हिन्दुस्तान स्वामी विवेकानंद का
वर्तमान के किसी भी अंधकार में केवल विवेक और आदर्श की रोशनी ही हमें राह दिखा सकती है। 'न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते' गीता का यह वचन हम पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी डालता है। इतिहास में सभी मानव समूहों ने कोई न कोई अन्याय भी किया है और मानवीय संस्कृति में योगदान भी दिया है।
हिन्दुस्तान पर विदेशी हमलों और जुल्म पर इंतकाम के नजरिए से न देखते स्वामी विवेकानंद राष्ट्र और हिन्दुओं को अपने कर्तव्य का अहसास कराते कहते हैं कि जिस तरह हर इंसान की एक खास शख्सियत होती है,उसी तरह हर जाति की भी एक पहचान होती है, और जाति के अपने गुणवैशिष्ट्य होते हैं। दुनिया की विभिन्न जातियों के सुसंवादी संगीत में उसे कौनसा सुर मिलाना है, यह राष्ट्र की उन्नति हेतु तय करना बेहद जरूरी है।
दुनिया को धर्म और अध्यात्म देना हिन्दुओं का ईश्वर प्रदत्त कार्य है। जो इस धर्म की जान है। यदि हमने अपने अज्ञान से इसे गँवाया तो कोई भी हमें बचा नहीं पाएगा। और यदि हमने जान से भी अधिक इसका जतन किया तो कोई हमारा बाल भी बाँका नहीं कर सकेगा। ग्रीक रोमन सभ्यता आज कहाँ है? उल्टे सैकड़ों साल विदेशी सत्ता तले,अत्याचार और जुल्म तले दबी इस जमीं पर हिन्दू सभ्यता आज भी जिंदा क्यों है? इसके उदारवादी होने से हमेशा इसका मजाक ही उड़ाया जाता है, लेकिन विश्वास कीजिए हमने किसी पर हमला नहीं किया और किसी को जीता भी नहीं। लेकिन फिर भी हम जिंदा हैं क्योंकि धर्म,आध्यात्मिकता का प्राण सहिष्णुता शक्ति की वजह से है।
स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि हमें पसंद हो या न पसंद हो लेकिन धर्म और आध्यात्मिकता ही हमारे राष्ट्रीय जीवन के उज्जवल भविष्य के आधार स्तंभ हैं। यहाँ सभी कौम के लोग रहते हैं। रीति-रिवाजों में तो कमाल का फर्क है! लेकिन तब भी धर्म ही हमारी समान राष्ट्रीय एकता का आधार है। हिन्दुओं का जीवन दर्शन वेदांत के 'अद्वैत' इस एक शब्द में समाया है, तो उसका सारभूत अर्थ गीता के 'समं सर्वेषु भूतेषु' इस शब्द में। जीवमात्र में एकत्व और ईश्वरत्व ही वेदांत की नींव है तब घृणा या द्वेष किसका?
यहाँ सत्ता और नेतागिरी का कैंसर सामाजिक ही नहीं राष्ट्रीय धर्म और संस्कृति की आत्मा का निवाला लेने की माँग कर रहा है। एक ही धर्म में जाँत-पाँत में बैर की आग भड़क रही है। इन सबसे अपनी विचार शक्ति के अवरुद्ध हुए बगैर हमें अपने आपसे एक सवाल करना चाहिए कि क्या हम जिंदगी सुकून से जी रहे हैं? फिर ठीक कौन से धर्म की खातिर हम एक-दूसरे का खून बहाने वाले विचारों को समर्थन देकर पाल रहे हैं? धार्मिक दंगों या दहशतवाद के पीछे के अज्ञान के अंधकार से हम अब भी बाहर नहीं निकलेंगे?
एक सुबह ऐसी भी होगी 'सर्व धर्मान पारित्यज्यम्' का निडर उद्घोष करने वाले राम-कृष्ण की जमीं के सामान्य लोग किसी भी द्वेषपूर्ण सीख को स्वीकारने से पूरी तरह इंकार कर देंगे और तब स्वामी विवेकानंद का सपना भी उनका अपना सपना होगा 'मेरे सपनों के हिन्दुस्तान की यदि आत्मा 'वेदांत' होगी तो शरीर 'इस्लाम' होगा। शरीर के बिना आत्मा के अस्तित्व का विचार कोई भी नहीं करेगा।'
हिन्दुस्तान पर विदेशी हमलों और जुल्म पर इंतकाम के नजरिए से न देखते स्वामी विवेकानंद राष्ट्र और हिन्दुओं को अपने कर्तव्य का अहसास कराते कहते हैं कि जिस तरह हर इंसान की एक खास शख्सियत होती है,उसी तरह हर जाति की भी एक पहचान होती है, और जाति के अपने गुणवैशिष्ट्य होते हैं। दुनिया की विभिन्न जातियों के सुसंवादी संगीत में उसे कौनसा सुर मिलाना है, यह राष्ट्र की उन्नति हेतु तय करना बेहद जरूरी है।
दुनिया को धर्म और अध्यात्म देना हिन्दुओं का ईश्वर प्रदत्त कार्य है। जो इस धर्म की जान है। यदि हमने अपने अज्ञान से इसे गँवाया तो कोई भी हमें बचा नहीं पाएगा। और यदि हमने जान से भी अधिक इसका जतन किया तो कोई हमारा बाल भी बाँका नहीं कर सकेगा। ग्रीक रोमन सभ्यता आज कहाँ है? उल्टे सैकड़ों साल विदेशी सत्ता तले,अत्याचार और जुल्म तले दबी इस जमीं पर हिन्दू सभ्यता आज भी जिंदा क्यों है? इसके उदारवादी होने से हमेशा इसका मजाक ही उड़ाया जाता है, लेकिन विश्वास कीजिए हमने किसी पर हमला नहीं किया और किसी को जीता भी नहीं। लेकिन फिर भी हम जिंदा हैं क्योंकि धर्म,आध्यात्मिकता का प्राण सहिष्णुता शक्ति की वजह से है।
स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि हमें पसंद हो या न पसंद हो लेकिन धर्म और आध्यात्मिकता ही हमारे राष्ट्रीय जीवन के उज्जवल भविष्य के आधार स्तंभ हैं। यहाँ सभी कौम के लोग रहते हैं। रीति-रिवाजों में तो कमाल का फर्क है! लेकिन तब भी धर्म ही हमारी समान राष्ट्रीय एकता का आधार है। हिन्दुओं का जीवन दर्शन वेदांत के 'अद्वैत' इस एक शब्द में समाया है, तो उसका सारभूत अर्थ गीता के 'समं सर्वेषु भूतेषु' इस शब्द में। जीवमात्र में एकत्व और ईश्वरत्व ही वेदांत की नींव है तब घृणा या द्वेष किसका?
यहाँ सत्ता और नेतागिरी का कैंसर सामाजिक ही नहीं राष्ट्रीय धर्म और संस्कृति की आत्मा का निवाला लेने की माँग कर रहा है। एक ही धर्म में जाँत-पाँत में बैर की आग भड़क रही है। इन सबसे अपनी विचार शक्ति के अवरुद्ध हुए बगैर हमें अपने आपसे एक सवाल करना चाहिए कि क्या हम जिंदगी सुकून से जी रहे हैं? फिर ठीक कौन से धर्म की खातिर हम एक-दूसरे का खून बहाने वाले विचारों को समर्थन देकर पाल रहे हैं? धार्मिक दंगों या दहशतवाद के पीछे के अज्ञान के अंधकार से हम अब भी बाहर नहीं निकलेंगे?
एक सुबह ऐसी भी होगी 'सर्व धर्मान पारित्यज्यम्' का निडर उद्घोष करने वाले राम-कृष्ण की जमीं के सामान्य लोग किसी भी द्वेषपूर्ण सीख को स्वीकारने से पूरी तरह इंकार कर देंगे और तब स्वामी विवेकानंद का सपना भी उनका अपना सपना होगा 'मेरे सपनों के हिन्दुस्तान की यदि आत्मा 'वेदांत' होगी तो शरीर 'इस्लाम' होगा। शरीर के बिना आत्मा के अस्तित्व का विचार कोई भी नहीं करेगा।'
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