मनमोहन सरकार से है जवाबदेही नदारद
भ्रष्टाचार महंगाई से लेकर माओवाद जैसी समस्याओं से निपटने में सरकार पूरी तरह असफल
मओवाद देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गया है। माओवादियों ने छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में उसी स्थान पर कुछ सुरक्षा अधिकारियों समेत चालीस और लोगों की हत्या कर दी, जहां कुछ गांधीवादियों ने इससे पूर्व शंाति मार्च आयोजित किया था। मणिपुर कंे उत्तरवर्ती राज्य में नागाओं द्वारा आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति में अवरोध डाला जाना जारी है। छह माह मंे गेंहूं के दामों में बीस प्रतिशत की वृद्धि परिलक्षित हुई है। दो ट्रेनों की रवानगी के समय रेलवे अधिकारियों द्वारा प्लेटफॉर्म के बदलने के कारण मची भगदड़ में दो यात्री मारे गए। दाढ़ी वाले एक मौलवी को एक महिला यात्री द्वारा उसके आतंकवादी होने का संदेह व्यक्त करने पर पुलिस ने उसे एक दिन की न्यायिक हिरासत में रखा। ये सभी बातें एक के बाद एक कुछ ही दिनों में हुईं। जिनसे यह धारणा बनती है कि मनमोहन सरकार देश की समस्याओं को हल करने में पूरी तरह से समर्थ नहीं है। निसंदेह ये समस्याएं इस तथ्य को रेखांकित करती हैं कि मनमोहन सरकार से जवाबदेही पूरी तरह से नदारद है। उससे भी अधिक वे यह जाहिर करती हैं कि शासन में उदासीनता का भाव समाविष्ट हो गया है। यह स्थित सुव्यवस्थित प्रणाली की असफलता के कारण उतनी नहीं बनी है, जितनी की सरकार की छोटी से छोटी घटना से निपटने में अकुशलता के फलस्वरूप् बनी है। कारण सुस्पष्ट हैं कि प्रधानमंत्री जिन्हंें अमेरिकी राष्ट्राध्यक्ष बराक ओबामा ने आर्थिक मामलों में गुरू की संज्ञा दी है, वह आंतरिक मामलों में गहनता नहीं कर पाते, उनका ध्यान हर बात को पृष्ठभूमि में रखकर वस नौ प्रतिशत विकास पर ही केन्द्रित रहता है। इस बात पर भी उनकी मुख्य असफलता विशालतम चुनौती भ्रष्टाचार से निपटने में प्रतीत होती है। आज समाज के हर क्षेत्र में ही इसका बोलबाला है । यह तो समझ में आ ही जाता है कि प्रधानमंत्री को राजनीतिक बाध्यताओं को भी ध्यान में रखना होता है। उन्हें सत्ता में बने रहने के लिए साझा सरकार में शामिल भागीदारों के कदाचार अथवा तुच्छ बेईमानी की भी अपेक्षा करनी पड़ती है।
543 सदस्यीय लोकसभा में कांग्रेस के पास 206 सीटें ही हैं। संसद के गत अधिवेशन में सरकार के विरूद्ध कटौती प्रस्ताव केे दौरान हुए समझौंतों से भी यह स्पष्ट हो गया था, किंतु क्या कांग्रेस को फुलप्रूफ केसों में भी इस हद तक जाना चाहिए ? उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती, जिनके लोकसभा में 21 सदस्य हैं, ज्ञात साधनों से अधिक संपदा आदि के मामलों उन्हें अछूता सा छोड़ना प्रतीत होता है। टेली कम्यूनिकेशन मंत्री ए.राजा. हैं, इस दल की लोकसभा में 18 सीटें हैं । कथित मोबाईल बैंड घोटाले में राजकोष को 4000 करोड़ रूपए की चपत लगी बताई जाती है। सत्तारूढ़ कांग्रेस जो कर रही है, उसके नैतिक पक्ष की बात नहीं भी करें तो भी प्रधानमंत्री को सभी क्षेत्रों में पड़ रहे प्रभाव की ओर ध्यान आकृष्ट करना चाहिए। चाहे वह सार्वजनिक हो या निजी। भ्रष्टाचार को भारत में एक सामान्य जीवन विद्या मानने जैसी बात लग रही है।
उन्होंने इधर हाल ही में भ्रष्टाचार के विरूद्ध कोई बयान नहीं दिया । हालांकि सरकार में अब गिने -चुने ही ईमानदार अधिकारी रह गए हैं। यदि डॉ. मनमोहन सिंह लोकपाल की नियुक्ति के सुझाव पर भी आगे बढ़े होते, जिसे उच्च स्थानों पर भ्रष्टाचार के मामलों में पड़ताल का अधिकार होगा, तो ऐसा तो लगता ही है कि जो सत्तारूढ़ दल के अल्पमत मंे होने के कारण पड़ता है। लोकपाल की नियुक्ति कांग्रेस का चुनावी वादा भी है। वह केन्द्रीय जांच ब्यूरो द्वारा संग्रहित प्रमाणिक साक्ष्य पर तो दृष्टिगत करता । यह भी एक दयनीय सी ही स्थिति कही जा सकती है कि सीबीआई अभी भी सरकार के अपने विभागों में से एक के तुल्य है। जिसके कारण सीबीआई जो कुछ भी करती है, उस पर भरोसा नहीं हो पाता। सीधे संसद के प्रति जवाबदेह बनाने से विश्वसनीयता प्राप्त हो सकती है। इस स्थिति में सरकार द्वारा माओवादियों के विरूद्ध कार्यवाई में सरकार कहां तक आगे बढ़ी है ? प्रधानमंत्री ने सही तौर पर ही यह इंगित किया है कि वे देश के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं। उनकी हिंसक प्रवृत्ति और हत्या का यह सतत सिलसिला जिसमें वे लिप्त हैं । किंतु इस संघर्ष में उस लोकतांत्रिक स्थान में कमी नहीं होनी चाहिए, जो भारतीय संविधान ने सुनिश्चित किया है। जो मामलेे देश की अखंडता को चुनौती देते हैं, उनमें सरकार को आम राय बनानी चाहिए। जनमत को प्रभावित करने के लिए सभी राजनैतिक दल माओवादी प्रचार के विरूद्ध एकजुट हो सकते हैं। माओवादी हाशिए पर पड़े लोगों जिनमें भूमिहीन कृषक, आदिवासी वर्ग और दलित शामिल हैं के लिए आवाज उठाने का दावा जताते हैं। किंतु माओवादी, स्कूलों और पंचायत भवनों के विध्वंश, जबरन वसूली, दमन और हत्याओं समेत अनेक गंभीर अपराधों के लिए जिम्मेदार हैं। माओवादियों के विरूद्ध संघर्ष में यह बात महत्वपूर्ण है कि राज्यों का सक्रिय सहयोग हो। भारत जैसे विशाल आकार वाले देश का सुश्रेष्ठ शासन संचालन राष्ट्रीय नहीं अपितु स्थानीय तौर पर ही हो सकता है। राज्यों को ही इस अभियान के केन्द्र में होना होगा। यद्यपि वे हथियार और अपने कम प्रशिक्षित बलों के प्रशिक्षण हेतू केन्द्र पर निर्भर हैं। चिदंबरम कुछ इस तरह की धारणा को बल देते लगते हैं कि मानो वही एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जो देश में अफरा-तफरी और व्यवस्था के बीच खड़े हुए हैं। कुछ राज्यों का माओवादियों से निपटने का कुछ अलग ढंग हो सकता है और उन्हें सराहा जाना चाहिए। जहां तक नाकाबंदी का सवाल है मणिपुर का नईदिल्ली के समर्थन की दरकार है, क्योंकि राज्य उन ज्यादतियों से त्रस्त है जो वहां सुरक्षावलों ने की हैं। सरकार ने मणिपुर से सशस्त्र बल अधिनियम हटाने का वादा किया था,परंतु अभी तक ऐसा नहीं किया गया। नागाओं की ताकत है उनका सुसज्जित भूमिगत बल, जो केन्द्र के लिए भी समान रूप से सिरदर्द है। माओवादी क्या उनके ऐसे अन्यतत्व मतपेटी में राष्ट्र की आस्था को नहीं मिटा सकते ।
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