इस्लाम जिसको हम अमन, मोहब्बत और भाईचारे का धर्म मानते है, खुल्लमखुल्ला रक्तपात, हिँसा और व्यभिचार की ही शिक्षा देता है। इसमेँ कोई दो राय नहीँ।
जो लोग कहते हैँ कि हिन्दु, मुस्लिम और ईसाई मेँ कोई अन्तर नहीँ उनके लिये अल्लाह का स्पष्ट आदेश है -
और यहूद कहते हैँ उजैर अल्लाह के बेटे हैँ और ईसाई कहते हैँ कि मसीह अल्लाह के बेटे हैँ। यह उनके मुँह की बाते हैँ। उन्हीँ काफिरोँ जैसी बातेँ बनाने लगे, जो इनसे पहले के हैँ (हिन्दु, बौद्ध, जैन)। अल्लाह इनको गारत करे, किधर को भटके चले जा रहे हैँ? (सूरा तौबा 9, पारा 10, आयत 30 )
हुआ न स्पष्ट अंतर। इसके विपरीत हिन्दु कहता है ‘सर्वदेव नमस्कारं केशवं प्रति गच्छति’ अर्थात किसी भी देवता (अल्लाह, ईसा, मूसा, मार्क्स) को प्रणाम किया जाय, तो वह केवल केशव (विष्णु) को ही प्राप्त होगा, इनमेँ कोई अन्तर नहीँ।
अब इस्लाम को न मानने वाले काफिरोँ के साथ कैसा सलूक किया जाये इस बारे मेँ कुरआन का कहना है -
जिन मुशरिक़ोँ के साथ तुम (मुसलमानोँ) ने अहद (सुलह) कर रखा था, अल्लाह और उसके पैगम्बर की तरफ से उनको जबाव है -
(सूरा तौबा 9, पारा 10, आयत 1 )
तो चार महीने (जिकाद, जिलहिज्ज, मुहर्रम और रज्जब) मुल्क मेँ चल फिर लो, और जाने रहो कि तुम अल्लाह को हरा नहीँ सकोगे और अल्लाह काफिरोँ को जिल्लत देता है। (2)और हज्जे अकबर (बड़े हज) के दिन अल्लाह और उसके पैगम्बर की तरफ से लोगो को मुनादी की जाती है कि अल्लाह और उसका पैगम्बर मुशरिकोँ (हिन्दु, सिक्ख, यहूदी, ईसाई, बौद्ध, जैन, कम्यूनिष्ट) से अलग है।
( 2) अर्थात अल्लाह और उसका पैगम्बर सिर्फ और सिर्फ मुसलमान है।
हुआ न स्पष्ट अंतर -
पर अगर तुम तौबा करो (अर्थात मुसलमान हो जाओ) तो यह तुम्हारे लिये भला है, और अगर मुख मोड़ो (दीन इस्लाम से) तो जान रखो कि तुम अल्लाह को हरा नहीँ सकोगे, और काफिरोँ को दुखदाई सजा (वर्ल्ड ट्रेड सेँटर, मुम्बई, बामियान आदि) की खुशखबरी सुना दो।
(3) फिर जब अदब के महीने (जिकाद, जिलहिज्ज, मुहर्रम और रज्जब) बीत जायेँ तो उन मुशरिकोँ को जहाँ पाओ कत्ल करो, और उनको गिरफ्तार करो, उनको घेर लो, और हर घात की जगह उनकी ताक मे बैठो। फिर अगर वह लोग तौबा कर लेँ और नमाज कायम करेँ, और जकात दे तो उनका रास्ता छोड़ दो (क्योँकि तब वे मुसलमान हो जायेगेँ) बेशक अल्लाह माफ करने वाला बेहद मेहरबान है।स्पष्ट है कि अल्लाह किसी देश की सेना का मुखिया है, जो अपने सैनिकोँ (मुसलमानोँ) को अपने शत्रुओँ के विरुद्ध मार काट की शिक्षा देता है और तभी छोड़ता है, जब वे सेनापति के गुलाम बन जाते हैँ।
जो लोग कहते हैँ कि हिन्दु, मुस्लिम और ईसाई मेँ कोई अन्तर नहीँ उनके लिये अल्लाह का स्पष्ट आदेश है -
और यहूद कहते हैँ उजैर अल्लाह के बेटे हैँ और ईसाई कहते हैँ कि मसीह अल्लाह के बेटे हैँ। यह उनके मुँह की बाते हैँ। उन्हीँ काफिरोँ जैसी बातेँ बनाने लगे, जो इनसे पहले के हैँ (हिन्दु, बौद्ध, जैन)। अल्लाह इनको गारत करे, किधर को भटके चले जा रहे हैँ? (सूरा तौबा 9, पारा 10, आयत 30 )
हुआ न स्पष्ट अंतर। इसके विपरीत हिन्दु कहता है ‘सर्वदेव नमस्कारं केशवं प्रति गच्छति’ अर्थात किसी भी देवता (अल्लाह, ईसा, मूसा, मार्क्स) को प्रणाम किया जाय, तो वह केवल केशव (विष्णु) को ही प्राप्त होगा, इनमेँ कोई अन्तर नहीँ।
अब इस्लाम को न मानने वाले काफिरोँ के साथ कैसा सलूक किया जाये इस बारे मेँ कुरआन का कहना है -
जिन मुशरिक़ोँ के साथ तुम (मुसलमानोँ) ने अहद (सुलह) कर रखा था, अल्लाह और उसके पैगम्बर की तरफ से उनको जबाव है -
(सूरा तौबा 9, पारा 10, आयत 1 )
तो चार महीने (जिकाद, जिलहिज्ज, मुहर्रम और रज्जब) मुल्क मेँ चल फिर लो, और जाने रहो कि तुम अल्लाह को हरा नहीँ सकोगे और अल्लाह काफिरोँ को जिल्लत देता है। (2)और हज्जे अकबर (बड़े हज) के दिन अल्लाह और उसके पैगम्बर की तरफ से लोगो को मुनादी की जाती है कि अल्लाह और उसका पैगम्बर मुशरिकोँ (हिन्दु, सिक्ख, यहूदी, ईसाई, बौद्ध, जैन, कम्यूनिष्ट) से अलग है।
( 2) अर्थात अल्लाह और उसका पैगम्बर सिर्फ और सिर्फ मुसलमान है।
हुआ न स्पष्ट अंतर -
पर अगर तुम तौबा करो (अर्थात मुसलमान हो जाओ) तो यह तुम्हारे लिये भला है, और अगर मुख मोड़ो (दीन इस्लाम से) तो जान रखो कि तुम अल्लाह को हरा नहीँ सकोगे, और काफिरोँ को दुखदाई सजा (वर्ल्ड ट्रेड सेँटर, मुम्बई, बामियान आदि) की खुशखबरी सुना दो।
(3) फिर जब अदब के महीने (जिकाद, जिलहिज्ज, मुहर्रम और रज्जब) बीत जायेँ तो उन मुशरिकोँ को जहाँ पाओ कत्ल करो, और उनको गिरफ्तार करो, उनको घेर लो, और हर घात की जगह उनकी ताक मे बैठो। फिर अगर वह लोग तौबा कर लेँ और नमाज कायम करेँ, और जकात दे तो उनका रास्ता छोड़ दो (क्योँकि तब वे मुसलमान हो जायेगेँ) बेशक अल्लाह माफ करने वाला बेहद मेहरबान है।स्पष्ट है कि अल्लाह किसी देश की सेना का मुखिया है, जो अपने सैनिकोँ (मुसलमानोँ) को अपने शत्रुओँ के विरुद्ध मार काट की शिक्षा देता है और तभी छोड़ता है, जब वे सेनापति के गुलाम बन जाते हैँ।
क्योँ गाँधी कुरआन नहीँ पढ़ी क्या?
और इकबाल क्या यही है, मजहब नहीँ सिखाता आपस मेँ बैर रखना।
हिन्दू एक धर्म तथा आचार पद्धति है तथा इस्लाम मात्र एक राजनैतिक विचारधारा मैं चाहता हूँ की इस पर एक स्वस्थ बहस की परम्परा प्रारम्भ हो और सत्य को सार्थक रूप से स्वीकार करने हेतु पत्रकारिता सन्नद्ध रहे|
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