चर्च द्वारा त्रिपुरा में शान्तिकाली जी महाराज की हत्या और ओडीशा में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या की पृष्ठ भूमि में कांग्रेस द्वारा राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ पर प्रहार करने की रणनीति को समझना आसान हो जायेगा। इन दोनों हत्याओं के मामले में कांग्रेस का रवैया आश्चर्यजनक रूप से चर्च के पक्ष में रहा। सोनिया गांधी और उनकी चर्च समर्थक शक्तियां किसी भी तरीके से शीघ्रातिशीघ्र राहुल गांधी को देश के प्रधानमंत्री के पद पर बिठा देना चाहती हैं। देश में छोट मोटे राजनैतिक हितों वाले कुछ क्षेत्रीय दलों का सहयोग उन्होंने किसी ने किसी तरीके से प्राप्त कर ही लिया है। लेकिन सोनियां और चर्च दोनों जानते है कि संघ परिवार और देश की राष्ट्र्वादी शक्तियां किसी न किसी रूप में भारत की राजनीति के केन्द्र बिन्दु तक पहुंच गई हैं। इसलिए संघ को हटाये बिना राहुल गांधी को प्रधानमंत्री नहीं बनाया जा सकता और न ही भारत में चर्च की रणनीति सफल हो सकती है। यदि राहुल गांधी प्रधानमंत्री नहीं बनते तो सोनिया गांधी की 45 साल पहले इंग्लैंड के कैम्बिर्ज से दिल्ली में प्रधानमंत्री के घर तक पहुंचने की सारी मेहनत बेकार जायेगी और चर्च के व पश्चिमी शक्तियों के भारत की पहचान बदलने के सारे स्वप्न धूलि धूसर हो जायेंगे। इसलिए सोनियां कांग्रेस ने देश में मुस्लिम लीग के बाद फिर से मुस्लिम कार्ड खेलना शुरू कर दिया। आज तक कांग्रेस मुसलमानों को हिन्दुओं के काल्पनिक भय से भयभीत रखकर अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति पर चल रही थी और उसे इसमें सफलता भी मिल रही थी। मुसलिम समुदाय का ठोस वोट बैंक कांग्रेस की सबसे बड़ी शक्ति थी। लेकिन राष्ट्र्ीय स्वयंसेवक संघ ने जब मुस्लिम समुदाय से सीधे संवाद रचना प्रारम्भ कर दी तो कांग्रेस के नीचे से जमीन खिसकने लगी।
इस पृष्ठभूमि में मुसलमान या इस्लामपंथी विवाद का मुद्दा बन जाते हैं। कांग्रेस एवं साम्यवादियों की दृष्टि में इस देश के मुसलमान एक अलग राष्ट्र है , इसलिए उनको सावधानीपूर्वक इस देश की छूत से बचाना यह टोला जरुरी मानता है। साम्यवादी यह बात खुलकर कहते हैं और कांग्रेस इसे अपने व्यवहार से सिद्ध करती है। इस वैचारिक अवधारणा के आधार पर ये दोनों देश के मुसलमानों को अलग-थलग करके स्वयं को उनके रक्षक की भूमिका में उपस्थित करते हैं। जाहिर है इस भूमिका में रहने पर दम्भ भी आएगा। अतः ये दोनों दल मुसलमानों के तुष्टिकरण की ओर चल पडते हैं। चूकि इस देश में लोकतांत्रिक प्रणाली है इसलिए मुसलमानों को यदि बहुसंख्यक भारतीयों में डराए रखा जाएगा जो जाहिर है कि वे अपने वोट भी एकमुश्त उन्हीं की झोली में डालेंगे। अब लोकतांत्रिक प्रणाली में ज्यों-ज्यों सत्ता के दावेदार बढ रहे है त्यो -त्यों मुसलमानों के रक्षक होने का दावा करने वालों की संख्या भी बढती जा रही है। लालू यादव , मुलायम सिह यादव और रामविलास पासवानों का इस क्षेत्र में प्रवेश ‘ लेटर स्टेज ’ पर हुआ है। परन्तु जो देर से आएगा वो यकीनन हो हल्ला ज्यादा मचाएगा। इसलिए मुसलमानों की रक्षा करने के लिए इन देर से आए रक्षकों के तेवर भी उतने ही तीखे हैं।
इधर जब पिछले पाचं -छह दशकों में इन सभी ने मुसलमानों के दिमाग में यह डाल दिया है कि मामला सिर्फ उनकी रक्षा का है और बाकी चीजें तो गौण है तो उनमें से भी कुछ संगठन उठ आए हैं जिन्होंने यह कहना शुरू कर दिया है अब हमें बाहरी रक्षकों की जरुरत नहीं है हम अपनी रक्षा खुद कर सकते हैं। सुरक्षा का काल्पनिक भय कांग्रेस एवं कम्युनिस्टों ने मुसलमानों के मन में बैठा दिया था और सत्ता में भागीदारी का आसान रास्ता देखकर इन मुस्लिम संगठनों ने भी हाथ में हथियार उठा लिए। यह तक सब ठीक -ठाक चल रहा था केवल मुस्लिम वोटों पर छापेमारी का प्रश्न था जिसके हिस्से जितना आ जाय उतना ही सही।
इस मोड पर ‘स्क्रिप्ट ’ में अचानक कुछ गडबड होने लगी। कांग्रेस एवं कम्युनिस्ट जिन लोगों से मुसलमानों को डरा रहे थे उन्ही लोगों ने मुसलमानों से बिना दलालों एवं एजेंटों की सहायता से सीघे -सीधे संवाद रचना शुरू कर दी। 1975 की आपात स्थिति में राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ और मुसलमानों के बीच जो संवाद रचना नेताओं के स्तर पर प्रारम्भ हुई थी उसे इक्कीसवीं शताब्दी के शुरु में संघ के एक प्रचारक इन्द्रेश कुमार आम मुसलमान तक खीचं ले गए। ऐसा एक प्रयास कभी महात्मा गांधी ने किया था लेकिन वह प्रयास खिलाफत के माध्यम से हुआ था जो वस्तुतः इस देश के मुसलमानों की राष्ट्रªीय भावना को कही न कही खण्डित करता था। इसलिए इसका असफल होना निश्चित ही था। जो इक्का -दुक्का प्रयास दूसरे प्रयास हुए लेकिन उनका उद्देश्य तात्कालिक लाभों के लिए तुष्टिकरण ही ज्यादा था।
इन्द्रेश कुमार ने संघ के धरातल पर मुसलमानों से जो संवाद रचना प्रारम्भ की उसका उद्देदश्य न तो राजनीतिक था और न ही तात्कालिक लाभ उठाना। चूंकि राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ को चुनाव नही लडना था। इन्द्रेश कुमार की संवाद रचना से जो हिन्दू मुसलमानों का व्यास आसन निर्मित हुआ। वह इस देश का वही सांस्कृतिक आसन है जिसके कारण लाखों सालों से इस देश की पहचान बनी हुई है। इस संवाद रचना में स्वयं मुसलमानों ने आगे आकर कहना शुरू किया कि हमारे पुरखे हिंदू थे और उनकी जो सांस्कृतिक थाती थी वही सांस्कृतिक थाती हमारी भी है। इन संवाद रचनाओं में इन्द्रेश कुमार का एक वाक्य बहुत प्रसिद्ध हुआ कि हम ‘ सिजदा तो मक्का की ओर करेंगे लेकिन गर्दन कटेगी तो भारत के लिए कटेगी। देखते ही देखते इस संवाद की अंतर्लहरें देश भर में फैली और मुसलमानों की युवा पीढी में एक नई सुगबुगाहट प्रारम्भ हो गयी। वे धीरे -धीरे उस चारदीवारी से निकलकर जिस उनके तथाकथित रक्षकों ने पिछले 60 सालों से यत्नपूर्वक निर्मित किया था , खुली हवा में सांस लेने के लिए आने लगे। इन्द्रेश कुमार की मुसलमानों से इस संवाद रचना ने देखते ही देखते ‘ मुस्लिम राष्ट्रीय मंच’ का आकार ग्रहण कर लिया। जाहिर है मुसलमानों के भीतर संघ की इस पहल से कांग्रेसी खेमे एवं साम्यवादी टोले में हड़बडी मचती। जिस संघ के बारे में आज तक मुसलमानों को यह कहकर डराया जाता रहा कि उनको सबसे ज्यादा खतरा संघ से है उस संघ को लेकर मुसलमानों का भ्रम छंटने लगा। यह स्पष्ट होने लगा कि संघ मुसलमानों के खिलाफ नहीं है । संघ भारत की इस विशेषता में पूर्ण विश्वास रखता है कि ईश्वर की पूजा करने के हजारों तरीके हो सकते हैं और वास्तव में संघ इसी विचार को आगे बढाना चाहता है। जब संघ ईष्वर या अल्लाह की पूजा के हजारों तरीकों में विश्वास करता है तो उसे कुछ लोगों द्वारा इस्लामी तरीके से ईश्वर की पूजा के तरीके से भला कैसे एतराज हो सकता था। संघ को लेकर मुसलमानों के भीतर कोहरा छंटने की प्रारम्भिक प्रक्रिया शुरू हो गयी है। और इसी भीतरी डर के कारण सोनियां व्रिगेड संध पर निशाना साध रही है। सोनियां व्रिगेड को इसका एक और लाभ भी हो सकता है, जब सारे देश का ध्यान संध पर हो रहे प्रहारो पर लगा होगा तो चर्च चुपचाप अपने षडयंत्रों को सफलतापूर्वक चला सकता है।
इस पृष्ठभूमि में मुसलमान या इस्लामपंथी विवाद का मुद्दा बन जाते हैं। कांग्रेस एवं साम्यवादियों की दृष्टि में इस देश के मुसलमान एक अलग राष्ट्र है , इसलिए उनको सावधानीपूर्वक इस देश की छूत से बचाना यह टोला जरुरी मानता है। साम्यवादी यह बात खुलकर कहते हैं और कांग्रेस इसे अपने व्यवहार से सिद्ध करती है। इस वैचारिक अवधारणा के आधार पर ये दोनों देश के मुसलमानों को अलग-थलग करके स्वयं को उनके रक्षक की भूमिका में उपस्थित करते हैं। जाहिर है इस भूमिका में रहने पर दम्भ भी आएगा। अतः ये दोनों दल मुसलमानों के तुष्टिकरण की ओर चल पडते हैं। चूकि इस देश में लोकतांत्रिक प्रणाली है इसलिए मुसलमानों को यदि बहुसंख्यक भारतीयों में डराए रखा जाएगा जो जाहिर है कि वे अपने वोट भी एकमुश्त उन्हीं की झोली में डालेंगे। अब लोकतांत्रिक प्रणाली में ज्यों-ज्यों सत्ता के दावेदार बढ रहे है त्यो -त्यों मुसलमानों के रक्षक होने का दावा करने वालों की संख्या भी बढती जा रही है। लालू यादव , मुलायम सिह यादव और रामविलास पासवानों का इस क्षेत्र में प्रवेश ‘ लेटर स्टेज ’ पर हुआ है। परन्तु जो देर से आएगा वो यकीनन हो हल्ला ज्यादा मचाएगा। इसलिए मुसलमानों की रक्षा करने के लिए इन देर से आए रक्षकों के तेवर भी उतने ही तीखे हैं।
इधर जब पिछले पाचं -छह दशकों में इन सभी ने मुसलमानों के दिमाग में यह डाल दिया है कि मामला सिर्फ उनकी रक्षा का है और बाकी चीजें तो गौण है तो उनमें से भी कुछ संगठन उठ आए हैं जिन्होंने यह कहना शुरू कर दिया है अब हमें बाहरी रक्षकों की जरुरत नहीं है हम अपनी रक्षा खुद कर सकते हैं। सुरक्षा का काल्पनिक भय कांग्रेस एवं कम्युनिस्टों ने मुसलमानों के मन में बैठा दिया था और सत्ता में भागीदारी का आसान रास्ता देखकर इन मुस्लिम संगठनों ने भी हाथ में हथियार उठा लिए। यह तक सब ठीक -ठाक चल रहा था केवल मुस्लिम वोटों पर छापेमारी का प्रश्न था जिसके हिस्से जितना आ जाय उतना ही सही।
इस मोड पर ‘स्क्रिप्ट ’ में अचानक कुछ गडबड होने लगी। कांग्रेस एवं कम्युनिस्ट जिन लोगों से मुसलमानों को डरा रहे थे उन्ही लोगों ने मुसलमानों से बिना दलालों एवं एजेंटों की सहायता से सीघे -सीधे संवाद रचना शुरू कर दी। 1975 की आपात स्थिति में राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ और मुसलमानों के बीच जो संवाद रचना नेताओं के स्तर पर प्रारम्भ हुई थी उसे इक्कीसवीं शताब्दी के शुरु में संघ के एक प्रचारक इन्द्रेश कुमार आम मुसलमान तक खीचं ले गए। ऐसा एक प्रयास कभी महात्मा गांधी ने किया था लेकिन वह प्रयास खिलाफत के माध्यम से हुआ था जो वस्तुतः इस देश के मुसलमानों की राष्ट्रªीय भावना को कही न कही खण्डित करता था। इसलिए इसका असफल होना निश्चित ही था। जो इक्का -दुक्का प्रयास दूसरे प्रयास हुए लेकिन उनका उद्देश्य तात्कालिक लाभों के लिए तुष्टिकरण ही ज्यादा था।
इन्द्रेश कुमार ने संघ के धरातल पर मुसलमानों से जो संवाद रचना प्रारम्भ की उसका उद्देदश्य न तो राजनीतिक था और न ही तात्कालिक लाभ उठाना। चूंकि राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ को चुनाव नही लडना था। इन्द्रेश कुमार की संवाद रचना से जो हिन्दू मुसलमानों का व्यास आसन निर्मित हुआ। वह इस देश का वही सांस्कृतिक आसन है जिसके कारण लाखों सालों से इस देश की पहचान बनी हुई है। इस संवाद रचना में स्वयं मुसलमानों ने आगे आकर कहना शुरू किया कि हमारे पुरखे हिंदू थे और उनकी जो सांस्कृतिक थाती थी वही सांस्कृतिक थाती हमारी भी है। इन संवाद रचनाओं में इन्द्रेश कुमार का एक वाक्य बहुत प्रसिद्ध हुआ कि हम ‘ सिजदा तो मक्का की ओर करेंगे लेकिन गर्दन कटेगी तो भारत के लिए कटेगी। देखते ही देखते इस संवाद की अंतर्लहरें देश भर में फैली और मुसलमानों की युवा पीढी में एक नई सुगबुगाहट प्रारम्भ हो गयी। वे धीरे -धीरे उस चारदीवारी से निकलकर जिस उनके तथाकथित रक्षकों ने पिछले 60 सालों से यत्नपूर्वक निर्मित किया था , खुली हवा में सांस लेने के लिए आने लगे। इन्द्रेश कुमार की मुसलमानों से इस संवाद रचना ने देखते ही देखते ‘ मुस्लिम राष्ट्रीय मंच’ का आकार ग्रहण कर लिया। जाहिर है मुसलमानों के भीतर संघ की इस पहल से कांग्रेसी खेमे एवं साम्यवादी टोले में हड़बडी मचती। जिस संघ के बारे में आज तक मुसलमानों को यह कहकर डराया जाता रहा कि उनको सबसे ज्यादा खतरा संघ से है उस संघ को लेकर मुसलमानों का भ्रम छंटने लगा। यह स्पष्ट होने लगा कि संघ मुसलमानों के खिलाफ नहीं है । संघ भारत की इस विशेषता में पूर्ण विश्वास रखता है कि ईश्वर की पूजा करने के हजारों तरीके हो सकते हैं और वास्तव में संघ इसी विचार को आगे बढाना चाहता है। जब संघ ईष्वर या अल्लाह की पूजा के हजारों तरीकों में विश्वास करता है तो उसे कुछ लोगों द्वारा इस्लामी तरीके से ईश्वर की पूजा के तरीके से भला कैसे एतराज हो सकता था। संघ को लेकर मुसलमानों के भीतर कोहरा छंटने की प्रारम्भिक प्रक्रिया शुरू हो गयी है। और इसी भीतरी डर के कारण सोनियां व्रिगेड संध पर निशाना साध रही है। सोनियां व्रिगेड को इसका एक और लाभ भी हो सकता है, जब सारे देश का ध्यान संध पर हो रहे प्रहारो पर लगा होगा तो चर्च चुपचाप अपने षडयंत्रों को सफलतापूर्वक चला सकता है।
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