शहीदों ने कभी सोचा न होगा शायद इस सवाल पर,
इक रोज उनका मादरे वतन होगा अपने ही हाल पर।
आम-जन ढोता फिरेगा, अपने ही शव को काँधे लिए,
और पंख फैलाए गिद्ध बैठे होंगे,प्रजातंत्र की डाल पर॥
ख़त्म हो जायेगी कर्तव्यनिष्ठा,भ्रष्टाचार भरी सृष्ठि होगी,
कबूतरों का भेष धरके, देश पर बाजो की कुदृष्ठि होगी।
जहां 'शेर-ए-जंगल' लिखा होगा,हर गदहे की खाल पर,
और पंख फैलाये गिद्ध बैठे होंगे, प्रजातंत्र की डाल पर॥
बेरोजगारी व महंगाई से,गरीब का निकलता तेल होगा,
प्रतिष्ठा के नाम पर राष्ट्र के धन की,लूट का खेल होगा।
घर भरेगा कल का माड़ी आबरू वतन की उछाल कर,
और पंख फैलाये गिद्ध बैठे होंगे, प्रजातंत्र की डाल पर॥
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