Thursday, 24 February 2011

'मैं'

 

'मैं'  


एक चर्चा में आज उपस्थित था। उपस्थित था जरूर, पर मेरी उपस्थिति न के बराबर थी। भागीदार मैं नहीं था। केवल श्रोता था। जो सुना, वह साधारण था, पर जो देखा, वह निश्चय ही असाधारण था।
प्रत्येक विचार पर वहां वाद-विवाद हो रहा था। सब सुना, पर दिखाई कुछ और ही दिया। दिखा कि विवाद विचारों पर नहीं, 'मैं' पर है। कोई कुछ सिद्ध नहीं करना चाहता है। सब 'मैं' को- अपने-अपने 'मैं' को सिद्ध करना चाहते हैं। विवाद की मूल जड़ इस 'मैं' में है। फिर प्रत्यक्ष में केंद्र कहीं दिखे, अप्रत्यक्ष में केंद्र वहीं है। जड़े सदा ही अप्रत्यक्ष होती हैं। दिखाई वे नहीं देतीं। दिखता है जो, वह मूल नहीं है। फूल-पत्तों की भांति जो दिखता है, वह गौण है। उस दिखने वाले पर रुक जायें तो समाधान नहीं है, क्योंकि समस्या ही वहां नहीं है।
समस्या जहां है, समाधान भी वहीं है। विवाद कहीं नहीं पहुंचाते। कारण, जो जड़ है, उसका ध्यान ही नहीं आता है।
यह भी दिखाई देता है कि जहां विवाद है, वहां कोई दूसरे से नहीं बोलता है। प्रत्येक अपने से ही बातें करता है। प्रतीत भर होता है कि बातें हो रही हैं। पर जहां, 'मैं' है, वहीं दीवार है और दूसरे तक पहुंचना कठिन है। 'मैं' को साथ लिए संवाद असंभव है।
संसार में अधिक लोग अपने से ही बातें करने में जीवन बिता देते हैं।
एक पागलखाने की घटना पढ़ी थी। दो पागल विचार में तल्लीन थे, पर उनका डाक्टर एक बात देखकर हैरान हुआ। वे बातें कर रहे थे जरूर और जब एक बोलता था, तो दूसरा चुप रहता था, पर दोनों की बातों में कोई संबंध, कोई संगति न थी। उसने उनसे पूछा कि 'जब तुम्हें अपनी-अपनी ही कहना है, तो एक-दूसरे के बोलते समय चुप क्यों रहते हो?' पागलों ने कहा, 'संवाद के नियम हमें मालूम हैं- जब एक बोलता है, तब दूसरे को चुप रहना नियमानुसार आवश्यक है।'
यह कहानी बहुत सत्य है और पागलों के ही नहीं, सबके संबंध में सत्य है। बातचीत के नियम का ध्यान रखते हैं, सो ठीक, अन्यथा प्रत्येक अपने से ही बोल रहा है।
'मैं' को छोड़े बिना कोई दूसरे से नहीं बोल सकता। और 'मैं' केवल प्रेम से छूटता है। इसलिए प्रेम में ही केवल संवाद होता है। उसके अतिरिक्त सब विवाद है और विवाद विक्षिप्तता है। क्योंकि उसमें सब अपने द्वारा और अपने से ही कहा जा रहा है।
मैं जब उस चर्चा से आने लगा, तो किसी ने कहा, 'आप कुछ बोले नहीं?' मैंने कहा, 'कोई भी नहीं बोला है'

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