 2011

हिन्दुस्तान स्वामी विवेकानंद का

हिन्दुस्तान स्वामी विवेकानंद का

वर्तमान के किसी भी अंधकार में केवल विवेक और आदर्श की रोशनी ही हमें राह दिखा सकती है। 'न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते' गीता का यह वचन हम पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी डालता है। इतिहास में सभी मानव समूहों ने कोई न कोई अन्याय भी किया है और मानवीय संस्कृति में योगदान भी दिया है।

हिन्दुस्तान पर विदेशी हमलों और जुल्म पर इंतकाम के नजरिए से न देखते स्वामी विवेकानंद राष्ट्र और हिन्दुओं को अपने कर्तव्य का अहसास कराते कहते हैं कि जिस तरह हर इंसान की एक खास शख्सियत होती है,उसी तरह हर जाति की भी एक पहचान होती है, और जाति के अपने गुणवैशिष्ट्य होते हैं। दुनिया की विभिन्न जातियों के सुसंवादी संगीत में उसे कौनसा सुर मिलाना है, यह राष्ट्र की उन्नति हेतु तय करना बेहद जरूरी है।
दुनिया को धर्म और अध्यात्म देना हिन्दुओं का ईश्वर प्रदत्त कार्य है। जो इस धर्म की जान है। यदि हमने अपने अज्ञान से इसे गँवाया तो कोई भी हमें बचा नहीं पाएगा। और यदि हमने जान से भी अधिक इसका जतन किया तो कोई हमारा बाल भी बाँका नहीं कर सकेगा। ग्रीक रोमन सभ्यता आज कहाँ है? उल्टे सैकड़ों साल विदेशी सत्ता तले,अत्याचार और जुल्म तले दबी इस जमीं पर हिन्दू सभ्यता आज भी जिंदा क्यों है? इसके उदारवादी होने से हमेशा इसका मजाक ही उड़ाया जाता है, लेकिन विश्वास कीजिए हमने किसी पर हमला नहीं किया और किसी को जीता भी नहीं। लेकिन फिर भी हम जिंदा हैं क्योंकि धर्म,आध्यात्मिकता का प्राण सहिष्णुता शक्ति की वजह से है।
स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि हमें पसंद हो या न पसंद हो लेकिन धर्म और आध्यात्मिकता ही हमारे राष्ट्रीय जीवन के उज्जवल भविष्य के आधार स्तंभ हैं। यहाँ सभी कौम के लोग रहते हैं। रीति-रिवाजों में तो कमाल का फर्क है! लेकिन तब भी धर्म ही हमारी समान राष्ट्रीय एकता का आधार है। हिन्दुओं का जीवन दर्शन वेदांत के 'अद्वैत' इस एक शब्द में समाया है, तो उसका सारभूत अर्थ गीता के 'समं सर्वेषु भूतेषु' इस शब्द में। जीवमात्र में एकत्व और ईश्वरत्व ही वेदांत की नींव है तब घृणा या द्वेष किसका?
यहाँ सत्ता और नेतागिरी का कैंसर सामाजिक ही नहीं राष्ट्रीय धर्म और संस्कृति की आत्मा का निवाला लेने की माँग कर रहा है। एक ही धर्म में जाँत-पाँत में बैर की आग भड़क रही है। इन सबसे अपनी विचार शक्ति के अवरुद्ध हुए बगैर हमें अपने आपसे एक सवाल करना चाहिए कि क्या हम जिंदगी सुकून से जी रहे हैं? फिर ठीक कौन से धर्म की खातिर हम एक-दूसरे का खून बहाने वाले विचारों को समर्थन देकर पाल रहे हैं? धार्मिक दंगों या दहशतवाद के पीछे के अज्ञान के अंधकार से हम अब भी बाहर नहीं निकलेंगे?
एक सुबह ऐसी भी होगी 'सर्व धर्मान पारित्यज्यम्‌' का निडर उद्घोष करने वाले राम-कृष्ण की जमीं के सामान्य लोग किसी भी द्वेषपूर्ण सीख को स्वीकारने से पूरी तरह इंकार कर देंगे और तब स्वामी विवेकानंद का सपना भी उनका अपना सपना होगा 'मेरे सपनों के हिन्दुस्तान की यदि आत्मा 'वेदांत' होगी तो शरीर 'इस्लाम' होगा। शरीर के बिना आत्मा के अस्तित्व का विचार कोई भी नहीं करेगा।'

हनुमान ही दे सकते हैं यश और लक्ष्मी

हनुमान ही दे सकते हैं यश और लक्ष्मी

हम मनुष्यों की एक बड़ी मांग ऐश्वर्य प्राप्ति की रहती है। छह प्रकार के ऐश्वर्य बताए गए हैं-धर्म, अर्थ, ज्ञान, यश, श्री और वैराग्य। श्रीराम ने यश और लक्ष्मी दोनों हनुमानजी को दी है तथा हमको यश और लक्ष्मी हनुमानजी ही दे सकते हैं। श्री हनुमानचालीसा की तेरहवीं चौपाई में लिखा है-
सहस बदन तुम्हरो जस गावैं। अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं।
आपके यश का गान हजार मुख वाले शेषनाग भी सदैव करते रहेंगे। इस प्रकार करते हुए लक्ष्मीपति विष्णु स्वरूप श्रीराम ने उन्हें अपने गले से लगाया है। इसमें तुलसीदासजी कह रहे हैं कि आपका यश अनंतकाल तक असंख्य रूप में गाया जाएगा। यहां कहा गया है कि श्रीपति ने आपको कंठ से लगाया। श्रीपति का अर्थ है लक्ष्मीपति। गोस्वामीजी ने यहां सोच समझकर श्रीराम को श्रीपति संबोधित किया है। हमें एक बात ध्यान में रखना होगी। भक्तों पर कृपा करने की भगवान की अपनी एक व्यवस्था होती है। हमें गहराई में जाकर समझना होगा कि भगवान नियंता ही नहीं, एक नियम भी हैं।
जैसा धरती का एक नियम गुरुत्वाकर्षण का होता है। विज्ञान कहता है धरती का स्वभाव है कि वह वस्तु को अपनी ओर खींचती है। यह धरती का नियम है। असावधानी से चलते हुए यदि हम गिर जाएं और यह कहें कि धरती का स्वभाव है खींचना, इसीलिए हम गिर गए तो हम गलत हैं। हम अपनी ही गलती से गिरे हैं। इसी तरह परमात्मा का नियम अपनी जगह है। जैसे नदी का स्वभाव सागर में मिलना है, उसका मिलना तय है। अब वह चट्टान से टकराकर जाए, मुड़कर जाए, जिस प्रकार से भी जाए। नियम यह है कि उसे सागर में मिलना है। उस नियम का पालन हमें करना चाहिए। इसका पालन करने में श्री हनुमानचालीसा हमारी मार्गदर्शक और सहयोगी है।

Friday, 18 February 2011

ये हैं श्री गणेश की 32 मंगलमूर्तियां

ये हैं श्री गणेश की 32 मंगलमूर्तियां


श्री गणेश बुद्धि और विद्या के देवता है। जीवन को विघ्र और बाधा रहित बनाने के लिए श्री गणेश उपासना बहुत शुभ मानी जाती है। इसलिए हिन्दू धर्म के हर मंगल कार्य में सबसे पहले भगवान गणेश की उपासना की परंपरा है। माना जाता है कि श्री गणेश स्मरण से मिली बुद्धि और विवेक से ही व्यक्ति अपार सुख, धन और लंबी आयु प्राप्त करता है।
धर्मशास्त्रों में भगवान श्री गणेश के मंगलमय चरित्र, गुण, स्वरुपों और अवतारों का वर्णन है। भगवान को आदिदेव मानकर परब्रह्म का ही एक रूप माना जाता है। यही कारण है कि अलग-अलग युगों में श्री गणेश के अलग-अलग अवतारों ने जगत के शोक और संकट का नाश किया। इसी कड़ी में शास्त्रों में बताए गए है भगवान श्री गणेश के 32 मंगलकारी स्वरूप -
श्री बाल गणपति - छ: भुजाओं और लाल रंग का शरीर
श्री तरुण गणपति - आठ भुजाओं वाला रक्तवर्ण शरीर
श्री भक्त गणपति - चार भुजाओं वाला सफेद रंग का शरीर
श्री वीर गणपति - दस भुजाओं वाला रक्तवर्ण शरीर
श्री शक्ति गणपति - चार भुजाओं वाला सिंदूरी रंग का शरीर
श्री द्विज गणपति - चार भुजाधारी शुभ्रवर्ण शरीर
श्री सिद्धि गणपति - छ: भुजाधारी पिंगल वर्ण शरीर
श्री विघ्न गणपति - दस भुजाधारी सुनहरी शरीर
श्री उच्चिष्ठ गणपति - चार भुजाधारी नीले रंग का शरीर
श्री हेरम्भ गणपति - आठ भुजाधारी गौर वर्ण शरीर
श्री उद्ध गणपति - छ: भुजाधारी कनक यानि सोने के रंग का शरीर
श्री क्षिप्र गणपति - छ: भुजाधारी रक्तवर्ण शरीर
श्री लक्ष्मी गणपति - आठ भुजाधारी गौर वर्ण शरीर
श्री विजय गणपति - चार भुजाधारी रक्त वर्ण शरीर
श्री महागणपति - आठ भुजाधारी रक्त वर्ण शरीर
श्री नृत्त गणपति - छ: भुजाधारी रक्त वर्ण शरीर
श्री एकाक्षर गणपति - चार भुजाधारी रक्तवर्ण शरीर
श्री हरिद्रा गणपति - छ: भुजाधारी पीले रंग का शरीर
श्री त्र्यैक्ष गणपति - सुनहरे शरीर, तीन नेत्रों वाले चार भुजाधारी
श्री वर गणपति - छ: भुजाधारी रक्तवर्ण शरीर
श्री ढुण्डि गणपति - चार भुजाधारी रक्तवर्णी शरीर
श्री क्षिप्र प्रसाद गणपति - छ: भुजाधारी रक्ववर्णी, त्रिनेत्र धारी
श्री ऋण मोचन गणपति - चार भुजाधारी लालवस्त्र धारी
श्री एकदन्त गणपति - छ: भुजाधारी श्याम वर्ण शरीरधारी
श्री सृष्टि गणपति - चार भुजाधारी, मूषक पर सवार रक्तवर्णी शरीरधारी
श्री द्विमुख गणपति - पीले वर्ण के चार भुजाधारी और दो मुख वाले
श्री उद्दण्ड गणपति - बारह भुजाधारी रक्तवर्णी शरीर वाले, हाथ में कुमुदनी और अमृत का पात्र होता है।
श्री दुर्गा गणपति - आठ भुजाधारी रक्तवर्णी और लाल वस्त्र पहने हुए।
श्री त्रिमुख गणपति - तीन मुख वाले, छ: भुजाधारी, रक्तवर्ण शरीरधारी
श्री योग गणपति - योगमुद्रा में विराजित, नीले वस्त्र पहने, चार भुजाधारी
श्री सिंह गणपति - श्वेत वर्णी आठ भुजाधारी, सिंह के मुख और हाथी की सूंड वाले
श्री संकष्ट हरण गणपति - चार भुजाधारी, रक्तवर्णी शरीर, हीरा जडि़त मुकूट पहने।

मंदिर की परिक्रमा करने से क्या होता है?

मंदिर की परिक्रमा करने से क्या होता है?


मंदिर या घर पर पूजा के समय हम भगवान की परिक्रमा जरूर करते हैं। कभी सोचा है आखिर क्यों हम भगवान की परिक्रमा करते हैं? इससे लाभ क्या होता है और भगवान की कितनी परिक्रमा करनी चाहिए?
दरअसल भगवान की परिक्रमा का धार्मिक महत्व तो है ही, विद्वानों का मत है भगवान की परिक्रमा से अक्षय पुण्य मिलता है, सुरक्षा प्राप्त होती है और पापों का नाश होता है। परिक्रमा करने का व्यवहारिक और वैज्ञानिक पक्ष वास्तु और वातावरण में फैली सकारात्मक ऊर्जा से जुड़ा है।
मंदिर में भगवान की प्रतिमा के चारों ओर सकारात्मक ऊर्जा का घेरा होता है, यह मंत्रों के उच्चरण, शंख, घंटाल आदि की ध्वनियों से निर्मित होता है। हम भगवान की प्रतिमा की परिक्रमा इसलिए करते हैं कि हम भी थोड़ी देर के लिए इस सकारात्मक ऊर्जा के बीच रहें और यह हम पर अपना असर डाले।
इसका एक महत्व यह भी है कि भगवान में ही सारी सृष्टि समाई है, उनसे ही सब उत्पन्न हुए हैं, हम उनकी परिक्रमा लगाकर यह मान सकते हैं कि हमने सारी सृष्टि की परिक्रमा कर ली है।

चौबीस हजार श्लोक हैं शिव महापुराण में

 

चौबीस हजार श्लोक हैं शिव महापुराण में

पुरातन समय की बात है। एक बार तीर्थराज प्रयाग में समस्त साधु-संत आकर ठहरे। उस समय वहां महर्षि वेदव्यास के शिष्य महामुनि सूतजी भी आए। सूतजी को देखकर साधु-संत आदि महात्मा अति प्रसन्न हुए। उन्होंने सूतजी से कहा कि घोर कलयुग आने पर मनुष्य पुण्यकर्म नहीं करेंगे तथा दुराचारी हो जाएंगे। धर्म का त्याग कर देंगे तथा अधर्म में ही मन लगाएंगे। उस स्थिति में उन्हें परलोक में उत्तम गति कैसे प्राप्त होगी? अत: ऐसा कुछ उपाय बताएं जिससे कि कलयुग के मानवों का पाप तत्काल नाश हो जाए।

तब सूतजी भगवान शंकर का स्मरण कर बोले कि भगवान शंकर की महिमा को बताने वाला जो शिव महापुराण है, वह सभी पुराणों में श्रेष्ठ है। कलियुग में जो भी शिव महापुराण का वाचन करेगा तथा धर्मपूर्वक इसका श्रवण करेगा वह सभी पापों से मुक्त हो जाएगा। इस शिव महापुराण की रचना स्वयं भगवान ने ही की है। इसमें बारह संहिताएं हैं। मूल शिव महापुराण की श्लोक संख्या एक लाख है परंतु व्यासजी ने इसे चौबीस हजार श्लोकों में संक्षिप्त कर दिया है।
पुराणों की क्रम संख्या के अनुसार शिव महापुराण का स्थान चौथा है। इसमें वेदांत, विज्ञानमय तथा निष्काम धर्म का उल्लेख है। साथ ही इस ग्रंथ में श्रेष्ठ मंत्र-समूहों का संकलन भी है। जो बड़े आदर से इसे पढ़ता और सुनता है, वह भगवान शिव का प्रिय होकर परम गति को प्राप्त

..तो न भ्रष्ट होगा राजा, न प्रजा

..तो न भ्रष्ट होगा राजा, न प्रजा

26 जनवरी को हिन्दुस्तान में गणतंत्र दिवस मनाया जाता है। सरल शब्दों में समझें तो यह वह दिन था जब आजाद हिन्दुस्तान के नागरिकों के लिए जीयो और जीने दो की मूल भावना से भरी ऐसी व्यवस्था लागू की गई, जिससे हर व्यक्ति देश, समाज, परिवार और व्यक्तिगत स्तर पर जिम्मेदार और कर्तव्यपरायण बन अपने स्वाभाविक अधिकारों के साथ जीवन बिता सके।

आजादी और जनतंत्र या गणतंत्र के लागू होने के लगभग छ: दशक में हिन्दुस्तान ने हर क्षेत्र में बुलंदियों, उपलब्धियों को पाया। लेकिन इतने गौरवशाली इतिहास के बावजूद इसी देश की जनता आज शासन में फैले भ्रष्ट और खामियों से भरी अव्यवस्थाओं से पीडि़त दिखाई देती है। भ्रष्ट आचरण, बेईमानी, अनैतिकता शासन तंत्र का हिस्सा बन चुकी है। जिनका जिम्मेदार एक-दूसरे को बताकर शासन में ऊंचे पदों पर बैठा व्यक्ति भी पल्ला झाड़ लेता है। ऐसे भ्रष्ट माहौल में यही सवाल उठता है कि आखिर कौन है असल जिम्मेदार ऐसी बुरी व्यवस्थाओं का? और कैसे इनसे बचकर बन सकता है सुखी समाज और राष्ट्र?

ऐसी समस्याओं का हल और सवालों का जवाब देते हैं - धर्मशास्त्र। खासतौर पर सनातन धर्म में बताया गया राजधर्म राजा के कर्तव्यों को बताता है। जिसका सच्चाई से पालन ही प्रजा के सुख-दु:ख नियत करते हैं। ये बातें आज की शासन व्यवस्था और सरकार के लिए भी अहम सबक है -
दुष्ट को दंड देना - शांत और तनावरहित राज्य और शासन के लिए सबसे अहम है - दण्ड देना। धर्म कहता है दुष्ट यानि बुरे कामों, आचरण और विचारों से दूसरों को कष्ट या असुविधा पैदा करने वाले व्यक्ति को दण्ड जरूर देना चाहिए। जिससे उसके साथ ही दूसरों तक भी दुराचरण न करने का संदेश जाए।
स्वजनों की पूजा करना - स्वजन यानि परिवार ही नहीं बल्कि सारी प्रजा के साथ सद्भाव और आत्मीयता का व्यवहार। उनकी स्वाभाविक और व्यावहारिक कमियों, असुविधाओं को दूर करने के साथ उनके गुण, प्रतिभा को निखारने में हरसंभव मदद करना एक राजा का परम कर्तव्य है।
न्याय से कोष बढ़ाना - किसी भी राज्य की मजबूत अर्थव्यवस्था उसकी ताकत होती है। लेकिन राजा के लिए यह जरूरी है यह आर्थिक प्रगति न्याय पर आधारित हो यानि खजाने में आया धन जनता के शोषण या निरंकुशता से इकट्ठा न करें, बल्कि धन ऐसा हो जो राज्य और प्रजा को प्रगति और उन्नति का कारण बने।
पक्षपात न करना - राज्य में रहने वाले किसी भी व्यक्ति के साथ जाति, वर्ण, धर्म या धन के आधार पर ऊँच-नीच का व्यवहार न हो। हर व्यक्ति को समान रूप से खान-पान, रहन-सहन या जीवन से जुड़ी सारी सुख-सुविधाओं का हक मिले। राजा के प्रजा के साथ मधुर संबंधों के लिए यह अहम बात है।
राष्ट्र की रक्षा करना - किसी भी राजा का सबसे बड़ा राजधर्म होता है कि वह राष्ट्र की बाहरी और आंतरिक खतरों से रक्षा करे। न कि मात्र शासन की बागडोर मिलने पर सुख-सुविधाओं में डूबकर स्वयं का हित साधे।
सार यही है कि सिंहासन पर बैठा राजा राज्य और प्रजा के सुख के लिए अपने प्राण भी देने पड़ें तो पीछे न रहे। साथ ही वह न नाइंसाफ करे, न अपने सामने किसी के साथ अन्याय होता देखे। ऐसा संकल्प ही राजा के साथ प्रजा के आचरण को भी पावन रखेगा।

पस्त हौंसलों में जान फूंके ये मंत्र

पस्त हौंसलों में जान फूंके ये मंत्र

धन, स्वास्थ्य, सुविधा, साधन होने के साथ ही कामयाबी या विपरीत हालात से बाहर आने के लिए एक ओर बात सबसे महत्वपूर्ण होती है। वह है - हौंसला, उत्साह या उमंग। किंतु उतार-चढ़ाव भी जीवन का हिस्सा है। इसलिए अचानक मिले दु:ख या जी-तोड़ मेहनत के बाद भी मिली नाकामयाबी इंसान के हौंसलों को कमजोर करती है। ऐसी हालात में हर कोई नई शुरुआत के लिए कुछ ऐसे उपाय की कामना करता है, जो फिर से नई ऊर्जा से भर दे।


शास्त्रों में ऐसी ही मुश्किल हालातों से निपटने के लिए देव उपासना का महत्व बताया गया है। इसी क्रम में उत्साह, ऊर्जा और उमंग पाने और मुश्किलों से बाहर आने के लिए श्री हनुमान की भक्ति प्रभावी मानी जाती है। हनुमान की प्रसन्न्ता के लिए चालीसा, सुंदरकाण्ड, हनुमान स्त्रोत आदि का पाठ किया जाता है।
यहां श्री हनुमान स्मरण के ऐसे ही उपायों में छोटे, बोलने में सरल ग्यारह श्री हनुमान मंत्रों को बताया जा रहा है। जिनका शनिवार, मंगलवार या नियमित रूप से ध्यान धार्मिक दृष्टि से आपके कष्टों को दूर कर आपको निरोग और ऊर्जावान बनाए रखता है -
श्री हनुमान की गंध, फूल, सिंदूर, नारियल, गुड़-चने, धूप, दीप से पूजा कर इन मंत्रों का यथाशक्ति जप करें।
ॐ हनुमते नमः
ॐ वायु पुत्राय नमः
ॐ रुद्राय नमः
ॐ अजराय नमः
ॐ अमृत्यवे नमः
ॐ वीरवीराय नमः
ॐ वीराय नमः
ॐ निधिपतये नमः
ॐ वरदाय नमः
ॐ निरामयाय नमः
ॐ आरोग्यकर्त्रे नमः

दंत कथाः हनुमान की भक्ति

दंत कथाः हनुमान की भक्ति

 
राम के आने की खुशी में जगह-जगह समारोह हो रहे थे। राम के भक्तों में काम बांटे जा रहे थे। किसी को सजावट और किसी को रोशनी के काम दिए गए। कुछ लोगों को भोजन और तरह-तरह के पकवान बनाने की ज़िम्मेदारी दी गईं तो कुछ लोगों को स्वागत और आवभगत की ज़िम्मेदारी दी गई। इस तरह से सारे काम भक्तों में बांट दिए गए।
उसी समय हनुमान वहां पहुंचे। वे राम के सामने हाथ जोड़ कर खड़े हो गए और कहने लगे, ‘भगवन, मुझे भी कुछ काम सौंप दीजिए। मैं तो आपका परम भक्त हूं।’ राम परेशान हो गए क्योंकि सारे कामों का विभाजन पहले ही हो चुका था। अब अगर किसी भक्त से काम वापिस लेकर हनुमान के हाथों में सौंपा जाता, तो वह भी उचित नहीं लगता। श्रीराम सोच में डूब गए। एकाएक श्रीराम को जम्हाई आई, तो उन्होंने चुटकी बजाकर सुस्ती भगाई और चुटकी के साथ ही श्रीराम को एक विचार आया। उन्होंने हनुमान जी से कहा, ‘हनुमान तुम्हरा कार्य यह है कि जब भी मैं जम्हाई लूं, तुम चुटकी बजाना।’ हनुमान जी ने हाथ जोड़कर कार्य स्वीकार कर लिया। भगवान ने एक बार फिर जम्हाई ली और हनुमान जी ने तुरंत चुटकी बजाई।
कुछ समय बाद श्रीराम आराम करने के लिए अपने शयन कक्ष में चले गए और हनुमान जी सजग होकर द्वार के बाहर बैठ गए। उसी समय हनुमान जी को ख्याल आया कि अगर उनके स्वामी श्रीराम को जम्हाई आ गई तो वह चुटकी बजाने से वंचित रह जाएंगे और वह अपने कर्तव्य से चूक जाएंगे। इसलिए उन्होंने लगातार चुटकियां बजाना शुरू कर दी। उसी समय राम को भी हनुमान की स्वामीभक्ति का विचार आया और वे समझ गए कि हनुमान जी लगातार चुटकियां बजा रहे होंगे। राम जम्हाई पर जम्हाई लेने लगे ताकि उनके भक्त की चुटकी व्यर्थ न चली जाए। उधर हनुमान जी चुटकी पर चुटकी बजाते रहे कि कहीं भगवान की एक भी जम्हाई चुटकी से वंचित न रह जाए। यह सिलसिला रात भर चलता रहा।
इस पर सीता जी परेशान हो गइ कि यह राम को कैसा रोग लग गया है। न कुछ बोलते हैं और न कुछ बताते, बस जम्हाई पर जम्हाई लेते जा रहे हैं। सुबह होते ही सीता ने लक्ष्मण को राजवैद्य को बुलवाने के लिए भेजा। लक्ष्मण जी के लिए जैसे ही द्वार खुला वैसे ही श्रीराम ने जम्हाई लेना बंद कर दिया और हनुमान जी ने चुटकी बजाना बंद कर दिया।
अब सीता और लक्ष्मण आश्चर्य चकित हो गए। राम ने दोनों को पूरी बात बताई और हनुमान जी की ईश्वर भक्ति की खूब प्रशंसा की। बाद में राम ने हनुमान जी से चुटकी बजाने का कठिन काम वापिस ले लिया और उन्हें स्वागत करने वालों में शामिल कर दिया। लोग आज भी हनुमान जी की रामभक्ति को याद करते हैं। और जम्हाई लेते समय चुटकी बजाने की परम्परा तो आज भी जारी है। हो सकता है इस परम्परा की शुरुआत उसी समय से हुई हो।

Thursday, 17 February 2011

विष्णु के 24 अवतार क्यों?

विष्णु के 24 अवतार क्यों?


हिन्दू धर्म में भगवान विष्णु को सृष्टि का संचालक माना है ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मा सृष्टि बनाने वाले विष्णु सृष्टि का पालन और शिव संहार करने वाले है। शास्त्रों में विष्णु के 24 अवतार बताए हैं ऐसा कहा जाता है कि जब जब पृथ्वी पर कोई संकट आता है तो भगवान अवतार लेकर उस संकट को दूर करते है।
पर सवाल ये है कि भगवान विष्णु के अवतारों की संख्या 24 ही क्यो है ज्यादा या कम क्यों नहीं। इसके पीछे जो कारण बताया जाता है वो मानव शरीर की रचना व उसके संचालन से जुड़ा है। कई विद्वानों और संतों का ऐसा मत है कि विष्णु के 24 अवतारों में मानव शरीर की रचना का रहस्य छुपा है। शास्त्रों ने मानव शरीर की रचना 24 तत्वों से जुड़ी बताई है। ये 24 तत्व ही 24 अवतारों के प्रतीक हैं।
क्या हैं ये 24 तत्व: माना जाता है कि सृष्टि का निर्माण 24 तत्वों से मिलकर हुआ है इनमें पांच ज्ञानेद्रियां(आंख,नाक, कान,जीभ,त्वचा) पांच कर्मेन्द्रियां(गुदा,लिंग,हाथ,पैर,वचन) तीन अंहकार(सत, रज, तम) पांच तन्मात्राएं (शब्द,रूप,स्पर्श,रस,गन्ध)पांच तत्व(धरती, आकाश,वायु, जल,तेज) और एक मन शमिल है इन्हीं चौबीस तत्वों से मिलकर ही पूरी सृष्टि और मनुष्य का निर्माण हुआ है।

हनुमानजी अमर हैं क्योंकि...

हनुमानजी अमर हैं क्योंकि...


हिंदू धर्म शास्त्रों के अनुसार भगवान शिव के अवतार श्री हनुमानजी को अमर माना जाता है। हनुमानजी पवनदेव के पुत्र बताए गए हैं। हनुमान भगवान विष्णु के अवतार श्रीराम के परम भक्त हैं, इनकी सेवा में बजरंग बली सदैव तत्पर रहते हैं।
श्रीरामचरित मानस के अनुसार हनुमानजी श्रीराम के भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी करते हैं। हनुमानजी चिरंजीवी माने गए हैं। इस संबंध में रामायण में एक प्रसंग आता है। जब श्रीराम वानर सेना सहित सीता को खोजने निकले तब हनुमानजी माता सीता की खोज में समुद्र पार कर लंका जा पहुंचे। जब बजरंग बली ने माता सीता को रावण की अशोक वाटिका में देखा, तब रामभक्त हनुमान ने देवी जानकी को श्रीराम की मुद्रिका दी। श्रीराम के वियोग में बेहाल सीता ने श्रीराम की मुद्रिका देखी तब उन्हें यह विश्वास हो गया कि प्रभु उन्हें जल्द ही दैत्यराज रावण की कैद से मुक्त कराएंगे और रावण को उसके किए पाप की सजा मिलेगी। इस सुखद अहसास से प्रसन्न होकर माता सीता ने हनुमान को अमरता का वरदान दिया। तभी से हनुमानजी चिरंजीवी हैं।
हनुमानजी चिरंजीवी हैं इसी वजह से वे भक्तों की मनोकामनाओं को तुरंत भी पूरा करते हैं। कलयुग में इनकी भक्ति से कई जन्मों के पाप स्वत: ही नष्ट हो जाते हैं।

क्यों मर्यादापुरुषोत्तम है श्रीराम?

क्यों मर्यादापुरुषोत्तम है श्रीराम?


भारतीय संस्कृति में भगवान राम जन-जन के दिलों में बसते हैं। इसके पीछे मात्र धार्मिक कारण ही नहीं है, बल्कि श्रीराम चरित्र से जुड़े वह आदर्श हैं, जो मानव अवतार लेकर स्थापित किए गए। सीधे शब्दों में श्रीराम मर्यादित जीवन और आचरण से ही मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए। लेकिन ऐसे ऊंचे पद तक पहुंचने के लिए श्रीराम ने किस तरह के जीवनमूल्य स्थापित किए? जानते हैं कुछ ऐसी ही बातें -
धार्मिक दृष्टि से श्रीराम भगवान विष्णु का सातवां अवतार हैं। भगवान का इंसान रूप में यह अवतार मानव को समाज में रहने के सूत्र सिखाता है। असल में भगवान श्रीराम ने इंसानी जिंदगी से जुड़ी हर तरह की मर्यादाओं और मूल्यों को स्थापित किया।
श्रीराम ने अयोध्या के राजकुमार से राजा बनने तक अपने व्यवहार और आचरण से स्वयं मर्यादाओं का पालन किया। एक आम इंसान परिवार और समाज के बीच रहकर कैसे बोल, व्यवहार और आचरण को अपनाकर जीवन का सफर पूरा करे, यह सभी सूत्र श्रीराम के बचपन से लेकर सरयू में प्रवेश करने तक के जीवन में छुपे हैं।
धार्मिक और आध्यात्मिक नजरिए से भी श्रीराम के जीवन को देखें तो पाते हैं कि श्रीराम ने त्याग, तप, प्रेम, सत्य, कर्तव्य, समर्पण के गुणों और लीलाओं से ईश्वर तक पहुंचने की राह और मर्यादाओं को भी बताया।
अयोध्या के राजा बनने के बाद मर्यादा, न्याय और धर्म से भरी ऐसी शासन व्यवस्था स्थापित की, जिसकी आर्थिक, सामजिक और राजनीतिक मर्यादाओं ने हर नागरिक को सुखी, आनंद और समृद्ध कर दिया। श्रीराम का मर्यादाओं से भरा ऐसा शासन तंत्र आज भी युगों के बदलाव के बाद भी रामराज्य के रूप में प्रसिद्ध है।
इस तरह मर्यादामूर्ति श्रीराम ने व्यक्तिगत ही नहीं राजा के रूप में भी मर्यादाओं का हर स्थिति में पालन कर इंसान और भगवान दोनों ही रूप में यश, कीर्ति और सम्मान को पाया।

ऐसा होता है रामराज्य

ऐसा होता है रामराज्य


त्रेतायुग में मयार्दापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम द्वारा आदर्श शासन स्थापित किया गया। वह आज भी रामराज्य नाम से राम की तरह ही लोकप्रिय है। यह शासन व्यवस्था सुखी जीवन का प्रतीक बन गई। व्यावहारिक जीवन में परिवार, समाज या राज्य में सुख और सुविधाओं से भरी व्यवस्था के लिए आज भी इसी रामराज्य का उदाहरण दिया जाता है।
साधारण रूप से जिस रामराज्य को मात्र सुख-सुविधाओं का पर्याय माना जाता है। असल में वह मात्र सुविधाओं के नजरिए से ही नहीं बल्कि उसमें रहने वाले नागरिकों के पवित्र आचरण, व्यवहार और विचार और मर्यादाओं के पालन के कारण भी श्रेष्ठ शासन व्यवस्था का प्रतीक है। जानते हैं शास्त्रों में बताए गए रामराज्य से जुड़ी कुछ खास विशेषताओं को
- गोस्वामी तुलसीदास ने स्वयं रामचरित मानस में कहा है -
दैहिक दैविक भौतिक तापा।
राम राज नहहिं काहुहि ब्यापा।।
- इस चौपाई के मुताबिक राम राज्य में शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक और सांसारिक तीनों ही दु:ख नहीं थे।
- राम राज्य में रहने वाला हर नागरिक उत्तम चरित्र का था।
- सभी नागरिक आत्म अनुशासित थे, वह शास्त्रो व वेदों के नियमों का पालन करते थे। जिनसे वह निरोग, भय, शोक और रोग से मुक्त होते थे।
- सभी नागरिक दोष और विकारों से मुक्त थे यानि वह काम, क्रोध, मद से दूर थे।
- नागरिकों का एक-दूसरे के प्रति ईर्ष्या या शत्रु भाव नहीं था। इसलिए सभी को एक-दूसरे से अपार प्रेम था।
- सभी नागरिक विद्वान, शिक्षित, कार्य कुशल, गुणी और बुद्धिमान थे।
- सभी धर्म और धार्मिक कर्मों में लीन और निस्वार्थ भाव से भरे थे।
- रामराज्य में सभी नागरिकों के परोपकारी होने से सभी मन और आत्मा के स्तर पर शांत ही नहीं बल्कि व्यावहारिक जीवन में भी शांति और सुकून से रहते थे।
- रामराज्य में कोई भी गरीब नहीं था। रामराज्य में कोई मुद्रा भी नहीं थी। माना जाता है कि सभी जरूरत की चीजों का बिना कीमत के लेन-देन होता था। अपनी जरूरत के मुताबिक कोई भी वस्तु ले सकता था। इसलिए बंटोरने की प्रवृत्ति रामराज्य में नहीं थी।- धार्मिक मान्यता है कि पर्वतों ने अपने सभी मणि आदि और सागर ने रत्न, मोती रामराज्य के लिए दे दिये। इसलिए वहां के नागरिक शौक-मौज के जीवन की लालसा नहीं रखते थे। बल्कि कर्तव्य परायण और संतोषी थे।

कितना बड़ा होता है ब्रह्मा का एक दिन?

कितना बड़ा होता है ब्रह्मा का एक दिन?


धरती पर हमने अपनी सुविधा के हिसाब से हर चीज तय की है। हमने काल गणना के भी अपने अपने तरीके इजात किए हैं 24घंटो में धरती पर एक रात और एक दिन का समय गुजर जाता है। नेकिन क्या आपने कभी कल्पना की है कि दुनिया को बनाने वाले ब्रह्मा का एक दिन कितना बड़ा होता है? जिन देवताओं की हम पूजा करते हैं उनका एक दिन कितना बड़ा होता है? हम आपको ऐसी ही रोचक जानकारी यहां दे रहे हैं। हमारे ग्रन्थों ने बहुत बारीकी से समय की गणना की है । विष्णु पुराण में भी इसी तरह की काल गणना का प्रमाण मिलता है। मर्हिषि पाराशर ने इसही बहुत प्रमाणिक गणना बताई है।
विष्णु पुराण के पहले अध्याय में इसका उल्लेख है कि धरती पर 30 मुहुर्त का एक दिन और एक रात होती है 30 दिन का एक महीना और छ: महीनों का एक अयन होता है। यह दो अयन उत्तरायण और दक्षिणायन देवताओं के दिन और रात होते है। उत्तरायण दिन कहा जाता है और दक्षिणायन रात कही जाती है। इस गणना के मुताबिक 48,000 साल का सतयुग 36,000 साल का त्रेतायुग 24,000 साल का द्वापर और 12,000 देव वर्ष का कलियुग माना गया है।पुराण कहता है कि चार युग मिल कर चर्तुयुग होता है और ऐसे एक हजार चर्तुयुग बीतने पर ब्रह्मा का एक दिन पूरा होता है।ब्रह्मा के एक दिन के भीतर ही हम एक हजार बार जन्म ले चुके होते हैं। और इतनी ही बार सृष्टि की रचना और विध्वंश भी हो जाता है।

नए साल के लिए एक जनवरी ही क्यों

नए साल के लिए एक जनवरी ही क्यों

एक जनवरी नजदीक आ गई है। जगह-जगह हैपी न्यू ईयर के बैनर व होर्डिंग लग गए हैं। जश्न मनाने की तैयारियां शुरू हो गई हैं। जनवरी से प्रारंभ होने वाली काल गणना को हम ईस्वी सन् के नाम से जानते हैं जिसका संबंध ईसाई जगत् व ईसा मसीह से है। इसे रोम के सम्राट जूलियस सीजर द्वारा ईसा के जन्म के तीन वर्ष बाद प्रचलन में लाया गया था।
भारत में ईस्वी संवत् का प्रचलन अंग्रेज शासकों ने वर्ष 1752 में शुरू किया। अधिकांश राष्ट्रों के ईसाई होने और अंग्रेजों के विश्वव्यापी प्रभुत्व के कारण ही इसे अनेक देशों ने अपना लिया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नवम्बर 1952 में हमारे देश में वैज्ञानिक और औद्योगिक परिषद द्वारा पंचांग सुधार समिति की स्थापना की गई। समिति ने 1955 में सौंपी अपनी रिपोर्ट में विक्रमी संवत को भी स्वीकार करने की सिफारिश की थी। मगर तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के आग्रह पर ग्रेगेरियन कैलंडर को ही सरकारी कामकाज के लिए उपयुक्त मानकर 22 मार्च 1957 को इसे राष्ट्रीय कैलंडर के रूप में स्वीकार कर लिया गया।
ग्रेगेरियन कैलंडर की काल गणना मात्र दो हजार वर्षों के काफी कम समय को दर्शाती है। जबकि यूनान की काल गणना 3579 वर्ष, रोम की 2756 वर्ष, यहूदियों की 5767 वर्ष, मिस्र की 28670 वर्ष, पारसी की 198874 वर्ष चीन की 96002304 वर्ष पुरानी है। इन सबसे अलग यदि भारतीय काल गणना की बात करें तो भारतीय ज्योतिष के अनुसार पृथ्वी की आयु एक अरब 97 करोड़ 39 लाख 49 हजार 109 वर्ष है। जिसके व्यापक प्रमाण हमारे पास उपलब्ध हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथों में एक-एक पल की गणना की गई है। जिस प्रकार ईस्वी संवत् का संबंध ईसाई जगत से है उसी प्रकार हिजरी संवत् का संबंध मुस्लिम जगत से है। लेकिन विक्रमी संवत् का संबंध किसी भी धर्म से न हो कर सारे विश्व की प्रकृति, खगोल सिद्धांत व ब्रह्मांड के ग्रहों व नक्षत्रों से है। इसलिए भारतीय काल गणना पंथ निरपेक्ष होने के साथ सृष्टि की रचना व राष्ट्र की गौरवशाली परंपराओं को दर्शाती है।
भारतीय संस्कृति श्रेष्ठता की उपासक है। जो प्रसंग समाज में हर्ष व उल्लास जगाते हुए हमें सही दिशा प्रदान करते हैं उन सभी को हम उत्सव के रूप में मनाते हैं। राष्ट्र के स्वाभिमान व देशप्रेम को जगाने वाले अनेक प्रसंग चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से जुडे़ हुए हैं। यह वह दिन है, जिससे भारतीय नव वर्ष प्रारंभ होता है। यह सृष्टि रचना का पहला दिन है। ऐसी मान्यता है कि इसी दिन के सूर्योदय से ब्रह्मा जी ने जगत की रचना प्रारंभ की। विक्रमी संवत् के नाम के पीछे भी एक विशेष विचार है। यह तय किया गया था कि उसी राजा के नाम पर संवत् प्रारंभ होगा जिसके राज्य में न कोई चोर हो न अपराधी हो और न ही कोई भिखारी। साथ ही राजा चक्रवर्ती भी हो।
सम्राट विक्रमादित्य ऐसे ही शासक थे जिन्होंने 2067 वर्ष पहले इसी दिन अपना राज्य स्थापित किया था। प्रभु श्रीराम ने भी इसी दिन को लंका विजय के बाद अयोध्या में अपने राज्याभिषेक के लिए चुना। युधिष्ठिर का राज्याभिषेक भी इसी दिन हुआ था। शक्ति और भक्ति के नौ दिन अर्थात नवरात्र स्थापना का पहला दिन यही है। विक्रमादित्य की तरह शालिवाहन ने हूणों को परास्त कर दक्षिण भारत में श्रेष्ठतम राज्य स्थापित करने हेतु यही दिन चुना।
प्राकृतिक दृष्टि से भी यह दिन काफी सुखद है। वसंत ऋतु का आरंभ वर्ष प्रतिपदा से ही होता है। यह समय उल्लास - उमंग और चारों तरफ पुष्पों की सुगंधि से भरा होता है। फसल पकने का प्रारंभ अर्थात किसान की मेहनत का फल मिलने का भी यही समय होता है। नक्षत्र शुभ स्थिति में होते हैं अर्थात् नए काम शुरू करने के लिए यह शुभ मुहूर्त होता है। क्या एक जनवरी के साथ ऐसा एक भी प्रसंग जुड़ा है जिससे राष्ट्र प्रेम का भाव पैदा हो सके या स्वाभिमान तथा श्रेष्ठता का भाव जाग सके ? इसलिए विदेशी को छोड़ कर स्वदेशी को स्वीकार करने की जरूरत है। आइए भारतीय नव वर्ष यानी विक्रमी संवत् को अपनाएं।

तुलसी से दूर होगी शादी, संतान और नौकरी की समस्याएं

तुलसी से दूर होगी शादी, संतान और नौकरी की समस्याएं


तुलसी के पौधे को हिन्दू परम्परा में बहुत पूज्यनीय माना गया है। भारतीय परम्परा में तुलसी को प्राचीन समय से बहुत शुभ माना जाता है। इसे घर का वैद्य कहा गया है। इससे कई तरह की बीमारियां तो दूर होती ही है। साथ ही वास्तुशास्त्र के अनुसार भी इसे घर में रखने का विशेष महत्व माना गया है। तुलसी को घर में लगाने से कई तरह के वास्तुदोष दूर होते हैं। तुलसी के भी बहुत से प्रकार है। जिसमें जिसमें रक्त तुलसी, राम तुलसी, भू तुलसी, वन तुलसी, ज्ञान तुलसी, मुख्यरूप से विद्यमान है। तुलसी की इन सभी प्रजातियों के गुण अलग है।
- शरीर में नाक, कान वायु, कफ, ज्वर खांसी और दिल की बीमारियों पर खास प्रभाव डालती है। तुलसी वो पौधा है जो जीवन को सुखमय बनाने में सक्षम है। वास्तुदोष दूर करने के लिए इसे दक्षिण-पूर्व से लेकर उत्तर पश्चिम तक किसी भी खाली कोने में लगाया जा सकता है। यदि खाली स्थान ना हो तो गमले में भी तुलसी के पौधे को लगाया जा सकता है।
- तुलसी का पौधा किचन के पास रखने से घर के सदस्यों में आपसी सामंजस्य बढ़ता है। पूर्व दिशा में यदि खिड़की के पास रखा जाए तो आपकी संतान आपका कहना मानने लगेगी।
- अगर संतान बहुत ज्यादा जिद्दी और अपनी मर्यादा से बाहर है तो पूर्व दिशा में रखे तुलसी के पौधे के तीन पत्ते रोज उसे किसी ना किसी तरह खिला दें।
- यदि आपकी कन्या का विवाह नहीं हो रहा हो तो तुलसी के पौधे को दक्षिण-पूर्व में रखकर उसे नियमित रूप से जल अर्पण करें। इस उपाय से जल्द ही योग्य वर की प्राप्ति होगी।
- यदि आपका कारोबार ठीक से नहीं चल रहा है तो तुलसी के पौधे को नैऋत्य कोण में रखकर हर शुक्रवार को कच्चा दूध चढ़ाएं।
- नौकरी में यदि उच्चाधिकारी की वजह से परेशानी हो तो ऑफिस में जहां भी खाली जगह हो वहां पर सोमवार को तुलसी के सोलह बीज किसी सफेद कपड़े में बांधकर कोने में दबा दे। इससे आपके संबंध सुधरने लगेगें।

रिश्ते ऐसे हों

रिश्ते ऐसे हों

शब्दों की जरूरत न पड़े, रिश्ते ऐसे हों
आजकल पति-पत्नी के रिश्तों में तनाव बढ़ गया है। लंबे समय तक बातें नहीं होती। एक-दूसरे की आवश्यकताओं को समझते नहीं, भावनाओं को पहचानते नहीं। रिश्ते ऐसे हों कि उनमें शब्दों की आवश्यकता ही न पड़े, बिना कहे-बिना बताए आप समझ जाएं कि आपके साथी के मन में क्या चल रहा है। ऐसी समझ प्रेम से पनपती है। यह रिश्ते का सबसे सुंदर हिस्सा होता है कि आप सामने वाले की बात बिना बताए ही समझ जाएं।

दाम्पत्य के लिए राम-सीता का रिश्ता सबसे अच्छा उदाहरण है। इस रिश्ते में विश्वास और प्रेम इतना ज्यादा है कि यहां भावनाओं आदान-प्रदान के लिए शब्दों की आवश्यकता नहीं पड़ती है। एक प्रसंग है वनवास के समय जब राम-सीता और लक्ष्मण चित्रकूट के लिए जा रहे थे। रास्ते में गंगा नदी पड़ती है। गंगा को पार करने के लिए राम ने केवट की सहायता ली। केवट ने तीनों को नाव से गंगा नदी के पार पहुंचाया। केवट को मेहनताना देना था। राम के पास देने के लिए कुछ भी नहीं था। वे केवट को देने के लिए नजरों ही नजरों में कुछ खोजने लगे।
सीता ने राम के हावभाव से ही उनके मन की बात जान ली। वे बिना कहे ही समझ गई कि राम केवट को देने के लिए कोई भेंट के लायक वस्तु खोज रहे हैं। सीता ने राम की मनोदशा को समझते हुए अपने हाथ से एक अंगुठी निकालकर केवट को दे दी। इस पूरे प्रसंग में न तो राम ने सीता से कुछ कहा और न ही सीता ने राम से कुछ पूछा लेकिन दोनों की ही भावनाओं का आदान-प्रदान हो गया।

देवी-देवताओं की परिक्रमा

देवी-देवताओं की परिक्रमा

किस भगवान की कितनी परिक्रमा करें?
भगवान की भक्ति में एक महत्वपूण क्रिया है प्रतिमा की परिक्रमा। वैसे तो सामान्यत: सभी देवी-देवताओं की एक ही परिक्रमा की जाती है परंतु शास्त्रों के अनुसार अलग-अलग देवी-देवताओं के लिए परिक्रमा की अलग संख्या निर्धारित की गई है।

उज्जैन के ज्योतिषाचार्य पं. मनीष शर्मा के अनुसार आरती और पूजा-अर्चना आदि के बाद भगवान की मूर्ति के आसपास सकारात्मक ऊर्जा एकत्रित हो जाती है, इस ऊर्जा को ग्रहण करने के लिए परिक्रमा की जाती है। पं. शर्मा के अनुसार सभी देवी-देवताओं की परिक्रमा की अलग-अलग संख्या है।
किस देवी-देवता की कितनी परिक्रमा:
- शिवजी की आधी परिक्रमा की जाती है।
- देवी मां की तीन परिक्रमा की जानी चाहिए।
- भगवान विष्णुजी एवं उनके सभी अवतारों की चार परिक्रमा करनी चाहिए।
- श्रीगणेशजी और हनुमानजी की तीन परिक्रमा करने का विधान है।
परिक्रमा के संबंध में नियम:
पं. शर्मा के अनुसार परिक्रमा शुरु करने के पश्चात बीच में रुकना नहीं चाहिए। साथ परिक्रमा वहीं खत्म करें जहां से शुरु की गई थी। ध्यान रखें कि परिक्रमा बीच में रोकने से वह पूर्ण नही मानी जाती। परिक्रमा के दौरान किसी से बातचीत कतई ना करें। जिस देवता की परिक्रमा कर रहे हैं, उनका ही ध्यान करें। इस प्रकार परिक्रमा करने से पूर्ण लाभ की प्राप्ती होती है

हनुमानजी

हनुमानजी

हनुमानजी को सिंदूर का चोला क्यों चढ़ाते हैं?
शशिकांत साल्वी

श्रीराम के परमभक्त हनुमानजी आज सभी श्रद्धालुओं की आस्था के केंद्र हैं। हनुमानजी को माता सीता द्वारा अमरता का वरदान प्राप्त है। ऐसा कहा जाता है कि जहां भी सुंदरकांड का पाठ विधि-विधान से किया जाता है वहां श्री हनुमान अवश्य पधारते हैं। वे जल्द ही अपने भक्तों की सभी परेशानियों का हरण कर लेते हैं। जब भक्त की परेशानियों दूर हो जाती है तब कई श्रद्धालु हनुमानजी को सिंदूर का चोला चढ़वाते हैं।
हनुमानजी को सिंदूर का चोला चढ़ाने की परंपरा काफी प्राचीन समय से चली आ रही है। इस प्रथा के पीछे धार्मिक मान्यता यह है कि पवन पुत्र को सिंदूर अर्पित करने से वे अति प्रसन्न होते हैं। इस संबंध में एक कथा प्रचलित है कि एक दिन हनुमानजी ने माता सीता को मांग में सिंदूर लगाते देखा। हनुमानजी ने माता सीता से पूछा कि वे मांग में सिंदूर क्यों लगाती हैं? इस पर देवी जानकी ने बताया कि इससे मेरे स्वामी श्रीराम की उम्र और सौभाग्य बढ़ता है। यह सुनकर हनुमानजी ने सोचा कि यदि इतने सिंदूर से श्रीराम की उम्र और सौभाग्य बढ़ता है ता मैं पूरे शरीर पर सिंदूर लगाऊंगा तो श्रीराम हमेशा के अमर हो जाएंगे और इनकी कृपा सदैव मुझ पर बनी रहेगी। इस विचार के बाद हनुमानजी अपने पूरे शरीर पर सिंदूर लगाने लगे।
हनुमानजी की प्रतिमा को सिंदूर का चोला चढ़ाने के पीछे वैज्ञानिक कारण भी है। हनुमानजी को सिंदूर लगाने से प्रतिमा का संरक्षण होता है। इससे प्रतिमा किसी प्रकार से खंडित नहीं होती और लंबे समय तक सुरक्षित रहती है। साथ ही चोला चढ़ाने से प्रतिमा की सुंदरता बढ़ती है, हनुमानजी का प्रतिबिंब साफ-साफ दिखाई देता है। जिससे भक्तों की आस्था और अधिक बढ़ती है तथा हनुमानजी का ध्यान लगाने में किसी भी श्रद्धालु को परेशानी नहीं होती।

रामायण

रामायण

रामायण क्या-क्या सिखाती है?

रामायण पौराणिक ग्रंथों में सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली किताब है। रामायण को केवल एक कथा के रूप में देखना गलत है, यह केवल किसी अवतार या कालखंड की कथा नहीं है, बल्कि यह जीवन जीने का रास्ता बताने वाली सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक है। रामायण में सारे रिश्तों पर लिखा गया है, हर रिश्ते की आदर्श स्थितियां, किस परिस्थिति में कैसा व्यवहार करें, विपरित परिस्थिति में कैसे व्यवहार करेंं, ऐसी सारी बातें हैं।
जो आज हम अपने जीवन में अपनाकर उसे बेहतर बना सकते हैं।
- दशरथ ने अपनी दाढ़ी में सफेद बाल देखकर तत्काल राम को युवराज घोषितकर उन्हें राजा बनाने की घोषणा भी कर दी। हम जीवन में अपनी परिस्थिति, क्षमता और भविष्य को देखकर निर्णय लें। कई लोग अपने पद से इतने मोह में रहते हैं कि क्षमता न होने पर भी उसे छोडऩा नहीं चाहते।
- राजा बनने जा रहे राम ने वनवास भी सहर्ष स्वीकार किया। जीवन में जो भी मिले उसे नियति का निर्णय मानकर स्वीकार कर लें। विपरित परिस्थितियों के परे उनमें अपने विकास की संभावनाएं भी तलाशें। परिस्थितियों से घबराएं नहीं।
- सीता और लक्ष्मण राम के साथ वनवास में भी रहे, जबकि उनका जाना जरूरी नहीं था। ये हमें सिखाता है कि किसी की परिस्थितियां बदलने से हमारी उसके प्रति निष्ठा नहीं बदलनी चाहिए। हमारी निष्ठा और प्रेम ही हमें ऊंचा पद दिलाते हैं।
- भरत ने निष्कंटक राज्य भी स्वीकार नहीं किया, राम की चरण पादुकाएं लेकर राज्य किया। हमारा धर्म अडिग होना चाहिए। अधिकार उसी चीज पर जमाएं जिस पर नैतिक रूप से आपका अधिकार हो और आप उसके योग्य हों। भरत ने खुद को हमेशा राम के अधीन समझा, इसलिए जो राजा पद राम को मिलना था, उसे भरत ने स्वीकार नहीं किया।
- राम ने सुग्रीव से मित्रता की, सुग्रीव को उसका राज्य और पत्नी दोनों दिलवाई। आप भी जीवन में मित्रता ऐसे व्यक्ति से करें, जो आपकी परेशानी, आपके दु:ख को समझ सके।
- राम हमेशा भरत की प्रशंसा करते, उसे ही अपना सबसे प्रिय भाई बताते, जबकि राम के साथ सारे दु:ख लक्ष्मण ने झेले, इसके बावजूद भी लक्ष्मण ने कभी इसका विरोध नहीं किया। आप कोई भी काम करें तो उसे कर्तव्य भाव से करें, प्रशंसा की अपेक्षा न रखें, प्रशंसा की इच्छा हमेशा काम से विचलित करती है।

शाप और वरदान

शाप और वरदान

...तो शाप भी वरदान बन जाते हैं

दु:ख क्यों आते हैं, सुख कैसे मिलते हैं? ये सवाल हर इंसान के लिए पहेली है। कई बार अच्छा काम करते-करते भी परिणाम बुरा हो जाता है, कई बार हमारे साथ बुरा होने पर भी परिणाम सुखद होता है। हम परिणाम कैसा चाहते हैं, ये हमारे ऊपर ही निर्भर होता है। अगर सत्य से न डिगें, अपना नैतिक पतन न होने दें तो परिणाम कभी हमारे विरुद्ध नहीं होंगे।
अगर कोई निर्णय हमारे खिलाफ भी हो तो उससे अंत में भला हमारा ही होगा। बुराई के आगे न झुकने, थोड़ा सा या क्षणिक लाभ देख कर गलत काम करने से बचना ही नैतिक बल कहलाता है। महाभारत की एक कहानी हमें नैतिक बल का सबक सिखाती है। अगर हम अपने धर्म पर, कर्तव्य और सत्य पर टिके रहें तो शाप भी वरदान बन जाता है।
बात पांडवों के वनवास की है। जुए में हारने के बाद पांडवों को बारह वर्ष का वनवास और एक साल का अज्ञातवास गुजारना था। वनवास के दौरान अर्जुन ने दानवों से युद्ध में देवताओं की मदद की। इंद्र उन्हें पांच साल के लिए स्वर्ग ले गए। वहां अर्जुन ने सभी तरह के अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा हासिल की। गंधर्वों से नृत्य-संगीत की शिक्षा ली। अर्जुन का प्रभाव और रूप देखकर स्वर्ग की प्रमुख अप्सरा उर्वशी उस पर मोहित हो गई। स्वर्ग के स्वच्छंद रिश्तों और परंपरा का लोभ दिखाकर उर्वशी ने अर्जुन को रिझाने की कोशिश की। लेकिन उर्वशी अर्जुन के पिता इंद्र की सहचरी भी थी, सो अप्सरा होने के बावजूद भी अर्जुन उर्वशी को माता ही मानते थे। अर्जुन ने उर्वशी का प्रस्ताव ठुकरा दिया। खुद का नैतिक पतन नहीं होने दिया लेकिन उर्वशी इससे क्रोधित हो गई।
उर्वशी ने अर्जुन से कहा तुम स्वर्ग के नियमों से परिचित नहीं हो। तुम मेरे प्रस्ताव पर नपुंसकों की तरह ही बात कर रहे हो, सो अब से तुम नपुंसक हो जाओ। उर्वशी शाप देकर चली गई। जब इंद्र को इस बात का पता चला तो अर्जुन के धर्म पालन से वे प्रसन्न हो गए। उन्होंने उर्वशी से शाप वापस लेने को कहा तो उर्वशी ने कहा शाप वापस नहीं हो सकता लेकिन मैं इसे सीमित कर सकती हूं। उर्वशी ने शाप सीमित कर दिया कि अर्जुन जब चाहेंगे तभी यह शाप प्रभाव दिखाएगा और केवल एक वर्ष तक ही उसे नपुंसक होना पड़ेगा। यह शाप अर्जुन के लिए वरदान जैसा हो गया। अज्ञात वास के दौरान अर्जुन ने विराट नरेश के महल में किन्नर वृहन्नलला बनकर एक साल का समय गुजारा, जिससे उसे कोई पहचान ही नहीं सका।

गलत मार्ग का अंजाम

गलत मार्ग का अंजाम
किसी ग्राम में किसान दम्पती रहा करते थे। किसान तो वृद्ध था पर उसकी पत्नी युवती थी। अपने पति से संतुष्ट न रहने के कारण किसान की पत्नी सदा पर-पुरुष की टोह में रहती थी, इस कारण एक क्षण भी घर में नहीं ठहरती थी। एक दिन किसी ठग ने उसको घर से निकलते हुए देख लिया।
उसने उसका पीछा किया और जब देखा कि वह एकान्त में पहुँच गई तो उसके सम्मुख जाकर उसने कहा, “देखो, मेरी पत्नी का देहान्त हो चुका है। मैं तुम पर अनुरक्त हूं। मेरे साथ चलो।” वह बोली, “यदि ऐसी ही बात है तो मेरे पति के पास बहुत-सा धन है, वृद्धावस्था के कारण वह हिलडुल नहीं सकता। मैं उसको लेकर आती हूं, जिससे कि हमारा भविष्य सुखमय बीते।” “ठीक है जाओ। कल प्रातःकाल इसी समय इसी स्थान पर मिल जाना।”
स प्रकार उस दिन वह किसान की स्त्री अपने घर लौट गई। रात होने पर जब उसका पति सो गया, तो उसने अपने पति का धन समेटा और उसे लेकर प्रातःकाल उस स्थान पर जा पहुंची। दोनों वहां से चल दिए। दोनों अपने ग्राम से बहुत दूर निकल आए थे कि तभी मार्ग में एक गहरी नदी आ गई।
उस समय उस ठग के मन में विचार आया कि इस औरत को अपने साथ ले जाकर मैं क्या करूंगा। और फिर इसको खोजता हुआ कोई इसके पीछे आ गया तो वैसे भी संकट ही है। अतः किसी प्रकार इससे सारा धन हथियाकर अपना पिण्ड छुड़ाना चाहिए। यह विचार कर उसने कहा, “नदी बड़ी गहरी है। पहले मैं गठरी को उस पार रख आता हूं, फिर तुमको अपनी पीठ पर लादकर उस पार ले चलूंगा। दोनों को एक साथ ले चलना कठिन है।”
“ठीक है, ऐसा ही करो।” किसान की स्त्री ने अपनी गठरी उसे पकड़ाई तो ठग बोला, “अपने पहने हुए गहने-कपड़े भी दे दो, जिससे नदी में चलने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होगी। और कपड़े भीगेंगे भी नहीं।”
उसने वैसा ही किया। उन्हें लेकर ठग नदी के उस पार गया तो फिर लौटकर आया ही नहीं।वह औरत अपने कुकृत्यों के कारण कहीं की नहीं रही। इसलिए कहते हैं कि अपने हित के लिए गलत कर्मों का मार्ग नहीं अपनाना चाहिए।

वंश की रक्षा
किसी पर्वत प्रदेश में मन्दविष नाम का एक वृद्ध सर्प रहा करता था। एक दिन वह विचार करने लगा कि ऐसा क्या उपाय हो सकता है, जिससे बिना परिश्रम किए ही उसकी आजीविका चलती रहे। उसके मन में तब एक विचार आया।
वह समीप के मेढकों से भरे तालाब के पास चला गया। वहां पहुँचकर वह बड़ी बेचैनी से इधर-उधर घूमने लगा। उसे इस प्रकार घूमते देखकर तालाब के किनारे एक पत्थर पर बैठे मेढक को आश्चर्य हुआ तो उसने पूछा,“मामा! आज क्या बात है? शाम हो गई है, किन्तु तुम भोजन-पानी की व्यवस्था नहीं कर रहे हो?”
र्प बड़े दुःखी मन से कहने लगा, “बेटे! क्या करूं, मुझे तो अब भोजन की अभिलाषा ही नहीं रह गई है। आज बड़े सवेरे ही मैं भोजन की खोज में निकल पड़ा था। एक सरोवर के तट पर मैंने एक मेढक को देखा। मैं उसको पकड़ने की सोच ही रहा था कि उसने मुझे देख लिया। समीप ही कुछ ब्राह्मण स्वाध्याय में लीन थे, वह उनके मध्य जाकर कहीं छिप गया।” उसको तो मैंने फिर देखा नहीं। किन्तु उसके भ्रम में मैंने एक ब्राह्मण के पुत्र के अंगूठे को काट लिया। उससे उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। उसके पिता को इसका बड़ा दुःख हुआ और उस शोकाकुल पिता ने मुझे शाप देते हुए कहा, “दुष्ट! तुमने मेरे पुत्र को बिना किसी अपराध के काटा है, अपने इस अपराध के कारण तुमको मेढकों का वाहन बनना पड़ेगा।” “बस, तुम लोगों के वाहन बनने के उद्देश्य से ही मैं यहां तुम लोगों के पास आया हूं।”
मेढक सर्प से यह बात सुनकर अपने परिजनों के पास गया और उनको भी उसने सर्प की वह बात सुना दी। इस प्रकार एक से दूसरे और दूसरे से तीसरे कानों में जाती हुई यह बात सब मेढकों तक पहुँच गई। उनके राजा जलपाद को भी इसका समाचार मिला। उसको यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। सबसे पहले वही सर्प के पास जाकर उसके फन पर चढ़ गया। उसे चढ़ा हुआ देखकर अन्य सभी मेढक उसकी पीठ पर चढ़ गए। सर्प ने किसी को कुछ नहीं कहा।
मन्दविष ने उन्हें भांति-भांति के करतब दिखाए। सर्प की कोमल त्वचा के स्पर्श को पाकर जलपाद तो बहुत ही प्रसन्न हुआ। इस प्रकार एक दिन निकल गया। दूसरे दिन जब वह उनको बैठाकर चला तो उससे चला नहीं गया।
उसको देखकर जलपाद ने पूछा, “क्या बात है, आज आप चल नहीं पा रहे हैं?” “हां, मैं आज भूखा हूं इसलिए चलने में कठिनाई हो रही है।” जलपाद बोला, “ऐसी क्या बात है। आप साधारण कोटि के छोटे-मोटे मेढकों को खा लिया कीजिए।” इस प्रकार वह सर्प नित्यप्रति बिना किसी परिश्रम के अपना भोजन पा गया। किन्तु वह जलपाद यह भी नहीं समझ पाया कि अपने क्षणिक सुख के लिए वह अपने वंश का नाश करने का भागी बन रहा है। सभी मेढकों को खाने के बाद सर्प ने एक दिन जलपाद को भी खा लिया। इस तरह मेढकों का समूचा वंश ही नष्ट हो गया।
इसीलिए कहते हैं कि अपने हितैषियों की रक्षा करने से हमारी भी रक्षा होती है।

भालू

भालू
 
एक बार दो दोस्त जंगल से जा रहे थे। जंगल बड़ा घना और डरावना था। दोनों को डर भी लग रहा था कि कहीं कोई जंगली जानवर न आ जाए और इतने में उनके रास्ते में एक बड़ा-सा भालू आता दिखाई दिया।
भालू को देखकर एक मित्र पेड़ पर चढ़ गया और पत्तियों से खुद को ढँक लिया। दूसरे मित्र को पेड़ पर चढ़ना नहीं आता था। वह बहुत घबराया। तभी उसके दिमाग में आया कि भालू मृत व्यक्ति को नहीं छूता है। वह तुरत-फुरत श्वास रोककर जमीन पर लेट गया।
भालू जमीन पर लेटे उस युवक के नजदीक आया। भालू ने उसके कान, नाक और इस तरह शरीर को सूँघा और उसे मृत समझकर अपने रास्ते चला गया। जब भालू चला गया तो पेड़ पर चढ़ा युवक नीचे उतरा और उतरते ही उसने पूछा कि भालू ने तुम्हें कुछ नहीं किया पर वो तुम्हारे कान को क्यों सूँघ रहा था।
दूसरे युवक ने उत्तर दिया कि वह मेरे कान को सूँघ नहीं रहा था बल्कि मुझे एक सलाह दे रहा था। पेड़ से उतरे युवक ने पूछा- कैसी सलाह?
इस पर पहले युवक ने जवाब दिया -भालू कह रहा था कि उस मित्र के साथ कभी मत रहो जो विपत्ति में तुम्हारा साथ छोड़ देता है। सच्चा मित्र वही है जो संकट के समय में भी साथ दे।


बंडू कहाँ है...

 

शाम को घर में घुसते ही गोखले साहब ने गुस्से में भरकर पूछा। गुस्से में आने के बाद वे चिल्लाते नहीं थे। शांतनु को जब वे बंडू कहते तो सबको समझ में आ जाता कि वे नाराज हैं।

आजकल उनकी नाराजी का कारण रहता कि यह लड़का पूरे समय रसोईघर में क्यों घुसा रहता है। उसकी उम्र के बच्चों को या तो खेल के मैदान पर होना चाहिए, या फिर पढ़ाई करते हुए या कम्प्यूटर के सामने नजर आना चाहिए।
बेटा आईआईटी जाए, आईटी प्रोफेशनल बने और खेलकूद कर तंदुरुस्त रहे। सभी पिताओं की तरह गोखले साहब भी यही चाहते थे। वे खुद आर्किटेक्ट थे और कॉलेज की टीम में खो-खो के कप्तान भी रहे।
शांतनु की माँ ने उन्हें पानी का फुलपात्र देते हुए उनको शांत करने का प्रयत्न किया- बंडू खाना बनाने में मेरी मदद कर रहा है। यही बात गोखलेजी को सख्त नापसंद थी कि लड़का-लड़कियों के काम करे। फिर वे अपनी नाराजी उर्मिला पर उतारते कि घर में कोई लड़की नहीं है इसका अर्थ यह नहीं कि तुम इकलौते लड़के को भी गृहकार्य में दक्ष बनाओ।
बंडू के पिता अधिक गुस्सा होते तो पत्नी को उसके नाम से पुकारते। उनका हमेशा यही तर्क रहता कि रसोई बनाना पुरुषों का काम नहीं। सिर्फ अनपढ़ पुरुष ही बावर्चीगिरी करते हैं और वह भी पुराने जमाने में हुआ करता था। खाना केवल महिलाओं का काम है और उनकी अपनी माँ सर्वश्रेष्ठ खाना पकाने वाली थी।
यों उर्मिला काकू के हाथ में भी स्वाद था। उनकी शिकायत रहती कि गोखलेजी को खाने में कोई रुचि ही नहीं। लेकिन वे नाराज होने बाद भी पति को प्रभाकर नाम से नहीं पुकारती थी। वह सिर्फ इतना जता देती थी कि उनकी सास गणित की प्रोफेसर थीं और ससुरजी के खाने के शौक के कारण अच्छा खाना बनाने लगी थी। बहरहाल, गोखले साहब पत्नी के साथ बहस में पड़ना नहीं चाहते थे क्योंकि उर्मिला काकू अपने कॉलेज के दिनों की सर्वश्रेष्ठ वक्ता मानी जाती थी।
आए दिन घर में होने वाले इन विवादों का इतिहास दो वर्ष पुराना था। शांतनु को खाने का शौक था- चटोरेपन की हद तक। स्कूल से आने के बाद, पढ़ाई के बाद, खेलकर आने बाद, भोजन से पहले उसे कुछ न कुछ पेट में डालने के लिए चाहिए होता। उर्मिला काकू उसके लिए शकर पारे, चकली वगैरह बनाकर रखती। बंडू के आगे भरे डिब्बे चार दिन में खाली हो जाते।
जब माँ देर तक कॉलेज से न लौटती, बंडू के पेट में चूहे उछलने लगते। एक दिन बंडू ने खुद ही सैंडविच बनाकर खाए। दूसरे दिन उसने पत्ता गोभी और शिमला मिर्च का सैंडविच बनाया। यह सिलसिला चल निकला। एक के बाद एक, बंडू सलाद, सब्जियाँ, आमटी जैसे पदार्थ बनाने लगा। उर्मिला काकू को भी ताज्जुब था कि दिवाली के दिनों में जो अनारसे उनसे नहीं बनते थे, बंडू बहुत अच्छे से बना लेता था।
गोखलेजी इसी बात से दुःखी हो उठते। वे कहते मत गाड़ो खेल के मैदान पर झंडे, मत बनो वैज्ञानिक। परंतु भगवान के लिए बावर्ची मत बनो।
कुछ दिनों से शाम को खाने की टेबल पर अक्सर थॉमसन साहब की चर्चा होती। वे गोखलेजी के नए क्लाइंट थे। शहर के इलेक्ट्रॉनिक पार्क में थॉमसन कम्युनिकेशंस के कारण बड़ी सनसनी फैली थी। ये अमेरिका की बड़ी कंपनी थी। अपना दफ्तर बनाने के लिए उन्होंने गोखले एंड कंपनी को अनुबंधित किया था। हमउम्र, पढ़ाकू और संगीत के शौकीन होने के कारण थामसन और गोखले अच्छे मित्र बन गए थे।
थॉमसन साहब चाहते थे कि उनके कार्यालय का सारा कामकाज सोलर और विंड एनर्जी से चले। हरा-भरा अहाता हो और फल-सब्जियों की खेती हो। उन्हें सब्जियाँ खूब भाती थीं।
एक शनिवार की दोपहर गोखले साहब का फोन आया कि शाम को थॉमसन साहब डिनर के लिए घर आ रहे हैं। उन्हें पता था कि उनका घरेलू नौकर राम्या कल शाम ही अपने गाँव गया है, क्योंकि उसके घर की गाय ने एक काली केड़ी को जन्म दिया है जिसके माथे पर सफेद तिलक है। यह बहुत शुभ लक्षण है।

गोखलेजी ने उर्मिला काकू को जताया कि वह फिक्र न करे। वे लौटते समय होटल से कुछ मंचूरियन कुछ बेक्ड वेजीटेबल पैक करवाकर ले आएँगे। और यही सब करने में उन्हें घर लौटने में देर हो गई।

थॉमसन साहब को आए काफी देर हो गई थी। उर्मिलाजी को दिया उनका गुलदस्ता गुलदान में सज चुका था। बैठक में बंडू उनसे गपिया रहा था। गोखलेजी का विश्वास था कि बंडू गपियाने से बेहतर तरीके से कोई बात नहीं कर सकता। परंतु थॉमसन साहब खूब कहकहे भी लगा रहे थे। गोखले साहब के आते ही वे बोले कि गोखले, टुमारा सन इज ए वंडरफुल फेलो। गोखलेजी ने देखा कि उर्मिला उनकी ओर निगाहें गड़ाकर देख रही थी।

खाने की मेज पर तो गजब ही हुआ। गोखलेजी की लाई पनीर, मंचूरियन को तो थॉमसन ने चखकर छोड़ दिया। वे तो मूली की आमटी और कोशिंबीर पर टूट पड़े और उन्हें खत्म करके ही माने।
उनकी राय में उन्होंने दुनियाभर में चखे सूप और सलाद में ये सर्वश्रेष्ठ थे। फिर उर्मिलाजी को बधाई देते हुए उन्होंने उन दोनों पदार्थों को बनाने के नुस्खे माँगे। तब बात जाहिर हुई कि ये दोनों चीजें बंडू की बनाई हुई थी। इन्हें बनाने में जिस हल्के हाथ का स्पर्श जरूरी है वह किसी पहुँचे हुए शेफ की ही विशेषता हो सकती है ऐसा थॉमसन साहब ने कह डाला।
अचानक गोखलेजी बोलने लगे, ...दरअसल मैं शुरू से ही जोर देता आया हूँ कि बच्चे अपने अंदर के गुणों का विकास करें। महिलाएँ कंपनियाँ संभाल सकती हैं तो पुरुष किचन क्यों नहीं? अब उर्मिला काकू और बंडू ने गोखलेजी को घूरा लेकिन वे तो उनसे नजरें मिलाने को भी तैयार नहीं थे।

एक भला आदमी

एक भला आदमी
पहाड़ियों के बीच एक छोटा सा गाँव था। गाँव में बसंत के आसपास पेड़ों के पुराने पत्ते झड़ जाते और सड़कों पर कचरा जमा हो जाता। पत्ते तालाबों में भी तैरते रहते। पूरे शहर में कचरा ही कचरा नजर आता।
ऐसे में गाँव के नगर पालिका सदस्यों ने तय किया कि इस काम के लिए किसी को नियुक्त कर लेना चाहिए ताकि वह रोजाना सफाई का काम देखे।
कुछ ही दिनों में इस काम के लिए एक बूढ़े व्यक्ति को नियुक्त कर दिया गया। बूढ़ा अपने काम के प्रति ईमानदार था। वह दिनभर काम में लगा रहता।
बूढ़ा रोजाना सड़कों की सफाई करता, तालाब की सुंदरता का खयाल रखता और पेड़ों की सलीके से काँट-छाँटकर करता। देखते ही देखते उसने पूरे कस्बे की शक्ल सुधार दी। बूढ़े की देखरेख में कस्बा दिनोंदिन निखरता गया।
कुछ ही महीनों में कस्बा इतना सुंदर हो गया। कई पंछी वहाँ आने लगे। पर्यटक भी अपनी छुट्‍टियाँ बिताने के लिए कस्बे में रुकना पसंद करने लगे। कस्बे की नगर पंचायत को सुंदरता के लिए कई पुरस्कार मिले और कस्बे की आय में भी बढ़ोतरी हुई।
इसके बाद काउंसिल की एक बैठक और हुई। इसमें किसी सदस्य की नजर बूढ़े को दी जाने वाली तनख्वाह पर पड़ी। उसे यह खर्च अनुपयुक्त लगा। वह बोला कि गाँव की सफाई के लिए जो आदमी रखा है उस पर बहुत पैसा खर्च हो रहा है। बाकी सदस्यों ने इसमें हाँ मिलाई और बूढ़े को काम से हटाने का निर्णय ‍ले लिया गया।
अगले दिन से बूढ़े को काम पर से हटा दिया गया। बूढ़े ने अपने लिए कुछ और काम ढूँढ लिया।
बूढ़े ने जिस दिन से अपना काम बंद कर दिया। उसके कुछ दिनों तक तो कोई खास फर्क दिखाई नहीं दिया। पर महीने, दो महीने में कस्बे की हालत ‍फिर से पहले जैसी हो गई। लोगों ने देखा कि पेड़ों के पत्तों से सड़कें अटी पड़ी हैं। तालाबों में कचरा जमा हो गया है। पंछियों ने इस तरफ आना छोड़ दिया और पर्यटकों का आना भी बंद हो गया है। अचानक कस्बे की रौनक चली गई है।
काउंसिल ने फिर से बैठक की। सभी ने स्वीकार किया कि उस बूढ़े व्यक्ति ने ही इस कस्बे को सुंदर बनाया था। सदस्यों ने माना कि उनसे गलती हुई। उन्हें उस भले आदमी की कद्र करना चाहिए थी। कुछ दिनों बाद उस बूढ़े को फिर से उसके काम पर रख लिया गया। इस बार उसकी तनख्वाह भी पहले से बढ़ा दी गई।

सीख : ठीक ही कहा गया है अच्‍छे काम की जरूरत दुनिया में हमेशा बनी रहेगी। लोग भले शुरुआत में अच्छे काम को नहीं पहचानें, पर देर-सबेर अच्छा काम अपनी जगह खुद बना लेता है।

शक्तियाँ

शक्तियाँ
हर काम के लिए व्यक्ति के अंदर शक्ति का होना आवश्यक है। शक्ति दो प्रकार की होती है। शारीरिक तथा मानसिक। जो व्यक्ति जीवन में सफल होना चाहता है उसके शरीर और मन दोनों में शक्ति होना आवश्यक है। शरीर की शक्ति आती है शरीर को स्वस्थ रखने से और शरीर को स्वस्थ रखने से और मन की शक्ति आती है सत्य के आचरण से। शरीर और मन दोनों की शक्तियाँ जब तक व्यक्ति में हों तभी तक वह सच्चे अर्थों में शक्तिशाली कहलाने का दावा कर सकता है। दोनों में से केवल एक ही शक्ति रखने वाला व्यक्ति अपने जीवन में सफल नहीं हो सकता।
कालू नाम का एक लड़का था। वह रोज नियमपूर्वक कसरत करता था, अच्छी तरह खाता-पीता था। अपने स्वास्थ्‍य का बहुत ही ध्यान रखता था, किंतु न तो वह पढ़ता-लिखता था, न ही ज्ञान-चर्चा करता था। बड़ा होने पर वह शरीर से हट्‍टा-कट्‍टा तो हुआ, परंतु मानसिक बल उसके पास कुछ नहीं था। लोगों को मारपीट की धमकी देकर ही उनसे रुपया-पैंसा ऐंठ लेता था और उसी से अपना काम चलाता था।
ऐसा करते-करते एक दिन वह डाकुओं के दल में जा मिला। पुलिस के डर से भयभीत वह हमेशा अपने आप को छिपाए-छिपाए रहता था। शरीर में इतना बल रखते हुए भी उसे एक दिन पुलिस की गोली का शिकार होना पड़ा। क्या कालू को हम शक्तिशाली कह सकते हैं? नहीं, मानसिक बल न रहने के कारण उसका शारीरिक बल व्यर्थ ही नहीं गया, उसकी मृत्यु का कारण भी बना।
इसके विपरीत रामानुजम नाम का लड़का था। वह गणित में बहुत ही अधिक कुशल था। उसे केवल अपनी किताबों से ही प्रेम था। हिसाब बनाते-बनाते न उसे खाने-पीने की सुध रहती न अपने शरीर के आराम की। छोटी-सी उम्र में ही उसने बहुत कुछ जान लिया। यहाँ तक कि उसके एक अँगरेज प्रोफेसर उसे विश्वविख्यात कैंब्रिज विश्वविद्यालय में ले गए ताकि उसे गणित के अध्ययन में सुविधा हो। लेकिन निरंतर अवहेलना के कारण उसके शरीर का सारा बल जाता रहा था। उसे टीबी हो गई और 25 साल की आयु में उसकी मृत्यु हो गई। वह संसार को बहुत कुछ दे सकता था, किंतु शरीर के बल के अभाव के कारण उसका जीवन एक प्रकार से व्यर्थ हो गया।

इन दो उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है‍ कि शारीरिक और मानसिक बल एक-दूसरे के बिना निरर्थक हैं। शरीर में बल प्राप्त करने के लिए उसकी देखभाल बहुत आवश्यक है। जब तक बच्चा छोटा रहता है, उसका स्वास्थ्य की जिम्मेदारी उसके माता-पिता पर रहती है। बड़े होने पर अपने शरीर की देखभाल स्वयं करना बहुत आवश्यक है। आरंभ से ही ठीक आदतें डालनी चाहिए। समय से खानापीना, सोना, खेलना शरीर के स्वास्‍थ्‍य के लिए अनिवार्य है। इसके अतिरिक्त भोजन को रुचि तथा प्रेम से करना भी बहुत आवश्यक है।
में नहीं जीभ में होता है। स्वस्थ आदमी जब क्ष‍ुधा के साथ भोजन पर बैठेगा तो परोसी हुई हर अच्छी वस्तु खाने की आदत डालना बहुत अच्छा रहता है। खाने-पीने की कुछ चीजें अवश्य ही हानिकारक हैं - जैसे सड़े-गले फल, सड़क पर बिकने वाली खुली भोजन सामग्री, बिना धुली गंदी चीजें, तंबाकू शराब इत्यादि। इन चीजों से दूर रहना ही श्रेयस्कर है। इसके अतिरिक्त नियमित रूप से कसरत करना, टहलना भी स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य है। शरीर भगवान की एक अनमोल देन है। उसे भगवान का वरदान मानकर हमेशा स्वस्थ, साफ-सुथरा और सुंदर रखना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है, तभी शरीर में बल रहता है और तभी व्यक्ति अपने जीवन के उद्‍देश्य की प्राप्ति के लिए पूरी तरह चेष्टा कर सकता है।
जो व्यक्ति शरीर की देखभाल नहीं करते, वे बहुत बड़ी भूल करते हैं। शरीर की देखभाल का स्थान प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति की दिनचर्या में होना नितांत आवश्यक है।
स्वस्थ शरीर के बिना सफल जीवन की कामना करना व्यर्थ है। शरीर की शक्ति ही मन की विविध शक्तियों को कार्य रूप देने में सफल हो सकती है। स्वस्थ जीवन बल यही शरीर की एकमात्र शक्ति है, किंतु इसके विपरीत मन की शक्तियाँ ही कई प्रकार की होती हैं। उनके नाम हैं बुद्धि, दृढ़ता और कल्पना। ये शक्तियाँ सब व्यक्तियों में समान रूप से निहित नहीं होतीं, लेकिन न्यूनाधिक मात्रा में हर एक के पास विद्यमान रहती हैं। स्वस्थ मन वाला व्यक्ति यदि चाहे तो इनका और अधिक विकास भी सहज ही कर सकता है।
मन के स्वास्थ्य के लिए शरीर का स्वस्थ होना आवश्यक है और साथ ही शरीर के स्वास्थ्य के लिए मन का स्वस्थ होना भी आवश्यक है। दोनों ही एक-दूसरे पर निर्भर हैं। मन सूक्ष्म है, उसकी देखभाल करना शरीर की देखभाल करने की अपेक्षा अधिक कठिन है। इसलिए पहले शरीर को स्वस्थ बनाकर ही मन के स्वास्थ्‍य पर ध्यान देना उचित है। स्वस्थ मन वह है जिसकी बुद्धि हमेशा अच्छी बातों की प्रेरणा देती है तथा निरंतर ज्ञान के पथ पर अग्रसर होने की चेष्टा करती है। स्वस्थ मन की दृढ़ता व्यक्ति को उत्साहित रखती है और उसे अपने हर काम को पूरा करने में मदद देती है। स्वस्थ मन की कल्पना व्यक्ति को ऊँचा उठाने और अधिक अच्‍छा बनने में सतत सहायता करती है।
अस्वस्थ मन को बुद्धि बुरी दिशा की तरफ ले जाती है। अस्वस्थ मन में दृढ़ता होती ही नहीं और अस्वस्थ मन की कल्पना सदा भयावह होती है। बुद्धि दूसरों की बुराई सोचती है। दृढ़ता न रहने के कारण अस्वस्थ मन वाला व्यक्ति कोई भी काम नहीं कर पाता। उसकी कल्पना उसे असफलता तथा पतन की तस्वीरें ही उसके आगे प्रस्तुत करती है।
अब प्रश्न उठता है कि मन को स्वस्थ कैसे रखा जाए? मन को स्वस्थ रखने के लिए दो बातें बिल्कुल ही आवश्यक हैं। भगवान में दृढ़ विश्वास और सत्य का आचरण। भगवान में विश्वास न रहने पर व्यक्ति का जीवन अव्यवस्थित हो उठता है। उसे पता नहीं चलता कि वह जीवित ही क्यों है? ऐसे प्रश्न मन में उठकर उसे अशांत बना देते हैं और उसकी बुद्धि उद्‍भ्रांत-सी रहती है।
भगवान में विश्वास रखने वाला व्यक्ति यह जानता है कि भगवान ने उसे बनाया है, उसकी आत्मा भगवान का ही एक अंश है। भगवान ने उसे संसार में एक खास उद्‍देश्य से भेजा है - वह सुखी रहे, ज्ञान प्राप्त करे और अपने प्राप्त किए हुए ज्ञान को संसार को अच्छा करने में काम में लाए। ऐसा सोचने वाले व्यक्ति का मन सदा प्रसन्न, सदा शांत रहता है और अपने आप में वह शक्ति का अनुभव करता है। जो व्यक्ति यह जान लेता है कि वह एक उद्‍देश्य से संसार में आया है वह कभी भी बुरा आचरण नहीं करता है। सत्य को अपने जीवन की धुरी बनाकर वह हमेशा कठिन काम करता है।
अपना कर्तव्य भली-भाँति निभाता है और उसका मन सशक्त और प्रफुल्ल रहता है। मन में शक्ति रहने के कारण वह व्यक्ति समाज में सदा प्रतिष्ठित रहता है। दूसरे लोगों का श्रद्धा-पात्र रहता है।
स्वस्थ रखने के लिए मन पर नियंत्रण रखना भी बहुत आवश्यक है। आज के संसार में बहुत सारे व्यक्ति ऐसे मिलेंगे जो यह कहते हैं कि यदि भगवान ने हमें इच्छा, अभिलाषा, भावनाएँ, अनुभूतियाँ दी हैं तो हम उन्हें ‍छिपाकर क्यों रखें? मन जो कहे वही करना उचित है। ऐसा करने वाले लोग मन और प्रवृत्तियों के अंतर को स्पष्ट नहीं समझ सकते हैं। हम किसी के घर जाते हैं, वहाँ कोई बड़ी लुभावनी वस्तु यदि हमारे सामने आए तो क्या उसे हम उठा लेंगे? नहीं, प्रवृत्ति कहती है, 'वह हमारी हो जाए' लेकिन मन कहता है, नहीं, वह किसी और की है, हम उसे नहीं ले सकते। बीमार रहने पर कई बार हमारी जीभ, हमारा स्वाद चाहता है कि अमुक वस्तु खाएँ, लेकिन मन समझाता है, 'नहीं, यह ठीक नहीं। इसे खा लेने पर हम और अधिक बीमार हो जाएँगे।

पुस्तक 'बच्चो अच्छे बनो' से।


नारदजी
एक बार नारदजी भ्रमण करते हुए भगवान शिव की नगरी वाराणसी जा पहुँचे। नगरी के मनोरम दृश्य देखकर उनका मन प्रसन्ना हो गया। जब वे चौक बाजार से होकर जा रहे थे तो उनकी इच्छा तांबूल खाने की हुई। नारदजी को वाराणसी के पान की प्रसिद्धि का पता देवलोक में लग गया था इसलिए उनका पान खाने का बड़ा मन था। वे ललचाई नजरों से किसी पान वाले की दुकान की तलाश कर रहे थे। तभी एक लड़के ने आकर एक दुकान पर बैठे हुए मोटे लालाजी की ओर संकेत करते हुए नारदजी से कहा- "आपको बाबूजी बुला रहे हैं।"
नारदजी ने मन ही मन सोचा, लो अच्छा हुआ, बाबूजी अतिथि-सत्कार के तौर पर पान तो खिलाएँगे ही। जैसे हीएक बार नारदजी भ्रमण करते हुए भगवान शिव की नगरी वाराणसी जा पहुँचे। नगरी के मनोरम दृश्य देखकर उनका मन प्रसन्ना हो गया। जब वे चौक बाजार से होकर जा रहे थे तो उनकी इच्छा तांबूल खाने की हुई। नारदजी को वाराणसी के पान की प्रसिद्धि का पता देवलोक में लग गया था इसलिए उनका पान खाने का बड़ा मन था। वे ललचाई नजरों से किसी पान वाले की दुकान की तलाश कर रहे थे। तभी एक लड़के ने आकर एक दुकान पर बैठे हुए मोटे लालाजी की ओर संकेत करते हुए नारदजी से कहा- "आपको बाबूजी बुला रहे हैं।"

नारदजी ने मन ही मन सोचा, लो अच्छा हुआ, बाबूजी अतिथि-सत्कार के तौर पर पान तो खिलाएँगे ही। जैसे ही नारदजी दुकान पर पहुँचे, वहाँ बैठा हुआ लाला बोल- "बाबा राधेश्याम! नारदजी ने सोचा, शायद किसी राधेश्याम के चक्कर में मुझे बुला लिया है। अतः वे बोले- "भैया क्षमा करना, मेरा नाम राधेश्याम नहीं है, मैं तो नारद हूँ। यह सुनकर लाला मुस्कुराकर बोला-"आप नारद हों या कोई और, मुझे इससे मतलब नहीं है, हाँ आप इस वीणा को मुझे बेच दो, मेरा लाडला वीणा चाहता है।

यह सुनते ही नारदजी के पैरों तले जमीन खिसक गई, वह तो इस आशा से दुकान पर आए थे कि‍ कुछ आदर सत्‍कार होगा, किंतु यहाँ तो लेने के देने पड़ने लगे। वे बोले 'ना भैया यह वीणा बि‍काऊ नहीं है। अपने लाड़ले सपूत को कोई दूसरी वीणा दि‍ला दो।' इतना कहकर नारद जी जाने लगे तो दुकानदार कड़ककर बोला, 'देखो बाबा मेरे बच्‍चे के मन में ये वीणा बस गई है आप चाहे जि‍तना पैसा ले लो, यह वीणा दे दो।'

अरे क्‍या कहते हो भैया तुम्‍हारे लड़के के मन में तो ये आज बसी है मेरे मन में तो सदैव से यही बसी हुई है। मैं इसे नहीं दूँगा मुझे रुपए पैसे से कोई मतलब नहीं है।' नारद जी ने कहा।

नारदजी के इस उत्तर से लाला जनभुन गया। उसने नारद जी को ऊपर से नीचे तक देखा और बोला- 'शायद कहीं बाहर से आए हो बाबा?'
'हाँ भैया मैं देवलोक से आया हूँ।' नारद जी ने वि‍नम्रता के साथ कहा। 'हुममम, तभी तो! वाराणसी में रहने का कब तक रहने का वि‍चार है?' लाला ने घमंड के साथ पूछा। 'अब आ ही गया हूँ तो भगवान शि‍व की नहरी में दस-पाँच दि‍न घूमूँगा फि‍रूँगा।' नारद जी ने जवाब दि‍या। 'तो कान खोलकर सुन लो बाबा! आप इस वीणा को लेकर वाराणसी से वापस नहीं जा सकते। मुझे सेठ पकौड़ीलाल कहते हैं। मेरी शक्ति‍ और सामर्थ्‍य के बारे में जानना हो तो कि‍सी भी बनारसी से पूछ लेना।'

सेठ की बे सि‍र पैर की बाते सुनकर नारद जी को भी मजाक सूझा। वे बोले, 'हाँ तुम्‍हारी शक्ति‍ का तो अंदाजा तुम्‍हारी मोटी तोंद से ही लग रहा है लेकि‍न शायद तुम्‍हारी बुद्धि‍ तुम्‍हारी तोंद से भी मोटी है।' नारद जी के मुँह से ऐसा सुनकर से सेठ आग बबूला हो गया जैसे ही वह नारद जी पर ढपटा वे अंतर्ध्‍यान हो गए। लाला का पैर फि‍सला और वो धम्‍म से नीचे गि‍र पड़ा।

सरलता

सरलता
 
सतपुड़ा के वन प्रांत में अनेक प्रकार के वृक्ष में दो वृक्ष सन्निकट थे। एक सरल-सीधा चंदन का वृक्ष था दूसरा टेढ़ा-मेढ़ा पलाश का वृक्ष था। पलाश पर फूल थे। उसकी शोभा से वन भी शोभित था। चंदन का स्वभाव अपनी आकृति के अनुसार सरल तथा पलाश का स्वभाव अपनी आकृति के अनुसार वक्र और कुटिल था, पर थे दोनों पड़ोसी व मित्र। यद्यपि दोनों भिन्न स्वभाव के थे। परंतु दोनों का जन्म एक ही स्थान पर साथ ही हुआ था। अत: दोनों सखा थे।
कुठार लेकर एक बार लकड़हारे वन में घुस आए। चंदन का वृक्ष सहम गया। पलाश उसे भयभीत करते हुए बोला - 'सीधे वृक्ष को काट दिया जाता है। ज्यादा सीधे व सरल रहने का जमाना नहीं है। टेढ़ी उँगली से घी निकलता है। देखो सरलता से तुम्हारे ऊपर संकट आ गया। मुझसे सब दूर ही रहते हैं।'
चंदन का वृक्ष धीरे से बोला - 'भाई संसार में जन्म लेने वाले सभी का अंतिम समय आता ही है। परंतु दुख है कि तुमसे जाने कब मिलना होगा। अब चलते हैं। मुझे भूलना मत ईश्वर चाहेगा तो पुन: मिलेंगे। मेरे न रहने का दुख मत करना। आशा करता हूँ सभी वृक्षों के साथ तुम भी फलते-फूलते रहोगे।'
लकड़हारों ने आठ-दस प्रहार किए चंदन उनके कुल्हाड़े को सुगंधित करता हुआ सद्‍गति को प्राप्त हुआ। उसकी लकड़ी ऊँचे दाम में बेची गई। भगवान की काष्ठ प्रतिमा बनाने वाले ने उसकी बाँके बिहारी की मूर्ति बनाकर बेच दी। मूर्ति प्रतिष्ठा के अवसर पर यज्ञ-हवन का आयोजन रखा गया। बड़ा उत्सव होने वाला था।
यज्ञीय समिधा (लकड़ी) की आवश्यकता थी। लकड़हारे उसी वन प्रांतर में प्रवेश कर उस पलाश को देखने लगा जो काँप रहा था। यमदूत आ पहुँचे। अपने पड़ोसी चंदन के वृक्ष की अंतिम बातें याद करते हुए पलाश परलोक सिधार गया। उसके छोटे-छोटे टुकड़े होकर यज्ञशाला में पहुँचे।
यज्ञ मण्डप अच्छा सजा था। तोरण द्वार बना था। वेदज्ञ पंडितजन मंत्रोच्चार कर रहे थे। समिधा को पहचान कर काष्ट मूर्ति बन चंदन बोला - 'आओ मित्र! ईश्वर की इच्‍छा बड़ी बलवान है। फिर से तुम्हारा हमारा मिलन हो गया। अपने वन के वृक्षों का कुशल मंगल सुनाओ। मुझे वन की बहुत याद आती है। मंदिर में पंडित मंत्र पढ़ते हैं और मन में जंगल को याद करता हुआ रहता हूँ।
पलाश बोला - 'देखो, यज्ञ मंडप में यज्ञाग्नि प्रज्जवलित हो चुकी है। लगता है कुछ ही पल में राख हो जाऊँगा। अब नहीं मिल सकेंगे। मुझे भय लग रहा है। ‍अब बिछड़ना ही पड़ेगा।'
चंदन ने कहा - 'भाई मैं सरल व सीधा था मुझे परमात्मा ने अपना आवास बनाकर धन्य कर‍ दिया तुम्हारे लिए भी मैंने भगवान से प्रार्थना की थी अत: यज्ञीय कार्य में देह त्याग रहे हो। अन्यथा दावानल में जल मरते। सरलता भगवान को प्रिय है। अगला जन्म मिले तो सरलता, सीधापन मत छोड़ना। सज्जन कठिनता में भी सरलता नहीं छोड़ते जबकि दुष्ट सरलता में भी कठोर हो जाते हैं। सरलता में तनाव नहीं रहता। तनाव से बचने का एक मात्र उपाय सरलता पूर्ण जीवन है।'
बाबा तुलसीदास के रामचरितमानस में भगवान ने स्वयं ही कहा है -
निरमल मन जन सो मोहिं पावा।
मोहिं कपट छल छिद्र न भावा।।
अचानक पलाश का मुख एक आध्‍यात्मिक दीप्ति से चमक उठा।

सबसे अच्‍छा कौन?
 
एक बार वीर वन में बंदरों ने सभी पशु-पक्षियों की एक विशाल सभा बुलाई जिसमें इस विषय पर चर्चा रखी गई कि दुनिया भर में सभी प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ प्राणी कौन सा है? दूर-दूर से पशु-पक्षी सभा में आए। काफी देर तक बहुत से वक्ताओं ने अपनी-अपनी राय जाहिर की।
गधा बोला - मेरे विचार से शेर सबसे सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि वह बहुत शक्तिशाली है। मेंढक बोला - व्हेल मछली सर्वश्रेष्ठ प्राणी है वह पानी के हर प्राणी से ताकतवर और विशालकाय है।
तोते ने अपनी राय दी कि खरगोश हम सबमें बुद्धिमान है उसने तो शेर तक को हरा रखा है इसलिए वह सर्वश्रेष्ठ है।
इस तरह लंबी चर्चा चली तब बंदर ने कहा - मेरे विचार में तो मनुष्य धरती का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है और मैं इस बात को सिद्ध कर सकता हूँ। सभी जानवर बोले - वो कैसे?
बंदर बोला - मनुष्य के पास विवेक है, भाषा ज्ञान है, ताकत है, बुद्धि है इसलिए उसी को सर्वश्रेष्ठ मानना उचित है।
सभी पशु-पक्षी इस बात पर सहमत हो गए किंतु कौओं का दल चुप था। बंदर ने कौओं के सरदार से कहा कि अगर वह इस निर्णय से सहमत नहीं हैं तो अपने विचार जरूर रखें क्योंकि यह खुला मंच है सबको बोलने की आजादी है। कौआ बोला - आप मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ बता रहे हैं परंतु हमारी राय में वह दुनिया का सबसे खराब और अधम प्राणी है। कौए के इतना कहते ही सारी सभा में खुसर-फुसर होने लगी। बंदर बोला - तुम स्वयं अधम हो इसलिए तुम्हें मनुष्य भी अधम लग रहा है किंतु सच यही है कि सर्वश्रेष्ठ तो मनुष्य ही है।
आखिर लंबे विवाद के बाद सभा खत्म हो गई और कौए के मत का सबने विरोध किया। कुछ दिनों पश्चात बंदर पेड़ पर आराम कर रहा था अचानक उसने देखा सामने से एक मनुष्य दौड़ता हुआ आ रहा है उसके पीछे शेर लगा है। आदमी ने पेड़ के नीचे आकर बंदर से कहा ‍िक शेर उसकी जान ले लेगा। बंदर बोला - 'भाई! घबराओ मत! तुम मेरा हाथ पकड़कर मेरे पास आ जाओ।'
मनुष्य पेड़ पर चढ़ गया और बंदर के पास जाकर थर-थर काँपने लगा। बंदर ने उसे सांत्वना दी और शेर से कहा वह अब उसकी शरण में है शेर का भला इसी में है कि वह वापस चला जाए। शेर बोला 'बंदर! क्यूँ अपनी मुसीबत मोल ले रहे हो? इस आदमी को नीचे धक्का दे दे यह मेरा शिकार है।'
बंदर बोला - 'शेर! मैं शरण में आए की जान खतरे में नहीं डाल सकता।' शेर बोला - अरे मूर्ख बंदर! यह मनुष्य की जाति है और मनुष्य स्वार्थी होता है अब तू अपनी खैर मना।'
शेर पेड़ के नीचे ही बैठा रहा रात होने लगी बंदर को नींद लग गई तभी शेर बोला - 'ओ मनुष्य! तू क्या सोच रहा है? तुम दोनों में से एक को तो मुझे खाना ही है। तू बंदर को नीचे धक्का दे दे।
मनुष्य बोला - नहीं, नहीं इसने मुझे बचाया है। मैं इसे कैसे धक्का दे सकता हूँ?
शेर बोला - 'देख मानव! बंदर का तो आगे-पीछे कोई नहीं, अगर तू नहीं रहा तो मेरे घर वालों का क्या होगा? तेरा मकान, दुकान सब खत्म हो जाएगा। तू अपने बारे में सोच।' इतना कहते ही मनुष्य का स्वार्थ जाग उठा उसने तुरंत बंदर को पेड़ से धक्का दे दिया। गिरते हुए बंदर की नींद खुली और उसने पेड़ की डाल पकड़ ली।
लटके हुए बंदर को देख शेर ने उससे कहा - बंदर! देखी मानव की जात? मैंने पहले ही कहा था कि यह तुझे धोखा देगा। अभी भी वक्त है तू इस आदमी को नीचे धक्का दे दे?' परंतु बंदर अपनी बात पर अटल रहा बोला - मैं इसे नीचे धक्का नहीं दूँगा किंतु शेर मेरे भाई मैं अब पशु-पक्षियों की सभा दोबारा बुलाऊँगा और उसमें कौए की बात पर विचार गोष्ठी रखूँगा। सचमुच स्वार्थी मनुष्य दुनिया का सबसे खराब और अधम प्राणी है।'
सौजन्य से - देवपुत्र

Wednesday, 16 February 2011

हम गर्व से कहते हैं कि हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है। इसे हम भारतवासी को अपनाना चाहिए,

हम गर्व से कहते हैं कि हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है। इसे हम भारतवासी को अपनाना चाहिए,

जब हमारा देश स्वतंत्र हुआ था तब हमने सोचा था कि हमारे आजाद देश में हमारी अपनी भाषा, अपनी संस्कृति होगी लेकिन यह क्या? अँग्रेजों से तो हम स्वतंत्र हो गए पर अँग्रेजी ने हमको जकड़ लिया।
हम यह बात कर रहे हैं कि हिन्दी भाषी राज्यों को अँग्रेजी की जगह हिन्दी का प्रयोग करना चाहिए। महात्मा गाँधी के समय से राष्ट्रभाषा प्रचार समिति दक्षिण भार‍त नाम की संस्था अपना काम कर रही थी। दूसरी तरफ सरकार स्वयं हिन्दी को प्रोत्साहन दे रही थी यानी अब हिन्दी के प्रति कोई विरोधाभाव नहीं था और जहाँ तक हमारा प्रश्न है हम बिलकुल नहीं चाहते कि देश के किसी भी हिस्से पर हिन्दी को आरोपित किया जाए।
अँग्रेजी विश्व की बहुत बड़ी जनसंख्या द्वारा बोली जाने वाली भाषा है। यह संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रमुख भाषा है। दरअसल हम कहते हैं कि 'अँग्रेजी हटाओ ', यह नहीं कहते हैं कि ' अँग्रेजी मिटाओ' । हमारी बात लोग गलत समझते है। हमारा यह तात्पर्य नहीं कि अँग्रेजी को पूरी तरह खत्म कर दिया जाए क्योंकि यह सच है कि यह हमें साम्राज्यवादियों से विरासत में मिली है। वैसे भी आज हिन्दी को यह सम्मान नहीं मिल पा रहा है।
अँग्रेजी के इस बढ़ते प्रचलन के कारण एक साधारण हिन्दी भाषी नागरिक आज यह सोचने पर मजबूर है कि क्या हमारी पवित्र पुस्तकें जो हिन्दी में हैं , वह भी अँग्रेजी में हो जाएँगी। हमारा राष्‍ट्रगीत , राष्ट्रगान, हमारी पूजा-प्रार्थना सब अँग्रेजी में हो जाएँगे। हम गर्व से कहते हैं कि हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है। इसे हम भारतवासी को अपनाना चाहिए, लेकिन आजकल की पीढ़ी जब भी अपना मुँह खोलती है तो सिर्फ और सिर्फ अँग्रेजी ही बोलती है। क्या इस प्रकार के रवैये से हमारी यह उम्मीद कि 'हिन्दी को राष्ट्रभाषा का स्थान दिलाना ' कभी संभव हो पाएगा।
हिन्दी , भाषाई विविधता का एक ऐसा स्वरूप जिसने वर्तमान में अपनी व्यापकता में कितनी ही बोलियों और भाषाओं को सँजोया है। जिस तरह हमारी सभ्यता ने हजारों सावन और हजारों पतझड़ देखें हैं , ठीक उसी तरह हिन्दी भी उस शिशु के समान है , जिसने अपनी माता के गर्भ में ही हर तरह के मौसम देखने शुरू कर दिए थे। हिन्दी की यह माता थी संस्कृत भाषा , जिसके अति क्लिष्ट स्परूप और अरबी , फारसी जैसी विदेशी और पाली, पाकृत जैसी देशी भाषाओं के मिश्रण ने हिन्दी को अस्तित्व प्रदान किया। जिस शिशु को इतनी सारी भाषाएँ अपने प्रेम से सींचे उसके गठन की मजबूती का अंदाज लगाना बहुत मुश्किल है।
सातवीं शताब्दी (ई.पू.) से दसवीं शताब्दी (ई.पू) के बीच संस्कृत भाषा के अपभ्रंश के रूप में उत्पन्न हिन्दी अभी अपनी माँ के गर्भ में ही थी , जिस दौरान पाली और पाकृत जैसी भाषाओं का प्रभाव उनके चरम पर था। यह वही समय था जब बौद्ध धर्म पूर्णतः परिपक्व हो चुका था और पाली व पाकृत जैसी आसान भाषाओं में इसका व्यापक प्रसार हो रहा था।
देखा जाए तो पुरातन हिन्दी का अपभ्रंश के रूप में जन्म 400 ई. से 550 ई. में हुआ जब वल्लभी के शासक धारसेन ने अपने अभिलेख में 'अपभ्रंश साहित्य ' का वर्णन किया। हमारे पास प्राप्त प्रमाणों में 933 ई. की ' श्रावकचर' नामक पुस्तक ही अपभ्रंश हिन्दी का पहला उदाहरण है। परंतु हिन्दी का वास्तविक जन्मदाता तो अमीर खुसरो ही था , जिसने 1283 में खड़ी हिन्दी को जन्म देते हुए इस शिशु का नामकरण '‍ हिन्दवी' किया।
खुसरो दरिया प्रेम का , उलटी वा की धार,
जो उतरा सो डूब गया , जो डूबा सो पार
( अमीर खुसरो की एक रचना - 'हिन्दवी ' में...)
यह हिन्दी का जन्म मात्र एक भाषा का जन्म न होकर भारत के मध्यकालीन इतिहास का प्रारंभ भी है , जिसमें भारतीय संस्कृति के साथ अरबी व फारसी संस्कृतियों का अद्‍भुत संगम नजर आता है। तुर्कों और मुगलों के प्रभाव में पल्लवित होती हिन्दी को उनकी नफासत विरासत में मिली। वहीं दूसरी ओर इस समय भक्ति और आंदोलन भी काफी क्रियाशील हो चुके थे , जिन्होंने कबीर ( 1398- 1518 ई.), रामानंद (1450 ई.) , बनारसी दास (1601 ई.), तुलसीदास (1532-1623 ई.) जैसे प्रकांड विद्वानों को जन्म दिया।
इन्होंने हिन्दी को अपभ्रंश , खड़ी और आधुनिक हिन्दी के अलंकारों से सुसज्जित करके हिन्दी का श्रृंगार किया। इस काल की एक और विशेषता यह भी थी कि इस काल में हिन्दी को अपनी छोटी बहन 'उर्दू ' मिली, जो अरबी, फारसी व हिन्दी के मिश्रण अस्तित्व में आई। इस कड़ी में मुगल बादशाह शाहजहाँ ( 1645 ई.) के योगदानों ने उर्दू को उसका वास्तविक आकार प्रदान किया।
अँग्रेजी शासन तक यह अल्हड़ किशोरी शांत व गंभीर युवती के रूप में परिवर्तित हो चुकी थी। अँग्रेजियत के समावेश ने हिन्दी को त्तकालीन परिवेश में एक नया परिधान दिया। अब आधुनिक हिन्दी में तरह-तरह के प्रयोग अपने शीर्ष पर थे।
किताबों , उपन्यासों, ग्रंथों, काव्यों के साथ-साथ हिन्दी राजनीतिक चेतना का माध्यम बन रही थी। 1826 ई. में 'उद्दंत मार्तण्ड' नामक पहला हिन्दी का समाचार तत्कालीन बुद्धिजीवियों का प्रेरणा स्रोत बन चुका था। अब हिन्दी में आधुनिकता का पूर्णतः समावेश हो चुका था।
अँग्रेजों के शासन ने जहाँ हिन्दी को आधुनिकता का जामा पहनाया , वहीं हिन्दी उनके विरोध और स्वतंत्र भारत के स्वप्न का भी प्रभावी माध्यम रही। तमाम हिन्दी समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं ने देश के बुद्धिजीवियों में स्वतंत्रता की लहर दौड़ाई। स्वतंत्र भारत के कर्णधारों ने जो स्वतंत्रता का स्वप्न देखा उसमें स्वतंत्र भारत की राष्ट्रभाषा के रूप हमेशा हिन्दी को ही देखा।
शायद यही वजह है कि स्वतंत्रता के उपरांत हिन्दी को 1949-1950 में केंद्र की आधिकारिक भाषा का सम्मान मिला। वर्तमान में हिन्दी विश्व की सबसे अधिक प्रयोग में आने वाली भाषाओं में दूसरा स्थान रखती है। हो सकता है कि अँग्रेजी का प्रभाव प्रौढ़ा हिन्दी पर अधिक नजर आता हो , मगर इस हिन्दी ने अपने भीतर इतनी भाषाओं और बोलियों को समेटकर अपनी गंभीरता का ही परिचय दिया है। हो सकता है कि भविष्य में हिन्दी भी किसी अन्य 'अपभ्रंश ' शिशु को जन्म दे, पर राष्ट्रभाषा का गौरव हर भारतीय में नैसर्गिक रूप से व्याप्त होगा।
हिन्दी उस बाजार में ठिठकी हुई-सी खड़ी है , जहाँ कहने को सब अपने हैं, लेकिन फिर भी बेगाने से... इस बेगानेपन की टहनियों से भी उम्मीद की कोपलें फूट रही हैं। क्योंकि हिन्दी बोलने और समझने वालों की संख्या में जबर्दस्त इजाफा हो रहा है, लेकिन उसकी पठनीयता , उसका साहित्य सिसकियाँ भर रहा है। क्या हिन्दी समाज ने खुद ही हिन्दी को रद्द कर दिया है ? इसमें दोष भाषा का नहीं, बल्कि बाजार का है। वैसे भी बाजार का सीधा-सा नियम है बेचना। इस बेचने से कोई भाषा कैसे बच सकती है ?
आज हिन्दी को सम्मान दिलाने के लिए सामूहिक होकर उसके साहित्य और उससे जुड़ी बोलियों को पूरी कर्मठता से आगे ठेलने की जरूरत है। तब ही होगा हिन्दी दिवस साकार , हिन्दी का उद्धार।

आमतौर पर हिन्दीभाषी क्षेत्र में कहा जाता है कि यहाँ साहित्य पर वह माहौल नहीं है जितना अन्य भाषाई क्षेत्रों में है। इस बात में काफी सचाई भी है क्योंकि गत पाँच दशक के मनन , अवलोकन के बाद ऐसी टिप्पणियाँ अब ज्यादा मुखर हो रही हैं। 1757 की प्लासी की लड़ाई के बाद ब्रिटिश व्यापारवाद ने बंगला भाषा पर आक्रमण किया था। लेकिन बंगाल में चले सुधारवादी आंदोलनों से , आध्यत्मिक उभार ने , नवचेतना ने (राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, चैतन्य महाप्रभु, चंडीदास , बंकिमचंद्र, विवेकानंद, काजी नजरुल इस्लाम , रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरद बाबू) बांग्ला भाषा, साहित्य, चेतना को और ज्यादा ऊँचाई दी।
बांग्ला पूरी शिद्दत से भारत की प्रवक्ता भाषा भी सिद्ध हुई। इस पूरी प्रक्रिया में बंगाल (इससे लगे असम तथा उड़िया भाषा में भी) में भाषा तथा साहित्य में विवेकपूर्ण आचरण भी विकसित हुआ जो आज के आपाधापी पूर्ण समय में भी बदस्तूर जारी है। बांग्ला में कोई भी साहित्यकार हो , हर रचनाधर्मी , लेखक कलाकार के अवदान को स्वीकारा जाता है- विचारधारा के संघर्ष , पक्षधरता के बावजूद विरोधी लेखक के रचना पाठ में उसकी छपी रचना पर हो रही चर्चा में उसको एक सिरे से खारिज नहीं किया जाता। उसके भाषाई , साहित्यिक जनप्रतिबद्धता , भाषा-बोली को स्वीकारा जाता है।
हिन्दी का क्षेत्र व्यापक है। हिन्दी सिर्फ इसीलिए ही व्यापक नहीं है कि वह ज्यादा लोगों के द्वारा बोली जाती है बल्कि हिन्दी का साहित्य ज्यादा व्यापक है। उसकी जड़ें गहरी हैं। इसके मूल में हिन्दी की बोलियाँ और उन बोलियों की उपबोलियाँ हैं जो अपने में एक बड़ी परंपरा , इतिहास , सभ्यता को समेटे हुए हैं वरन स्वतंत्रता संग्राम, जनसंघर्ष, वर्तमान के बाजारवाद के खिलाफ भी उसका रचना संसार सचेत है।
वह किसी खेमे से प्रमाण-पत्र का मुँह नहीं देखती। बल्कि स्थिति यह है कि 'मठों' को अपनी बोलियों के जनसंघर्ष के स्पंदन उनके ई.सी.जी. नहीं पकड़ पाते हैं। आज हिन्दी में काफी लिखा जा रहा, बेहतर लिखा जा रहा है, कहानी में व्यापक फलक हैं , बारीकियाँ हैं। कविता में जबर्दस्त चेतना , भाषा का प्रवाह, चट्टानों को आकार में बदलने की उद्दाम छटपटाहट है।

निबंधों में नया विकास सामने आया है। उपन्यासों में नवीन इलाके , बंजर हो रही जमीन को उर्वरा बनाने का रचनात्मक जोश साफ झलक रहा है। इस पूरे रचनाक्रम में पूरी भारतीय मनीषा की उपस्थिति है। बांग्लादेश , भारत , पाकिस्तान सहित चीनी, ईरानी, अफ्रीकी रचनाओं में भी बराबरी से आ रहा है। चीनी साहित्यकार 'मो यान ' की रचनाएँ कहीं भी पराई नहीं लगतीं। उसकी जमीन , वही है जो नेरुदा की है, पोट्टेकाट, भीष्म साहनी की है।
हिन्दी में स्थानीयता अंततः विश्व विरासत का रचनाकर्म ही है जो उसे अभिव्यक्त करती है। हिन्दी संसार में परेशानी है कि अपने-अपने खेमों , अपने तंबुओं को सही साहित्य बताने की 'जिद' ने हिन्दी को परेशानी में डाल दिया है। जरूरत बांग्ला भाषा, असमी भाषा वाली विवेकशीलता की है। बेशक हम-आप अपने-अपने घरों की सुविधाओं में रहें , लेकिन साहित्यिक ईद या दशहरे पर एक-दूसरे से गले तो मिलें।
अंततः हम एक महत्वपूर्ण भाषा में लिखते हैं और साहित्य जैसे जवाबदार कर्म से जुड़े हैं अतः हिन्दी का हित , उसका विकास प्रथम प्राथमिकता में होना चाहिए। वाद और विचार , समाज से आते हैं इसलिए समाज की प्राथमिकता जरूरी है- वह बचेगा , वह समृद्ध होगा तो वाद-विचार भी पुख्ता होकर उभरेगा। हिन्दी की स्थिति ऐसी है जैसे विदेशी आक्रमणों के वक्त भी राजाओं , नवाबों ने आपसी लड़ाइयाँ नहीं छोड़ी थीं। शेष इतिहास हम जानते हैं। इस वक्त भी हिन्दी को बाजारवाद लील रहा है।
अब वह सिर्फ हिन्दी मानक भाषा के बरखिलाफ ही नहीं वरन हिन्दी की ताकत उसकी बोलियों की तरफ है। नरभक्षी की दाढ़ में खून लगा है। वह स्वाद चख चुका है। बाजारवाद , बोलियों के मासूम आँगन में जा घुसा है। यदि बोलियाँ ध्वस्त हो गईं तो हिन्दी का शक्तिकेंद्र ही ढीला पड़ जाएगा। एक बोली या भाषा का मरना सिर्फ अक्षरों की मौत नहीं होती पूरी , अभिव्यक्ति , पूरा देश, पूरी रवायत, पूरी संस्कृति अपाहिज हो जाती है। अफ्रीका के कई देश साम्राज्यवाद , आर्थिक साम्राज्यवाद की भेंट चढ़ चुके हैं। बेहतर होगा , हिन्दी क्षेत्र खेमावाद छोड़े, समीक्षा बाहर निकले, वरना अपनों की हत्या करने वाला विजेता नहीं बनता। इस समय बोलियों, उसकी परंपरा तथा भारतीय भाषाओं, हिन्दी में भातृभाव की सर्वाधिक जरूरत है।