Saturday, 21 February 2015

16 संस्कारों में लाइफ मैनेजमेंट के सूत्र

हिंदू धर्म में किए जाने वाले 16
संस्कार केवल कर्मकांड या रस्में
नहीं हैं। इनमें जीवन प्रबंधन के कई
सूत्र छुपे हैं। आज के भागदौड़ भरे
जीवन में ये सूत्र हमें जीवन के
भौतिक और आध्यात्मिक दोनों विकास
को आगे बढ़ाते हैं। हमें इन
संस्कारों में खुद के वैवाहिक,
विद्यार्थी और व्यवसायिक जीवन के
सूत्र तो मिलते ही हैं साथ ही अपनी
संतान को कैसे संस्कारवान बनाएं
इसके तरीके भी मिलते हैं।

पुंसवन संस्कार : इस संस्कार के
अंतर्गत भावी माता-पिता को यह
समझाया जाता है कि शारीरिक, मानसिक
एवं आर्थिक दृष्टि से परिपक्व यानि
पूर्ण समर्थ हो जाने के बाद, समाज को
श्रेष्ठ, तेजस्वी नई पीढ़ी देने के
संकल्प के साथ ही संतान उत्पन्न
करें।
नामकरण संस्कार: बालक का नाम सिर्फ
उसकी पहचान के लिए ही नहीं रखा
जाता। मनोविज्ञान एवं
अक्षर-विज्ञान के जानकारों का मत है
कि नाम का प्रभाव व्यक्ति के
स्थूल-सूक्ष्म व्यक्तित्व पर
गहराई से पड़ता रहता है। इन्हीं
बातों को ध्यान में रखकर नामकरण
संस्कार किया जाता है।
चूड़ाकर्म संस्कार: (मुण्डन, शिखा
स्थापना) सामान्य अर्थ में, माता के
गर्भ से सिर पर आए वालों को हटाकर
खोपड़ी की सफाई करना आवश्यक होता
है। किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से
नवजात शिशु के व्यवस्थित बौद्धिक
विकास, कुविचारों के परिस्कार के
लिये भी यह संस्कार बहुत आवश्यक
है।
अन्नप्राशसन संस्कार: जब शिशु के
दांत उगने लगें, तो मानना चाहिए कि
प्रकृति ने उसे ठोस आहार, अन्नाहार
करने की स्वीकृति प्रदान कर दी है।
स्थूल (अन्नमयकोष) के विकास के लिए
तो अन्न के विज्ञान सम्मत उपयोग को
ध्यान में रखकर शिशु के भोजन का
निर्धारण किया जाता है। इन्हीं
तमाम बातों को ध्यान में रखकर यह
महत्वपूर्ण संस्कार संपन्न किया
जाता है।
विद्यारंभ संस्कार: जब बालक/ बालिका
की उम्र शिक्षा ग्रहण करने लायक हो
जाय, तब उसका विद्यारंभ संस्कार
कराया जाता है । इसमें समारोह के
माध्यम से जहां एक ओर बालक में
अध्ययन का उत्साह पैदा किया जाता
है, वहीं ज्ञान के मार्ग का साधक
बनाकर अंत में आत्मज्ञान की और
प्रेरित किया जाता है।
यज्ञोपवीत संस्कार : जब बालक/
बालिका का शारीरिक-मानसिक विकास इस
योग्य हो जाए कि वह अपने विकास के
लिए आत्मनिर्भर होकर संकल्प एवं
प्रयास करने लगे, तब उसे श्रेष्ठ
आध्यात्मिक एवं सामाजिक अनुशासनों
का पालन करने की जिम्मेदारी सोंपी
जाती है।
विवाह संस्कार : सफल गृहस्थ की,
परिवार निर्माण की जिम्मेदारी
उठाने के योग्य शारीरिक, मानसिक एवं
आर्थिक सामथ्र्य आ जाने पर
युवक-युवतियों का विवाह संस्कार
कराया जाता है। यह संस्कार जीवन का
बहुत महत्वपूर्ण संस्कार है जो एक
श्रेष्ठ समाज के निर्माण में अहम
भूमिका निभाता है।
वानप्रस्थ संस्कार : गृहस्थ की
जिम्मेदारियां यथा शीघ्र संपन्न
करके, उत्तराधिकारियों को अपने
कार्य सौंपकर अपने व्यक्तित्व को
धीरे-धीरे सामाजिक, उत्तरदायित्व,
पारमार्थिक कार्यों में पूरी तरह
लगा देना ही इस संस्कार का उद्देश्य
है।
अन्येष्टि संस्कार : मृत्यु जीवन का
एक अटल सत्य है । इसे जरा-जीर्ण को
नवीन-स्फूर्तिवान जीवन में
रूपान्तरित करने वाला महान देवता
भी कह सकते हैं ।
मरणोत्तर (श्राद्ध संस्कार):
मरणोत्तर (श्राद्ध संस्कार) जीवन का
एक अबाध प्रवाह है । शरीर की
समाप्ति के बाद भी जीवन की यात्रा
रुकती नहीं है । आगे का क्रम भी
अच्छी तरह सही दिशा में चलता रहे, इस
हेतु मरणोत्तर संस्कार किया जाता
है।
जन्म दिवस संस्कार : मनुष्य को
अन्यान्य प्राणियों में
सर्वश्रेष्ठ माना गया है । जन्मदिन
वह पावन पर्व है, जिस दिन ईश्वर ने
हमें श्रेष्ठतम मनुष्य जीवन में
भेजा। श्रेष्ठ जीवन प्रदान करने के
लिये ईश्वर का धन्यवाद एवं जीवन का
सदुपयोग करने का संकल्प ही इस
संस्कार का मूल उद्देश्य है।
विवाह दिवस संस्कार : जैसे जीवन का
प्रांरभ जन्म से होता है, वैसे ही
परिवार का प्रारंभ विवाह से होता
है। श्रेष्ठ परिवार और उस माध्यम से
श्रेष्ठ समाज बनाने का शुभ प्रयोग
विवाह संस्कार से प्रारंभ होता है।

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