Wednesday, 7 December 2011

आज देश की राजनीति में सबसे पहली प्राथमिकता है , कौंग्रेस का कोई मजबूत विकल्प ढूंढना ।

आज जहां एक ओर देश की अस्सी प्रतिशत से अधिक आवादी महगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार से त्रस्त है, वहीं दूसरी ओर सत्ता का मजा लूट रहे लोग, सार्वजनिक धन को दोनो हाथों से समेट लेने पर आम्दा है। विकास के नाम पर जहां एक ओर सार्वजनिक धन, जो कि जनता से ही भिन्न-भिन्न टै़क्स के रूप मे वसूला जाता है, को कुछ लोगो के फ़ायदे के लिये दोनो हाथो से लुटाया जा रहा है। पहले जानबूझकर धन और संसाधनो की कमी का रोना रोकर या फिर किसी और बहाने से, किसी भी परियोजना को अधर मे लटका दिया जाता है, और फिर भ्रष्ठ तरीके अपनाने के लिये समय सीमा बांध दी जाती है। जबाबदेही नाम की तो कोई चीज देश मे रह ही नही गई है। सरकार, लोगो को लूटने के नित नये तरीके इजाद करती रहती है । यहाँ टैक्स, वहाँ टैक्स। महंगाई की इस मार में अगर कोई व्यक्ति परिवार के साथ यात्रा कर रहा है तो उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में सड़क छाप ढाबे भी १३.५ % वेट वसूल रहे है ! यानी परिवार संग ४०० रूपये का खाना ( जिसमे कि कुछ भी नहीं मिलता ) आपने इन ढाबो में खाया तो करीब ५५ रूपये सरकार के खाते में टैक्स भी भरो । जहां एक तरफ २००५ पांच में पिछले वित् मंत्री द्वारा वेतन भोगी कर्मचारियों के जिन भत्तो को कर्मचारी की आय से अलग कर दिया गया था, उन्हें फिर से नए वितमंत्री ने पुन: पुरानी बोतल में नई शराब की माफिक परोस दिया, वह भी अप्रैल २००९ से । और तो और जो कर्मचारी टैक्स के दायरे में नहीं आते, उन्हें ई एस आई नामक झुनझुने के तहत १५०००/- रूपये मासिक वेतन तक प्राप्त करने वाले कर्मचारी को इस दायरे में लाकर कायदे से ७५०/- ( पांच प्रतिशत, और सुविधा के नाम पर कुछ भी नहीं ) रूपये प्रतिमाह का उस पर भी एक टैक्स के समान बोझ डाल दिया है। दूसरी तरफ जो मुख्य मुद्दे है जैसे रेल घोटाला, खाद्यान घोटाला इत्यादि उन पर कोई न तो चर्चा को ही तैयार दीखता है और न कोई जबाबदेह । कितनी हास्यास्पद बात है कि एक ही प्रधान मंत्री के दो कार्यकालों में उनके मंत्रीमंडल के दो रेल मंत्रियों में से कोई एक देश को ५० हजार करोड से अधिक के आंकड़ो के हेरफेर से गुमराह कर रहा है, और हमारे प्रधान मंत्री जी अपनी बेदाग़ सवच्छ छवि बनाए बैठे है, मानो उनकी इसमें अपनी कोई जबाबदेही ही नहीं ।

उपरोक्त बातो पर गौर करते हुए मेरा यह मानना है कि कौंग्रेस और अन्य तथाकथित सेकुलर और साम्प्रदायिक राजनैतिक दल हमेशा इसी तथ्य को आधार मानकर राजनीति करते है कि वोटर को कभी भी भरपेट मत खाने दो, और रोटी कपड़ा और मकान में ही उलझाये रखो । ताकि वह इनके कामकाज पर उंगली उठाने की फुरसत भी न प्राप्त कर सके । दूसरी तरफ जिस राजनैतिक दल को ऐसे वक्त पर एक जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका निभानी चाहिये थी, वह अपनी गैर -जिम्मेदाराना हरकतों से खुद ही एक हास्य का पात्र बने बैठे है। समाज के पढ़े लिखे एक विशिष्ठ वर्ग की बीजेपी से उम्मीदे थी कि ये अपनी अलग छवि बनाए रखते हुए, इस देश को सही प्रतिनिधित्व प्रदान करेंगे, मगर वक्त आने पर इन्होने भी लोगो को निराश करने और अपने मानसिक दिवालियेपन का नमूना पेश करने में कोई कसार बाकी नहीं छोडी ! अभी ताजा उदाहरण झारखंड है, जहां इन्होने सत्ता की भूख में खुद ही अपनी पोल खोल दी।

हमारे देश की राजनीति आज जिस अभद्र मोड़ पर पहुँच चुकी है, जरुरत है उसमे मूलभूत राजनैतिक सुधारो की, अन्यथा आने वाले वक्त में देश को इसकी भारी कीमत भी चुकानी पड़ सकती है। आज देश की राजनीति में सबसे पहली प्राथमिकता है , कौंग्रेस का कोई मजबूत विकल्प ढूंढना । और यह विकल्प वर्तमान में मौजूद राजनेतावो और राजनैतिक दलों में से नहीं ढूंडा जा सकता, क्योंकि एक अगर सांपनाथ है तो दूसरा नागनाथ । जो लोग आज वास्तव में देश की मौजूदा राजनैतिक स्थिति से चिंतित है और इनमे मूल भूत सुधार लाने के लिए अच्छे लोगो को राजनीति में प्रतिनिधित्व दिला पाने में सक्षम है, उन्हें गंभीरता से इस बारे में सोचना होगा और एक नया राजनैतिक दल कौंग्रेस के विकल्प के रूप में खडा करना होगा । और यह तभी संभव है जब हम मिलजुलकर यह सोचना बंद करे कि बीजेपी, कौंग्रेस का एक मजबूत विकल्प हो सकती है। क्योंकि बीजेपी अभी तक कहीं भी इस मुद्दे पर खरी नहीं उतरी है। और जब तक यह बीजेपी वाला मोह शिक्षित समाज में रहेगा, हम कौंग्रेस का कोई मजबूत विकल्प नहीं ढूंढ सकते ।

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