गांधी जी इस महान देश के एक महापुरुष हैं, इससे किसी को क्या इनकार हो सकता है? परन्तु विश्व भर में ऐसे अनेक ‘महापुरुष’ हुए हैं, जिन्हें जब उस देश, राष्ट्र, समाज के हिताहित की कसौटी पर कसा गया, तो वे खरा 22 कैरेट न निकलकर 14 कैरेट का निकले। मात्र 25-30 वर्ष के अंतराल में ही किसी भी कथित महापुरुष का आकलन करना इतिहास प्रारंभ कर देता है। इतिहास यथासमय ‘दूध का दूध और पानी का पानी’ करने में चूक नहीं करता। जो जितना ही बड़ा व्यक्तित्त्व होता है, उससे भूल भी उतनी ही बड़ी होती है। गांधी ने भी लोकमान्य तिलक के स्वर्गवास (1 अगस्त, 1920) के पश्चात् कांग्रेस का नेतृत्व सँभालते ही जो पहली सबसे बड़ी भूल की थी, वह थी कांग्रेस के असहयोग-आन्दोलन को खलीफा की गद्दी बहाल करने के मुस्लिम मौलानाओं के आन्दोलन ‘खिलाफतों की पूँछ में बाँध देना। उनकी दुर्घट मृत्यु के आधार पर नेहरू जी की सरकार ने जैसा घनघोर मिथ्या दुष्प्रचार रा.स्व. संघ के विरुध्द किया, उसी का भीषण परिणाम 1991-92 में हजरतगंज लखनऊ से निकाला गया मुद्राराक्षस, रूपरेखा वर्मा जैसे डेढ़-दो दर्जन वामपंथियों का वह जुलूस था, जिसमें यह अत्यंत हिंसाप्रेरक तथा विधि-व्यवस्था की स्थिति को संकट में डालनेवाला घोर आपत्तिजनक नारा लगाया गया- ‘बापू हम शर्मिन्दा हैं, तुम्हारे कातिल जिन्दा हैं।’ यह नारा सीधे-सीधे रा.स्व. संघ को लक्ष्य कर गढ़ा और लगाया गया था, जबकि संघ की गान्धी-हत्या जैसे जघन्य अपराध से दूर-दूर तक कोई झूठमूठ का भी सम्बंध नहीं था। न्यायाधीश आत्माराम की विशेष अदालत का तद्विषयक सुस्पष्ट निर्णय था और संघ को ससम्मान दोषमुक्त घोषित किया गया था। अत्यंत दुःख का विषय है कि अपनी निष्पक्षता, भारतीय जीवन-मूल्यों के प्रति निष्ठा और राष्ट्रहित की सर्वोपरिता को माननेवाले समाचार-पत्र ने इस घिनौने नारे के पूर्वार्ध्द को अपना शीर्षक बनाने में कोई आगा-पीछा नहीं सोचा।
जिन अन्य सज्जनों (उनमें जनता पार्टी की प्रदेश सरकार में मन्त्री रहे एक महानुभाव भी हैं) की टिप्पणियों को उनके नाम से प्रकाशित किया गया है, सम्भवतः उन्हें यह ज्ञात नहीं है या ज्ञात है, तो उसे पी गये हैं कि जिस ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली के शासन-काल में खंडित रूप में भारत को स्वतंत्रता दी गयी थी, उसी ने भूतपूर्व प्रधानमंत्री के रूप में अपने भारत आगमन पर कलकत्ता के राजभवन में तत्कालीन कार्यकारी राज्यपाल न्यार्यमूत्ति बी.एन. चक्रवर्ती के यह पूछने पर कि जब द्वितीय विश्वयुध्द में आप विजयी हो चुके थे, तो भारत को स्वतंत्रता देने की ऐसी क्या मजबूरी थी, तो एटली का स्पष्ट उत्तर था कि हम जीत तो गये थे; पर भारतीय सेना में विद्रोही तेवर ऐसे थे कि हम सैन्य-बल से उसे दबा नहीं सकते थे।’ सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिंद फौज का सेना पर प्रभाव स्वीकार करने पर राज्यपाल चक्रवर्ती ने जिज्ञासा की ‘और गान्धी जी’, तो एटली का सपाट उत्तर था ‘एकदम नाममात्र का। हमने चर्खा, तकली के भय से भारत नहीं छोड़ा।’ इसके बाद भला कहने को क्या बचता है? साफ है कि देश नेताजी, उनकी आजाद हिंद फौज के भारतीय सेना पर प्रभाव, नेवी-विद्रोह के कारण ही स्वतंत्र हुआ, ऐसे में कौन कहता है कि सुप्रसिध्द राष्ट्रवादी फिल्म गीतकार इसी लखनऊ के निवासी पं. प्रदीप रचित गीत- ‘दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के संत ने कर दिया कमाल’, सरकार के धुऑंधार गांधी प्रचार के प्रभाव में नहीं लिखा गया था और संत टुकड़ोजी महाराज ने इसे अपना मधुर स्वर दिया था। आज अन्यान्य अभिलेख इस गीत की इन पंक्तियों को सत्य से परे सिध्द कर चुके हैं। स्वतः सिद्ध है कि इस गीत की भक्ति-भावना निष्कलुष होते हुए भी इतिहास की कसौटी पर खरी उतरने में अक्षम है।
रही बात संघ की, तो वह कभी गांधी-विरोधी नहीं रहा। उसके ‘एकात्मता-स्तोत्र’, जिसे प्रातः स्मरण में नित्य स्वयंसेवक पढ़ते हैं, के श्लोक 29 में गांधी जी को प्रातः स्मरणीय माना गया है- ‘दादाभाई गोपबन्धुः तिलको गांधिरादृता’ इतना ही नहीं, संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार और द्वितीय सरसंघचालक गोलवलकर जी का नाम बाद में श्लोक 31 में ‘…केशवो माधवस्तथा’ में आता है। परन्तु यदि किसी ने गलत नंबर का चश्मा अपनी ऑंखों पर चढ़ा रखा हो, तो उसे क्या कहा जाये?
जिन अन्य सज्जनों (उनमें जनता पार्टी की प्रदेश सरकार में मन्त्री रहे एक महानुभाव भी हैं) की टिप्पणियों को उनके नाम से प्रकाशित किया गया है, सम्भवतः उन्हें यह ज्ञात नहीं है या ज्ञात है, तो उसे पी गये हैं कि जिस ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली के शासन-काल में खंडित रूप में भारत को स्वतंत्रता दी गयी थी, उसी ने भूतपूर्व प्रधानमंत्री के रूप में अपने भारत आगमन पर कलकत्ता के राजभवन में तत्कालीन कार्यकारी राज्यपाल न्यार्यमूत्ति बी.एन. चक्रवर्ती के यह पूछने पर कि जब द्वितीय विश्वयुध्द में आप विजयी हो चुके थे, तो भारत को स्वतंत्रता देने की ऐसी क्या मजबूरी थी, तो एटली का स्पष्ट उत्तर था कि हम जीत तो गये थे; पर भारतीय सेना में विद्रोही तेवर ऐसे थे कि हम सैन्य-बल से उसे दबा नहीं सकते थे।’ सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिंद फौज का सेना पर प्रभाव स्वीकार करने पर राज्यपाल चक्रवर्ती ने जिज्ञासा की ‘और गान्धी जी’, तो एटली का सपाट उत्तर था ‘एकदम नाममात्र का। हमने चर्खा, तकली के भय से भारत नहीं छोड़ा।’ इसके बाद भला कहने को क्या बचता है? साफ है कि देश नेताजी, उनकी आजाद हिंद फौज के भारतीय सेना पर प्रभाव, नेवी-विद्रोह के कारण ही स्वतंत्र हुआ, ऐसे में कौन कहता है कि सुप्रसिध्द राष्ट्रवादी फिल्म गीतकार इसी लखनऊ के निवासी पं. प्रदीप रचित गीत- ‘दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के संत ने कर दिया कमाल’, सरकार के धुऑंधार गांधी प्रचार के प्रभाव में नहीं लिखा गया था और संत टुकड़ोजी महाराज ने इसे अपना मधुर स्वर दिया था। आज अन्यान्य अभिलेख इस गीत की इन पंक्तियों को सत्य से परे सिध्द कर चुके हैं। स्वतः सिद्ध है कि इस गीत की भक्ति-भावना निष्कलुष होते हुए भी इतिहास की कसौटी पर खरी उतरने में अक्षम है।
रही बात संघ की, तो वह कभी गांधी-विरोधी नहीं रहा। उसके ‘एकात्मता-स्तोत्र’, जिसे प्रातः स्मरण में नित्य स्वयंसेवक पढ़ते हैं, के श्लोक 29 में गांधी जी को प्रातः स्मरणीय माना गया है- ‘दादाभाई गोपबन्धुः तिलको गांधिरादृता’ इतना ही नहीं, संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार और द्वितीय सरसंघचालक गोलवलकर जी का नाम बाद में श्लोक 31 में ‘…केशवो माधवस्तथा’ में आता है। परन्तु यदि किसी ने गलत नंबर का चश्मा अपनी ऑंखों पर चढ़ा रखा हो, तो उसे क्या कहा जाये?
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