Monday, 5 December 2011

संन्यास एक मानसिक प्रवृत्ति है, एक विशद भाव है जो वेष की संकीर्ण परिधि से परे है।

गांधीजी के आश्रम में अनेक लोग सेवा कार्य हेतु आते थे। एक दिन एक संन्यासी उस आश्रम में पहुंचा और सेवा करने की इच्छा जताई। गांधीजी ने गेरुए वस्त्र त्यागने की बात उससे कही तो वह नाराज हो गया। तब गांधीजी ने उसे समझाइश दी।

गांधीजी के आश्रम में प्राय: अनेक व्यक्तियों का तांता लगा रहता था। हर कोई गांधीजी के निकट रहकर उनके सेवा कार्यो में अपना योगदान देना चाहता था। एक दिन एक विख्यात संन्यासी गांधीजी के आश्रम पहुंचा और उनसे प्रार्थना की ‘मैं आपके आश्रम में रहकर जीवन बिताना चाहता हूं। आपके सेवा कार्यो के प्रति मेरे मन में अगाध श्रद्धा है। यदि आप अनुमति दें तो मेरे जीवन का सदुपयोग राष्ट्र निर्माण में हो सकेगा।

क्या ऐसे सौभाग्य की मैं आपसे अपेक्षा रख सकता हूं?’ गांधीजी ने अत्यंत विनम्रता से उत्तर दिया- क्यों नहीं? आप जैसे साधु पुरुषों के लिए ही आश्रम होते हैं। आपका यहां के सेवा कार्यो से जुड़ना हमारा भी सौभाग्य होगा, किंतु यहां रहने के लिए आपको पहले अपने गेरुए वस्त्र त्यागने होंगे। संन्यासी को गांधीजी की यह बात बड़ी अजीब लगी, किंतु संयम रखते हुए वह गांधीजी से बोला- ऐसा कैसे संभव है?

मैं संन्यासी जो हूं। तब गांधीजी ने समझाते हुए कहा- इन गेरुए वस्त्रों को देखते ही हमारे देशवासी इन्हें धारण करने वालों की सेवा-पूजा शुरू कर देते हैं। इन वस्त्रों के कारण लोग आपके द्वारा की जाने वाली सेवा स्वीकार नहीं करेंगे। जो वस्तु या प्रतीक हमारे सेवा कार्य में बाधा डाले, उसके मोह को छोड़ देने में ही लाभ है। आप ही सोचें कि गेरुए वस्त्र पहनकर आपको आश्रम में सफाई कार्य कौन करने देगा? संन्यासी ने गांधीजी की बातों के सत्य को समझते हुए गेरुए वस्त्र त्याग दिए।

वस्तुत: संन्यास एक मानसिक प्रवृत्ति है, एक विशद भाव है जो वेष की संकीर्ण परिधि से परे है। वेष तो शरीर धारण करता है, जबकि संन्यास को मन धारता है। अत: सच्चा संन्यासी वेष की सीमाओं में नहीं

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