Sunday, 24 July 2011

सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम विधेयक 2011: एक खतरनाक मसौदा

सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम (न्याय एवं क्षतिपूर्ति) विधेयक 2011 के मसौदे को सार्वजनिक कर दिया गया है। प्रकट रूप में बिल का प्रारूप देश में सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के प्रयास के तौर पर नजर आता है, किंतु इसका असल मंतव्य इसके उलट है। अगर यह बिल पारित होकर कानून बन जाता है तो यह भारत के संघीय ढांचे को नष्ट कर देगा और भारत में अंतर-सामुदायिक संबंधों में असंतुलन पैदा कर देगा। बिल का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है 'समूह' की परिभाषा। समूह से तात्पर्य पंथिक या भाषायी अल्पसंख्यकों से है, जिसमें आज की स्थितियों के अनुरूप अनुसूचित जाति व जनजाति को भी शामिल किया जा सकता है। मसौदे के तहत दूसरे चैप्टर में नए अपराधों का एक पूरा सेट दिया गया है। सांप्रदायिक हिंसा के दौरान किए गए अपराध कानून एवं व्यवस्था की समस्या होते हैं। यह राज्यों के कार्यक्षेत्र में आता है। केंद्र को कानून एवं व्यवस्था के सवाल पर राज्य सरकार के कामकाज में दखलंदाजी का कोई अधिकार नहीं है। केंद्र सरकार का न्यायाधिकरण इसे सलाह, निर्देश देने और धारा 356 के तहत यह राय प्रकट करने तक सीमित करता है कि राज्य सरकार संविधान के अनुसार काम रही है या नहीं। यदि प्रस्तावित बिल कानून बन जाता है तो केंद्र सरकार राज्य सरकारों के अधिकारों को हड़प लेगी।
नि:संदेह, सांप्रदायिक तनाव या हिंसा भड़काने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए, किंतु इस मसौदे में यह मान लिया गया है कि सांप्रदायिक समस्या केवल बहुसंख्यक समुदाय के सदस्य ही पैदा करते है। अल्पसंख्यक समुदाय का कोई व्यक्ति इसके लिए जिम्मेदार नहीं है। इस प्रकार बहुसंख्यक समुदाय के सदस्यों द्वारा अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों के खिलाफ किए गए सांप्रदायिक अपराध तो दंडनीय है, किंतु अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों द्वारा बहुसंख्यकों के खिलाफ किए गए सांप्रदायिक अपराध दंडनीय नहीं है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि समूह की परिभाषा में बहुसंख्यक समुदाय के व्यक्तियों को शामिल नहीं किया गया है। इसके अनुसार बहुसंख्यक समुदाय का कोई व्यक्ति सांप्रदायिक हिंसा का शिकार नहीं हो सकता है। विधेयक का यह प्रारूप अपराधों को मनमाने ढंग से पुनर्परिभाषित करता है। इस प्रस्तावित विधेयक के तहत बहुसंख्यक समुदाय के खिलाफ सांप्रदायिक अपराध करने वाले अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्य दोषी नहीं ठहराए जा सकते।
विधेयक के अनुसार सांप्रदायिक सौहार्द, न्याय और क्षतिपूर्ति के लिए एक सात सदस्यीय राष्ट्रीय प्राधिकरण होगा। सात सदस्यों में से चार समूह अर्थात अल्पसंख्यक समुदाय से होंगे। इसी तरह का प्राधिकरण राज्यों के स्तर पर भी गठित होगा। स्पष्ट है कि इस प्राधिकरण की सदस्यता धार्मिक और जातीय पहचान पर आधारित होगी। इस कानून के तहत अभियुक्त बहुसंख्यक समुदाय के ही होंगे। अधिनियम का अनुपालन एक ऐसी संस्था द्वारा किया जाएगा जिसमें निश्चित ही बहुसंख्यक समुदाय के सदस्य अल्पमत में होंगे। सरकारों को इस प्राधिकरण को पुलिस और दूसरी जांच एजेंसियां उपलब्ध करानी होंगी। इस प्राधिकरण को किसी शिकायत पर जांच करने, किसी इमारत में घुसने, छापा मारने और खोजबीन करने का अधिकार होगा और वह कार्रवाई की शुरुआत करने, अभियोजन के लिए कार्यवाही रिकार्ड करने के साथ-साथ सरकारों से सिफारिशें करने में भी सक्षम होगा। उसके पास सक्षस्त्र बलों से निपटने की शक्ति होगी। वह केंद्र और राज्य सरकारों को परामर्श जारी कर सकेगा। इस प्राधिकरण के सदस्यों की नियुक्ति केंद्रीय स्तर पर एक कोलेजियम के जरिए होगी, जिसमें प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और दोनों सदनों में विपक्ष के नेता और प्रत्येक राजनीतिक दल का एक नेता शामिल होगा। राज्यों के स्तर पर भी ऐसी ही व्यवस्था होगी।
इस अधिनियम के तहत जांच के लिए जो प्रक्रिया अपनाई जानी है वह असाधारण है। सीआरपीसी की धारा 161 के तहत कोई बयान दर्ज नहीं किया जाएगा। पीड़ित के बयान केवल धारा 164 के तहत होंगे अर्थात अदालतों के सामने। सरकार को इसके तहत संदेशों और टेली कम्युनिकेशन को बाधित करने तथा रोकने का अधिकार होगा। अधिनियम के उपबंध 74 के तहत यदि किसी व्यक्ति के ऊपर घृणा संबंधी प्रचार का आरोप लगता है तो उसे तब तक एक पूर्वधारणा के अनुसार दोषी माना जाएगा जब तक वह निर्दोष नहीं सिद्ध हो जाता। साफ है कि आरोप सबूत के समान होगा। उपबंध 67 के तहत किसी लोकसेवक के खिलाफ मामला चलाने के लिए सरकार के अनुमति चलाने की जरूरत नहीं होगी। इस अधिनियम के तहत मुकदमे की कार्यवाही चलवाने वाले विशेष लोक अभियोजक सत्य की सहायता के लिए नहीं, बल्कि पीड़ित के हित में काम करेंगे। शिकायतकर्ता पीडि़त का नाम और पहचान गुप्त रखी जाएगी। केस की प्रगति की रपट पुलिस शिकायतकर्ता को बताएगी। संगठित सांप्रदायिक और किसी समुदाय को लक्ष्य बनाकर की जाने वाली हिंसा इस कानून के तहत राज्य के भीतर आंतरिक उपद्रव के रूप में देखी जाएगी। इसका अर्थ है कि केंद्र सरकार ऐसी दशा में अनुच्छेद 355 का इस्तेमाल कर संबंधित राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने में सक्षम होगी।
इस मसौदे को जिस तरह अंतिम रूप दिया गया है उससे साफ है कि यह कुछ उन कथित सामाजिक कार्यकर्ताओं का काम है जिन्होंने गुजरात के अनुभव से यह सीखा है कि वरिष्ठ नेताओं को किसी ऐसे अपराध के लिए कैसे घेरा जाना चाहिए जो उन्होंने नहीं किया। कानून के तहत जो अपराध बताए गए हैं वे कुछ सवाल खड़े करते हैं। सांप्रदायिक और किसी वर्ग को लक्ष्य बनाकर की जाने वाली हिंसा का तात्पर्य है राष्ट्र के पंथनिरपेक्ष ताने-बाने को नष्ट करना। इस मसले पर कुछ उचित राजनीतिक मतभेद हो सकते हैं कि पंथनिरपेक्षता आखिर क्या है? यह एक ऐसा जुमला है जिसका अर्थ अलग-अलग लोगों द्वारा अलग-अलग बताया जाता है। आखिर किस परिभाषा के आधार पर अपराध का निर्धारण किया जाएगा? इसी तरह सवाल यह भी है कि शत्रुतापूर्ण माहौल बनाने से क्या आशय है? प्रस्तावित कानून का परिणाम यह होगा कि किसी भी तरह के सांप्रदायिक संघर्ष में बहुसंख्यक समुदाय को ही दोषी के रूप में देखा जाएगा। मुझे कोई संदेह नहीं कि जो कानून तैयार किया गया है उसे लागू करते ही भारत में संप्रदायों के बीच आपसी रिश्तों में कटुता-वैमनस्यता फैल जाएगी। यह एक ऐसा कानून है जिसके खतरनाक दुष्परिणाम होंगे। यह तय है कि इसका दुरुपयोग किया जाएगा और शायद इस कानून का ऐसा मसौदा तैयार करने के पीछे यही उद्देश्य भी है।

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