आज महान शहीदे आजम सरदार उधम सिंहजी की पुण्य तिथि है | आज ही के दिन उन्हें इंग्लेंड मैं फंसी दी गई थी | (पेश हैं उनका जीवन-परिचय ) ============================== ============================ इनके जीवन की महत्वपूर्ण विशेषता थी :- सही अवसर के इंतज़ार में तैयारी करते हुए प्रतीक्षा करते रहना | अन्य क्रांतिकारी व्यक्तियों और संगठनों में पाई जाने वाली अधीरता का नामो निशान जल्दी नहीं मिलता है | वे इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि उन्हें अपने परिवेश में देशभक्ति से भरे अच्छे नेता या 'रोल माडल' उपलब्ध नहीं थे | जहां तक परिवार की बात है :-वह तो था ही नहीं |उधम सिंह का जन्म पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम गाँव में सरदार टहल सिंह के घर हुआ था | टहल सिंह का शुरूआती नाम 'चुहाड़ सिंह' था | उसके के बाद उनका नाम टहल सिंह रखा गया | परिवार की छोटी सी खेती बाड़ी थी | टहल सिंह के लिए खेती बाड़ी काफी नहीं थी | परिवार को आगे भी बढ़ाना था | रोजगार के लिए पूँजी उपलब्ध नहीं थी | इस हालत में टहल सिंह ने रेलवे की नौकरी कर ली | कोई बड़ा पद नहीं था | बड़ी जिम्मेदारी भी नहीं थी | सुनाम के पड़ोसी गाँव उपाल के रेलवे क्रासिंग पर चौकीदारी करनी थी | चौकीदार इसलिए रखे जाते थे ताकि गाड़ियों के आने जाने के समय सड़क मार्ग से आने वाले लोगों को टकराने से बचाया जा सके और रेल संपत्तियों की रक्षा भी की जा सके | इस वर्णन से सरदार टहल सिंह उर्फ़ चुहाड़ सिंह की बौद्धिक- आर्थिक हैसियत का अंदाजा लगाया जा सकना मुश्किल नहीं है | उधम सिंह के बड़े भाई का नाम मुक्ता सिंह था | बाद में उनका नाम साधू सिंह रखा गया | उधम सिंह के बचपन का नाम शेर सिंह था | दोनों भाइयों को अनाथ करते हुए माता संसार से कूच कर गयीं | माता जी के पीछे पीछे सरदार टहल सिंह भी गुजर गए | जो छोटा सा आशियाँ था वो भी उजड़ गया | भरी दुनिया खाली हो गयी | कोई चारा नहीं था | इस हालत में भाई किशन सिंह रागी ने दोनों भाइयों को अमृतसर के खालसा अनाथालय में भर्ती करा दिया | इसी अमृतसर को पृष्ठभूमि में रखते हुए चंद्रधर शर्मा "गुलेरी" ने उसने कहा था जैसे प्रख्यात रोमांटिक कहानी की रचना की थी | यह कहानी इतनी हिट हुई की बाद के दिनों में बिमल राय ने सुनील दत्त और नंदा को कास्ट करते हुए 1960 में फिल्म का निर्माण किया था | बहरहाल इन दोनों भाइयों की जिन्दगी में रोमांस और एडवंचर का नामों निशान तक नहीं था | दोनों भाइयों को जीवन में आत्मनिर्भर बनाने के लिए तरह तरह की शिक्षा दी जाने लगी | साधू सिंह तो आत्मनिर्भर क्या होता, दुनिया छोड़ चला | 1917 में साधू का भी स्वर्गवास हो गया | सरदार उधम सिंह पूरी तरह से अकेले हो गए | पर इसने हिम्मत नहीं हारी | पढाई जारी रखी और 1918 में मैट्रिक (अभी का दसवी)पास कर लिया | 1919 के साल ने उधम सिंह के जीवन में बड़े बदलाव लाया | जलियाँ वाला बाग़ में 13 अप्रैल के दिन सैकड़ों मासूमों को निर्मम जनरल डायर ने गोलियों से भून दिया था | उधम सिंह और अनाथाश्रम के साथी सभा में पानी बाँट रहे थे | संयोगवश गोली चलने के कुछ देर पहले ही वो वापस हो चुके थे | इस निर्मम हत्याकांड ने सारे देश को उद्वेलित कर दिया | जिनके अपने इस जघन्य घटना में मरे वे तो गुस्से में थे ही,राष्ट्रवाद से प्रेरित युवा भी पीछे नहीं थे | उधम का अपना कोई बचा ही नहीं था जो इस हादसे का शिकार होता | तब भी इस घटना ने उसके मन में साम्राज्यवाद के विरुद्ध नफरत को स्थापित कर दिया | उधम ने अनाथाश्रम छोड़ दिया | अधिकाँश लोगों के जीवन की समस्या यह होती है कि उनके पास कोई लक्ष्य नहीं होता | भटकाव और बोरियत से जीवन बोझिल हो जाता है या कई तरह के प्रयोग शुरू हो जाते हैं | पर उधम सिंह के साथ ऐसा नहीं था | उन्हें अपने जीवन का लक्ष्य मिल चुका था,साम्राज्यवादी शासन और माइकल डायर से प्रतिशोध | यह मनःस्थिति उधम सिंह को क्रांतिकारी राष्ट्रवादी मार्ग पर ले गयी | वे भूमिगत आन्दोलन में सक्रिय हो गए | इस समय भारत के अंदर और बाहर क्रांतिकारी आन्दोलन का जोर बढ़ा हुआ था | उधम सिंह का लक्ष्य डायर को मारना था | इसके लिए उन्हें देश छोड़ना ही था | 1920 में वे अफ्रीका पहुंचे और 1921 में नैरोबी के रास्ते संयुक्त राज्य अमेरिका जाने का प्रयास किया | वीसा नहीं मिला तो वापस भारत लौट आये | 1924 में उधम सिंह अमरीका पहुचने में सफल हो गए | भारत में ग़दर आन्दोलन की असफलता के बाद भी अमरीका में उन दिनों शेष बची ग़दर पार्टी सक्रिय थी | उधम सिंह उसमें शामिल हो गए | राष्ट्रवादी और क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रियता ने उनके संपर्कों में वृद्धि की,1927 में तमंचों,गोली-बारूद और 25 साथियों के साथ उधम HSRA का साथ देने भारत वापस आये | HSRA भगत सिंह वाला संगठन था जो तब तक अपनी सक्रियता के चरम पर पहुँच चुका था | भारत लौटने के तीन महीने के भीतर ही उधम सिंह को अवैध हथियारों और ग़दर पार्टी के प्रतिबंधित साहित्य के साथ गिरफ्तार कर लिया गया | उन्हें पांच साल की कैद हुई | अमृतसर जेल के भीतर से ही उधम भगत सिंह के कार्यों,मुक़दमे और फांसी के बारे में सुनते रहे | भगत सिंह की फंसी वाले साल ही वे अक्तूबर में जेल से रिहा हुए | आन्दोलन का कठोर दमन हो चुका था | उधम अपने गाँव वापस चले गए किन्तु वहां रहना अब आसन नहीं रह गया था | जेल की सजा काट चुके उधम पर पुलिस कड़ीनज़र रख रही थी | थाने में रोज़ हाजिरी के नाम पर प्रताड़ना झेलनी पडती थी | तब उधम ने अमृतसर जाने का फैसला किया | अमृतसर में उधम ने अपना नाम मोहम्मद सिंह आज़ाद रख लिया और साईन बोर्ड पेंट करने की दुकान खोल ली | इन सब कार्यों व घटनाओं के बीच उधम अपने लक्ष्य को कभी भूले नहीं | अपने लक्ष्य को पाने के तैयारी में उन्होंने अपने जीवन का लम्बा अरसा बिता दिया | 1933 में उधम सिंह ने ब्रिटिश भारत की पुलिस को चकमा दे दिया और कश्मीर चले गए | वहां से वे जर्मनी पहुचे | फिर इटली में कुछ महीने बिताने के बाद फ़्रांस, स्वित्ज़रलैंड और आस्ट्रिया होते हुए 1934 में इंग्लैंड पहुंचे | वहां पहुँच कर उन्होंने पूर्वी लन्दन की एडलर स्ट्रीट में एक घर किराये पर लिया और एक कार खरीदी | उधम किसी तरह की जल्दबाजी में नहीं थे | माइकल डायर को मारने के लिए वेअच्छे मौके की तलाश में थे | वे अधिकतम नुकसान करना चाहते थे | इसके लिए उन्होंने लम्बा इंतज़ार किया था | अब वे हड़बड़ी में मौका गवांना नहीं चाहते थे | आखिरकार उन्हें मनपसंद मौका अप्रैल 1940 में मिल ही गया | 13 मार्च 1940 को कैक्सटन हाल में इस्ट इंडिया असोसिएशन और रायल सेंट्रल एशियन सोसायटी का संयुक्त अधिवेशन था | माइकल डायर को इसमें वक्ता के रूप में आमंत्रित किया गया था | उधम सिंह ने इस सभा में प्रवेश की व्यस्था कर ली | पिस्तौल को किताब में छुपाकर सभा में ले गए | डायर मंच पर भारत मंत्री लार्ड जेटलैंड से बात करने के लिए बढ़ा | उधम सिंह ने पिस्तौल निकाल ली और दो गोलियां डायर पर दाग दीं | डायर वहीँ ढेर हो गया और उसके प्राण-पखेरू उड़ गए | उधम सिंह ने अब जेटलैंड पर भी दो गोलियां दाग दीं | जेटलैंड घायल हुए. एक-एक गोलियां सर लूइस और लार्ड लेमिंगटन को भी मारीं | ये दोनों भी घायल हो गए, गोलियां ख़त्म हो गयीं | उधम सिंह भागे नहीं | कोशिश भी नहीं की,नारा भी नहीं लगाया, इतना भर पूछा कि कौन- कौन मरे ?उन्हें मौका-ए-वारदात से गिरफ्तार कर लिया गया | ------------------------------ ------------------------------ ------------------------------ -------------------------- ## 1 अप्रैल 1940 को उधम सिंह पर औपचारिक रूप से हत्या का अभियोग लगाया गया | इसी बीच जेल में उधम सिंह ने भूख हड़ताल कर दी | बयालीस दिन तक उन्होंने खाना नहीं खाया | जेल अधिकारियों ने बलपूर्वक उन्हें तरल आहार दिया | त्वरित सुनवाई के बाद इस मुक़दमे में उधम सिंह को मौत की सजा दी गयी | 31 जुलाई 1940 को उधम सिंह को फांसी दे दी गयी | उन्हें उसी दोपहर जेल के अहाते में ही दफना दिया गया | ## सत्तर के दशक में उधम सिंह के अवशेषों को भारत वापस लाने की मुहिम शुरू हुई | सुल्तानपुर लोधी (पंजाब) के विधायक सरदार साधू सिंह थिंड ने इसका नेतृत्व किया था | उन्होंने प्रधानमन्त्री श्रीमती इंदिरा गांधी को राज़ी कर लिया की भारत सरकार की तरफ से ब्रिटिश सरकार को औपचारिक अनुरोध किया जाये | भारत सरकार के विशेष दूत के रूप में साधू सिंह थिंड को लन्दन भेजा गया | जुलाई 1974 को उधम सिंह के अवशेष वापस भारत लाये गए | हवाई अड्डे पर शहीद उधम सिंह की अस्थियों को रिसीव करने वालों में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष शंकर दयाल शर्मा और पंजाब के मुख्यमंत्री ज्ञानी जैल सिंह शामिल थे | प्रधानमन्त्री श्रीमती इंदिरा गाँधी की ओर से भी पुष्प चक्र समर्पित किया गया | उनका दाह संस्कार उनके पैत्रिक गाँव में किया गया और राख को सतलज में बहा दिया गया | :) अमर शहीद सरदार उधम सिंह जी _/
हिन्दू जागरण मंच :: नहीं चाहिए हिन्दुओं को ऐसी धर्मनिर्पेक्षता जो हिन्दुओं की आस्था से खिलवाड़ कर व हिन्दुओं का खून बहाकर फलती फूलती है । आज इसी वजह से जागरूक हिन्दू इस धर्मनिर्पेक्षता की आड़ में छुपे हिन्दूविरोधियों को पहचान कर अपनी मातृभूमि भारत से इनकी सोच का नामोनिशान मिटाकर इस देश को धर्मनिर्पेक्षता द्वारा दिए गये इन जख्मों से मुक्त करने की कसम उठाने पर मजबूर हैं।
Sunday, 31 July 2011
Sunday, 24 July 2011
सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम विधेयक 2011: एक खतरनाक मसौदा
सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम (न्याय एवं क्षतिपूर्ति) विधेयक 2011 के मसौदे को सार्वजनिक कर दिया गया है। प्रकट रूप में बिल का प्रारूप देश में सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के प्रयास के तौर पर नजर आता है, किंतु इसका असल मंतव्य इसके उलट है। अगर यह बिल पारित होकर कानून बन जाता है तो यह भारत के संघीय ढांचे को नष्ट कर देगा और भारत में अंतर-सामुदायिक संबंधों में असंतुलन पैदा कर देगा। बिल का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है 'समूह' की परिभाषा। समूह से तात्पर्य पंथिक या भाषायी अल्पसंख्यकों से है, जिसमें आज की स्थितियों के अनुरूप अनुसूचित जाति व जनजाति को भी शामिल किया जा सकता है। मसौदे के तहत दूसरे चैप्टर में नए अपराधों का एक पूरा सेट दिया गया है। सांप्रदायिक हिंसा के दौरान किए गए अपराध कानून एवं व्यवस्था की समस्या होते हैं। यह राज्यों के कार्यक्षेत्र में आता है। केंद्र को कानून एवं व्यवस्था के सवाल पर राज्य सरकार के कामकाज में दखलंदाजी का कोई अधिकार नहीं है। केंद्र सरकार का न्यायाधिकरण इसे सलाह, निर्देश देने और धारा 356 के तहत यह राय प्रकट करने तक सीमित करता है कि राज्य सरकार संविधान के अनुसार काम रही है या नहीं। यदि प्रस्तावित बिल कानून बन जाता है तो केंद्र सरकार राज्य सरकारों के अधिकारों को हड़प लेगी।
नि:संदेह, सांप्रदायिक तनाव या हिंसा भड़काने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए, किंतु इस मसौदे में यह मान लिया गया है कि सांप्रदायिक समस्या केवल बहुसंख्यक समुदाय के सदस्य ही पैदा करते है। अल्पसंख्यक समुदाय का कोई व्यक्ति इसके लिए जिम्मेदार नहीं है। इस प्रकार बहुसंख्यक समुदाय के सदस्यों द्वारा अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों के खिलाफ किए गए सांप्रदायिक अपराध तो दंडनीय है, किंतु अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों द्वारा बहुसंख्यकों के खिलाफ किए गए सांप्रदायिक अपराध दंडनीय नहीं है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि समूह की परिभाषा में बहुसंख्यक समुदाय के व्यक्तियों को शामिल नहीं किया गया है। इसके अनुसार बहुसंख्यक समुदाय का कोई व्यक्ति सांप्रदायिक हिंसा का शिकार नहीं हो सकता है। विधेयक का यह प्रारूप अपराधों को मनमाने ढंग से पुनर्परिभाषित करता है। इस प्रस्तावित विधेयक के तहत बहुसंख्यक समुदाय के खिलाफ सांप्रदायिक अपराध करने वाले अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्य दोषी नहीं ठहराए जा सकते।
विधेयक के अनुसार सांप्रदायिक सौहार्द, न्याय और क्षतिपूर्ति के लिए एक सात सदस्यीय राष्ट्रीय प्राधिकरण होगा। सात सदस्यों में से चार समूह अर्थात अल्पसंख्यक समुदाय से होंगे। इसी तरह का प्राधिकरण राज्यों के स्तर पर भी गठित होगा। स्पष्ट है कि इस प्राधिकरण की सदस्यता धार्मिक और जातीय पहचान पर आधारित होगी। इस कानून के तहत अभियुक्त बहुसंख्यक समुदाय के ही होंगे। अधिनियम का अनुपालन एक ऐसी संस्था द्वारा किया जाएगा जिसमें निश्चित ही बहुसंख्यक समुदाय के सदस्य अल्पमत में होंगे। सरकारों को इस प्राधिकरण को पुलिस और दूसरी जांच एजेंसियां उपलब्ध करानी होंगी। इस प्राधिकरण को किसी शिकायत पर जांच करने, किसी इमारत में घुसने, छापा मारने और खोजबीन करने का अधिकार होगा और वह कार्रवाई की शुरुआत करने, अभियोजन के लिए कार्यवाही रिकार्ड करने के साथ-साथ सरकारों से सिफारिशें करने में भी सक्षम होगा। उसके पास सक्षस्त्र बलों से निपटने की शक्ति होगी। वह केंद्र और राज्य सरकारों को परामर्श जारी कर सकेगा। इस प्राधिकरण के सदस्यों की नियुक्ति केंद्रीय स्तर पर एक कोलेजियम के जरिए होगी, जिसमें प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और दोनों सदनों में विपक्ष के नेता और प्रत्येक राजनीतिक दल का एक नेता शामिल होगा। राज्यों के स्तर पर भी ऐसी ही व्यवस्था होगी।
इस अधिनियम के तहत जांच के लिए जो प्रक्रिया अपनाई जानी है वह असाधारण है। सीआरपीसी की धारा 161 के तहत कोई बयान दर्ज नहीं किया जाएगा। पीड़ित के बयान केवल धारा 164 के तहत होंगे अर्थात अदालतों के सामने। सरकार को इसके तहत संदेशों और टेली कम्युनिकेशन को बाधित करने तथा रोकने का अधिकार होगा। अधिनियम के उपबंध 74 के तहत यदि किसी व्यक्ति के ऊपर घृणा संबंधी प्रचार का आरोप लगता है तो उसे तब तक एक पूर्वधारणा के अनुसार दोषी माना जाएगा जब तक वह निर्दोष नहीं सिद्ध हो जाता। साफ है कि आरोप सबूत के समान होगा। उपबंध 67 के तहत किसी लोकसेवक के खिलाफ मामला चलाने के लिए सरकार के अनुमति चलाने की जरूरत नहीं होगी। इस अधिनियम के तहत मुकदमे की कार्यवाही चलवाने वाले विशेष लोक अभियोजक सत्य की सहायता के लिए नहीं, बल्कि पीड़ित के हित में काम करेंगे। शिकायतकर्ता पीडि़त का नाम और पहचान गुप्त रखी जाएगी। केस की प्रगति की रपट पुलिस शिकायतकर्ता को बताएगी। संगठित सांप्रदायिक और किसी समुदाय को लक्ष्य बनाकर की जाने वाली हिंसा इस कानून के तहत राज्य के भीतर आंतरिक उपद्रव के रूप में देखी जाएगी। इसका अर्थ है कि केंद्र सरकार ऐसी दशा में अनुच्छेद 355 का इस्तेमाल कर संबंधित राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने में सक्षम होगी।
इस मसौदे को जिस तरह अंतिम रूप दिया गया है उससे साफ है कि यह कुछ उन कथित सामाजिक कार्यकर्ताओं का काम है जिन्होंने गुजरात के अनुभव से यह सीखा है कि वरिष्ठ नेताओं को किसी ऐसे अपराध के लिए कैसे घेरा जाना चाहिए जो उन्होंने नहीं किया। कानून के तहत जो अपराध बताए गए हैं वे कुछ सवाल खड़े करते हैं। सांप्रदायिक और किसी वर्ग को लक्ष्य बनाकर की जाने वाली हिंसा का तात्पर्य है राष्ट्र के पंथनिरपेक्ष ताने-बाने को नष्ट करना। इस मसले पर कुछ उचित राजनीतिक मतभेद हो सकते हैं कि पंथनिरपेक्षता आखिर क्या है? यह एक ऐसा जुमला है जिसका अर्थ अलग-अलग लोगों द्वारा अलग-अलग बताया जाता है। आखिर किस परिभाषा के आधार पर अपराध का निर्धारण किया जाएगा? इसी तरह सवाल यह भी है कि शत्रुतापूर्ण माहौल बनाने से क्या आशय है? प्रस्तावित कानून का परिणाम यह होगा कि किसी भी तरह के सांप्रदायिक संघर्ष में बहुसंख्यक समुदाय को ही दोषी के रूप में देखा जाएगा। मुझे कोई संदेह नहीं कि जो कानून तैयार किया गया है उसे लागू करते ही भारत में संप्रदायों के बीच आपसी रिश्तों में कटुता-वैमनस्यता फैल जाएगी। यह एक ऐसा कानून है जिसके खतरनाक दुष्परिणाम होंगे। यह तय है कि इसका दुरुपयोग किया जाएगा और शायद इस कानून का ऐसा मसौदा तैयार करने के पीछे यही उद्देश्य भी है।
सांप्रदायिक हिंसा बिल:: ::धन्य-धन्य मेरा लोकतंत्र एवं उसके प्रहरी!!!
भारतवर्ष एक पुरातन, बहुभाषी और सांस्कृतिक विभिन्नता वाला राष्ट्र है। यहां लोकतंत्र भी अखण्डता, एकता और सम्प्रभुता के चिन्तन पर आधारित है। देश के बंटवारे के साथ हिन्दू-मुस्लिम एक विरोधाभासी सम्प्रदाय के रूप में उभरने लगे। राजनेताओं ने इस विचारधारा को खूब हवा दी। गंगा-जमुनी संस्कृति को आमने-सामने खड़ा कर दिया।
देश टूटने लगा और नफरत की बढ़ती आग में नेता रोटियां सेकने लगे। जब इससे भी पेट नहीं भरा, तब अल्पसंख्यक शब्द का अविष्कार कर डाला। अच्छे भले मुख्य धारा में जीते लोगों को मुख्य धारा से बाहर कर दिया। अपने ही देश में लोग द्वितीय श्रेणी के नागरिक बन गए। उनके ‘कोटे’ निर्घारित हो गए। जन प्रतिनिघियों की क्रूरता की यह पराकाष्ठा ही है कि संविधान में बिना ‘बहुसंख्यक’ की व्याख्या किए ‘अल्पसंख्यक’ शब्द को थोप दिया गया। आप अल्पसंख्यकों को पूछें कि क्या उत्थान का चेहरा देखा?
राजनीति में संवेदना नहीं होती। अब तो लोकतंत्र में भी कांग्रेस/ भाजपा के प्रधानमंत्री/ मुख्यमंत्री होने लग गए। राष्ट्र और राज्यों का प्रतिनिघि कोई भी दिखाई नहीं देता। कोई किसी का रहा ही नहीं। कोई किसी को फलता-फूलता सुहाता ही नहीं। बस सत्ता-धन लोलुपता रह गई। इनका भी अपराधीकरण नेताओं ने ही किया। देश के सीने पर फिर आरक्षण के घाव किए गए। विष उगलने लगे, अपने ही गांव वाले, पड़ोसी। घर बंट गए, कार्यालय बंट गए।
एकता और अखण्डता को मेरे ही प्रतिनिघियों ने तार-तार कर दिया। नेताओं ने खूब जश्न मनाया। अब इन नासूरों से मवाद आने लगा है। आम आदमी कराह रहा है। आरक्षण के अनुपात (प्रतिशत) की सूची देखें तो सभी अल्पसंख्यक नजर आएंगे। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद जिस ‘साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा निरोधक बिल-2011′ को कानूनी जामा पहनाना चाहती है, बहुसंख्यकों के विरूद्ध, उसे पहले परिभाषित तो करे। किसको बहुसंख्यक के दायरे में रखना चाहेगी?
हाल ही में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की ओर से जारी इस बिल के मसौदे को पढ़कर लगता है कि हमने क्यों आजादी के लिए संघर्ष किया था। क्यों हमने जन प्रतिनिघियों को देश बेचने की छूट दे दी। क्यों हमने समान नागरिकता के अघिकार को लागू नहीं किया? क्यों हमने कश्मीर को अल्पसंख्यकों के हवाले कर दिया और वोट की खातिर तीन करोड़ (लगभग) बांग्लादेशी अल्पसंख्यकों को भारत में अनाघिकृत रूप से बसने की छूट दे दी।
इस नए बिल को देखकर तो लगता है कि हमारे नीति निर्माता पूरे देश को ही थाली में सजाकर पाकिस्तान के हवाले कर देना चाहते हैं। आश्चर्य है कि परिषद के साथ-साथ उसके अध्यक्ष ने भी बिल तैयार करके सरकार के पास भेज दिया। ऎसा घिनौना बिल आजादी के बाद पढ़ने-सुनने में भी नहीं आया। घिक्कारने लायक है। राष्ट्रीय स्तर के कानून बनाने के लिए संसद, संविधान एवं राष्ट्रीय एकता परिषद के होते हुए किसी नागरिक परिषद की आवश्यकता ही क्या है? क्यों बना रखी है सफेद हाथी जैसी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद?
बिल कहता है कि जब साम्प्रदायिक दंगे हों तो इसका दोष केवल बहुसंख्यकों के माथे ही मढ़ा जाए। अल्पसंख्यकों को मुक्त ही रखा जाए। तब अल्पसंख्यक अपराघियों के मन में भय कहां रहेगा? वे कभी भी बहुसंख्यकों के विरूद्ध कुछ भी उत्पात खड़ा कर सकते हैं। तब कश्मीर के अल्पसंख्यक कभी भी सेना के जवानों के विरूद्ध कोई भी शिकायत कर सकते हैं। जांच में उनको तो दोषी माना ही नहीं जाएगा। आज जिस आम्र्ड फोर्सेज स्पेशल प्रोटेक्शन एक्ट ने सेना को कश्मीर और उत्तर पूर्व में सुरक्षित रखा हुआ है, वह भी बेअसर हो जाएगा। बांग्लादेशी भी अल्पसंख्यकों के साथ जुड़े ही हैं।
दोनों मिलकर आबादी का 20 प्रतिशत हिस्सा हैं। क्या अपराध भाव किसी के ललाट पर लिखा होता है? क्या अफगानिस्तान, पाकिस्तान जैसे देशों में यही अल्पसंख्यक आतंकवाद के सूत्रधार नहीं है और यहां किसी तरह की साम्प्रदायिक हिंसा में लिप्त नहीं होने की कसम खाकर पैदा होते हैं। आपराघिक प्रवृत्ति व्यक्तिगत होती है। इसे किसी समूह पर लागू नहीं किया जा सकता जैसा कि यह प्रस्तावित बिल कह रहा है। इसी प्रकार नेकी या उदारता भी सामूहिक रूप से लागू नहीं की जा सकती।
एक अन्य घोष्ाणा भी आश्चर्यजनक है। दंगों की अथवा अल्पसंख्यक की शिकायत पर होने वाली जांच में जो बयान अल्पसंख्यक देता है, उस बयान के आधार पर अल्पसंख्यक के विरूद्ध किसी प्रकार की कानूनी कार्रवाई नहीं होगी या कार्रवाई का आधार नहीं बनेगा। याद है न, जब दहेज विरोधी कानून बना था, तब किस प्रकार लड़के वालों की दुर्दशा करते थे पुलिस वाले। झूठी शिकायतों पर? किस प्रकार अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अघिनियम के हवाले से बिना जांच किए सजा देते हैं। अपने ही देशवासी कानून के पर्दे में देश को तोड़ने का निमित्त बन रहे हैं। अब यदि यह बिल पास हो गया, तब वैसे ही जुल्म होंगे, जैसे कुछ अफ्रीकी देशों में होते हैं। सबकी आंखें और कान बंद होंगे।
एक मुद्दा और भी है जिसका अवलोकन भी यहां कर लेना चाहिए। वह है आरक्षण कानून। इसमें अंकित सभी जातियां किस श्रेणी में आएंगी? हिन्दुत्व कोई धर्म या सम्प्रदाय नहीं है। क्या इन सभी जातियों को भी अल्प संख्यक माना जाएगा। क्या सिख, ईसाई, मुस्लिम आदि सम्प्रदायों के बीच आपसी हिंसा होने पर साम्प्रदायिक हिंसा के आरोप से सभी मुक्त रहेंगे? तब क्या यह सच नहीं है कि इस कानून का उपयोग येन-केन प्रकारेण बहुसंख्यकों को आतंकित करने के लिए किया जायेगा।
इसकी अन्य कोई भूमिका दिखाई ही नहीं देती। आज जो कानून हमारे संविधान में हैं, वे हर परिस्थिति से निपटने के लिए सक्षम हैं। जरूरत है उन्हें ईमानदारी और बिना भेदभाव लागू करने की। जो साठ साल में तो संभव नहीं हो पाया। राष्ट्रीय एकता परिषद भी यही कार्य देखती है। सजा का अघिकार नई समिति को भी नहीं होगा। निश्चित ही है कि इसका राजनीतिक दुरूपयोग ही होगा। इसके पास स्वतंत्र पुलिस भी होगी। मध्यप्रदेश में लोकायुक्त पुलिस जो कर रही है, उसे कौन नहीं जानता। सरकारें, राजनेताओं तथा अपने चहेतों को मंत्र देकर बिठाती जाएंगी।
मजे की बात यह है कि अल्पसंख्यक समूह की व्याख्या में एसटी/एससी को भी शामिल किया गया है। अर्थात उन्हें बहुसंख्यकों के समूह से बाहर निकाल दिया। तब अन्य आरक्षित वर्गो को कैसे साथ रखा जा सकेगा? यदि उनको भी अल्पसंख्यक मान लिया जाए तो, बहुसंख्यक कोई बचेगा ही नहीं। ब्राह्मण एवं राजपूत भी आंदोलन करते रहते हैं आरक्षण के लिए। उनको भी दे दो। तब आज के अल्पसंख्यक ही कल बहुसंख्यक भी हो जाएंगे।
क्या होगा, क्या नहीं होगा यह अलग बात है। प्रश्न यह है कि मोहल्ले के कोई दो घर मिलकर नहीं रह पाएंगे। बल्कि दुश्मन की तरह एक-दूसरे को तबाह करने के सपने देखने लग जाएंगे। अल्पसंख्यक पड़ोसियों को पूरी छूट होगी कि देश में आएं, कानून से मुक्त रहकर अपराध करें और समय के साथ देश को हथिया लें। धन्य-धन्य मेरा लोकतंत्र एवं उसके प्रहरी!!!
देश के विखण्डन का जहर घोलती, राष्ट्रीय सलाहकार परिषद
इसे जरा गौर से पढ़ें ‘‘हम भारत के लोग, भारत को एक (संपूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न समाजवादी, पथिनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य) बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 ई (मिति मार्गशीर्ष शुल्क सत्पमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं ।’’ किस तरह भारत के कुछ लोग भारत के संविधान की मूल आत्मा को न केवल छिन्न-भिन्न करने पर उतारू है, बल्कि सुनियोजित ढंग से इसकी हत्या करने में जुटे हैं । जब स्वतंत्र भारत में भेदरहित सब एक है तो ऐसे में भेदपूर्ण प्रस्तावित ‘‘साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा विधेयक 2011’’ क्यों ? क्या यह भारत को कमजोर, तोड़ने एवं पुनः गुलाम बनाने की कोई सोची समझी चाल तो नहीं ? उत्तर हाँ, ही में आयेगा क्योंकि जिस हिसाब से शब्दों की जादूगरी के साथ इसे रचा गया है वह निश्चित ही भविष्य में भारत को पटकनी एवं गृहयुद्ध छिड़ने की पूरी संभावनाओं को जन्म देता है । जब पूर्व में ही हमारे संविधान निर्माताओं ने देश के प्रत्येक नागरिक की सुरक्षा के लिए पर्याप्त कानून बनाए हैं तब ऐसे में एक नया विधेयक जिसका प्रत्येक शब्द जहर में डूबा हुआ है आखिर ये क्यों ? यूं तो वर्तमान में भारत के संविधान में साम्प्रदायिक हिंसा की रोकथाम के लिए कड़े एवं पर्याप्त कानून मौजूद हैं और भारत में शांति भी कायम है। इसका ताजा उदाहरण पिछले वर्ष राम मंदिर-बाबरी मस्जिद का ऐतिहासिक निर्णय के समय पूरे भारत में पूर्ण शांति छाई रही अपराधी तत्वों को कड़े कानून के चलते उनके मंसूबों पर पानी फिरा । यह सब कुछ निर्भर करता है कि सरकार क्या चाहती है ? लेकिन ऐसा लगता है कुछ लोगों को शायद यह सब कुछ रास नहीं आ रहा है। इस देश में चाटुकारों, शिखण्डी एवं भांडों की भी कोई कमी नहीं है । ऐसेे लोग अपने आकाओं की नजरों में चढ़ने के लिए अपनी ऊल-जलूल हरकतों से भी बाज नहीं आते फिर चाहे देश की एकता अखण्डता को ही क्यों न दांव पर लगाने पड़े कुछ ऐसा ही शर्मनाक कृत्य राष्ट्रीय सलाहकार परिषद द्वारा हाल में प्रस्तावित विधेयक ‘‘साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा विधेयक 2011’’ है । यहाँ कुछ यक्ष प्रश्न उठते हैं
पहला विधेयक बनाने का कार्य भारत की संसद को है या राष्ट्रीय सलाहकार परिषद को ?
दूसरा क्या इससे संसद के मूल अधिकारों एवं कर्तव्यों का हनन नहीं होता ?
तीसरा क्या परिषद को इस विधेयक को बनाने की वैधानिक मान्यता प्राप्त है ?
चौथा यदि उत्तर हाँ में है तो ऐसा अधिकार अन्ना हजारे या बाबा रामदेव के संगठन को क्यों नहीं ?
पाँचवा इस विधेयक से यदि देश की एकता-अखण्डता, अराजकता, साम्प्रदायिक सद्भाव, धर्मनिरपेक्षता को आघात पहुंचता है जो निश्चित तौर पहुंचेगा ही, भविष्य में जो घटना घटित हो ऐसे षड़यंत्रकारियों के खिलाफ क्या केन्द्र शासन जवाबदेही निर्धारित कर कार्यवाही करेगा? क्या ऐसे लोगों पर केन्द्र सरकार देशद्रोह का मुकदमा चलायेगी ? यहां मैं इस विधेयक की जहरीली मंशा एवं राज्यों के बारे में चली कुत्सित चाल के बारे में मोटे तौर पर सभी सच्चे भारतीयों को न केवल बताना चाहूंगी बल्कि ये जनता के बीच राष्ट्रीय बहस के भी मुद्दे होना चाहिए ताकि, साजिशकार, विदेशी एवं आतंकी विचारधारा वाले लोग बेपर्दा हो सकें । पहला ‘समूह शब्द’ यहां इसका अर्थ अल्पसंख्यक (मुसलमान, बौद्ध, जैन सिख आदि-आदि) अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिए हैं बहुसंख्य हिन्दु इसमें नहीं आते, इसे यूं समझें हिन्दू को अल्पसंख्यक मारे तो कोई दण्ड नहीं, यदि हिन्दू इनको मारे तो दण्ड ? ये कैसा न्याय? मरने वाला सिर्फ और सिर्फ आदमी होता है फिर इससे कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि वो किस जाति या धर्म का है । ऐसा करने की इजाजत तो हमारा संविधान भी नहीं देता । दूसरा बहुसंख्यक हिन्दुओं को माना गया है यहां मूल प्रश्न उठता है कि आखिर हिन्दु कौन ? ये हम सभी जानते हैं कि हिन्दु न जाति है न धर्म सिन्धु नदी के किनारे बसने वाले सभी हिन्दू कहलाए। हमें धर्म, जाति समुदाय में स्पष्ट भेद करना ही होगा, नहीं तो भविष्य में बड़ा उत्पात मच सकता है । क्या जैन, सिख, अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोग हिन्दू नहीं ? तीसरा विधेयक का मसौदा तैयार करने में अधिकांशतः विशेष वर्ग या विशेष विचारधारा वाले ही हैं, आखिर क्यों ? जब इसे पूरे भारत पर ही लादने की बात कर रहे हैं तो सभी जाति, धर्म समुदाय के लोग क्यों नहीं ? चौथा अप्रत्यक्ष रूप से भारतीय नागरिकों को बोलने एवं लिखने की स्वतंत्रता पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा जो संविधान के अनुच्छेद 19 का घोर उल्लंघन होगा । पांचवां वर्गों में भेद संविधान की मूल भावना के वपरीत है ।
छठवां इस विधेायक में पीड़ित व्यक्ति भी केवल अल्पसंख्यक ही हो सकता है बहुसंख्यक नहीं ? वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह सबसे खतरनाक है । इसे यू समझंे कोई विशेष जाति समूह का व्यक्ति या समूह बहुसंख्यक के साथ दंगा या बलात्कार करता है तो जायज एवं सुरक्षित है । लेकिन बहुसंख्यक समुदाय का व्यक्ति या समूह अल्पसंख्यक जिसमें मुस्लिम भी सम्मिलित हैं के साथ यही कृत्य करता है तोे करने मात्र से ही दण्डनीय अपराध की श्रेणी में आ जायेगा । इससे आतंकी विचारधारा के विशेष समूहों को केवल सुरक्षा मिलेगी बल्कि खुले में नंगा नाच, हत्या, दंगा, मारकाट भी मात्र अल्पसंख्यक होने से जायज हो जायगी या यूं कहे इन्हें दोषी नहीं माना जायेगा क्या यह जायज है ? विधेायक की ड्राफ्टिंग में लगे लोग आखिर संविधान को शीर्षासन कराने में क्यों तुले हैं? संविधान का अपमान क्यों करना चाहते हैं ?
सातवां इस विधेयक से सिर्फ और सिर्फ वोट की राजनीति की ही बू आती है । यदि किसी राजनैतिक पार्टी को अल्पसंख्यकों की इतनी ही चिंता है तो क्यों नहीं एक नया अल्पसंख्यक राष्ट्र या प्रदेश घोषित कर देते ? आखिर देशवासियों को पता तो चले कौन है नया जिन्ना ?
आठवां कई राज्यों में हिन्दु अल्पसंख्यक हैं उसका क्या होगा ये प्रस्तावित विधेयक में कहीं उल्लेख नहीं है ।
नवां राष्ट्रीय एकता परिषद को इतना जबरदस्त अधिकार सम्पन्न बनाया गया है जिससे केन्द्र एवं राज्यों के सम्बन्धों में निश्चित दरार आयेगी ।
दसवां इस विधेयक में पूरा का पूरा जोर कर्मचारियों पर ही केन्द्रित है । नेताओं को इससे मुक्त रखा गया है क्यों ? जबकि दंगे भड़काने, शहर, प्रदेश बंद कराने में इन्हीं की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है फिर भी जवाबदेही से मुक्त क्यों ?
ग्यारहवां राष्ट्रीय एकता परिषद जो फूट डालो का कार्य कर रही है, देश में शांति बनाए रखने के लिए, देशहित में तत्काल प्रभाव से इसे भंग कर देना चाहिए । भारतीय जनता एवं बुद्धिजीवी भी इस दिशा में चिन्तन करे
जब जनमत के खिलाफ गए गाँधी
महात्मा गाँधी जो भारत के तथाकथित राष्ट्रपिता कहलाये जाते है, इनकी कोई भी आलोचना इस देश में राष्ट्र द्रोह करार दे दी जाती है. कोई भी व्यक्ति भगवन नहीं हो सकता. हर किसी से गलतियाँ हो सकती है. हर व्यक्ति अपने जीवन में कुछ अच्छे काम करता है कुछ गलत. समाज को उसके अच्छे एंव बुरे दोनों कार्यो से प्रेरणा लेनी चाहिए. आज में गाँधी जी के ऐसे ही कुछ कार्यो की और पाठको का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ जब गाँधी जी ने जन आकांक्षा एवं लोकतंत्र के खिलाफ जाकर अपनी "सोच" इस देश पर थोपी थी.
पहला प्रकरण भगत सिंह से सम्बंधित है. ये हम सभी जानते है की भगत सिंह एवं उनके साथियों को विभिन परकार के झूठे मुकदमो में फंसा कर फांसी पर चढाने की पूरी तयारी कर ली थी. दरअसल अंग्रेजो को सबसे ज्यादा डर इन्ही क्रांतिकारियों से था. क्योंकि ये अंग्रेजो को उन्ही की भाषा में जवाब देते थे. इसलिए अंग्रेज क्रांतिकारियों का सफाया चाहते थे.
इसी दौरान गाँधी एवं कांग्रेस के नेतृत्व में देश में अंग्रेजो के खिलाफ व्यापक आन्दोलन हो रहे थे. जिस में देश की जनता भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रही थी. जिससे अंग्रजी सरकार की चूले हिल गयी थी. तात्कालिक वैसरॉय लोर्ड इरविन किसी भी हालत में इन जनांदोलनो को रोकना चाहते थे. परिणामस्वरूप अंग्रेजी सरकार घोषणा करती है की वे गाँधी जी की सभी मांगे मानने के लिए तैयार है, एवं गाँधी जी को बातचीत का न्योता देती है. जिसे गाँधी जी स्वीकार कर लेते है. अंग्रेजो को लगता था की गाँधी जी सभी मांगो के साथ भगत सिंह एवं अन्य क्रांतिकारियों की रिहाई की भी मांग करेंगे. इसलिए लोर्ड इरविन इसके लिए भी तैयार थे, तथा इसके लिए उन्होंने लन्दन की भी स्विकिरती ले ली थी. दूसरी और देश की जनता में भी यही आशा थी की अब भगत सिंह एवं साथी जेल से रिहा हो जाएँगे. भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारो से देश का युवा वर्ग विशेष प्रभावित था. दरअसल भगत सिंह वो पहले जन नेता थे जिन्होंने लोकपिर्यता के मामले में पहली बार गाँधी जी को पीछे छोड़ दिया था. मगर देश की जनता यह सुन कर चकित रह गयी की गाँधी जी ने भगत सिंह की फांसी का जिक्र तक इरविन के साथ हुए समझोते में नहीं किया. जबकि गाँधी जी ने दुसरे 70000 बंदियों को छुधा लिया था. अंग्रेजो को तो बिन मांगी मुराद मिल गयी थी. गाँधी जी के इस फैसले से देश की जनता में तिर्व पर्तिकिर्या हुई. परिणामस्वरूप गाँधी जी जहाँ भी जाते उन्हें काले झंडे दिखाए जाने लगे. यहाँ तक की इन घटना के बाद कांग्रेस के कराची में हुए अधिवेशन तक में उन्हें काले झंडे दिखाए गए. यह पहला समय था जब गाँधी जी को इतना तिर्व जन विरोध झेला पड़ा था. जिसका जिक्र स्वयं नेहरु ने लिखते हुए किया है की अगर भगत सिंह जिन्दा रहते तो कांग्रेस एवं गाँधी को पीछे छोड़ देते.
दूसरा प्रकरण नेता जी सुभाष चन्द्र बोस से संबंधित है. बात दरसल 1938 की है. देश की जनता गाँधी एवं कांग्रेस के अति आदर्शवादी भाषणों से उब चुकी थी. जनता नए विकल्पों की और देखने लगी थी. जो उन्हें नेताजी के रूप में मिलगया था. परिणाम स्वरुप वो गाँधी जी के विरोध के बावजूद नेताजी कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए. परिणाम स्वरुप गाँधी जी के "चमचा नेताओ" ने नेताजी के काम में अडंगा डालना शुरू कर दिया. यहाँ तक की कांग्रेस कार्यसमिति का गठन भी उन्हें नहीं करने दिया गया.
अगले साल 1939 में पुन: कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव आया. गांधीजी ने इस बार पट्टाभि सितारैमैया को खड़ा किया तथा नारा दिया की "पट्टाभि सितारैमैया की हार मेरी हार होगी". बावजूद इसके पट्टाभि सितारैमैया चुनाव हार गए और नेताजी पुन: कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हो गए. भगत सिंह प्रकरण के बाद यह दूसरा समय था जब गाँधी के ऊपर जनता ने किसी और को वरीयता दी थी. किन्तु गाँधी के चमचो ने पुन: अपना खेल खेला एवं नेताजी के कार्यो में विघन ढालना जरी रखा. जिससे दुखी होकर नेताजी ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया. अगर वो चाहते तो स्वयं गाँधी एवं कंपनी को कांग्रेस से बहार का रास्ता दिखा सकते थे या कांग्रेस की दो फाड़ कर सकते थे. किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया. इस प्रकार गाँधी जी ने एक बार पुन: लोकतंत्र को ठगा और अपनी निजी राय देश पर थोपी. क्या यही सम्मान था गाँधी जी के दिल में लोकतंत्र के लिए. क्यों एक निर्वाचित अध्यक्ष को इस तरह हटने के लिएय मजबूर किया गया.
तीसरा प्रकरण 1946 -47 का है. भारत का बटवारा एंव स्वतंत्रता निश्चित हो चुकी थी. देश के सामने यक्ष प्रशन था की प्रथम प्रधानमंत्री कोन बनेगा. 1946 में कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव होने थे. ये आम धरना थी की कांग्रेस अध्यक्ष ही प्रथम प्रधानमंत्री बनेगा. देश की जनता सरदार पटेल जी के पक्ष में थी और गाँधी जी नेहरु के पक्ष में. इसलिए ये निश्चित था की अगर सीधे चुनाव हुए तो जन दबाव में सरदार पटेल कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव जरुर लड़ेंगे और जीतेंगे भी. इसलिए गाँधी एवं नेहरु ने चाल चलते हुए पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए कांग्रेस के प्रांतीय अध्यक्षों की रायशुमारी का प्रस्ताव रखा. उस समय 16 कांग्रेस प्रांतीय अध्यक्ष हुआ करते थे जिसमे से 13 प्रांतीय अध्यक्षों ने सरदार पटेल के नाम का प्रस्ताव दिया. परन्तु गाँधी जी के आग्रह पर सरदार पटेल जी ने ये प्रस्ताव ठुकरा दिए. इस प्रकार गाँधी जी ने पुन: लोकतंत्र का गला घोटते हुए अपनी निजी राय के रूप में नेहरु को इस देश पर थोप दिया. नेहरु ने इस देश के साथ क्या कुकर्म किये ये पूरा इतिहास है.
ऐसा नहीं है की गाँधी जी को अपनी गलतियों का एहसास नहीं हुआ. जब उन्होंने नेहरु को प्रधानमंत्री के रूप में कार्य करते हुए देखा और ये जाना की नेहरु बिलकुल फ़ैल साबित हो रहा है तो वे बहुत दुखी और असंतुष्ट हुए. और इस बारे में जब उनसे उनके एक अमरीकी पत्रकार मित्र ने पूछा की "गाँधी जी आप कुछ करते क्यों नहीं?" पत्रकार का आशय नेतरत्व परिवर्तन से था. तो गाँधी जी ने जवाब दिया की "अब न तो वो समय है और न ही वे लोग है." मुझे पूरा यकीन है की ये बात कहते समय उनके मन में जरुर भगत सिंह, नेताजी बोस एवं सरदार पटेल के संस्मरण ताजा हो गए होंगे. इसीलिए सरदार पटेल का इस्तीफा कई बार वह यह कह कर रुकवा देते थे की देश को सरदार पटेल की जरुरत है.
अंत में एक प्रशन: क्या हम इतिहास से कोई सबक लेंगे?
पहला प्रकरण भगत सिंह से सम्बंधित है. ये हम सभी जानते है की भगत सिंह एवं उनके साथियों को विभिन परकार के झूठे मुकदमो में फंसा कर फांसी पर चढाने की पूरी तयारी कर ली थी. दरअसल अंग्रेजो को सबसे ज्यादा डर इन्ही क्रांतिकारियों से था. क्योंकि ये अंग्रेजो को उन्ही की भाषा में जवाब देते थे. इसलिए अंग्रेज क्रांतिकारियों का सफाया चाहते थे.
इसी दौरान गाँधी एवं कांग्रेस के नेतृत्व में देश में अंग्रेजो के खिलाफ व्यापक आन्दोलन हो रहे थे. जिस में देश की जनता भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रही थी. जिससे अंग्रजी सरकार की चूले हिल गयी थी. तात्कालिक वैसरॉय लोर्ड इरविन किसी भी हालत में इन जनांदोलनो को रोकना चाहते थे. परिणामस्वरूप अंग्रेजी सरकार घोषणा करती है की वे गाँधी जी की सभी मांगे मानने के लिए तैयार है, एवं गाँधी जी को बातचीत का न्योता देती है. जिसे गाँधी जी स्वीकार कर लेते है. अंग्रेजो को लगता था की गाँधी जी सभी मांगो के साथ भगत सिंह एवं अन्य क्रांतिकारियों की रिहाई की भी मांग करेंगे. इसलिए लोर्ड इरविन इसके लिए भी तैयार थे, तथा इसके लिए उन्होंने लन्दन की भी स्विकिरती ले ली थी. दूसरी और देश की जनता में भी यही आशा थी की अब भगत सिंह एवं साथी जेल से रिहा हो जाएँगे. भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारो से देश का युवा वर्ग विशेष प्रभावित था. दरअसल भगत सिंह वो पहले जन नेता थे जिन्होंने लोकपिर्यता के मामले में पहली बार गाँधी जी को पीछे छोड़ दिया था. मगर देश की जनता यह सुन कर चकित रह गयी की गाँधी जी ने भगत सिंह की फांसी का जिक्र तक इरविन के साथ हुए समझोते में नहीं किया. जबकि गाँधी जी ने दुसरे 70000 बंदियों को छुधा लिया था. अंग्रेजो को तो बिन मांगी मुराद मिल गयी थी. गाँधी जी के इस फैसले से देश की जनता में तिर्व पर्तिकिर्या हुई. परिणामस्वरूप गाँधी जी जहाँ भी जाते उन्हें काले झंडे दिखाए जाने लगे. यहाँ तक की इन घटना के बाद कांग्रेस के कराची में हुए अधिवेशन तक में उन्हें काले झंडे दिखाए गए. यह पहला समय था जब गाँधी जी को इतना तिर्व जन विरोध झेला पड़ा था. जिसका जिक्र स्वयं नेहरु ने लिखते हुए किया है की अगर भगत सिंह जिन्दा रहते तो कांग्रेस एवं गाँधी को पीछे छोड़ देते.
दूसरा प्रकरण नेता जी सुभाष चन्द्र बोस से संबंधित है. बात दरसल 1938 की है. देश की जनता गाँधी एवं कांग्रेस के अति आदर्शवादी भाषणों से उब चुकी थी. जनता नए विकल्पों की और देखने लगी थी. जो उन्हें नेताजी के रूप में मिलगया था. परिणाम स्वरुप वो गाँधी जी के विरोध के बावजूद नेताजी कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए. परिणाम स्वरुप गाँधी जी के "चमचा नेताओ" ने नेताजी के काम में अडंगा डालना शुरू कर दिया. यहाँ तक की कांग्रेस कार्यसमिति का गठन भी उन्हें नहीं करने दिया गया.
अगले साल 1939 में पुन: कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव आया. गांधीजी ने इस बार पट्टाभि सितारैमैया को खड़ा किया तथा नारा दिया की "पट्टाभि सितारैमैया की हार मेरी हार होगी". बावजूद इसके पट्टाभि सितारैमैया चुनाव हार गए और नेताजी पुन: कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हो गए. भगत सिंह प्रकरण के बाद यह दूसरा समय था जब गाँधी के ऊपर जनता ने किसी और को वरीयता दी थी. किन्तु गाँधी के चमचो ने पुन: अपना खेल खेला एवं नेताजी के कार्यो में विघन ढालना जरी रखा. जिससे दुखी होकर नेताजी ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया. अगर वो चाहते तो स्वयं गाँधी एवं कंपनी को कांग्रेस से बहार का रास्ता दिखा सकते थे या कांग्रेस की दो फाड़ कर सकते थे. किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया. इस प्रकार गाँधी जी ने एक बार पुन: लोकतंत्र को ठगा और अपनी निजी राय देश पर थोपी. क्या यही सम्मान था गाँधी जी के दिल में लोकतंत्र के लिए. क्यों एक निर्वाचित अध्यक्ष को इस तरह हटने के लिएय मजबूर किया गया.
तीसरा प्रकरण 1946 -47 का है. भारत का बटवारा एंव स्वतंत्रता निश्चित हो चुकी थी. देश के सामने यक्ष प्रशन था की प्रथम प्रधानमंत्री कोन बनेगा. 1946 में कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव होने थे. ये आम धरना थी की कांग्रेस अध्यक्ष ही प्रथम प्रधानमंत्री बनेगा. देश की जनता सरदार पटेल जी के पक्ष में थी और गाँधी जी नेहरु के पक्ष में. इसलिए ये निश्चित था की अगर सीधे चुनाव हुए तो जन दबाव में सरदार पटेल कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव जरुर लड़ेंगे और जीतेंगे भी. इसलिए गाँधी एवं नेहरु ने चाल चलते हुए पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए कांग्रेस के प्रांतीय अध्यक्षों की रायशुमारी का प्रस्ताव रखा. उस समय 16 कांग्रेस प्रांतीय अध्यक्ष हुआ करते थे जिसमे से 13 प्रांतीय अध्यक्षों ने सरदार पटेल के नाम का प्रस्ताव दिया. परन्तु गाँधी जी के आग्रह पर सरदार पटेल जी ने ये प्रस्ताव ठुकरा दिए. इस प्रकार गाँधी जी ने पुन: लोकतंत्र का गला घोटते हुए अपनी निजी राय के रूप में नेहरु को इस देश पर थोप दिया. नेहरु ने इस देश के साथ क्या कुकर्म किये ये पूरा इतिहास है.
ऐसा नहीं है की गाँधी जी को अपनी गलतियों का एहसास नहीं हुआ. जब उन्होंने नेहरु को प्रधानमंत्री के रूप में कार्य करते हुए देखा और ये जाना की नेहरु बिलकुल फ़ैल साबित हो रहा है तो वे बहुत दुखी और असंतुष्ट हुए. और इस बारे में जब उनसे उनके एक अमरीकी पत्रकार मित्र ने पूछा की "गाँधी जी आप कुछ करते क्यों नहीं?" पत्रकार का आशय नेतरत्व परिवर्तन से था. तो गाँधी जी ने जवाब दिया की "अब न तो वो समय है और न ही वे लोग है." मुझे पूरा यकीन है की ये बात कहते समय उनके मन में जरुर भगत सिंह, नेताजी बोस एवं सरदार पटेल के संस्मरण ताजा हो गए होंगे. इसीलिए सरदार पटेल का इस्तीफा कई बार वह यह कह कर रुकवा देते थे की देश को सरदार पटेल की जरुरत है.
अंत में एक प्रशन: क्या हम इतिहास से कोई सबक लेंगे?
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