..तो न भ्रष्ट होगा राजा, न प्रजा
26 जनवरी को हिन्दुस्तान में गणतंत्र दिवस मनाया जाता है। सरल शब्दों में समझें तो यह वह दिन था जब आजाद हिन्दुस्तान के नागरिकों के लिए जीयो और जीने दो की मूल भावना से भरी ऐसी व्यवस्था लागू की गई, जिससे हर व्यक्ति देश, समाज, परिवार और व्यक्तिगत स्तर पर जिम्मेदार और कर्तव्यपरायण बन अपने स्वाभाविक अधिकारों के साथ जीवन बिता सके।
आजादी और जनतंत्र या गणतंत्र के लागू होने के लगभग छ: दशक में हिन्दुस्तान ने हर क्षेत्र में बुलंदियों, उपलब्धियों को पाया। लेकिन इतने गौरवशाली इतिहास के बावजूद इसी देश की जनता आज शासन में फैले भ्रष्ट और खामियों से भरी अव्यवस्थाओं से पीडि़त दिखाई देती है। भ्रष्ट आचरण, बेईमानी, अनैतिकता शासन तंत्र का हिस्सा बन चुकी है। जिनका जिम्मेदार एक-दूसरे को बताकर शासन में ऊंचे पदों पर बैठा व्यक्ति भी पल्ला झाड़ लेता है। ऐसे भ्रष्ट माहौल में यही सवाल उठता है कि आखिर कौन है असल जिम्मेदार ऐसी बुरी व्यवस्थाओं का? और कैसे इनसे बचकर बन सकता है सुखी समाज और राष्ट्र?
ऐसी समस्याओं का हल और सवालों का जवाब देते हैं - धर्मशास्त्र। खासतौर पर सनातन धर्म में बताया गया राजधर्म राजा के कर्तव्यों को बताता है। जिसका सच्चाई से पालन ही प्रजा के सुख-दु:ख नियत करते हैं। ये बातें आज की शासन व्यवस्था और सरकार के लिए भी अहम सबक है -
दुष्ट को दंड देना - शांत और तनावरहित राज्य और शासन के लिए सबसे अहम है - दण्ड देना। धर्म कहता है दुष्ट यानि बुरे कामों, आचरण और विचारों से दूसरों को कष्ट या असुविधा पैदा करने वाले व्यक्ति को दण्ड जरूर देना चाहिए। जिससे उसके साथ ही दूसरों तक भी दुराचरण न करने का संदेश जाए।
स्वजनों की पूजा करना - स्वजन यानि परिवार ही नहीं बल्कि सारी प्रजा के साथ सद्भाव और आत्मीयता का व्यवहार। उनकी स्वाभाविक और व्यावहारिक कमियों, असुविधाओं को दूर करने के साथ उनके गुण, प्रतिभा को निखारने में हरसंभव मदद करना एक राजा का परम कर्तव्य है।
न्याय से कोष बढ़ाना - किसी भी राज्य की मजबूत अर्थव्यवस्था उसकी ताकत होती है। लेकिन राजा के लिए यह जरूरी है यह आर्थिक प्रगति न्याय पर आधारित हो यानि खजाने में आया धन जनता के शोषण या निरंकुशता से इकट्ठा न करें, बल्कि धन ऐसा हो जो राज्य और प्रजा को प्रगति और उन्नति का कारण बने।
पक्षपात न करना - राज्य में रहने वाले किसी भी व्यक्ति के साथ जाति, वर्ण, धर्म या धन के आधार पर ऊँच-नीच का व्यवहार न हो। हर व्यक्ति को समान रूप से खान-पान, रहन-सहन या जीवन से जुड़ी सारी सुख-सुविधाओं का हक मिले। राजा के प्रजा के साथ मधुर संबंधों के लिए यह अहम बात है।
राष्ट्र की रक्षा करना - किसी भी राजा का सबसे बड़ा राजधर्म होता है कि वह राष्ट्र की बाहरी और आंतरिक खतरों से रक्षा करे। न कि मात्र शासन की बागडोर मिलने पर सुख-सुविधाओं में डूबकर स्वयं का हित साधे।
सार यही है कि सिंहासन पर बैठा राजा राज्य और प्रजा के सुख के लिए अपने प्राण भी देने पड़ें तो पीछे न रहे। साथ ही वह न नाइंसाफ करे, न अपने सामने किसी के साथ अन्याय होता देखे। ऐसा संकल्प ही राजा के साथ प्रजा के आचरण को भी पावन रखेगा।
आजादी और जनतंत्र या गणतंत्र के लागू होने के लगभग छ: दशक में हिन्दुस्तान ने हर क्षेत्र में बुलंदियों, उपलब्धियों को पाया। लेकिन इतने गौरवशाली इतिहास के बावजूद इसी देश की जनता आज शासन में फैले भ्रष्ट और खामियों से भरी अव्यवस्थाओं से पीडि़त दिखाई देती है। भ्रष्ट आचरण, बेईमानी, अनैतिकता शासन तंत्र का हिस्सा बन चुकी है। जिनका जिम्मेदार एक-दूसरे को बताकर शासन में ऊंचे पदों पर बैठा व्यक्ति भी पल्ला झाड़ लेता है। ऐसे भ्रष्ट माहौल में यही सवाल उठता है कि आखिर कौन है असल जिम्मेदार ऐसी बुरी व्यवस्थाओं का? और कैसे इनसे बचकर बन सकता है सुखी समाज और राष्ट्र?
ऐसी समस्याओं का हल और सवालों का जवाब देते हैं - धर्मशास्त्र। खासतौर पर सनातन धर्म में बताया गया राजधर्म राजा के कर्तव्यों को बताता है। जिसका सच्चाई से पालन ही प्रजा के सुख-दु:ख नियत करते हैं। ये बातें आज की शासन व्यवस्था और सरकार के लिए भी अहम सबक है -
दुष्ट को दंड देना - शांत और तनावरहित राज्य और शासन के लिए सबसे अहम है - दण्ड देना। धर्म कहता है दुष्ट यानि बुरे कामों, आचरण और विचारों से दूसरों को कष्ट या असुविधा पैदा करने वाले व्यक्ति को दण्ड जरूर देना चाहिए। जिससे उसके साथ ही दूसरों तक भी दुराचरण न करने का संदेश जाए।
स्वजनों की पूजा करना - स्वजन यानि परिवार ही नहीं बल्कि सारी प्रजा के साथ सद्भाव और आत्मीयता का व्यवहार। उनकी स्वाभाविक और व्यावहारिक कमियों, असुविधाओं को दूर करने के साथ उनके गुण, प्रतिभा को निखारने में हरसंभव मदद करना एक राजा का परम कर्तव्य है।
न्याय से कोष बढ़ाना - किसी भी राज्य की मजबूत अर्थव्यवस्था उसकी ताकत होती है। लेकिन राजा के लिए यह जरूरी है यह आर्थिक प्रगति न्याय पर आधारित हो यानि खजाने में आया धन जनता के शोषण या निरंकुशता से इकट्ठा न करें, बल्कि धन ऐसा हो जो राज्य और प्रजा को प्रगति और उन्नति का कारण बने।
पक्षपात न करना - राज्य में रहने वाले किसी भी व्यक्ति के साथ जाति, वर्ण, धर्म या धन के आधार पर ऊँच-नीच का व्यवहार न हो। हर व्यक्ति को समान रूप से खान-पान, रहन-सहन या जीवन से जुड़ी सारी सुख-सुविधाओं का हक मिले। राजा के प्रजा के साथ मधुर संबंधों के लिए यह अहम बात है।
राष्ट्र की रक्षा करना - किसी भी राजा का सबसे बड़ा राजधर्म होता है कि वह राष्ट्र की बाहरी और आंतरिक खतरों से रक्षा करे। न कि मात्र शासन की बागडोर मिलने पर सुख-सुविधाओं में डूबकर स्वयं का हित साधे।
सार यही है कि सिंहासन पर बैठा राजा राज्य और प्रजा के सुख के लिए अपने प्राण भी देने पड़ें तो पीछे न रहे। साथ ही वह न नाइंसाफ करे, न अपने सामने किसी के साथ अन्याय होता देखे। ऐसा संकल्प ही राजा के साथ प्रजा के आचरण को भी पावन रखेगा।
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