श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन
हिन्दू समाज, अयोध्या, मथुरा, काशी और सोमनाथ मन्दिरों को तोड़ दिए जाने के बावजूद इनके इतिहास और इन मन्दिरों की गौरवगाथा को अपने दिल और दिमाग से कभी हटा नहीं सका। अयोध्या में राम जन्मभूमि मन्दिर, त्रेता का ठाकुर मन्दिर और स्वर्गद्वार मन्दिर भी मुस्लिम शासकों ने तोड़े थे। बाद के दोनों मन्दिरों को तो अयोध्या का हिन्दू समाज और रामानन्द सम्प्रदाय शायद भूल गया परन्तु श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर तोड़े जाने को वह कभी पचा नहीं पाया।
अयोध्या। यह नगर पावनपुरी के रूप में विख्यात और भारतीय संस्कृति का इतिहास है। इसकी गौरवगाथा अत्यन्त प्राचीन है। माना जाता है कि वैवस्वत मनु ने इस नगरी की स्थापना की और उसका नाम अयोध्या रखा। सभी जानते हैं कि सूर्यवंश के महाप्रतापी राजाओं की इस राजधानी में महाराजा सगर, राजा भगीरथ, राजा हरिश्चन्द्र हुए हैं। जैन धर्म के पांच तीर्थंकर अयोध्या में जन्में। अयोध्या का दन्तधावन कुण्ड गौतम बुद्ध की तपस्या स्थली के रूप में जाना जाता है। सिख मत के प्रवर्तक गुरू नानक देवजी महाराज, नवें गुरू तेगबहादुरजी महाराज और दशम गुरू गोविन्द सिंहजी महाराज अयोध्या में पधारे। सुना जाता है कि महर्षि दयानन्द भी अयोध्या आए और उन्होंने यहां महाभारत युद्ध का नेतृत्व करने वाले योगीराज श्रीकृष्ण की मूर्ति की स्थापना की। अनादिकाल से यह नगरी मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के जन्म स्थान के कारण पावन सप्तपुरियों में एक पुरी के रूप में विख्यात है। यह नगर रामानन्द सम्प्रदाय का प्रमुख केन्द्र है।
खेद है कि इस्लामिक जेहाद का शिकार जहां भारी संख्या में ऐतिहासिक मन्दिर हुए वहीं अयोध्या नगरी भी प्रमुख रूप से हुई। कहना न होगा कि यह भी एक ऐतिहासिक सत्य है कि इस्लाम के जन्म के पश्चात इसका विस्तार बौद्धिक आधार पर न होकर युद्ध में विजय के माध्यम से हुआ। इस्लाम के अनुयायी योद्धा अपने स्थान से चले, एक के बाद दूसरे क्षेत्रों को विजित करते रहे और उन्हें इस्लाम के अन्तर्गत लाते रहे और यह भी कि भारत में भी इस्लाम का प्रवेश आक्रमणकारी के रूप में हुआ। इस्लाम के अनुयायी सभी आक्रमणकारियों ने हिन्दुस्तान में हिन्दू सेनाओं को हराया, सम्पत्ति की लूटपाट की, कत्लेआम किया, साथ ही साथ समाज को मानसिक आघात पहुंचाने के लिए उसी के सामने उन्होंने देव-स्थानों को अपना निशाना बनाया, उन्हें क्रूरता से तोड़ा। देवी-देवताओं की मूर्तियों को खण्डित किया। कुछ स्थान पूरी तरह समाप्त ही कर दिए गए। हजारों स्थानों पर मस्जिदें बना दी गई, जिनका इतिहास खोजना भी अब कठिन हो गया है। लेकिन हिन्दू समाज, अयोध्या, मथुरा, काशी और सोमनाथ मन्दिरों को तोड़ दिए जाने के बावजूद इनके इतिहास और इन मन्दिरों की गौरवगाथा को अपने दिल और दिमाग से कभी हटा नहीं सका। अयोध्या में राम जन्मभूमि मन्दिर, त्रेता का ठाकुर मन्दिर और स्वर्गद्वार मन्दिर भी मुस्लिम शासकों ने तोड़े थे। बाद के दोनों मन्दिरों को तो अयोध्या का हिन्दू समाज और रामानन्द सम्प्रदाय शायद भूल गया परन्तु श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर तोड़े जाने को वह कभी पचा नहीं पाया।
अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर बना हुआ मन्दिर 1528 ईस्वीं में आक्रमणकारी बाबर के आदेश पर उसके सेनापति मीरबांकी ने तोड़ा था। इस मन्दिर को प्राप्त करने के लिए हिन्दू समाज सदैव संघर्ष करता रहा और इसके लिए अपना जीवन देता रहा। मंदिर तोड़े जाते समय भाटी नरेश महताब सिंह, हंसवर नरेश रणविजय सिंह, हंसवर के राजगुरू पंडित देवीदीन पाण्डेय ने पंद्रह दिन तक संघर्ष और घमासान युद्ध किया। बाबर के काल में इस स्थान को वापस प्राप्त करने के लिए चार युद्ध हुए। हुमायुं के शासनकाल में रानी जयराज कुंवारी एवं स्वामी महेश्वरानन्द के नेतृत्व में युद्ध हुए इनमें दस युद्धों का वर्णन मिलता है। औरंगजेब के काल में तीस युद्ध हुये। बाबा वैष्णवदास, गोपाल सिंह, ठाकुर जगदम्बा सिंह आदि ने डटकर लोहा लिया। अकबर के काल में बीस बार युद्ध हुये। अंततः अकबर ने श्रीराम जन्मभूमि परिसर के अन्दर तीन गुम्बदों वाले तथाकथित मस्जिद के ढांचे के सामने एक चबूतरा बनवाकर उस पर श्रीराम का मन्दिर बनवाकर बेरोकटोक पूजा करने की अनुमति दे दी। यही वो स्थान है जो श्रीराम चबूतरे के नाम से विख्यात हुआ। इस स्थान पर श्रीराम की पूजा सदैव चलती रही। छह दिसम्बर 1992 के बाद ही इस स्थान का अस्तित्व समाप्त हुआ।
अवध के नवाब सआदत अली के काल में हिन्दुओं ने इस स्थान को पाने के ललिए लड़ाई के जरिए पांच बार प्रयास किये। नवाब ने भी परेशान होकर अंततः हिन्दुओं को पूजा की अनुमति दे दी। नवाब वाजिद अली शाह के काल में हिन्दुओं ने चार बार लड़ाई लड़ी। बाबा उद्धवदास और भाटी नरेश ने ये युद्ध लड़े। छियत्तर लड़ाइयों का वर्णन अयोध्या की गलियों में सुनने को मिलता है। निश्चित ही इन लड़ाइयों में लाखों हिंदुओं ने अपनी जान दी होगी और लाखों विधर्मियों की जान ली भी होगी। हिन्दू समाज इस स्थान को प्राप्त तो नहीं कर सका परन्तु उसने मुसलमानों को भी चैन से नहीं बैठने दिया। अवध पर अंग्रेजों का अधिकार हो जाने के पश्चात अंग्रेजों ने तीन गुम्बदों वाले ढांचे और राम चबूतरा के बीच एक दीवार खड़ी करा दी। इस कारण हिन्दुओं की पूजा अर्चना के लिए केवल बाहर तक रहना लाचारी हो गई। परन्तु पूजा अर्चना बन्द नही हुई। हिन्दू मुसलमानों के बीच कटुता बढ़ गई। दंगे होने लगे। बहादुर शाह जफर को अंग्रेजों के विरुद्ध जब प्रजा ने नेतृत्व सौंप दिया तो उस समय मुस्लिम नेता अमीर अली ने यह स्थल हिन्दुओं को वापस सौंप देने का निर्णय कर लिया। संयोगवश 1857 ईस्वीं में अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष असफल हो गया। समय का लाभ उठाकर अंग्रेजों ने अमीर अली और बाबा रामचरण दास को एक इमली के पेड़ से लटका कर सार्वजनिक रूप से फांसी दे दी और यह स्थान हिन्दुओं को प्राप्त न हो सका।
सन् 1885 ईस्वीं में महंत रघुवरदास ने फैजाबाद की अदालत में एक दीवानी मुकदमा दायर किया जिसमें राम चबूतरे के ऊपर बने कच्चे झोपड़े को पक्का बनाने की अनुमति मांगी,ये मुकदमा खारिज हो गया। ब्रिटिश न्यायाधीश कर्नल चैमियर की अदालत में अपील की गई। कर्नल चैमियर ने स्थान का स्वयं निरीक्षण किया और 1886 ईस्वीं में अपने निर्णय में लिखा कि 'यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मस्जिद का निर्माण हिन्दुओं के एक पवित्र स्थल पर बने भवन को तोड़कर किया गया है, चूंकि यह घटना 356 वर्ष पुरानी है इसलिए इसमें कुछ करना उचित नही होगा।' वर्ष 1934 में अयोध्या में मुसलमानों के एक गाय काट दिए जाने के कारण हिन्दू समाज आक्रोशित हो गया, अनेक गाय हत्यारे मार दिए गए। इतना ही नहीं, उत्तेजित हिन्दू समाज तथाकथित बाबरी मस्जिद पर भी चढ़ बैठा, और उसके तीनों गुम्बदों को अपार क्षति पहुंचाई। इस स्थान पर हिन्दू पूरी तरह कब्जा तो नहीं कर पाए परन्तु इतना अवश्य हुआ कि इस घटना के बाद श्रीराम जन्मभूमि परिसर में प्रवेश करने की हिम्मत मुस्लिम समाज कभी जुटा नहीं सका। तोड़े गए तीनों गुम्बदों की मरम्मत अंग्रेज सरकार ने कराई और इसमें हुआ खर्च अयोध्या के हिन्दू समाज से टैक्स के रूप में वसूला गया। सन् 1934 से यह स्थान पूरी तरह से हिन्दू समाज के कब्जे में है। बाहर राम चबूतरे पर हिन्दू समाज मूर्तियों की पूजा करता था और गुम्बदों के भीतर उस पवित्र भूमि पर पुष्प चढ़ाता और मस्तक नवाता था।
स्वातंत्र्य प्राप्ति के पश्चात अयोध्या मे हनुमान गढ़ी के नागा बाबा अभिराम दास और परमहंस रामचन्द्र दास के नेतृत्व में अयोध्या के समाज में संघर्ष को पुन: प्रारम्भ हो गया। कहते हैं कि तेईस दिसम्बर 1949 को ब्रह्ममुहूर्त में ढांचे के मध्य गुम्बद के नीचे तेज प्रकाश के साथ भगवान रामलला प्रकट हुए। आनन-फानन में हजारों लोग जन्मभूमि पर एकत्र हो गए। भजन-पूजन प्रारम्भ हो गया। साधु सन्तों ने अखण्ड कीर्तन प्रारम्भ कर दिया जो छह दिसम्बर 1992 को ढांचा गिरने तक अनवरत जारी रहा। वर्ष 1949 में पंडित गोविन्द वल्लभ पन्त उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, केके नैय्यर फैजाबाद के जिलाधिकारी और ठाकुर गुरूदत्त सिंह अवैतनिक सिटी मजिस्ट्रेट थे। उनतीस दिसम्बर 1949 को सिटी मजिस्ट्रेट ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 145 के अन्तर्गत ढांचे के भीतरी परिसर को कुर्क करके अयोध्या नगर पालिका के अध्यक्ष बाबू प्रियदत्त राम को उसके अन्दर चल रही पूजा अर्चना के संचालन के लिए रिसीवर नियुक्त कर दिया और उनका कर्तव्य निर्धारित किया गया कि वे ढांचे के मध्य गुम्बद के नीचे विराजित रामलला के विग्रहों की पूजा व भोग की व्यवस्था करेंगे। मुख्य बड़े द्वार को सींखचों से बन्द करके ताला डाल दिया गया। कुछ दिनों बाद कुर्की का आदेश भी वापस ले लिया गया परन्तु मुख्य द्वार पर ताला फिर भी लगा रहा। बगल में लगे छोटे द्वार से भगवान की पूजा अर्चना भोग के लिए पुजारी आते-जाते थे। जनता सींखचों के बाहर से रामलला के दर्शन करती थी। एक फरवरी 1986 को जिला न्यायाधीश फैजाबाद के आदेश से ताला खुल जाने तक सींखचों के बाहर से भगवान के दर्शन, पूजन का यह क्रम निर्बाध चलता रहा।
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