भारत की आत्मा श्रीराम - भारत एक धर्मप्राण देश है। समय-समय पर अनेक अवतारों ने यहां आकर इस देश और इसके निवासियों को ही नहीं, तो स्वयं को भी धन्य किया है। ऐसे ही एक महामानव थे मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम। महर्षि वाल्मीकि ने सर्वप्रथम श्रीरामकथा का उपहार हमें दिया। इसके बाद दुनिया की प्रायः सभी प्रमुख भाषाओं में श्रीराम की महिमा लिखी गयी है। संविधान के तीसरे अध्याय में, जहां मौलिक अधिकारों का उल्लेख है, सबसे ऊपर श्रीराम, सीता एवं लक्ष्मण के चित्र बने हैं। इससे स्पष्ट है कि श्रीराम भारत की आत्मा हैं।
अयोध्या प्रकरण पर न्यायालय का निर्णय – यों तो अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर के लिए हिन्दुओं द्वारा तब से संघर्ष जारी है, जब 1528 ई0 में उसे तोड़ा गया था; पर स्वराज्य प्राप्ति के बाद यह विवाद न्यायालय में चला गया। गत 30 सितम्बर, 2010 को इलाहबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने संविधान में मान्य हिन्दू कानून तथा पुरातात्विक प्रमाणों के आधार पर बहुत महत्व का निर्णय दिया है। इसमें सुन्नी बोर्ड के दावे को पूरी तरह निरस्त कर तीनों न्यायाधीशों ने एकमत से माना है कि -
-यह स्थान ही श्रीराम जन्मभूमि है।
-1528 में बाबरी ढांचे से पूर्व वहां एक गैरइस्लामिक (हिन्दू) मंदिर था।
एक न्यायाधीश ने तीनों गुम्बद (लगभग 1,500 वर्ग गज) वाला पूरा स्थान हिन्दुओं को, जबकि शेष दो ने 1/3 भाग मुसलमानों को भी देने को कहा है। यह विभाजन अव्यावहारिक, अनुचित और असंभव है। अतः पूरा स्थान हिन्दुओं को मिलना चाहिए। अयोध्या में कई मस्जिदें हैं; पर श्रीराम जन्मभूमि केवल यही है। पूरा स्थान मिलने से ही जन-जन की आकांक्षा और प्रभु श्रीराम की प्रतिष्ठा के अनुरूप भव्य मंदिर बन सकेगा।
इतिहास में अयोध्या – त्रेतायुग में श्रीराम का जन्म परम पावन सरयू नदी के तट पर स्थित अयोध्या में हुआ। अयोध्या को लाखों साल से मोक्ष प्रदान करने वाली नगरी माना जाता है। यह आदिकाल से करोड़ों भारतवासियों की मान्यता है।
अयोध्या मथुरा माया, काशी कांची अवन्तिका
पुरी द्वारावती चैव, सप्तैता मोक्षदायिकाः।।
अयोध्या सदा से भारत के सभी मत-पंथों के लिए पूज्य रही है। यहां जैन मत के पांच तीर्थंकरों का जन्म हुआ। भगवान बुद्ध ने यहां तपस्या की। गुरु नानक, गुरु तेगबहादुर एवं गुरु गोविंद सिंह जी भी यहां पधारे। दुनिया भर के इतिहासकारों और विदेशी यात्रियों की पुस्तकों के हजारों पृष्ठ अयोध्या की महिमा से भरे हैं। विश्व में प्रकाशित सभी प्रमुख मानचित्र पुस्तकों (एटलस) में अयोध्या को प्रमुखता से दर्शाया गया है।
इस्लाम का उदय और मंदिर पर आक्रमण – 712 ई0 से मुस्लिम सेनाओं के आक्रमण शान्त और सम्पन्न भारत पर होने लगे। 1526 ई0 में बाबर भारत और 1528 ई0 में अयोध्या आया। उसके आदेश पर उसके सेनापति मीरबाकी ने श्रीराम मंदिर पर आक्रमण किया। 15 दिन के घमासान युद्ध में मीरबाकी ने तोप के गोलों से मंदिर गिरा दिया। इस युद्ध में 1.74 लाख हिन्दू वीर बलिदान हुए। फिर उसने दरवेश मूसा आशिकान के निर्देश पर उसी मलबे से एक मस्जिद जैसा ढांचा बनवा दिया। चूंकि यह काम हड़बड़ी और हिन्दुओं के लगातार आक्रमणों के बीच हो रहा था, इसलिए उसमें मस्जिद की अनिवार्य आवश्यकता मीनार तथा नमाज से पूर्व हाथ-पांव धोने (वजू) के लिए जल का स्थान नहीं बन सका।
मंदिर-प्राप्ति के प्रयत्न - इस घटना के बाद मंदिर की प्राप्ति हेतु संघर्ष का क्रम चल पड़ा। 1528 से 1949 ई0 तक हुए 76 संघर्षों का विवरण इतिहास में मिलता है। राजा से लेकर साधु-संन्यासी और सामान्य जनता ने इन युद्धों में भाग लिया। पुरुष ही नहीं, स्त्रियों ने भी प्राणाहुति दी। इस बीच कुछ मध्यस्थों के प्रयास से वहां बने ‘राम चबूतरे’ पर हिन्दू पूजा करने लगे। लोग ढांचे वाले उस परिसर की परिक्रमा भी करते थे। अंग्रेजी शासन में अंतिम बड़ा संघर्ष 1934 में बैरागियों द्वारा किया गया। उसके बाद वहां फिर कभी नमाज नहीं पढ़ी गयी।
समाधान का असफल प्रयास – 1857 के स्वाधीनता संग्राम के समय सरदार अमीर अली के नेतृत्व में स्थानीय मुसलमान यह स्थान छोड़ने को तैयार हो गये थे। इस वार्ता में हिन्दुओं के प्रतिनिधि बाबा राघवदास थे; पर अंग्रेजों ने हिन्दुओं और मुसलमानों को लड़ाये रखने के लिए दोनों को फांसी दे दी। इससे मामला फिर लटक गया।
श्रीरामलला का प्राकट्य एवं तालाबन्दी – इस मामले में एक निर्णायक मोड़ तब आया, जब भक्तों ने 23 दिसम्बर, 1949 को ढांचे में श्रीरामलला की मूर्ति स्थापित कर पूजा-अर्चना प्रारम्भ कर दी। प्रधानमंत्री नेहरू जी ने मूर्ति को हटवाना चाहा; पर प्रबल जनभावना को देख मुख्यमंत्री श्री गोविन्द वल्लभ पंत यह साहस नहीं कर सके। जिलाधिकारी श्री नायर ने वहां ताला डलवा कर शासन की ओर से पुजारी नियुक्त कर पूजा एवं भोग की व्यवस्था कर दी।
न्यायालय में वाद – जनवरी, 1950 में दो श्रद्धालुओं के आग्रह पर न्यायालय ने श्रीरामलला के नित्य दर्शन, पूजन एवं सुरक्षा की व्यवस्था की। 1959 में निर्मोही अखाड़े ने तथा 1961 में केन्द्रीय सुन्नी वक्फ बोर्ड ने स्वामित्व हेतु वाद दायर किये। न्यायालय में सुनवाई के बीच वहां पूजा, अर्चना और भक्तों का आगमन जारी रहा।
आंदोलन के पथ पर हिन्दू - 1983 में मुजफ्फरनगर (उ0प्र0) में हुए हिन्दू सम्मेलन में दो वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं, पूर्व उपप्रधानमंत्री श्री गुलजारीलाल नन्दा तथा उ0प्र0 शासन के पूर्व मंत्री श्री दाऊदयाल खन्ना ने केन्द्र शासन से कहा कि वह संसद में कानून बनाकर श्रीराम जन्मभूमि, श्रीकृष्ण जन्मभूमि तथा काशी विश्वनाथ मंदिर हिन्दुओं को सौंप दे, जिससे देश में स्थायी सद्भाव स्थापित हो सके; पर शासन ने इस पर ध्यान नहीं दिया।
यह देखकर हिन्दुओं को ‘श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति’ के बैनर पर आंदोलन का मार्ग अपनाना पड़ा। अक्तूबर, 1984 में ‘श्रीराम जानकी रथ’ की यात्रा द्वारा जन जागरण प्रारम्भ कर सबसे पहले रामलला को ताले से मुक्त करने की मांग की गयी। दबाव बढ़ते देख शासन ने 1 फरवरी, 1986 को ताला खोल दिया।
जन जागरण द्वारा मंदिर निर्माण की ओर - इसके बाद हिन्दुओं के सभी मत-पंथ के धर्मगुरुओं ने ‘श्रीराम जन्मभूमि न्यास’ का गठन किया। जुलाई, 1989 में इलाहबाद उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश श्री देवकीनंदन अग्रवाल ने न्यायालय से सम्पूर्ण परिसर को श्रीरामलला की सम्पत्ति घोषित करने को कहा। न्यायालय ने सब वाद लखनऊ की पूर्ण पीठ को सौंप दिये। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिन्दू परिषद की प्रमुख भूमिका के कारण यह अभियान जनांदोलन बन गया। सितम्बर, 1989 में भारत के 2.75 लाख गांवों व नगरों के मंदिरों में श्रीराम शिलापूजन सम्पन्न हुआ। 6.25 करोड़ लोगों ने इसमें भागीदारी की। विदेशस्थ हिन्दुओं ने भी शिलाएं भेजीं।
जनदबाव के चलते केन्द्र तथा राज्य शासन को झुकना पड़ा और 9 नवम्बर, 1989 को प्रमुख संतों की उपस्थिति में शिलान्यास सम्पन्न हुआ। पहली ईंट बिहार से आये वंचित समाज के रामभक्त कामेश्वर चौपाल ने रखी। मंदिर आंदोलन समरसता की गंगोत्री बन गया।
1990 में कारसेवा – जून, 1990 में हरिद्वार के हिन्दू सम्मेलन में पूज्य सन्तों व धर्माचार्यों ने मंदिर निर्माण हेतु कारसेवा की घोषणा कर दी। 30 अक्तूबर को मुख्यमंत्री मुलायम सिंह की गर्वोक्ति के बाद भी कारसेवकों ने गुम्बदों पर भगवा फहरा दिया। बौखला कर उसने 2 नवम्बर को गोली चलवा दी, जिसमें कई कारसेवक बलिदान हुए। इस नरसंहार से पूरा देश आक्रोशित हो उठा। मुलायम सिंह को हटना पड़ा। नये चुनाव में कल्याण सिंह के नेतृत्व में भाजपा ने सत्ता संभाली। हिन्दू मंदिर निर्माण की ओर क्रमशः आगे बढ़ रहे थे।
भूमि का समतलीकरण – प्रदेश शासन ने तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए विवादित स्थल के पास 2.77 एकड़ भूमि अधिग्रहित कर ली। उसे समतल करते समय अनेक खंडित मूर्तियां तथा मंदिर के अवशेष निकले।
1992 में कारसेवा - अक्तूबर, 1992 में दिल्ली में हुई ‘धर्म संसद’ में पूज्य धर्माचार्यों ने गीता जयन्ती (मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी, छह दिसम्बर, 1992) से फिर कारसेवा का निर्णय लिया। दीपावली पर अयोध्या से आई ‘श्रीराम ज्योति’ से घर-घर दीप जलाये गये।
प्रदेश शासन के अधिग्रहण को मुसलमानों द्वारा न्यायालय में दी गयी चुनौती की याचिका पर नवम्बर 1992 में सुनवाई पूरी हो गयी। दोनों हिन्दू न्यायमूर्तियों ने निर्णय लिख दिया; पर तीसरे श्री रजा ने इसके लिए 12 दिसम्बर, 1992 की तिथि घोषित की। इससे अयोध्या आये दो लाख कारसेवकों के आक्रोश से वह जर्जर बाबरी ढांचा धराशायी हो गया। इस प्रक्रिया में 1154 ई0 का वह शिलालेख भी मिला, जिस पर गहड़वाल राजाओं द्वारा मंदिर निर्माण की बात लिखी थी। कारसेवकों ने एक अस्थायी मंदिर निर्माण कर रामलला की पूजा प्रारम्भ कर दी।
केन्द्र शासन द्वारा हस्तक्षेप – अब केन्द्र सरकार की कुंभकर्णी निद्रा खुली। उसने 7 जनवरी, 1993 को विवादित क्षेत्र तथा उसके पास की 67 एकड़ भूमि अधिग्रहीत कर ली। इसी समय महामहिम राष्ट्रपति डा0 शंकरदयाल शर्मा ने सर्वोच्च न्यायालय से पूछा कि क्या 1528 से पूर्व वहां कोई हिन्दू मंदिर या भवन था ? सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रश्न प्रयाग उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ को सौंप दिया।
इधर केन्द्र के अधिग्रहण को इस्माइल फारुखी ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। इस पर बहस में शासन ने लिखित शपथ पत्र में कहा कि अंतिम निर्णय के बाद उस स्थान पर यदि हिन्दू मंदिर या भवन सिद्ध होगा, तो वह उसे हिन्दुओं को लौटाने को प्रतिबद्ध है। ऐसा न होने पर मुसलमानों की इच्छा का सम्मान किया जाएगा।
राडार सर्वेक्षण एवं उत्खनन - न्यायालय ने कहा कि यदि किसी मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनी है, तो उसके अवशेष धरती के नीचे अवश्य होंगे। उसके आदेश पर कनाडा के वैज्ञानिकों ने राडार सर्वेक्षण से भूमि के नीचे के चित्र लिये। प्राप्त चित्रों तथा इनकी पुष्टि के लिए हुए उत्खनन से वहां प्राचीन मंदिर था, यह सिद्ध हुआ। न्यायालय का 30 सितम्बर, 2010 का निर्णय इन प्रमाणों पर ही आधारित है।
वार्ताओं का क्रम – पूज्य सन्तों, विश्व हिन्दू परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की यह इच्छा थी कि भारतीय मुसलमान स्वयं को बाबर जैसे विदेशी आक्रामकों से न जोड़ें और प्रेम से वह स्थान हिन्दुओं को दे दें। गांधी जी ने भी अपने समाचार पत्र ‘नवजीवन’ में 27.7.1937 को यही कहा था। सब समझदार मुसलमान भी इस पक्ष में थे; पर बात नहीं बनी। अतः प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और फिर नरसिंह राव ने दोनों पक्षों को वार्ता के लिए बुलाया। वार्ता की असफलता से न्यायालय का मार्ग ही शेष बचा, जिसके निर्णय से सत्य की जीत हुई है।
चुनौती और संकल्प – आज भी प्रभु श्रीराम बांस और टाट के उस अस्थायी मंदिर में विराजित हैं। हर दिन हजारों भक्त उनके दर्शन करते हैं। हमारी मांग है कि सोमनाथ मंदिर की तरह ही संसद कानून बना कर श्रीराम जन्मभूमि हिन्दुओं को सौंपे, जिससे वहां भव्य मंदिर बन सके।
मंदिर निर्माण से राष्ट्र निर्माण - श्रीराम केवल हिन्दुओं के ही नहीं, भारतीय मुसलमान और ईसाइयों के भी पूर्वज हैं। भारत माता सबकी माता है। सब एक संस्कृति के उपासक और एक ही समाज के अंग हैं। न्यायालय का निर्णय मुसलमानों को अपनी भूमिका पर पुनर्विचार का अवसर देता है। मंदिर निर्माण में सब मत, पंथ और मजहब वालों के सहयोग से स्थायी सद्भाव का निर्माण होगा और देश तेजी से प्रगति करेगा। इससे भारत में रामराज्य की कल्पना साकार होगी, जो आज भी विश्व में आदर्श माना जाता है। आइये, श्रीराम जन्मभूमि मंदिर के निर्माण के लिए हम सब संकल्प लें। जय श्रीराम।
No comments:
Post a Comment