कहां पहुंचा राम जन्म-भूमि मुक्ति आंदोलन?
अयोध्या। यह नगर पावनपुरी के रूप में विख्यात और भारतीय संस्कृति का इतिहास है। इसकी गौरवगाथा अत्यन्त प्राचीन है। माना जाता है कि वैवस्वत मनु ने इस नगरी की स्थापना की और उसका नाम अयोध्या रखा। सभी जानते हैं कि सूर्यवंश के महाप्रतापी राजाओं की इस राजधानी में महाराजा सगर, राजा भगीरथ, राजा हरिश्चन्द्र हुए हैं। जैन धर्म के पांच तीर्थंकर अयोध्या में जन्में। अयोध्या का दन्तधावन कुण्ड गौतम बुद्ध की तपस्या स्थली के रूप में जाना जाता है। सिख मत के प्रवर्तक गुरू नानक देवजी महाराज, नवें गुरू तेगबहादुरजी महाराज और दशम गुरू गोविन्द सिंहजी महाराज अयोध्या में पधारे। सुना जाता हैकि महर्षि दयानन्द भी अयोध्या आए और उन्होंने यहां महाभारत युद्ध का नेतृत्व करने वाले योगीराज श्रीकृष्ण की मूर्ति की स्थापना की। अनादिकाल से यह नगरी मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के जन्म स्थान के कारण पावन सप्तपुरियों में एक पुरी के रूप में विख्यात है। यह नगर रामानन्द सम्प्रदाय का प्रमुख केन्द्र है।
खेद है कि इस्लामिक जेहाद का शिकार जहां भारी संख्या में ऐतिहासिक मन्दिर हुए वहीं अयोध्या नगरी भी प्रमुख रूप से हुई। कहना न होगा कि यह भी एक ऐतिहासिक सत्य है कि इस्लाम के जन्म के पश्चात इसका विस्तार बौद्धिक आधार पर न होकर युद्ध में विजय के माध्यम से हुआ। इस्लाम के अनुयायी योद्धा अपने स्थान से चले, एक के बाद दूसरे क्षेत्रों को विजित करते रहे और उन्हें इस्लाम के अन्तर्गत लाते रहे और यह भी कि भारत में भी इस्लाम का प्रवेश आक्रमणकारी के रूप में हुआ। इस्लाम के अनुयायी सभी आक्रमणकारियों ने हिन्दुस्तान में हिन्दू सेनाओं को हराया, सम्पत्ति की लूटपाट की, कत्लेआम किया, साथ ही साथ समाज को मानसिक आघात पहुंचाने के लिए उसी के सामने उन्होंने देव-स्थानों को अपना निशाना बनाया, उन्हें क्रूरता से तोड़ा। देवी-देवताओं की मूर्तियों को खण्डित किया। कुछ स्थान पूरी तरह समाप्त ही कर दिए गए। हजारों स्थानों पर मस्जिदें बना दी गई, जिनका इतिहास खोजना भी अब कठिन हो गया है। लेकिन हिन्दू समाज, अयोध्या, मथुरा, काशी और सोमनाथ मन्दिरों को तोड़ दिए जाने के बावजूद इनके इतिहास और इन मन्दिरों की गौरवगाथा को अपने दिल और दिमाग से कभी हटा नहीं सका। अयोध्या में राम जन्मभूमि मन्दिर, त्रेता का ठाकुर मन्दिर और स्वर्गद्वार मन्दिर भी मुस्लिम शासकों ने तोड़े थे। बाद के दोनों मन्दिरों को तो अयोध्या का हिन्दू समाज और रामानन्द सम्प्रदाय शायद भूल गया परन्तु श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर तोड़े जाने को वह कभी पचा नहीं पाया।
अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर बना हुआ मन्दिर 1528 ईस्वीं में आक्रमणकारी बाबर के आदेश पर उसके सेनापति मीरबांकी ने तोड़ा था। इस मन्दिर को प्राप्त करने के लिए हिन्दू समाज सदैव संघर्ष करता रहा और इसके लिए अपना जीवन देता रहा। मंदिर तोड़े जाते समय भाटी नरेश महताब सिंह, हंसवर नरेश रणविजय सिंह, हंसवर के राजगुरू पंडित देवीदीन पाण्डेय ने पंद्रह दिन तक संघर्ष और घमासान युद्ध किया। बाबर के काल में इस स्थान को वापस प्राप्त करने के लिए चार युद्ध हुए। हुमायुं के शासनकाल में रानी जयराज कुंवारी एवं स्वामी महेश्वरानन्द के नेतृत्व में युद्ध हुए इनमें दस युद्धों का वर्णन मिलता है। औरंगजेब के काल में तीस युद्ध हुये। बाबा वैष्णवदास, गोपाल सिंह, ठाकुर जगदम्बा सिंह आदि ने डटकर लोहा लिया। अकबर के काल में बीस बार युद्ध हुये। अंततः अकबर ने श्रीराम जन्मभूमि परिसर के अन्दर तीन गुम्बदों वाले तथाकथित मस्जिद के ढांचे के सामने एक चबूतरा बनवाकर उस पर श्रीराम का मन्दिर बनवाकर बेरोकटोक पूजा करने की अनुमति दे दी। यही वो स्थान है जो श्रीराम चबूतरे के नाम से विख्यात हुआ। इस स्थान पर श्रीराम की पूजा सदैव चलती रही। छह दिसम्बर 1992 के बाद ही इस स्थान का अस्तित्व समाप्त हुआ।
अवध के नवाब सआदत अली के काल में हिन्दुओं ने इस स्थान को पाने के लिए लड़ाई के जरिए पांच बार प्रयास किये। नवाब ने भी परेशान होकर अंततः हिन्दुओं को पूजा की अनुमति दे दी। नवाब वाजिद अली शाह के काल में हिन्दुओं ने चार बार लड़ाई लड़ी। बाबा उद्धवदास और भाटी नरेश ने ये युद्ध लड़े। छियत्तर लड़ाइयों का वर्णन अयोध्या की गलियों में सुनने को मिलता है। निश्चित ही इन लड़ाइयों में लाखों हिंदुओं ने अपनी जान दी होगी और लाखों विधर्मियों की जान ली भी होगी। हिन्दू समाज इस स्थान को प्राप्त तो नहीं कर सका परन्तु उसने मुसलमानों को भी चैन से नहीं बैठने दिया। अवध पर अंग्रेजों का अधिकार हो जाने के पश्चात अंग्रेजों ने तीन गुम्बदों वाले ढांचे और राम चबूतरा के बीच एक दीवार खड़ी करा दी। इस कारण हिन्दुओं की पूजा अर्चना के लिए केवल बाहर तक रहना लाचारी हो गई। परन्तु पूजा अर्चना बन्द नही हुई। हिन्दू मुसलमानों के बीच कटुता बढ़ गई। दंगे होने लगे। बहादुर शाह जफर को अंग्रेजों के विरुद्ध जब प्रजा ने नेतृत्व सौंप दिया तो उस समय मुस्लिम नेता अमीर अली ने यह स्थल हिन्दुओं को वापस सौंप देने का निर्णय कर लिया। संयोगवश 1857 ईस्वीं में अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष असफल हो गया। समय का लाभ उठाकर अंग्रेजों ने अमीर अली और बाबा रामचरण दास को एक इमली के पेड़ से लटका कर सार्वजनिक रूप से फांसी दे दी और यह स्थान हिन्दुओं को प्राप्त न हो सका।
सन् 1885 ईस्वीं में महंत रघुवरदास ने फैजाबाद की अदालत में एक दीवानी मुकदमा दायर किया जिसमें राम चबूतरे के ऊपर बने कच्चे झोपड़े को पक्का बनाने की अनुमति मांगी,ये मुकदमा खारिज हो गया। ब्रिटिश न्यायाधीश कर्नल चैमियर की अदालत में अपील की गई। कर्नल चैमियर ने स्थान का स्वयं निरीक्षण किया और 1886 ईस्वीं में अपने निर्णय में लिखा कि 'यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मस्जिद का निर्माण हिन्दुओं के एक पवित्र स्थल पर बने भवन को तोड़कर किया गया है, चूंकि यह घटना 356 वर्ष पुरानी है इसलिए इसमें कुछ करना उचित नही होगा।' वर्ष 1934 में अयोध्या में मुसलमानों के एक गाय काट दिए जाने के कारण हिन्दू समाज आक्रोशित हो गया, अनेक गाय हत्यारे मार दिए गए। इतना ही नहीं, उत्तेजित हिन्दू समाज तथाकथित बाबरी मस्जिद पर भी चढ़ बैठा, और उसके तीनों गुम्बदों को अपार क्षति पहुंचाई। इस स्थान पर हिन्दू पूरी तरह कब्जा तो नहीं कर पाए परन्तु इतना अवश्य हुआ कि इस घटना के बाद श्रीराम जन्मभूमि परिसर में प्रवेश करने की हिम्मत मुस्लिम समाज कभी जुटा नहीं सका। तोड़े गए तीनों गुम्बदों की मरम्मत अंग्रेज सरकार ने कराई और इसमें हुआ खर्च अयोध्या के हिन्दू समाज से टैक्स के रूप में वसूला गया। सन् 1934 से यह स्थान पूरी तरह से हिन्दू समाज के कब्जे में है। बाहर राम चबूतरे पर हिन्दू समाज मूर्तियों की पूजा करता था और गुम्बदों के भीतर उस पवित्र भूमि पर पुष्प चढ़ाता और मस्तक नवाता था।
स्वातंत्र्य प्राप्ति के पश्चात अयोध्या मे हनुमान गढ़ी के नागा बाबा अभिराम दास और परमहंस रामचन्द्र दास के नेतृत्व में अयोध्या के समाज में संघर्ष को पुन: प्रारम्भ हो गया। कहते हैं कि तेईस दिसम्बर 1949 को ब्रह्ममुहूर्त में ढांचे के मध्य गुम्बद के नीचे तेज प्रकाश के साथ भगवान रामलला प्रकट हुए। आनन-फानन में हजारों लोग जन्मभूमि पर एकत्र हो गए। भजन-पूजन प्रारम्भ हो गया। साधु सन्तों ने अखण्ड कीर्तन प्रारम्भ कर दिया जो छह दिसम्बर 1992 को ढांचा गिरने तक अनवरत जारी रहा। वर्ष 1949 में पंडित गोविन्द वल्लभ पन्त उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, केके नैय्यर फैजाबाद के जिलाधिकारी और ठाकुर गुरूदत्त सिंह अवैतनिक सिटी मजिस्ट्रेट थे। उनतीस दिसम्बर 1949 को सिटी मजिस्ट्रेट ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 145 के अन्तर्गत ढांचे के भीतरी परिसर को कुर्क करके अयोध्या नगर पालिका के अध्यक्ष बाबू प्रियदत्त राम को उसके अन्दर चल रही पूजा अर्चना के संचालन के लिए रिसीवर नियुक्त कर दिया और उनका कर्तव्य निर्धारित किया गया कि वे ढांचे के मध्य गुम्बद के नीचे विराजित रामलला के विग्रहों की पूजा व भोग की व्यवस्था करेंगे। मुख्य बड़े द्वार को सींखचों से बन्द करके ताला डाल दिया गया। कुछ दिनों बाद कुर्की का आदेश भी वापस ले लिया गया परन्तु मुख्य द्वार पर ताला फिर भी लगा रहा। बगल में लगे छोटे द्वार से भगवान की पूजा अर्चना भोग के लिए पुजारी आते-जाते थे। जनता सींखचों के बाहर से रामलला के दर्शन करती थी। एक फरवरी 1986 को जिला न्यायाधीश फैजाबाद के आदेश से ताला खुल जाने तक सींखचों के बाहर से भगवान के दर्शन, पूजन का यह क्रम निर्बाध चलता रहा।
आन्दोलन की शुरूआत
उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद शहर से अनेक बार विधायक चुने गए और चन्द्रभानु गुप्त के मुख्यमंत्रित्व काल में स्वास्थ्य मंत्री रहे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दाऊदयाल खन्ना के मस्तिष्क में श्रीराम जन्मभूमि-अयोध्या, श्रीकृष्ण जन्मभूमि-मथुरा और काशी विश्वनाथ मन्दिर को मुक्त कराने का विचार कौंधा। उन्होंने इन मन्दिरों की मुक्ति को सर्वप्रथम काशीपुर (नैनीताल) में हिन्दू सम्मेलन में अपने भाषण का विषय बनाया। तत्पश्चात अप्रैल 1983 में मुजफ्फरनगर (उप्र) में हुए हिन्दू सम्मेलन में इन तीनों मन्दिरों की मुक्ति का प्रस्ताव स्वयं प्रस्तुत किया। इन सम्मेलनों का अयोजन हिन्दू जागरण मंच की ओर से किया गया था। दाऊदयाल खन्ना ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी को पत्र लिखकर तीनों धर्मस्थलों के सम्बन्ध में शीघ्र समाधान खोजने का निवेदन भी किया। अप्रैल 1984 में दिल्ली में विज्ञान भवन में विश्व हिन्दू परिषद की ओर से धर्म संसद का प्रथम आयोजन किया गया था। धर्म संसद में 575 धर्माचार्य उपस्थित थे। दाऊदयाल खन्ना ने तीनों धर्म स्थानों की मुक्ति का प्रस्ताव पुन: रखा जो एक मत से स्वीकार हुआ। श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति की स्थापना हुई, गोरक्ष पीठाधीश्वर महंत अवेद्यनाथ इस समिति के अध्यक्ष, दाऊदयाल खन्ना महामंत्री और ओंकारजी भावे, महेश नारायण सिंह, दिनेश त्यागी (हिन्दू महासभा के पदाधिकारी) मंत्री घोषित किए गए। श्रीराम जन्मभूमि पर लगे ताले को खुलवाने के लिए जन-जागरण करने का निर्णय हुआ।
खेद है कि इस्लामिक जेहाद का शिकार जहां भारी संख्या में ऐतिहासिक मन्दिर हुए वहीं अयोध्या नगरी भी प्रमुख रूप से हुई। कहना न होगा कि यह भी एक ऐतिहासिक सत्य है कि इस्लाम के जन्म के पश्चात इसका विस्तार बौद्धिक आधार पर न होकर युद्ध में विजय के माध्यम से हुआ। इस्लाम के अनुयायी योद्धा अपने स्थान से चले, एक के बाद दूसरे क्षेत्रों को विजित करते रहे और उन्हें इस्लाम के अन्तर्गत लाते रहे और यह भी कि भारत में भी इस्लाम का प्रवेश आक्रमणकारी के रूप में हुआ। इस्लाम के अनुयायी सभी आक्रमणकारियों ने हिन्दुस्तान में हिन्दू सेनाओं को हराया, सम्पत्ति की लूटपाट की, कत्लेआम किया, साथ ही साथ समाज को मानसिक आघात पहुंचाने के लिए उसी के सामने उन्होंने देव-स्थानों को अपना निशाना बनाया, उन्हें क्रूरता से तोड़ा। देवी-देवताओं की मूर्तियों को खण्डित किया। कुछ स्थान पूरी तरह समाप्त ही कर दिए गए। हजारों स्थानों पर मस्जिदें बना दी गई, जिनका इतिहास खोजना भी अब कठिन हो गया है। लेकिन हिन्दू समाज, अयोध्या, मथुरा, काशी और सोमनाथ मन्दिरों को तोड़ दिए जाने के बावजूद इनके इतिहास और इन मन्दिरों की गौरवगाथा को अपने दिल और दिमाग से कभी हटा नहीं सका। अयोध्या में राम जन्मभूमि मन्दिर, त्रेता का ठाकुर मन्दिर और स्वर्गद्वार मन्दिर भी मुस्लिम शासकों ने तोड़े थे। बाद के दोनों मन्दिरों को तो अयोध्या का हिन्दू समाज और रामानन्द सम्प्रदाय शायद भूल गया परन्तु श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर तोड़े जाने को वह कभी पचा नहीं पाया।
अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर बना हुआ मन्दिर 1528 ईस्वीं में आक्रमणकारी बाबर के आदेश पर उसके सेनापति मीरबांकी ने तोड़ा था। इस मन्दिर को प्राप्त करने के लिए हिन्दू समाज सदैव संघर्ष करता रहा और इसके लिए अपना जीवन देता रहा। मंदिर तोड़े जाते समय भाटी नरेश महताब सिंह, हंसवर नरेश रणविजय सिंह, हंसवर के राजगुरू पंडित देवीदीन पाण्डेय ने पंद्रह दिन तक संघर्ष और घमासान युद्ध किया। बाबर के काल में इस स्थान को वापस प्राप्त करने के लिए चार युद्ध हुए। हुमायुं के शासनकाल में रानी जयराज कुंवारी एवं स्वामी महेश्वरानन्द के नेतृत्व में युद्ध हुए इनमें दस युद्धों का वर्णन मिलता है। औरंगजेब के काल में तीस युद्ध हुये। बाबा वैष्णवदास, गोपाल सिंह, ठाकुर जगदम्बा सिंह आदि ने डटकर लोहा लिया। अकबर के काल में बीस बार युद्ध हुये। अंततः अकबर ने श्रीराम जन्मभूमि परिसर के अन्दर तीन गुम्बदों वाले तथाकथित मस्जिद के ढांचे के सामने एक चबूतरा बनवाकर उस पर श्रीराम का मन्दिर बनवाकर बेरोकटोक पूजा करने की अनुमति दे दी। यही वो स्थान है जो श्रीराम चबूतरे के नाम से विख्यात हुआ। इस स्थान पर श्रीराम की पूजा सदैव चलती रही। छह दिसम्बर 1992 के बाद ही इस स्थान का अस्तित्व समाप्त हुआ।
अवध के नवाब सआदत अली के काल में हिन्दुओं ने इस स्थान को पाने के लिए लड़ाई के जरिए पांच बार प्रयास किये। नवाब ने भी परेशान होकर अंततः हिन्दुओं को पूजा की अनुमति दे दी। नवाब वाजिद अली शाह के काल में हिन्दुओं ने चार बार लड़ाई लड़ी। बाबा उद्धवदास और भाटी नरेश ने ये युद्ध लड़े। छियत्तर लड़ाइयों का वर्णन अयोध्या की गलियों में सुनने को मिलता है। निश्चित ही इन लड़ाइयों में लाखों हिंदुओं ने अपनी जान दी होगी और लाखों विधर्मियों की जान ली भी होगी। हिन्दू समाज इस स्थान को प्राप्त तो नहीं कर सका परन्तु उसने मुसलमानों को भी चैन से नहीं बैठने दिया। अवध पर अंग्रेजों का अधिकार हो जाने के पश्चात अंग्रेजों ने तीन गुम्बदों वाले ढांचे और राम चबूतरा के बीच एक दीवार खड़ी करा दी। इस कारण हिन्दुओं की पूजा अर्चना के लिए केवल बाहर तक रहना लाचारी हो गई। परन्तु पूजा अर्चना बन्द नही हुई। हिन्दू मुसलमानों के बीच कटुता बढ़ गई। दंगे होने लगे। बहादुर शाह जफर को अंग्रेजों के विरुद्ध जब प्रजा ने नेतृत्व सौंप दिया तो उस समय मुस्लिम नेता अमीर अली ने यह स्थल हिन्दुओं को वापस सौंप देने का निर्णय कर लिया। संयोगवश 1857 ईस्वीं में अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष असफल हो गया। समय का लाभ उठाकर अंग्रेजों ने अमीर अली और बाबा रामचरण दास को एक इमली के पेड़ से लटका कर सार्वजनिक रूप से फांसी दे दी और यह स्थान हिन्दुओं को प्राप्त न हो सका।
सन् 1885 ईस्वीं में महंत रघुवरदास ने फैजाबाद की अदालत में एक दीवानी मुकदमा दायर किया जिसमें राम चबूतरे के ऊपर बने कच्चे झोपड़े को पक्का बनाने की अनुमति मांगी,ये मुकदमा खारिज हो गया। ब्रिटिश न्यायाधीश कर्नल चैमियर की अदालत में अपील की गई। कर्नल चैमियर ने स्थान का स्वयं निरीक्षण किया और 1886 ईस्वीं में अपने निर्णय में लिखा कि 'यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मस्जिद का निर्माण हिन्दुओं के एक पवित्र स्थल पर बने भवन को तोड़कर किया गया है, चूंकि यह घटना 356 वर्ष पुरानी है इसलिए इसमें कुछ करना उचित नही होगा।' वर्ष 1934 में अयोध्या में मुसलमानों के एक गाय काट दिए जाने के कारण हिन्दू समाज आक्रोशित हो गया, अनेक गाय हत्यारे मार दिए गए। इतना ही नहीं, उत्तेजित हिन्दू समाज तथाकथित बाबरी मस्जिद पर भी चढ़ बैठा, और उसके तीनों गुम्बदों को अपार क्षति पहुंचाई। इस स्थान पर हिन्दू पूरी तरह कब्जा तो नहीं कर पाए परन्तु इतना अवश्य हुआ कि इस घटना के बाद श्रीराम जन्मभूमि परिसर में प्रवेश करने की हिम्मत मुस्लिम समाज कभी जुटा नहीं सका। तोड़े गए तीनों गुम्बदों की मरम्मत अंग्रेज सरकार ने कराई और इसमें हुआ खर्च अयोध्या के हिन्दू समाज से टैक्स के रूप में वसूला गया। सन् 1934 से यह स्थान पूरी तरह से हिन्दू समाज के कब्जे में है। बाहर राम चबूतरे पर हिन्दू समाज मूर्तियों की पूजा करता था और गुम्बदों के भीतर उस पवित्र भूमि पर पुष्प चढ़ाता और मस्तक नवाता था।
स्वातंत्र्य प्राप्ति के पश्चात अयोध्या मे हनुमान गढ़ी के नागा बाबा अभिराम दास और परमहंस रामचन्द्र दास के नेतृत्व में अयोध्या के समाज में संघर्ष को पुन: प्रारम्भ हो गया। कहते हैं कि तेईस दिसम्बर 1949 को ब्रह्ममुहूर्त में ढांचे के मध्य गुम्बद के नीचे तेज प्रकाश के साथ भगवान रामलला प्रकट हुए। आनन-फानन में हजारों लोग जन्मभूमि पर एकत्र हो गए। भजन-पूजन प्रारम्भ हो गया। साधु सन्तों ने अखण्ड कीर्तन प्रारम्भ कर दिया जो छह दिसम्बर 1992 को ढांचा गिरने तक अनवरत जारी रहा। वर्ष 1949 में पंडित गोविन्द वल्लभ पन्त उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, केके नैय्यर फैजाबाद के जिलाधिकारी और ठाकुर गुरूदत्त सिंह अवैतनिक सिटी मजिस्ट्रेट थे। उनतीस दिसम्बर 1949 को सिटी मजिस्ट्रेट ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 145 के अन्तर्गत ढांचे के भीतरी परिसर को कुर्क करके अयोध्या नगर पालिका के अध्यक्ष बाबू प्रियदत्त राम को उसके अन्दर चल रही पूजा अर्चना के संचालन के लिए रिसीवर नियुक्त कर दिया और उनका कर्तव्य निर्धारित किया गया कि वे ढांचे के मध्य गुम्बद के नीचे विराजित रामलला के विग्रहों की पूजा व भोग की व्यवस्था करेंगे। मुख्य बड़े द्वार को सींखचों से बन्द करके ताला डाल दिया गया। कुछ दिनों बाद कुर्की का आदेश भी वापस ले लिया गया परन्तु मुख्य द्वार पर ताला फिर भी लगा रहा। बगल में लगे छोटे द्वार से भगवान की पूजा अर्चना भोग के लिए पुजारी आते-जाते थे। जनता सींखचों के बाहर से रामलला के दर्शन करती थी। एक फरवरी 1986 को जिला न्यायाधीश फैजाबाद के आदेश से ताला खुल जाने तक सींखचों के बाहर से भगवान के दर्शन, पूजन का यह क्रम निर्बाध चलता रहा।
आन्दोलन की शुरूआत
उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद शहर से अनेक बार विधायक चुने गए और चन्द्रभानु गुप्त के मुख्यमंत्रित्व काल में स्वास्थ्य मंत्री रहे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दाऊदयाल खन्ना के मस्तिष्क में श्रीराम जन्मभूमि-अयोध्या, श्रीकृष्ण जन्मभूमि-मथुरा और काशी विश्वनाथ मन्दिर को मुक्त कराने का विचार कौंधा। उन्होंने इन मन्दिरों की मुक्ति को सर्वप्रथम काशीपुर (नैनीताल) में हिन्दू सम्मेलन में अपने भाषण का विषय बनाया। तत्पश्चात अप्रैल 1983 में मुजफ्फरनगर (उप्र) में हुए हिन्दू सम्मेलन में इन तीनों मन्दिरों की मुक्ति का प्रस्ताव स्वयं प्रस्तुत किया। इन सम्मेलनों का अयोजन हिन्दू जागरण मंच की ओर से किया गया था। दाऊदयाल खन्ना ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी को पत्र लिखकर तीनों धर्मस्थलों के सम्बन्ध में शीघ्र समाधान खोजने का निवेदन भी किया। अप्रैल 1984 में दिल्ली में विज्ञान भवन में विश्व हिन्दू परिषद की ओर से धर्म संसद का प्रथम आयोजन किया गया था। धर्म संसद में 575 धर्माचार्य उपस्थित थे। दाऊदयाल खन्ना ने तीनों धर्म स्थानों की मुक्ति का प्रस्ताव पुन: रखा जो एक मत से स्वीकार हुआ। श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति की स्थापना हुई, गोरक्ष पीठाधीश्वर महंत अवेद्यनाथ इस समिति के अध्यक्ष, दाऊदयाल खन्ना महामंत्री और ओंकारजी भावे, महेश नारायण सिंह, दिनेश त्यागी (हिन्दू महासभा के पदाधिकारी) मंत्री घोषित किए गए। श्रीराम जन्मभूमि पर लगे ताले को खुलवाने के लिए जन-जागरण करने का निर्णय हुआ।
ताला खुला
सीतामढ़ी (बिहार) से 25 सितम्बर 1984 को प्रारम्भ हुई श्रीराम जानकी रथयात्रा सड़क मार्ग से ग्रामों, कस्बों में जन-जागरण करती हुई छह अक्टूबर को अयोध्या पहुंची। सात अक्टूबर को अयोध्या में सरयू तट पर सन्तों और भक्तों ने सरयू जल हाथ में लेकर जन्मभूमि की मुक्ति का संकल्प लिया। 'जन्मभूमि का ताला खोलो' का उद्घोष करते हुए श्रीराम जानकी रथ ने लखनऊ की ओर कूच किया। लखनऊ में धर्म सभा के पश्चात रथ दिल्ली की ओर चला। दुर्भाग्य से तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी की निर्मम हत्या कर दिए जाने के कारण रथयात्रा के सभी कार्यक्रम स्थगित कर दिए गए। विजय दशमी 1985 से छह श्रीराम जानकी रथ यात्राएं केवल उत्तर प्रदेश में पुन: प्रारम्भ हुई। अक्टूबर 1985 में उडुप्पी (कर्नाटक) में धर्म संसद का द्वितीय अधिवेशन हुआ, 850 सन्तों ने भाग लिया। महाशिवरात्रि 1986 तक ताला न खोले जाने पर सत्याग्रह करने का प्रस्ताव पारित हुआ। महंत परमहंस रामचन्द्र दास महाराज ने ताला न खोलने पर आत्मदाह की घोषणा की। रथों ने उत्तर प्रदेश का मंथन कर डाला, अद्भुत जन-जागरण हुआ। एक अधिवक्ता उमेश चन्द्र पाण्डेय के प्रार्थना पत्र पर फैजाबाद के तत्कालीन जिला न्यायाधीश केएम पाण्डेय ने सभी तथ्यों का संज्ञान लेते हुए एक फरवरी 1986 को श्रीराम जन्मभूमि पर लगा ताला खोलने का आदेश दे दिया। उसी दिन सायंकाल ताला तोड़ दिया गया। भक्तगण ढांचे के मध्य गुम्बद के नीचे स्थित रामलला के दर्शन करने के लिए प्रवेश करने लगे। मुस्लिम पक्ष ने निर्णय के विरुद्ध अपील की। ताला खोले जाने के आदेश के विरुद्ध मुसलमानों की सभी अपीलें उच्च न्यायालय ने अक्टूबर 1989 में निरस्त कर दीं।
मन्दिर निर्माण की प्रक्रिया प्रारम्भ
तत्पश्चात् श्रीराम जन्मभूमि पर खड़े तीन गुम्बदों वाले पुराने जर्जर ढांचे के स्थान पर भव्य मन्दिर बनाने का चिन्तन प्रारम्भ हुआ। कर्णावती (अहमदाबाद) निवासी, मन्दिर वास्तुविद् (Temple Architect) चन्द्रकान्त भाई सोमपुरा की खोज हुई। मन्दिर के अनेक प्रारूप बने, एक प्रारूप स्वीकार हुआ। मन्दिर का प्रारूप 270 फीट लम्बा, 135 फीट चौड़ा और 125 फीट ऊंचे शिखर वाला मंजूर हुआ। मन्दिर दो मंजिला है, पहली मंजिल पर रामलला और दूसरी मंजिल पर राम दरबार गर्भगृह में रहेंगे। राजस्थान के भरतपुर जनपद के बंसी पहाड़पुर क्षेत्र का हल्के गुलाबी रंग का बलुआ पत्थर मन्दिर निर्माण के लिए चयन किया गया। अयोध्या में प्रस्तावित भव्य मंदिर निर्माण में लोहे का प्रयोग नहीं होगा। प्रत्येक मंजिल में 106 खम्भे हैं। प्रथम तल के खम्भों की ऊचाई 16.5 फीट है और दूसरी मंजिल के खम्भों की ऊचाई 14.5 फीट है। प्रत्येक मंजिल में 185 बीम लगेंगे, यह भी पत्थर के ही होंगे। बीम की अधिकतम लम्बाई 16 फीट है। मन्दिर में सफेद संगमरमर की चौखट में लकड़ी के दरवाजे लगेंगे।
मन्दिर निर्माण के लिए धन संग्रह
मन्दिर निर्माण के लिए आवश्यक धन संग्रह करने के उद्देश्य से जन-जन तक पहुंचने की अभूतपूर्व योजना बनी। योजना के अनुसार छोटे से छोटे ग्राम अथवा नगर के एक मोहल्ले से एक शिला का सामूहिक पूजन और पूजन करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा मन्दिर निर्माण के लिए सवा रूपए की भेंट और बदले में श्रीराम जन्मभूमि का एक छोटा सा चित्र प्रत्येक दानदाता को कूपन रूप में दिया गया। छह करोड़ व्यक्तियों से सम्पर्क हुआ। एकत्रित धन 'श्रीराम जन्मभूमि न्यास' के नाम से बैंक में जमा किया गया। देश के 2.75 लाख ग्रामों और नगरों के मोहल्लों से पूजित रामशिलाएं अयोध्या पहुंची। विदेशों से एक लाख रूपए का चेक पूजित शिलाओं के साथ मन्दिर निर्माण के लिए प्राप्त हुआ था, परन्तु उस दान को प्राप्त करने के लिए तत्कालीन भारत सरकार की अनुमति नहीं मिली। परिणामस्वरूप वह धनराशि दान-दाताओं को वापस लौटा दी गई।
शिलान्यास और प्रथम कारसेवा की घोषणा
मन्दिर के प्रारूप एवं रामलला विराजमान के वर्तमान स्थल का तालमेल करते हुए भावी मन्दिर के सिंहद्वार के बाएं स्तम्भ का स्थान शिलान्यास के लिए चयनित हुआ। केन्द्र और उत्तर प्रदेश सरकार दोनों की सहमति से चयनित स्थल पर 10 नवम्बर 1989 को शिलान्यास का पूजन कार्यक्रम विश्व हिन्दू परिषद-बिहार के तत्कालीन प्रान्त संगठन मंत्री कामेश्वर चौपाल के हाथों सम्पन्न हुआ। तेईस, चौबीस जून 1990 को हरिद्वार में मार्गदर्शक मण्डल बैठक में 30 अक्टूबर 1990 को अयोध्या में मन्दिर निर्माण के लिए कारसेवा प्रारम्भ करने का निर्णय हुआ। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने चुनौती दे दी कि अयोध्या में 'परिन्दा भी पर नहीं मार सकेगा।' कारसेवकों के जत्थे देशभर से अयोध्या के लिए चल पड़े। उत्तर प्रदेश में प्रवेश करते ही उन्हें पकड़ा जाने लगा। हजारों की संख्या में कारसेवक पकड़े गए। अयोध्या आने के सभी रास्ते बन्द कर दिए गए, सरयू पुल पर कंटीले तार फैला दिए गए, सरयू नदी में नावें उलट दी गईं। अयोध्या की पुलिस व्यवस्था को देखकर पत्रकार भी बोलने लगे कि यदि 30 अक्टूबर को हैलीकाप्टर से भी कोई फावड़ा ढांचे पर गिरा तो हम उसे कारसेवा मान लेंगे। इतनी घेराबन्दी के बावजूद हजारों कारसेवक अयोध्या में प्रवेश कर गए।
कारसेवक भूखे, प्यासे, खेतों-झाड़ियों में 5-6 दिन तक छिपे रहे। अयोध्या में सैकड़ों मन्दिरों और परिवारों ने कारसेवकों को अपने घर में आश्रय दिया। वीतराग सन्त वामदेव महाराज व अन्य विहिप नेता अशोक सिंहल, श्रीश चन्द्र दीक्षित सारी बाधाओं के रहते हुए भी अयोध्या में प्रवेश पा गए। तीस अक्टूबर देवोत्थान एकादशी को निर्धारित समय पर कारसेवक जन्मभूमि की ओर चल पड़े। कहीं से कोई पुलिस के कब्जे से बस को लेकर सारे बैरियर तोड़ता हुआ जन्मभूमि तक पहुंच गया। कारसेवक ढांचे पर चढ़ गए, गुम्बदों पर झण्डा गाड़ दिया। एक नवम्बर 1990 को श्री मणिराम दास छावनी के चारधाम मन्दिर प्रांगण में आयोजित सभा में 2 नवम्बर को पुन: कारसेवा के लिए प्रस्थान करने की घोषणा हुई। तीस अक्टूबर की घटना से शासन अपमानित अनुभव कर रहा था। अपमान से पीड़ित शासन ने 2 नवम्बर 1990 को दिगम्बर अखाड़ा से हनुमानगढ़ी की ओर जाने वाली संकरी गली में कारसेवकों पर गोली चलाई। कई कार सेवक मारे गए। केन्द्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार का पतन हो गया। कारसेवक राम जन्म भूमि के दर्शन करके अयोध्या से लौट गए। चालीस दिन तक अयोध्या में सत्याग्रह चला।
पुलिस की गोलियों से मरे कारसेवकों की अस्थियों के कलश सारे देश में घूमे। हिंदू समाज ने श्रद्धांजलि अर्पित की। जनवरी 1991 में प्रयाग में माघ मेला के अवसर पर हुतात्मा कारसेवकों की अस्थियों का विसर्जन संगम में सन्तों के हाथों हुआ। चार अप्रैल 1991 को दिल्ली के बोट क्लब पर रैली का आयोजन हुआ, करीब 25 लाख लोग भारत के कोने-कोने से दिल्ली पहुंचे। यह विशालतम और ऐतिहासिक रैली थी। इसके बाद तो बोट क्लब पर सभाओं के आयोजन पर ही प्रतिबन्ध लग गया। रैली में सन्तों के भाषणों के मध्य ही समाचार आया कि उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया है। इस समाचार से समाज को स्वाभाविक प्रसन्नता हुई।
वार्ता के दौर शुरू
राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में गृहमंत्री बूटा सिंह, हिन्दू और मुस्लिम प्रतिनिधियों के बीच बातचीत कराया करते थे। एक अवसर पर मुस्लिम प्रतिनिधियों ने सन्तों से पूछा कि क्या गारंटी है कि यदि अयोध्या मथुरा, काशी के धर्मस्थान आपको दे दिए जाएं तो आप किसी चौथे की मांग नहीं करेंगे? सन्तों की ओर से इस प्रश्न का उत्तर दिया जाता, इसके पूर्व ही जनाब सैयद शाहबुद्दीन अपने प्रतिनिधियों पर बिगड़ कर बोलने लगे कि आप कौन होते हैं? इतने उदार बनकर इन स्थानों को सौंपने वाले? विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में आन्ध्र भवन में एक बार मुसलमानों के शीर्ष धर्मगुरू मौलाना अली मियां नदवी के नेतृत्व में मुस्लिम समाज के धार्मिक, सामाजिक नेता और सन्त महापुरुष आमने-सामने बैठे थे, शुक्रवार का दिन था। जब दोपहर की नमाज का समय आया तो मुस्लिम पक्ष के लोग नमाज पढ़ने चले गए। नमाज के बाद लौटने पर स्वामी सत्यमित्रानन्द महाराज ने खड़े होकर अपना आंचल फैलाकर मुस्लिम समाज के प्रतिनिधियों से कहा कि नमाज के बाद ज़कात करने का विधान है, मैं आपसे श्रीराम जन्मभूमि की भीख मांगता हूं। मुस्लिम प्रतिनिधियों का उत्तर था कि 'यह मिठाई का डिब्बा नहीं है जो उठाकर दे दें।'
एक बार सैयद शाहबुद्दीन ने स्वयं कहा कि यदि यह सिद्ध हो जाए कि किसी मन्दिर को तोड़कर यह मस्जिद बनाई गई है, तो मुस्लिम समाज इस स्थान को छोड़ देगा। इसके उत्तर में जब उन्हें कहा गया कि काशी विश्वनाथ मन्दिर में प्रमाण स्पष्ट दिख रहा है, आप वह स्थान हिन्दू समाज को वापस दे दीजिए तो शाहबुद्दीन साहब अपनी बात से पलट गए। तत्कालीन प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर ने भी दोनों पक्षों में वार्तालाप कराने का प्रयास किया। उनकी पहल पर 1 दिसम्बर 1990 को विश्व हिन्दू परिषद एवं बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के प्रतिनिधियों ने सरकारी प्रतिनिधियों की उपस्थिति में बातचीत प्रारम्भ की। बातचीत का मुख्य विचार बिन्दु था कि यदि यह सिद्ध हो जाए कि 'श्रीराम जन्मभूमि पर मन्दिर तोड़ कर विवादित ढांचा बनाया गया था' तो मुसलमान उस पर अपना दावा छोड़ देंगे।
चार दिसम्बर 1990 की बैठक में निर्णय हुआ कि दोनों पक्ष अपने साक्ष्य लिखित रूप में 22 दिसम्बर 1990 तक केंद्रीय गृह राज्य मंत्री के पास भेज देंगे। केंद्रीय गृह राज्य मंत्री 25 दिसम्बर 1990 तक उन साक्ष्यों का सम्बंधित पक्षों में आदान-प्रदान कर देंगे। दोनों पक्ष साक्ष्यों की समीक्षा करके अपनी टिप्पणी 6 जनवरी 1991 तक गृह राज्य मंत्री को देंगे। गृह राज्य मंत्री कार्यालय इन टिप्पणियों के आधार पर सहमति और असहमति के बिन्दु तैयार करके 9 जनवरी 1991 तक दोनों पक्षों को भेज देगा। दस जनवरी 1991 को पुन: मिलेंगे। गुजरात भवन में दोनों पक्षों ने चर्चा की। अनुभव किया गया कि चार प्रकार के विशेषज्ञ (ऐतिहासिक, पुरातात्विक, राजस्व एवं कानून सम्बन्धी) उपलब्ध साक्ष्यों का विश्लेषण करें। यह भी तय हुआ कि विशेषज्ञों की सूची 17 जनवरी 1991 तक सरकार को दी जाएगी।
विशेषज्ञों की बैठक 24 जनवरी 1991 से प्रारम्भ होगी। विशेषज्ञों के निष्कर्ष 5 फरवरी 1991 को दोनों पक्षों के समक्ष विचार के लिए रखे जाएंगे। यह भी निश्चित हुआ था कि मुस्लिम पक्ष भगवान राम की ऐतिहासिकता और अयोध्या की पहचान पर कोई प्रश्न खड़ा नहीं करेगा अत: इन विषयों पर कोई वार्ता नहीं होगी। चौबीस जनवरी 1991 को विशेषज्ञ दो टोलियों में साक्ष्यों का अध्ययन करने के लिए बैठे। मुस्लिम पक्ष की ओर से इतिहास और पुरातत्व के विशेषज्ञ आए थे। उन्होंने प्रारम्भ में ही सरकार को पत्र लिखकर दे दिया कि तथ्यों का अध्ययन करने के लिए उन्हें 6 सप्ताह का समय चाहिए जबकि हिन्दू पक्ष के विशेषज्ञ कहते रहे कि 5 फरवरी, 1991 के पूर्व कार्य सम्पन्न किया जा सकता है।
मुस्लिम पक्ष के राजस्व एवं कानूनी विशेषज्ञ उपस्थित ही नहीं हुए। पच्चीस जनवरी 1991 को फिर बैठक हुई। हिन्दू पक्ष के विशेषज्ञ पूर्व निर्धारित समय प्रात: 11 बजे गुजरात भवन पहुंच गए। मुस्लिम पक्ष का कोई भी विशेषज्ञ दोपहर 12.45 बजे तक बैठक स्थल, गुजरात भवन नहीं पहुंचा और ना ही अपने वहां न पहुंचने की सूचना दी, इससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि मुस्लिम पक्ष बातचीत से भाग रहा है। मुस्लिम पक्ष की अनुपस्थिति को अपमानजनक समझा गया और बातचीत यहीं समाप्त हो गई। मुस्लिम पक्ष के साथ बातचीत करने में एक अनुभव यह आया कि वे हर वार्तालाप में अपना पैंतरा बदलते थे। वार्तालाप से समाधान निकालने की चर्चा आज जब सुनी जाती है तो मन में प्रश्न उठता है कि अब वार्तालाप कहाँ से शुरू होगा? दस अक्टूबर 1991 को उत्तर प्रदेश सरकार के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने विवादित ढांचे को छोड़कर उसके चारों ओर का 2.77 एकड़ भूखण्ड तीर्थ यात्रियों के लिए सुविधाएं विकसित करने के उद्देश्य से अधिग्रहीत कर लिया। मुस्लिम पक्ष की ओर से अधिग्रहण को उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई। उच्च न्यायालय ने 25 अक्टूबर 1991 को अन्तरिम आदेश दिया की अधिग्रहीत भूमि पर उत्तर प्रदेश सरकार कब्जा कर सकती है, परन्तु दायर याचिकाओं का अन्तिम निपटारा होने तक कोई पक्का निर्माण नहीं करा सकेगी। याचिकाओं पर अन्तिम सुनवाई 4 नवम्बर 1992 को पूरी करके निर्णय सुरक्षित रख लिया गया।
अधिग्रहीत क्षेत्र का समतलीकरण
अयोध्या में अधिग्रहीत 2.77 एकड़ भूखण्ड का समतलीकरण अप्रैल 1992 में उत्तर प्रदेश सरकार के पर्यटन विभाग ने प्रारम्भ करा दिया। साथ-साथ ही जन्मभूमि को राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 8 (लखनऊ-फैजाबाद-अयोध्या-गोरखपुर राजमार्ग) से जोड़ने के लिए 80 फीट चौड़ी सड़क के निर्माण का काम भी लोक निर्माण विभाग द्वारा प्रारम्भ कर दिया गया। समतलीकरण के दौरान 18 जून 1992 को ढांचे के दक्षिणी पूर्वी कोने पर लगभग 12 फीट नीचे नक्काशीदार पत्थरों का जखीरा अचानक निकल आया। जिसमें अनेक अलंकृत और तराशे हुये किन्तु खण्डित पत्थर थे। आज वे सभी पुरावशेष अयोध्या संग्रहालय में संरक्षित हैं। पुरातत्ववेत्ताओं ने 2 और 3 जुलाई 1992 को स्थान का निरीक्षण किया और वे इस निश्चय पर पहुंचे कि सभी अवशेष 12वीं शताब्दी में उत्तर भारत में प्रचलित शैली के मंदिर के हैं। प्राप्त पुरावशेषों में मुख्यत: शिखर आमलक, जाल अलंकरण, शीर्ष, छज्जा, जगती का तला थर, द्वारशाखा, शिव-पार्वती हैं। जिस स्थान पर विवादित ढांचा खड़ा था वहां पक्की इटों की एक विशाल दीवार भी मिली।
ढांचे की पूर्णाहुति
तीस अक्टूबर 1992 को दिल्ली में आयोजित पंचम धर्म संसद में पुन: कारसेवा प्रारम्भ करने के लिए 6 दिसम्बर की तिथि घोषित कर दी गई। नवम्बर के अन्तिम सप्ताह से ही अयोध्या में कारसेवकों का पहुंचना प्रारम्भ हो गया। अपेक्षा थी कि उच्च न्यायालय 2.77 एकड़ अधिग्रहीत भूखण्ड के विरुद्ध दायर की गई याचिकाओं पर अपना सुरक्षित रखा गया निर्णय 6 दिसम्बर के पूर्व सुना देगा। उत्तर प्रदेश सरकार ने 25 नवम्बर को सर्वोच्च न्यायालय से प्रार्थना भी की थी कि सर्वोच्च न्यायालय स्वयं आदेश जारी कर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ से सुरक्षित रखा गया निर्णय शीघ्र सुना देने का अनुरोध करे, सर्वोच्च न्यायालय ने उचित निर्देश दिया भी परन्तु उच्च न्यायालय ने निर्णय सुनाने की तिथि 11 दिसम्बर घोषित कर दी। उत्तर प्रदेश सरकार चाहती थी कि निर्णय का केवल क्रियान्वयन वाला भाग ही 6 दिसम्बर के पूर्व सुना दिया जाए ताकि अनिश्चितता का अन्त हो, किन्तु यह दलील भी बेकार गई। उच्च न्यायालय का निर्णय 11 दिसम्बर को आया लेकिन तब तक हिन्दू समाज के आक्रोश का विस्फोट हो चुका था। सन् 1528 ईस्वी में भारत के मस्तक पर लगा कलंक का प्रतीक तीन गुम्बदों वाला ढांचा 6 दिसम्बर 1992 का शाम ढलते-ढलते स्वयं अतीत का हिस्सा बन चुका था।
शिलालेख की प्राप्ति
ढांचे की दीवारों पर जब हमला हुआ तो जर्जर हो चुकी पुरानी दीवारें भरभराकर गिर पड़ीं। दीवारें खोखली थीं। खोखली दीवारें मलबे से भरी थीं, दीवारों से निकलने वाले नक्काशीदार पत्थरों को कारसेवक उठा-उठाकर मंच के नीचे लाकर रखने लगे। इसी बीच एक शिलालेख वहां लाकर रखा गया। सुधा मलैया (भोपाल) की बहादुरी, पुरातत्ववेत्ता डॉ स्वराज प्रकाश गुप्ता की सूझबूझ और पत्रकार रामशंकर अग्निहोत्री एवं फैजाबाद निवासी युवा व्यवसायी अशोक चटर्जी की कुशलता के परिणामस्वरूप वह शिलापट समाज के सामने आ गया। कालान्तर में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर भारत सरकार के विशेषज्ञों ने इस शिलालेख का फोटो औरछाप ली, जो उच्च न्यायालय लखनऊ पीठ में सुरक्षित है। यह शिलालेख विशेषज्ञों ने पढ़ लिया है और यह स्थापित हो गया है कि 5 फीट लम्बे और 2.25 फीट चौड़े इस आयताकार शिलापट पर 20 पंक्तियों में 30 श्लोक उत्कीर्ण हैं, इनकी भाषा संस्कृत और लिपि नागरी है, जो 12वीं शताब्दी के गढ़वाल राजवंश के अभिलेखों में पाई जाती है। शिलालेख का प्रारम्भ 'ऊँ नम: शिवाय' से हुआ है। शिलालेख में अयोध्या, साकेत मण्डल में बने स्वर्ण कलशयुक्त मन्दिर और अयोध्या की सुन्दरता का वर्णन है। शिलालेख में वर्णन है कि बलि और दशानन का मानमर्दन करने वाले किसी पराक्रमी का यह मन्दिर है। जाहिर सी बात है कि वह श्रीराम ही हैं और उन्हीं का यह जन्म स्थान था।
इसके अतिरिक्त लगभग 250 अन्य पुरावशेष उस ढांचे से प्राप्त हुये जो आज श्रीराम जन्मभूमि परिसर में भारत सरकार के नियंत्रण में रखें हैं। इनमें से अनेक पुरावशेष ठीक वैसे ही हैं जैसे समतलीकरण के दौरान 18 जून 1992 को प्राप्त हुए थे। पूजा के अधिकार को अदालत की मान्यता 8 दिसम्बर 1992 की प्रात:काल ब्रह्म मुहुर्त के पूर्व ही केन्द्रीय सुरक्षा बलों ने सम्पूर्ण श्रीराम जन्मभूमि परिसर अपने अधिकार में ले लिया, तब तक कारसेवक रात-दिन परिश्रम करके श्रीरामलला विराजमान के लिए एक अस्थायी कपड़े का मन्दिर का निर्माण कर चुके थे। रामलला के चारों ओर लकड़ी की बांस बल्लियाँ लगाकर कपड़े की छत और उसकी सुरक्षा के लिए चारों ओर इंटों की पक्की दीवार बना दी गई थी। इसी को आज Makeshift Structure कहते हैं। श्रीरामलला विराजमान की पूजा अर्चना तो 6 दिसम्बर की सायंकाल को ही प्रारम्भ हो चुकी थी।
सुरक्षा बल की देखरेख में भगवान की पूजा-अर्चना जारी रही परन्तु जनता का आना-जाना बन्द हो गया। इक्कीस दिसम्बर 1992 को लखनऊ के हरिशंकर जैन एडवोकेट ने हिन्दू अधिवक्ता संघ की ओर से उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के सम्मुख याचिका (5314/1992) दायर करके प्रार्थना की कि शासन को निर्देशित किया जाए कि 'वह श्रीरामलला विराजमान के दर्शन-पूजन-आरती-भोग में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित न करे, आरती पूजा-भोग सम्पन्न करने के लिए पुजारियों को श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर में प्रवेश की अनुमति दी जाए, पूजा सम्बन्धी कर्मकाण्ड में बाधा न डाली जाए, ढांचे के मलबे से प्राप्त ऐतिहासिक महत्व के पुरावशेषों की सुरक्षा एवं संक्षण किया जाए। न्यायमूर्ति हरिनाथ तिलहरी एवं न्यायमूर्ति एएन गुप्ता की खण्डपीठ ने 1 जनवरी 1993 को याचिका स्वीकार करते हुए, वादी के पक्ष में निर्णय दिया। जनता को दर्शन की आज्ञा पुन: प्राप्त हो गई।
विशेषज्ञों की बैठक 24 जनवरी 1991 से प्रारम्भ होगी। विशेषज्ञों के निष्कर्ष 5 फरवरी 1991 को दोनों पक्षों के समक्ष विचार के लिए रखे जाएंगे। यह भी निश्चित हुआ था कि मुस्लिम पक्ष भगवान राम की ऐतिहासिकता और अयोध्या की पहचान पर कोई प्रश्न खड़ा नहीं करेगा अत: इन विषयों पर कोई वार्ता नहीं होगी। चौबीस जनवरी 1991 को विशेषज्ञ दो टोलियों में साक्ष्यों का अध्ययन करने के लिए बैठे। मुस्लिम पक्ष की ओर से इतिहास और पुरातत्व के विशेषज्ञ आए थे। उन्होंने प्रारम्भ में ही सरकार को पत्र लिखकर दे दिया कि तथ्यों का अध्ययन करने के लिए उन्हें 6 सप्ताह का समय चाहिए जबकि हिन्दू पक्ष के विशेषज्ञ कहते रहे कि 5 फरवरी, 1991 के पूर्व कार्य सम्पन्न किया जा सकता है।
मुस्लिम पक्ष के राजस्व एवं कानूनी विशेषज्ञ उपस्थित ही नहीं हुए। पच्चीस जनवरी 1991 को फिर बैठक हुई। हिन्दू पक्ष के विशेषज्ञ पूर्व निर्धारित समय प्रात: 11 बजे गुजरात भवन पहुंच गए। मुस्लिम पक्ष का कोई भी विशेषज्ञ दोपहर 12.45 बजे तक बैठक स्थल, गुजरात भवन नहीं पहुंचा और ना ही अपने वहां न पहुंचने की सूचना दी, इससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि मुस्लिम पक्ष बातचीत से भाग रहा है। मुस्लिम पक्ष की अनुपस्थिति को अपमानजनक समझा गया और बातचीत यहीं समाप्त हो गई। मुस्लिम पक्ष के साथ बातचीत करने में एक अनुभव यह आया कि वे हर वार्तालाप में अपना पैंतरा बदलते थे। वार्तालाप से समाधान निकालने की चर्चा आज जब सुनी जाती है तो मन में प्रश्न उठता है कि अब वार्तालाप कहाँ से शुरू होगा? दस अक्टूबर 1991 को उत्तर प्रदेश सरकार के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने विवादित ढांचे को छोड़कर उसके चारों ओर का 2.77 एकड़ भूखण्ड तीर्थ यात्रियों के लिए सुविधाएं विकसित करने के उद्देश्य से अधिग्रहीत कर लिया। मुस्लिम पक्ष की ओर से अधिग्रहण को उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई। उच्च न्यायालय ने 25 अक्टूबर 1991 को अन्तरिम आदेश दिया की अधिग्रहीत भूमि पर उत्तर प्रदेश सरकार कब्जा कर सकती है, परन्तु दायर याचिकाओं का अन्तिम निपटारा होने तक कोई पक्का निर्माण नहीं करा सकेगी। याचिकाओं पर अन्तिम सुनवाई 4 नवम्बर 1992 को पूरी करके निर्णय सुरक्षित रख लिया गया।
अधिग्रहीत क्षेत्र का समतलीकरण
अयोध्या में अधिग्रहीत 2.77 एकड़ भूखण्ड का समतलीकरण अप्रैल 1992 में उत्तर प्रदेश सरकार के पर्यटन विभाग ने प्रारम्भ करा दिया। साथ-साथ ही जन्मभूमि को राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 8 (लखनऊ-फैजाबाद-अयोध्या-गोरखपुर राजमार्ग) से जोड़ने के लिए 80 फीट चौड़ी सड़क के निर्माण का काम भी लोक निर्माण विभाग द्वारा प्रारम्भ कर दिया गया। समतलीकरण के दौरान 18 जून 1992 को ढांचे के दक्षिणी पूर्वी कोने पर लगभग 12 फीट नीचे नक्काशीदार पत्थरों का जखीरा अचानक निकल आया। जिसमें अनेक अलंकृत और तराशे हुये किन्तु खण्डित पत्थर थे। आज वे सभी पुरावशेष अयोध्या संग्रहालय में संरक्षित हैं। पुरातत्ववेत्ताओं ने 2 और 3 जुलाई 1992 को स्थान का निरीक्षण किया और वे इस निश्चय पर पहुंचे कि सभी अवशेष 12वीं शताब्दी में उत्तर भारत में प्रचलित शैली के मंदिर के हैं। प्राप्त पुरावशेषों में मुख्यत: शिखर आमलक, जाल अलंकरण, शीर्ष, छज्जा, जगती का तला थर, द्वारशाखा, शिव-पार्वती हैं। जिस स्थान पर विवादित ढांचा खड़ा था वहां पक्की इटों की एक विशाल दीवार भी मिली।
ढांचे की पूर्णाहुति
तीस अक्टूबर 1992 को दिल्ली में आयोजित पंचम धर्म संसद में पुन: कारसेवा प्रारम्भ करने के लिए 6 दिसम्बर की तिथि घोषित कर दी गई। नवम्बर के अन्तिम सप्ताह से ही अयोध्या में कारसेवकों का पहुंचना प्रारम्भ हो गया। अपेक्षा थी कि उच्च न्यायालय 2.77 एकड़ अधिग्रहीत भूखण्ड के विरुद्ध दायर की गई याचिकाओं पर अपना सुरक्षित रखा गया निर्णय 6 दिसम्बर के पूर्व सुना देगा। उत्तर प्रदेश सरकार ने 25 नवम्बर को सर्वोच्च न्यायालय से प्रार्थना भी की थी कि सर्वोच्च न्यायालय स्वयं आदेश जारी कर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ से सुरक्षित रखा गया निर्णय शीघ्र सुना देने का अनुरोध करे, सर्वोच्च न्यायालय ने उचित निर्देश दिया भी परन्तु उच्च न्यायालय ने निर्णय सुनाने की तिथि 11 दिसम्बर घोषित कर दी। उत्तर प्रदेश सरकार चाहती थी कि निर्णय का केवल क्रियान्वयन वाला भाग ही 6 दिसम्बर के पूर्व सुना दिया जाए ताकि अनिश्चितता का अन्त हो, किन्तु यह दलील भी बेकार गई। उच्च न्यायालय का निर्णय 11 दिसम्बर को आया लेकिन तब तक हिन्दू समाज के आक्रोश का विस्फोट हो चुका था। सन् 1528 ईस्वी में भारत के मस्तक पर लगा कलंक का प्रतीक तीन गुम्बदों वाला ढांचा 6 दिसम्बर 1992 का शाम ढलते-ढलते स्वयं अतीत का हिस्सा बन चुका था।
शिलालेख की प्राप्ति
ढांचे की दीवारों पर जब हमला हुआ तो जर्जर हो चुकी पुरानी दीवारें भरभराकर गिर पड़ीं। दीवारें खोखली थीं। खोखली दीवारें मलबे से भरी थीं, दीवारों से निकलने वाले नक्काशीदार पत्थरों को कारसेवक उठा-उठाकर मंच के नीचे लाकर रखने लगे। इसी बीच एक शिलालेख वहां लाकर रखा गया। सुधा मलैया (भोपाल) की बहादुरी, पुरातत्ववेत्ता डॉ स्वराज प्रकाश गुप्ता की सूझबूझ और पत्रकार रामशंकर अग्निहोत्री एवं फैजाबाद निवासी युवा व्यवसायी अशोक चटर्जी की कुशलता के परिणामस्वरूप वह शिलापट समाज के सामने आ गया। कालान्तर में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर भारत सरकार के विशेषज्ञों ने इस शिलालेख का फोटो औरछाप ली, जो उच्च न्यायालय लखनऊ पीठ में सुरक्षित है। यह शिलालेख विशेषज्ञों ने पढ़ लिया है और यह स्थापित हो गया है कि 5 फीट लम्बे और 2.25 फीट चौड़े इस आयताकार शिलापट पर 20 पंक्तियों में 30 श्लोक उत्कीर्ण हैं, इनकी भाषा संस्कृत और लिपि नागरी है, जो 12वीं शताब्दी के गढ़वाल राजवंश के अभिलेखों में पाई जाती है। शिलालेख का प्रारम्भ 'ऊँ नम: शिवाय' से हुआ है। शिलालेख में अयोध्या, साकेत मण्डल में बने स्वर्ण कलशयुक्त मन्दिर और अयोध्या की सुन्दरता का वर्णन है। शिलालेख में वर्णन है कि बलि और दशानन का मानमर्दन करने वाले किसी पराक्रमी का यह मन्दिर है। जाहिर सी बात है कि वह श्रीराम ही हैं और उन्हीं का यह जन्म स्थान था।
इसके अतिरिक्त लगभग 250 अन्य पुरावशेष उस ढांचे से प्राप्त हुये जो आज श्रीराम जन्मभूमि परिसर में भारत सरकार के नियंत्रण में रखें हैं। इनमें से अनेक पुरावशेष ठीक वैसे ही हैं जैसे समतलीकरण के दौरान 18 जून 1992 को प्राप्त हुए थे। पूजा के अधिकार को अदालत की मान्यता 8 दिसम्बर 1992 की प्रात:काल ब्रह्म मुहुर्त के पूर्व ही केन्द्रीय सुरक्षा बलों ने सम्पूर्ण श्रीराम जन्मभूमि परिसर अपने अधिकार में ले लिया, तब तक कारसेवक रात-दिन परिश्रम करके श्रीरामलला विराजमान के लिए एक अस्थायी कपड़े का मन्दिर का निर्माण कर चुके थे। रामलला के चारों ओर लकड़ी की बांस बल्लियाँ लगाकर कपड़े की छत और उसकी सुरक्षा के लिए चारों ओर इंटों की पक्की दीवार बना दी गई थी। इसी को आज Makeshift Structure कहते हैं। श्रीरामलला विराजमान की पूजा अर्चना तो 6 दिसम्बर की सायंकाल को ही प्रारम्भ हो चुकी थी।
सुरक्षा बल की देखरेख में भगवान की पूजा-अर्चना जारी रही परन्तु जनता का आना-जाना बन्द हो गया। इक्कीस दिसम्बर 1992 को लखनऊ के हरिशंकर जैन एडवोकेट ने हिन्दू अधिवक्ता संघ की ओर से उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के सम्मुख याचिका (5314/1992) दायर करके प्रार्थना की कि शासन को निर्देशित किया जाए कि 'वह श्रीरामलला विराजमान के दर्शन-पूजन-आरती-भोग में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित न करे, आरती पूजा-भोग सम्पन्न करने के लिए पुजारियों को श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर में प्रवेश की अनुमति दी जाए, पूजा सम्बन्धी कर्मकाण्ड में बाधा न डाली जाए, ढांचे के मलबे से प्राप्त ऐतिहासिक महत्व के पुरावशेषों की सुरक्षा एवं संक्षण किया जाए। न्यायमूर्ति हरिनाथ तिलहरी एवं न्यायमूर्ति एएन गुप्ता की खण्डपीठ ने 1 जनवरी 1993 को याचिका स्वीकार करते हुए, वादी के पक्ष में निर्णय दिया। जनता को दर्शन की आज्ञा पुन: प्राप्त हो गई।
अदालत की भूमिका
अयोध्या विवाद से सम्बंधित पांच मुकदमे चल रहे हैं। प्रथम वाद 1950 में गोपाल सिंह विशारद ने (सिविल वाद संख्या 2/1950) सिविल जज फैजाबाद की अदालत में दायर किया था जिसमें मांग की गयी थी कि भगवान के निकट जाकर दर्शन और पूजा करने का वादी का अधिकार सुरक्षित रखा जाए, इसमें किसी प्रकार की बाधा या विवाद प्रतिवादियों द्वारा खड़ा न किया जाए और ऐसी निषेधाज्ञा जारी की जाए ताकि प्रतिवादी भगवान को अपने वर्तमान स्थान से हटा न सके। इसी प्रकार की मांग करते हुए दूसरा वाद (संख्या 25/1950) परमहंस रामचन्द्र दास महाराज ने दायर किया। गोपाल सिंह विशारद के वाद में निचली अदालत (ट्रायल कोर्ट) ने अन्तरिम निर्णय देकर श्रीरामलला की मूर्तियां उसी स्थान पर बनाए रखने और हिन्दुओं द्वारा उनकी पूजा अर्चना, आरती और भोग निर्बाध रूप से जारी रखने का आदेश दिया और एक रिसीवर नियुक्त कर दिया। इस अन्तरिम आदेश की पुष्टि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अप्रैल 1955 में कर दी। तृतीय वाद में सन् 1959 में निर्मोही अखाड़े ने (संख्या 26/1959) दायर करके मांग की कि श्रीराम जन्मभूमि की पूजा व्यवस्था की देखभाल का दायित्व निर्मोही अखाड़े को दिया जाए और रिसीवर को हटा दिया जाए।
चतुर्थ वाद 18 दिसम्बर 1961 को (अर्थात श्रीरामलला प्राकटय के 11 वर्ष 11 माह 26 दिन बाद) उत्तर प्रदेश सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड ने (संख्या 12/1961) दायर किया। अपने वाद में विवादित ढांचे को 'मस्जिद' घोषित करने, पूजा सामग्री हटाने और ढांचे के चारों ओर के आसपास के भू-भाग को कब्रिस्तान घोषित करने की मांग की। यह भी उल्लेखनीय है कि सुन्नी वक्फ बोर्ड ने फरवरी 1996 में कब्रिस्तान सम्बंधी अपनी प्रार्थना को वापस ले लिया। परिणामस्वरूप विवाद केवल तीन गुम्बदों वाले ढांचे तक ही सीमित रह गया। यही छोटा सा स्थान अदालत के समक्ष आज विचाराधीन है। अन्तिम और पंचम वाद भगवान श्रीरामलला विराजमान की ओर से 1 जुलाई 1989 को देवकी नन्दन अग्रवाल (पूर्व न्यायाधीश इलाहाबाद हाईकोर्ट) ने दायर किया। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार प्राण-प्रतिष्ठित मूर्ति एक जीवित इकाई है जोकि अपना मुकदमा लड़ सकती है परन्तु प्राण-प्रतिष्ठित मूर्ति अवयस्क मानी जाती है और उनका मुकदमा लड़ने के लिए किसी एक व्यक्ति को माध्यम बनाया जाता है। इसलिए न्यायालय ने रामलला का मुकदमा लड़ने के लिए देवकी नन्दन अग्रवाल को रामलला के अभिन्न सखा (Next Friend) के रूप में अधिकृत कर दिया। इस वाद में अदालत से मांग की गई थी कि श्रीराम जन्मभूमि अयोध्या का सम्पूर्ण परिसर वादी (देव-विग्रह) का है, अत: श्रीराम जन्मभूमि पर नया मन्दिर बनाने का विरोध करने वाले अथवा इसमें किसी प्रकार की आपत्ति या बाधा खड़ी करने वाले प्रतिवादियों के विरूध्द स्थायी स्थगन आदेश जारी किया जाये।
संपूर्ण परिसर का अधिग्रहण
ढांचा गिर जाने के पश्चात 7 जनवरी 1993 को भारत सरकार ने अध्यादेश जारी करके श्रीराम जन्मभूमि का विवादित परिसर और उसके चारों ओर का 67 एकड़ भूखण्ड अधिग्रहीत कर लिया। केन्द्रीय सुरक्षा बल को इस सम्पूर्ण परिसर की सुरक्षा का दायित्व सौंप दिया गया। अनेक लोगों ने अधिग्रहण को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। राष्ट्रपति ने संविधान की धारा 143ए के अंतर्गत अपने अधिकार का उपयोग करते हुये सर्वोच्च न्यायालय से अपने एक प्रश्न कि 'क्या विवादित स्थल पर 1528 ईस्वी के पूर्व कोई हिन्दू मंदिर या भवन मौजूद था?' का उत्तर मांगा। अधिग्रहण के विरूद्ध दायर की गई याचिकाओं और राष्ट्रपति के प्रश्न पर एक साथ सुनवाई हुई। लगभग 20 माह तक सर्वोच्च न्यायालय की 5 सदस्यीय संविधान पीठ ने सभी पक्षों के विचार सुने और बहुमत के आधार पर 24 अक्टूबर 1994 को अपना निर्णय दिया कि-
1. महामहिम राष्ट्रपति महोदय का प्रश्न हम सम्मानपूर्वक अनुत्तरित वापस कर रहे हैं।
2. भारत सरकार द्वारा किया गया अधिग्रहण विधि अनुकूल है।
3. श्रीराम जन्मभूमि/बाबरी मस्जिद विवादित ढांचे वाले स्थान से सम्बन्धित सभी मुकदमों का निपटारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय की तीन-सदस्यीय पीठ करेगी।
सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय के पश्चात् सभी वाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ के समक्ष अन्तिम निपटारे हेतु आ गये। आज कुल चार वाद प्रथम, तृतीय, चतुर्थ और पंचम ही उच्च न्यायालय के समक्ष विचाराधीन हैं क्योंकि वर्ष 1990 में परमहंस रामचन्द्र दास महाराज ने अपना मुकदमा वापस ले लिया था। जून 1996 में उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ में वादी सुन्नी वक्फ बोर्ड की ओर से गवाहों के मौखिक बयान प्रारम्भ हुए। मई 2002 तक लगभग 6 वर्ष में कुल 28 गवाहों के बयान रिकार्ड कराकर वादी पक्ष ने अपनी गवाही को समाप्त घोषित कर दिया। तत्पश्चात् वाद क्रमांक 5 रामलला विराजमान के गवाहों के बयान लिखना प्रारम्भ हुआ। जुलाई 2003 तक वादी पक्ष ने अपने 16 गवाहों के बयान रिकार्ड कराकर गवाही को समाप्त घोषित कर दिया। गोपाल सिंह विशारद के वाद क्रमांक 1 में भी तीन गवाहों के बयान लिखे गये। अगस्त 2003 में निर्मोही अखाड़ा वाद क्रमांक 3 की गवाही प्रारम्भ हुई, वह भी समाप्त हो चुकी है। इस प्रकार गवाहों के मौखिक बयान रिकार्ड किए जाने का कार्य समाप्त हो चुका है।
राडार तरंगों से सर्वेक्षण एवं उत्खनन
वाद के मुख्य प्रश्न 'कि क्या 1528 ईस्वी के पूर्व विवादित स्थल पर कोई हिन्दू मन्दिर खड़ा था?' का उत्तर खोजने के लिए उच्च न्यायालय ने स्वयं प्रेरणा से श्रीराम जन्मभूमि के परिसर में राडार तरंगों से फोटो सर्वेक्षण कराया। सर्वेक्षण रिपोर्ट फरवरी, 2003 में अदालत को प्राप्त हुई। कनाडा के नागरिक विशेषज्ञ ने अपनी सर्वेक्षण रिपोर्ट के निष्कर्ष में लिखा कि-'In conclusion, the GPR survey reflects in general a variety of anomalies ranging from 0.5 to 5.5 meters in depth that could be associated with ancient and contemporanous structures such as pillars, foundations walls, slab flooring extending over a large portion of the site. However, the exact nature of those anomalies has to be confirmed by systematic ground truthing, such as provided by archeological tranching.'
इसी आधार पर पुरातत्व विभाग को सम्बंधित बिन्दुओं पर वैज्ञानिक तरीके से उत्खनन करके राडार तरंगों की सर्वेक्षण रिपोर्ट की सत्यता को जांचने का आदेश 5 मार्च 2003 को उच्च न्यायालय ने दिया। पांच मास तक चले उत्खनन कार्य की रिपोर्ट 22 अगस्त 2003 को पुरातत्व विभाग ने उच्च न्यायालय को सौंप दी। उत्खनन रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि-The Hon'ble High Court, in order to get sufficient archaeological evidence on the issue involved "whether there was any temple/structure which was demolished and mosque was constructed on the disputed site" as stated on page 1 and further on p. 5 of their order dated 5 march 2003, had given directions to the Archaeological Survey of India to excavate at the disputed site where the GPR Survey has suggested evidence of anomalies which could be structure, pillars, foundation walls, slab flooring etc, which could be confirmed by excavation. Now, viewing in totality and taking into account the archaeological evidence of a massive structure just below the disputed structure and evidence of continuity in structural phasses from the tenth century onwards upto the construction of the disputed structure alongwith the yield of stone and decorated bricks as well as mutilated sculpture of divine couple and carved architectural members including foliage patterns, amalaka, kapotapali doorjamb with semi-circular pilaster, broken octagonal shaft of black schist pillar, lotus motif, circular shrine having pranala (waterchute) in the north, fifty pillar based in association of the huge structure, are indicative of remains which are distinctive features found associated with the temples of north India.
उत्खनन रिपोर्ट के कारण मुस्लिम समाज और कुछ इतिहासकारों, पुरातत्ववेत्ताओं एवं राजनेताओं में मची खलबली से सारा देश परिचित है। मुस्लिम पक्ष ने उत्खनन रिपोर्ट को रद्द कर दिए जाने की मांग अदालत से की। दोनों पक्षों की ओर से तर्क प्रस्तुत किए गए। अन्तत: उत्खनन रिपोर्ट न्यायालय के रिकार्ड पर रखे जाने का आदेश तो हो गया परन्तु यह भी आदेश हुआ कि सभी पक्ष विशेषज्ञ-पुरातत्ववेत्ताओं को अदालत में लाकर उनके मौखिक बयान के द्वारा उत्खनन रिपोर्ट की समीक्षा करेंगे।
अदालत की वर्तमान स्थिति
अदालत में पुरातत्ववेत्ताओं की अयोध्या उत्खनन रिपोर्ट पर बयान लिखे जाने का कार्य समाप्ति की ओर है। बयान समाप्ति के बाद वकीलों की जिरह प्रारम्भ होगी। जिरह समाप्ति के बाद ही फैसला लिखा जाएगा। उच्च न्यायालय का फैसला घोषित होने के बाद सर्वोच्च न्यायालय में कोई न कोई पक्ष अपील लेकर अवश्य जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय कब और क्या निर्णय करेगा, इसकी भविष्यवाणी भी कोई नहीं कर सकता। अदालत का फैसला आने के बाद भी उसको क्रियान्वयन करने का नैतिक बल सरकार के पास होगा या नहीं, यह कहना भी बहुत कठिन है। बनारस के दोशीपुरा कब्रिस्तान से सम्बंधित शिया व सुन्नी मुसलमानों के बीच पिछले 110 वर्षों से चले आ रहे विवाद में सर्वोच्च न्यायालय के वर्ष 1983 में दिए गए निर्णय का क्रियान्वयन आज तक नहीं हुआ। प्रश्न उठ रहा है कि क्या जागरूक और स्वाभिमानी समाज अपने धर्म की रक्षा का दायित्व सरकार की कृपा पर छोड़ दे?
मन्दिर निर्माण की प्रगति
सितम्बर 1990 में अयोध्या में मन्दिर निर्माण हेतु पत्थरों की आपूर्ति और ड्राईंग के अनुसार पत्थरों की नक्काशी प्रारम्भ हुई। अप्रैल 1992 से पत्थर नक्काशी के काम में गति आई। बसन्त पंचमी 1996 से राजस्थान के पिण्डवाड़ा कस्बे में 3 कार्यशालाओं को नक्काशी का काम अनुबन्ध पर दिया गया। कार्य को तीव्र गति से करने के लिए अयोध्या में 2 बड़ी कटर मशीन लगाई गईं। संगमरमर की चौखट बनाने का काम मकराना (राजस्थान) में अनुबन्ध पर दिया गया। आज तक मन्दिर के फर्श पर लगने वाला सम्पूर्ण पत्थर, भूतल पर खड़े होने वाले सभी 106 स्तम्भ, भूतल एवं प्रथम तल के रंगमण्डप और गर्भगृह की दीवारें, भूतल की छत के बीम की नक्काशी पूर्णता की ओर है। नक्काशी किया हुआ सम्पूर्ण पत्थर अयोध्या में रामघाट पर स्थित कार्यशाला में दर्शनार्थ रखा गया है। लकड़ी का बना हुआ मन्दिर का एक माडल और वर्ष 1989 में पूजित 2.75 लाख रामशिलाएं भी इसी कार्यशाला में रखी हैं। प्रतिदिन दर्शनार्थी इन्हें देखने के लिए अयोध्या आते हैं।
जरा विचार करें
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात के राजनीतिक नेतृत्व का व्यवहार श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन को समझने में बहुत सहायक है। आजादी के तत्काल बाद झण्डा बदला गया, यूनियन जैक के स्थान पर तिरंगा लाया गया अर्थात यूनियन जैक में गुलामी और तिरंगे में स्वातंत्र्य और स्वाभिमान के दर्शन किए गए। देश में जहां-जहां रानी विक्टोरिया की मूर्तियां स्थापित थीं, उन सबको एक-एक करके हटाया जाने लगा। अयोध्या का तुलसी उद्यान, अमृतसर का विक्टोरिया चौक, दिल्ली में चांदनी चौक का पार्क इसके उदाहरण हैं। दिल्ली में इण्डिया गेट के नीचे खड़ी अंग्रेज की मूर्ति हटाई गई। देश में सड़कों और पार्कों के नाम बदले गए, जीटी रोड, महात्मा गांधी मार्ग बन गया। कम्पनी गार्डन को गांधी पार्क कहा जाने लगा। दिल्ली के इर्विन हॉस्पिटल, विलिंग्टन हॉस्पिटल, मिन्टो ब्रिज ये सभी नाम बदल दिए गए। कारण स्पष्ट है कि इन नामों में विदेशी गुलामी की दुर्गन्ध आती थी।
गुलामी के प्रतीकों को समाप्त करने की प्रेरणा से प्रेरित होकर प्रथम गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल ने सोमनाथ मन्दिर की मुक्ति का संकल्प लिया था, केन्द्रीय मंत्री मण्डल ने प्रस्ताव पारित किया। महात्मा गांधी की सहमति से एक न्यास बना, रातों-रात सोमनाथ मन्दिर के स्थान पर बना ढांचा समुद्र में चला गया। सम्पूर्ण भूखण्ड न्यास को समर्पित हो गया। एक भव्य वहां मन्दिर का निर्माण हुआ। मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा के समय प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद बाबूजी स्वयं उपस्थित रहे। उनका भाषण सबके लिए और आने वाली पीढ़ियों के लिए भी मार्गदर्शक है। देश में धीरे-धीरे मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति शुरू हो गई। सरदार पटेल की मृत्यु के बाद इस्लामिक गुलामी के चिन्हों को हटाने में राजनेताओं को अपना राजनीतिक जीवन समाप्त होता दिखने लगा। मुस्लिम समाज चुनावों में मुस्लिम हितों की रक्षा के लिए मतदान करता है जबकि हिन्दू समाज अपनी जाति, भाषा, पंथ के आधार पर अपनी रूचि के व्यक्ति को जिताने में आनन्दित होता है। वह अपने सम्मान की रक्षा के लिए वोट नहीं देता। इस परिस्थिति को बदलने का कार्य श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन ने किया। मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति पर अंकुश लगा।
हिन्दू समाज अपने, अपने पूर्वजों, धर्म, संस्कृति के सम्मान की रक्षा के लिए जागरूक बना। यदि अंग्रेजों की गुलामी के प्रतीकों को हटाना राष्ट्रभक्ति है, सोमनाथ मन्दिर का निर्माण सरदार पटेल की राष्ट्रभक्ति का प्रतीक है, यदि प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र बाबू का सोमनाथ मन्दिर में प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर उपस्थित रहना उनकी राष्ट्रभक्ति का प्रतीक है, तो श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति का आन्दोलन भी राष्ट्रभक्ति का ही प्रतीक है। श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन यह किसी मन्दिर को प्राप्त करने की सामान्य लड़ाई नहीं है। कभी भी न बदलने वाली जन्मभूमि को प्राप्त करने का यह संघर्ष है। जन्मभूमि भी एक ऐसे महापुरुष की जिसे कोटि-कोटि हिन्दू भगवान के रूप में पूजता है, मृत्यु के समय भी जिस नाम के उच्चारण की लालसा रखता है। इससे भी अधिक यह संघर्ष विदेशी इस्लामिक आक्रमणकारी के कलंक को मिटाने का संघर्ष है, यह संघर्ष हिन्दू समाज की सांस्कृतिक आजादी की लड़ाई है।
एकमेव मार्ग
वार्तालाप के दौर अनेक बार हो चुके। चन्द्रशेखर के प्रधानमंत्रित्व काल में मुस्लिम व यूरोपीय इतिहासकारों के प्रमाण, राजस्व सम्बन्धी प्रमाण एवं हिन्दू समाज की परम्पराओं से सम्बंधित प्रमाण सरकार को सौंपे जा चुके हैं। जून 1992, दिसम्बर 1992 और फरवरी 1993 में जमीन से प्राप्त पुरावशेष सरकार के कब्जे में हैं। छह दिसम्बर 1992 को प्राप्त शिलालेख सरकार के नियंत्रण में हैं। उसका छाप अदालत में सुरक्षित है। शिलालेख का पाठ विशेषज्ञों से पढ़वाया जा चुका है। राडार तरंगों से किए गए सर्वेक्षण रिपोर्ट की पुष्टि पुरातात्विक उत्खनन से हो चुकी है। भारत सरकार इस विवाद को हमेशा खत्म करने के लिए कानून बनाकर और यह स्थान हिन्दू समाज को सौंप कर सांस्कृतिक स्वातंत्र्य का मार्ग प्रशस्त कर सकती है। (पाठकों के अद्यतन संदर्भ के लिए यह सामग्री फेसबुक से कृष्णा पाण्डेय की पोस्ट से ली गई है। यदि इसके संबंध में या इसके विपरीत इतने ही या इनसे भी ज्यादा समृद्ध तथ्य आते हैं तो हम उनका भी अवश्य स्वागत करेंगे।)
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