Wednesday, 2 February 2011

प्रतिभा:: ::एक दैवी स्तर की विद्युत चेतना है, जो मनुष्य के व्यक्तित्व और कर्तव्य में असाधारण स्तर की उत्कृष्टता भर देती है। इसी आधार पर प्रतिभाशाली, अतिरिक्त सफलतायें आश्चर्यजनक रुप से प्राप्त कर लेता है।

हनुमान, सुग्रीव के सुरक्षा कर्मचारी थे, लेकिन जब उन्होने सीता की खोज के लिये राम के अनुरोध को स्वीकार किया तो वे असीम बलशाली बन गये। समुद्र छलांगने, लंका जलाने, पर्वत उखाड़ने जैसे असाधारण कार्य करके इतिहास में अजरअमर हो गये।
प्रतिभा एक दैवी स्तर की विद्युत चेतना है, जो मनुष्य के व्यक्तित्व और कर्तव्य में असाधारण स्तर की उत्कृष्टता भर देती है। इसी आधार पर प्रतिभाशाली, अतिरिक्त सफलतायें आश्चर्यजनक रुप से प्राप्त कर लेता है। साथ ही इतना और जुड़ता है कि, अपने लिये असाधारण श्रेय, सम्मान, दूसरों के लिये अभ्युदय के मार्ग पर घसीट ले चलने वाला मार्गदर्शन वह कर सके। मांझी की तरह अपनी नाव को खेकर स्वयं पार उतारे, गिरे को उठाने, डूबतों को उबारने वालों को उत्कर्ष की ऊँचाई तक उछालने में समर्थ हो सके।
दूरदर्शिता, साहसिकता और नीतिनिष्ठा का समन्वय प्रतिभा के रुप में परिलक्षित होता है। ओजस्, तेजस और वर्चस इसी के नाम हैं। दूसरे शब्दों में आदर्शवादी प्रयोजन, सुनियोजन, व्यवस्था और साहसभरी पुरुषार्थपरायणता को यदि मिला दिया जाये, तो उस गुलदस्ते का नाम प्रतिभा दिये जाने में कोई अतिश्योक्ति न होगी।
कहते हैं कि, सत्य में हजार हाथी का बल होता है, पर इसके साथ ही प्रतिभाभरी जागरुकतासाहसिकता को जोड़ दिया जाये तो सोना और सुगन्ध के मिश्रण जैसी बात बन सकती है, तब उसे हजार हाथियों की अपेक्षा लाख ऐरावतों जैसी शक्ति सम्पन्नता कहा जा सकता है। प्रतिभाशाली व्यक्ति तीन प्रकार की श्रेणी में रखे जा सकते हैं। प्रथम श्रेणी के लोग औचित्य पर बुद्वि नहीं लगाते, वे साधनों के लिये, मार्गदर्शन के लिये दूसरों पर निर्भर रहते हैं।
दूसरा वर्ग समझदार होता हुआ भी संकीर्ण स्वार्थपरता से घिरा रहता है। आदर्श उन्हें प्रभावित नहीं करते, अवसर मिलने पर कुछ अनुचित करने से भी नहीं चूकते। किन्तु तृतीय श्रेणी के लोग भौतिक क्षेत्र में कार्यरत रहते हैं। व्यवस्था बनाते हुये अनुशासन में बंधे रहते हैं। अपनी नाव अपने बलबूते खेते हैं और उसमें बिठाकर अनेकों को पार लगा देते हैं। बड़ीबड़ी योजनायें बनाते हैं। कारखानों के व्यवस्थापक और शासनाध्यक्ष प्रायः इन्हीं विशेषताओं से सम्पन्न होते हैं। बोलचाल की भाषा में इन्हें ही प्रतिभावान कहा जाता है।
सबसे ऊँची श्रेणी देवमानवों की है, जो अपनी प्रतिभा का उपयोग आत्मपरिष्कार से लेकर लोकमंगल तक के उच्चस्तरीय प्रयोजनों में ही किया करते हैं। निजी महत्वकांक्षाओं व आवश्यकता को हटाते है, ताकि बचे हुये शक्ति भंडार को परमार्थ में नियोजित कर सकें। बड़े कामों को बड़े शक्ति केन्द्र ही सम्पन्न कर सकते हैं। दलदल में फंसे हाथी को बलवान हाथी ही खींचकर पार करते हैं। पटरी से उतरे इंजन को समर्थ क्रेन ही उठाकर यथास्थान रख सकती है। उफनते समुद्र में नाव खे लाना साहसी नाविकों से ही बन पड़ता है। संसार व समाज की बड़ी समस्यायें ऐसे ही वरिष्ठ प्रतिभावान कर पाते हैं।
वर्तमान समय विश्व इतिहास में अद्भुत व अभूतपूर्व स्तर का है। इसमें एक ओर महाविनाश का प्रलयंकरी तूफान अपनी प्रचण्डता का परिचय दे रहा है, तो दूसरी ओर सतयुगी नवनिर्माण की उमंगे उछाल खा रही हैं। विनाश व विकास एक दूसरे के प्रतिद्वंदी बने हुये हैं। इन दिनों आकाश में सघन अंधकार का साम्राज्य है, तो दूसरी ओर ब्रम्हमुहुर्त का आभास भी।
प्रतिभायें जहां कहीं भी जाती हैं, वहीं के वातावरण, जनमानस में आमूलचूल परिवर्तन किये बिना नहीं रहतीं। गांधी जी के परामर्श एवं सानिध्य से ऐसी प्रतिभायें निखरी, एकत्रित हुई कि, उस समुच्चय ने देश के वातावरण में शौर्यसाहस के प्राण फूंक दिये। देश की स्वतंत्रता प्राप्ति का श्रेय उसी परिकर को जाता है।
इंग्लैंड के प्रधानमंत्री चर्चिल भारत के वायसराय को परामर्श दिया करते थे कि, वे गांधी जी से प्रत्यक्ष मिलने का अवसर न आने दें। उनके समीप पहुंचने पर उनके जादुई प्रभाव में फंसकर उन्ही का हो जाता है।
भगवान बुद्व को मार डालने का षड़यंत्र अंगुलिमान महादस्यु ने बनाया। वह तलवार निकाले बुद्व के पास पहुंचा आक्रमण करने को उतारु ही था कि, सामने पहुंचते ही पानीपानी हो गया, तलवार फेंक दी। उसने दस्यु जीवन ही नहीं छोड़ा बल्कि बुद्व का शिष्य बनकर शेष जीवन धर्मधारण के लिये समर्पित कर दिया। इसी तरह तत्कालीन वेश्या अम्बपाली ने भी भगवान बुद्व के विरुद्व षड़यंत्र रचा, पर सामने पहुंचते ही चरणों में गिर गई व उसका शेष जीवन लोकमंगल में समर्पित हुआ।
नारद कहीं अधिक देर तक नहीं ठहरते थे, पर थोड़े से सम्पर्क एवं परामर्श से धु्रव, प्रहलाद व रत्नाकर (वाल्मिकी) आदि कितनों को ही ऊँचाई तक दौड़ने का अवसर मिला।
वेदव्यास का साहित्य सृजन प्रख्यात है। उनकी सहायता करने गणेश जी लिपिक के रुप में दौड़े। भागीरथ का परमार्थिक साहस गंगा को धरती पर उतारने का था, कुछ अड़चन पड़ी तो स्वयं शंकर जी सहयोग के लिये आ खड़े हुये। प्रसिद्व है, तपस्विनी अनुसुईया की आज्ञा पालते हुये तीनों देवता उनके आंगन में बालक बनकर खेलते थे।
महामना मालवीय, स्वामी श्रद्वानंद, योगी अरविन्द्र, राजा महेन्द्रप्रताप व रवीन्द्र नाथ टेगोर की स्थापित शिक्षा संस्थाओं ने कितनी उच्चस्तरीय प्रतिभायें राष्ट्र को समर्पित की, जिसे भुलाया नहीं जा सकता। राणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, राजा छत्रसाल आदि के पराक्रम प्रसिद्व हैं। रानी लक्ष्मीबाई ने तो महिलाओं की पूरी सेना तैयार कर अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये थे।
चाणक्य ने साधनहीन होते हुये भी विक्रमादित्य जैसी प्रतिभा को खोजा। अमेरिका का अव्राहम लिंकन, जार्ज वाशिंगटन, इटली के गैरीवाल्डी गई गुजरी परिस्थितियों के बावजूद जनमानस पर छा गये और राष्ट्रपति पद तक पहुंचने में सफल हुये।
विनोवा का भूदान आन्दोलन, जयप्रकाश नारायण की समग्र क्रांति भुलाई नहीं जा सकती। विश्वव्यापी स्काउट संस्था को खड़े करने वाले वेडेन पावेल की सृजनात्मक प्रतिभा को किस प्रकार कोई विस्मृत कर सकता है। उन्नति के अनेक क्षेत्र हैं, जिनमें प्रतिभा के सहारे ही ऊपर उठा जा सकता है। धनाध्यक्षों में हेनरी फोर्ड, शंक फेलर, टाटा, बिरला आदि ऐसे ही प्रतिभाशाली नाम है।
परिष्कृत प्रतिभा एक दैवी वरदान है। :

सैनिकों को युद्व मोर्चा पर पराक्रम दिखाने के लिये तैयार कराने के लिये उन्हें भेजने से पहले आवश्यक साधनसुविधाओं का ध्यान रखा जाता है, ताकि वे युद्व ठीक तरह से लड़ सकें क्योंकि श्रेष्ठता के मार्ग पर चलने से सहायता अवश्य मिलती है
मांगने वाले भिखमंगे दरवाजे पर झोली पसारते, दांत निपोरते और दुत्कार दिये जाते हैं। मनोकामनायें पूरी कराने वाले ईश्वर भक्त निराशा व उपेक्षा सहते हैं पर जिन्हें ईश्वर का काम करना होता है, उन्हें आदरपूर्वक बुलाने के साथ ही आवश्यक उपहार भी दिये जाते हैं।
हनुमान, सुग्रीव के सुरक्षा कर्मचारी थे, लेकिन जब उन्होने सीता की खोज के लिये राम के अनुरोध को स्वीकार किया तो वे असीम बलशाली बन गये। समुद्र छलांगने, लंका जलाने, पर्वत उखाड़ने जैसे असाधारण कार्य करके इतिहास में अजरअमर हो गये।
इतिहास गवाह है कि, साधारण लोगो की प्रतिभा उभारकर साहस के धनी लोगों ने बड़ेबड़े काम करा लिये थे। चन्द्रगुप्त जब स्वयं को बड़े साम्राज्य का दायित्व संभालने में असमर्थ पा रहे थे, तब चाणक्य ने उनमें प्राण फूंक दिये। अर्जुन द्वारा महाभारत युद्व न लड़ने व मोहग्रस्त होने पर भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें वैसा करने के लिये कुछ ही देर में तैयार कर लिया था। समर्थ गुरु रामदास की मनस्विता ने शिवाजी को गजब का पराक्रम दिखाने के लिये तैयार कर दिया था। रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानंद जैसे साधारण विद्यार्थी से उठाकर विश्व भर में भारतीय संस्कृति का संदेशवाहक बना दिया। दयानंद की प्रगतिशीलता के पीछे विरजानंद के प्रोत्साहन ने कम योगदान नहीं दिया।
औजारोंहथियारों को ठीक तरह काम करने के लिये उनकी धार तेज रखने के लिये उन्हें शान पर च़ाने की आवश्यकता पड़ती है। पहलवान मुद्वतों अखाड़े में अभ्यास करने के बाद ही दंगल में कुश्ती जीत पाते हैं। प्रतिभा भी यकायक परिष्कृत नहीं बन जाती, इसके लिये आये दिन अवांछनीयताओं से जूझना और सुसंस्कारी, आदर्शवादिता का अभिवर्धन का प्रयास निरंतर जारी रखना पड़ता है। समाज सेवा और निजी जीवन में परिवारपरिकर का क्षेत्र ऐसा है, जहां सुधारपरिष्कार के लिये नित्य कोई न कोई कारण निरंतर विद्यमान रहते हैं।
स्वयं के व्यक्तित्व को निखारने, प्रतिभा को परिष्कृत करने के लिये आत्म निरीक्षण, आत्म समीक्षा, आत्म सुधार व आत्म विकास की साधना का अपनी दिनचर्या में अभ्यास करना होता है। अन्यथा ॔॔ पर उपदेश कुशल बहु तेरे ’’ भर वन जाने से उपहास, तिरस्कार के अतिरिक्त कुछ हाथ नहीं लगता। दूसरों की सहायता मिलती तो है, पर उसे प्राप्त करने के लिये अपनी पात्रता विकसित करनी पड़ती है, वर्षा ऋतु में कितनी ही मूसलाधार बारिश हो पर अपने पल्ले उतना ही पड़ेगा, जितना कि वर्तन का आकार हो या गड़्े की गहराई। बिना प्रयास के तो थाली में रखा भोजना तक मुँह में प्रवेश करने और पेट तक पहुंचने में सफल नहीं होता। महान शक्तियों का अनुग्रह भी उत्कृष्टता अपनाने वालों व प्रबल पुरुषार्थ में जुटने वालों को ही मिला है। दुर्बल शरीर पर विषाणु आक्रमण कर उसे रोगी बना देते हैं।
बस, मोटरें तभी दौड़ती हैं, जब उनके भीतर टंकी में ज्वलनशील तेल भरा हो। उसी तरह मनुष्यों द्वारा जो चमत्कारी काम होते दिखते हैं, वे मात्र हाड़मांस की उपलब्धि नहीं होती वरन उछलती उमंगों के रुप में प्रतिभा ही काम करती है। स्वयंवर में वरमाला उन्हीं के गले में पड़ती है, जो स्वयं को दूसरों से विशिष्ट सिद्व कर पाते हैं। मजबूत कलाईयां ही हथियारों का सफल प्रहार कर पाती हैं। दुर्बल भुजायें तो हारने के अतिरिक्त कुछ खास नहीं कर पाती।
भीष्म ने मृत्यु को धमकाया था कि, जब तक उत्तरायण सूर्य न आवे इस ओर पैर नहीं धरना। सावित्री ने यमराज से अपने पति के प्राण वापिस लिये व अर्जुन ने पैना तीर चलाकर पाताल गंगा की धार से भीष्म की प्यास बुझाई यह सब उत्कृष्ट प्रतिभा द्वारा ही सम्पन्न हो सका।
प्रतिभा जिधर भी मुड़ती है, उधर ही बुलडोजरों की तरह मैदान साफ करती चलती है। इंग्लैंड में एक महिला कैंसर रोग से पीड़ित थी। डॉक्टरों ने कहा जीवन के छः माह शेष हैं। एक मशीन है, जिससे उपचार हो सकता है, लेकिन वह करोड़ों की हैं, तब महिला ने सोचा जब मरना ही है, तो अपने जैसे निरीह प्राणों को बचाने की कोशिश क्यों न करुं। उसने टेलीविजन पर अपील की कि, कोई उदारचेता तीन करोड़ का प्रबंध कर सके, तो निराशों को जीवनदान मिल सकता है। पैसा बरसा उससे एक नहीं तीन मशीनें खरीदी गई वह स्वयं भी इन कार्यो में इतनी व्यस्त हो गई कि, उसे अपने मरने की बात तक याद न रही। कार्य पूरा होने पर जब उस महिला की जांच की गई, तो डॉक्टर हैरान थे कि, उसके शरीर में कैंसर का कोई चिन्ह मौजूद नहीं था। वस्तुतः प्रतिभा वह सम्पदा है, जो व्यक्ति की मनस्विता औजस्विता व तेजस्विता के रुप में बाहर प्रकट होती है।
प्रतिभा संवर्धन के वैज्ञानिक प्रयोग :

प्रतिभा के विपुल भंडार मनुष्य की अंतः सत्ता में भरे पड़े हैं। उन्हें उभरने, प्रकट होने का अवसर उन दबावों के कारण आने ही नहीं पाता, जो कषाय कल्मषों के रुप में आत्मसत्ता के ऊपर स्वेच्छापूर्वक लाद दिये गये हैं। लकड़ी को पानी में तैरना चाहिये, लेकिन उसके ऊपर भारी बोझ लाद दिया जायेगा, तो उसका स्वभाविक गुण तैरना दब जायेगा। इसी तरह विभूतिवान होते हुये भी निकृष्टतायें प्रतिभा को ऊपर आने नहीं देती।
प्रसुप्त प्रतिभा को जागरण का अवसर तभी मिलेगा, जब अवांछनीय महत्वाकांक्षाओं की हथकड़ीबेड़ी से हाथपैर खुले रहें। धनाठ्य बनने की इच्छा अभावग्रस्तों के बीच स्वयं को ब़ाचढ़ा कर सिद्व करना यदि इस सीमा में ही हमारा अंतराल केन्द्रीभूत होकर रह गया हो, तो हम उन महान कार्यो के प्रति उन्मुख ही नहीं होंगे जो मानवी गरिमा में चार चांद लगा सकें। प्रतिभा कहीं बाहर से नहीं बटोरनी पड़ती, उसे सदा भीतर से ही उभारा जाता है। इसके लिये अवरोधों को हटाना जरुरी है, जो भारी चट्टान की तरह अड़कर उत्कृष्टता के मार्ग में व्यवधान पैदा करते हैं।
इसके लिये लालसाजन्य भौतिक महत्वाकांक्षाओं में कटौती करना ही होगा, वरन आत्मकल्याण व लोक कल्याण की दिशा में हम कुछ खास करने में सफल नहीं हो सकते। अपने निजी बड़प्पन में जिसकी रुचि होगी वह उतना स्वयं को व्यस्त व अभावग्रस्त महसूस करेगा। अतः बड़प्पन इसी में है कि, ॔॔ व्यस्त रहोमस्त रहो, लेकिन अस्तव्यस्त मत रहो ’’ भ्रान्तियों से बचें। जिस तरह विस्तर को धूप में डाल देने के उपरांत खटमल व उनके अंडे सभी मर जाते हैं। इसी तरह दृष्टिकोण को उदार बना लेने पर अपना स्वरुप, लक्ष्य, कर्तव्य तीनो ही दिखाई देने लगते हैं। ज्ञानरुपी प्रकाश के जलते ही उन भूतपलीतों से छुटकारा मिल जाता है, जो अंधेरे में सामान्य होते हुये भी हमें भयभीत करते और त्रास दे रहे थे।
विशाल दृष्टिकोण होने पर विदित होता है कि, वस्तुतः परामार्थ ही परमस्वार्थ है। एक बीज बोया जाता है और हजार गुना होकर लौटता है। यही नीति महामानवों की रहती है। वे समाज के खेत में पुण्यपरमार्थ के बीज बो देते हैं। फिर उस फसल को अपने लिये ही नहीं समाज के लिये भी काटते हैं। यही प्रतिभा का चिन्ह है। प्रतिभा चेहरे की चमक या चतुरता नहीं वरन मनोवल पर आधारित ऊर्जा है, जो आहारबिहार की शुद्वि, सृजनता, सद्भावना, श्रमशीलता व संयम पर आधारित होती है।
" सादा जीवन उच्च विचार " व " वसुधैव कुटुम्बकम " की भावना रखने पर प्रतिभा को उभरने का मौका मिलता है। प्रतिभा संवर्धन हेतु कुछ विशिष्ट प्रयोग भी किये जा सकते है।
स्वसंकेत (ऑटोसजेशन) :- शांत वातावरण में स्थिर शरीर व शांत मन से बैठा जाये फिर भावना की जाये कि, अपने मस्तिष्क से प्राण ऊर्जा बहकर शरीर के हर अंग को परिपुष्ट बना रही है। शरीर की शिथिलता सक्रियता में बदल रही है व चेहरा कांतिवान हो रहा है। बौद्विक स्तर उन्नत हो रहा है। क्योंकि शास्त्रों में मान्यता है कि, " जो जैसा सोचता है, वह वैसा ही बन जाता है। "
मनोवैज्ञानिक इसी आधार पर व्यक्तित्व परिवर्तन की बात कहते हैं। उनका मत है कि, जैसे पृथ्वी के चारों ओर आयनोस्फीयर है, उसी प्रकार मानवी मस्तिष्क के चारों ओर भी एक आयनोस्फीयर होता है और वैसा ही होता है, जैसा मनुष्य का चिंतन क्रम चलता है और यह क्षण भर में बदल भी सकता है।
इस प्रकार से स्वसंकेतों के माध्यम से अपने आभा मंडल को एक शक्तिशाली चुम्बकत्व में परिणित किया जाता है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि, " थिंक एंड ग्रो रिच, अथवा एडाप्ट पॉजिटिव प्रिंसिपल टुडे ", अर्थात सोचिये, विधेयात्मक सोचिये अभी इसी क्षण सोचिये, ताकि आप स्वयं को श्रेष्ठ बना सकें। गांधी जी हरिशचन्द्र के नाटक को देखकर ही स्वसंकेतो के माध्यम से महान बन सके थे।
इसी तरह दर्पण साधना से हम आत्मावलोकन करते हैं व बुराईयों को हटाते हुये श्रेष्ठता की ओर ब़ते हैं। प्रतिभा संवर्धन में प्राणाकर्षक प्राणायाम भी महती भूमिका निभाता है। इसकी विधि यह है कि, कमर सीधी करके सरल आसन में बैठ जायें। दोनो हाथ गोदी में रखें व ध्यान करें कि, बादलों जैसा शक्ल का प्राण का उफान हमारे चारों ओर उमड़ रहा है। हम शांत बैठे हुये हैं, फिर नासिका के दोनो छिद्रों से सांस खीचीं जाये और भावना की जाये कि, प्रखर प्राण सांस के माध्यम से शरीर में प्रविष्ट हो उसे प्रखर बना रहे हैं। फिर कुछ देर सांस रोकी जाये, फिर छोड़ दी जाये। सांस बाहर निकालते समय धारणा करें कि, अवांछनीय व दुर्बल तत्व सांस के साथ बाहर जा रहे हैं, जो लौटने वाले नहीं हैं।
इसके अतिरिक्त प्राणवानों को सानिध्य, श्रेष्ठ किताबों का अध्ययन, उत्कृष्ट चिंतन, प्रायश्चित, नादयोग जैंसी क्रियाएं भी प्रतिभा विकसित करने में जादू का काम करती हैं।

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